आलोचना - आलोचक दूधनाथ ... आत्मीयता का सौन्दर्यशास्त्र - उमाशंकर सिंह परमार

किसान आन्दोलन से जुड़ाव, जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश का राज्य उप सचिव विधा : आलोचना, कभी कभार कविता पुस्तक : प्रतिपक्ष का पक्ष, सुधीर सक्सेना-प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य, समय के बीजशब्द, पाठक का रोजनामचा, कविता पथ, सहमति के पक्ष में (प्रकाशकाधीन) हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में आलेखों का प्रकाशन।


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साठोत्तरी  कहानी के दिग्गज कथाकार दूधनाथ सिंह एक ऐसा व्यक्तित्व है। जिसने लगभग हर एक विधा पर लिखा है। जिस विधा में लिखा वही रचना उस विधा में कालजयी हो गई। उनकी आलोचनात्मक कृति 'निराला आत्महन्ता आस्था' प्रगतिशील आलोचना की सर्वोत्तम कृतियों में शुमार है तो उनकी द्वितीय आलोचनात्मक कृति ‘मुक्तिबोध, साहित्य की नयी प्रवृत्तियाँ' ने निराला आत्महन्ता आस्था पढ़ चुके पाठकों का ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित किया है। मुक्तिबोध की इस आलोचना को उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के सहयोग से उन्होंने तैयार की हैं। इसके अतिरिक्त महादेवी वर्मा पर उनकी कृति ‘महादेवी वर्मा के अलावा सुमित्रानन्दन पन्त की कविताओं पर आलोचना जो तारापथ की भूमिका के रूप से प्रकाशित है, वह भी किसी कालजयी आलोचनात्मक कृति से कमतर नही है। दूधनाथ सिंह मौलिक रूप में कथाकार हैं लेकिन आलोचना पर उनका प्रदेय मौलिक एवं ऐतिहासिक है। विशेषकर निराला की आत्महन्ता आस्था की तुलना व महत्ता रामविलास शर्मा की साहित्य साधना से स्थापित की जाती है। मुक्तिबोध पर उनका आलोचनात्मक कृत्य मुक्तिबोध के सम्बन्ध में सर्वथा नई दृष्टि और नए विजन का संकेत करता है। मुक्तिबोध पर लिखी गई अब तक समीक्षाओं व दृष्टि को अधूरा करती हुई उनकी यह किताब एक नए पाठ की प्रस्तावना प्रस्तुत करती है। तारापथ की भूमिका से ही दूधनाथ सिंह के समीक्षा औजारों का स्थाई पता चल जाता है, वे किसी भी कवि की कविताओं पर पाठक को ले जाने के पूर्व आलोचना मापदंडों में जो तोड़फोड़ करते हैं वह सबसे महत्वपूर्ण औजार होता है। वैसे तोड़फोड़ उनकी रचनात्मक शैली है, विधाओं की सीमा का अतिक्रमण उनकी नई स्थापनाओंका आधार है। चाहे कथा हो चाहे कविता हो या नाटक हो या आलोचना जिस भी विधा पर उनकी कलम चली। वहीं पर उन्होंने अतिक्रमण किया है। विधागत बन्धनों से मुक्ति के कारण ही दूधनाथ की व्यापक समीक्षाएं नहीं हो सकी हैं क्योंकि परम्परा से हिन्दी आलोचना ने अपना एक रीतिशास्त्र गढ लिया है। किसी भी विधा का एक समीक्षात्मक खाका होता है। उस खाके की सीमा रेखा का अतिलंघन करने का साहस किसी लेखक ने नहीं दिखाया ना ही किसी आलोचक ने खाके को भंग कर कृतियों के भीतर पहुँचने की जहमत उठाई है। दूधनाथ सिंह में मूल्यांकन की यही समस्या है। जब तक आलोचकीय खाके को नहीं तोड़ा जाएगा तब तक उनके प्रदेयों का पुनर्पाठ बेहद कठिन है। तारापथ की भूमिका में दूधनाथ सिंह कवि के वैचारिक सरोकारों व अपनी वैचारिक अवस्थितियों को नहीं थोपते न ही वैचारिक अन्तर्विरोधों को अधिक तरजीह देते हैं। वे सीधे पाठक से बात करते हैं और पाठक से संवाद करते-करते कविताओं के मर्म तक जाकर पाठक को कवि की अन्दरूनी अवस्थितियों से रूबरू करा देते हैं। एक आलोचक किसी कवि से पाठक को कैसे जोड़ता है? वह पाठक से कवि का कैसे सम्वाद कराता है। वह पाठक और लेखक के बीच उपस्थित रहकर भी कैसे अनुपस्थित होता है। तारापथ की भूमिका में देखा जा सकता। की भूमिका में देखा जा सकता। है। यह उनकी अपनी शैली है जो आलोचनात्मक शुष्कता से अलग हटकर सरसता, संवादमयता से युक्त हो जाती है। ये गुण संस्मरण के हैं जिसमे लेखक बिम्ब सृजित करता है और बिम्बों का संवेदन पाठक को लेखक से जोड़ देता है। दूधनाथ सिंह आलोचना में बिम्ब तैयार कर देते हैं। यह एक प्रकार का अतिक्रमण ही कहा जाएगा। इस अतिक्रमण को मैं विधागत तोड़फोड़ कहता हूँ जो दूधनाथ की हर कृति में विद्यमान है।


       समकालीन हिन्दी में संजीदा आलोचक के रूप में ख्यात दूधनाथ सिंह मुक्तिबोध के सजग आलोचक के रूप में सामने आए हैं। मुक्तिबोध की आलोचना के अपने रचनात्मक खतरे रहे हैं। मुक्तिबोध की कविता का मूल्यांकन सहज भी है और कठिन भी है। वे किसी पाठक के लिए तभी सहज हो सकते हैं जब उनके समस्त कृतित्व का अध्ययन कर उनके शिल्प और वैचारिक पक्षधरता का अनुगमन किया जाए न कि एक कविता के सहारे उनकी समूची काव्य प्रक्रिया का अन्धा अनुमान किया जाए। मुक्तिबोध पर बहुत सी समीक्षाएं लिखी गईं। सभी समीक्षाएं और अभिमत अपने युगबोध व आलोचकीय मन्तव्यों के अनुकूल भी रहीं। युग बदला, तेवर बदला, भाषा ने भी नया रूप ग्रहण कर अपनी सक्रियता बढ़ाई है। आजादी के बाद का लोकतंत्र और उसमें प्रभावी पूँजीवाद ने मुक्तिबोध जैसे कवि को गढ़ा तो आज वह पूँजीवाद आवारा पूँजी में तब्दील होकर बाजारवाद का स्वरूप धारण कर चुका है। न तो सामाजिक और राजनैतिक खतरे कम हुए न आम आदमी की यन्त्रणाएं कम हुई हैं। लेकिन कविता के आलोचनात्मक मूल्यों एवं प्रक्रिया में जरूर तब्दीली आ गई है। इस बदले हुए काव्य समय में एक बार मुक्तिबोध फिर से प्रासंगिक हो गए हैं। इधर कुछ वर्षों से उनकी कविताओं पर नए-नए पाठों की भरभार हो गई है। उनकी जन्मतिथि और देहावसान की तिथि के बहाने मुक्तिबोध के पुनर्मूल्यांकन पर सक्रियता बढ़ी है। एकेडेमिक गतिविधियों के केन्द्र में पुनः मुक्तिबोध आ गए हैं। यह सक्रियता भले ही नए पाठ को प्रेरित कर रही हो मगर इस कालजयी रचनाकार की आलोचना में रचनात्मक खतरे कतई कम नहीं हुए है। अभी तक वही पद्धति चल रही है जिसे अस्मिता से जोड़कर किसी खोज से बाँध दिया जाता है। इन रचनात्मक खतरों का एक ही हल है कि मुक्तिबोध की कविता का पाठ तभी किया जाए। जब उनकी गद्य कृतियों का पाठ कर लिया जाए। गद्य के उपरान्त कर लिया जाए। गद्य के उपरान्त कविता का पाठ बहुत हद तक मुक्तिबोध की समझ को व उनके काव्य मर्म को स्पष्ट कर देता है। दूधनाथ सिंह ने सबसे पहले मुक्तिबोध के गद्य का पाठ प्रस्तुत किया। गद्य के निकषों का विवेचन करते हुए वे मुक्तिबोध की कविताओं पर प्रक्षेपण करते हैं। मुक्तिबोध की अब तक की समीक्षाओं से इतर नया पाठ प्रस्तुत करते हुए वे 'अन्धेरे में' कविता पर ही अपनी नजर नहीं डालते अपितु मुक्तिबोध की उन कविताओं पर भी गौर फरमाते हैं जो अपेक्षाकृत कम चर्चित रही हैं। उनका पहला प्रहार उस भ्रम के खंडन में होता है जो मुक्तिबोध के सम्बन्ध में प्रयोगवादी और नई कविता आन्दोलन ने पैदा किया था। इस सम्बन्ध में अज्ञेय का एक अभिमत था ‘‘वह एक खरे और तेजस्वी चिन्तक रहे हैं। उनमे बराबर सही ढंग से सोचने की झटपटाहट दिखती है लेकिन अन्त तक वो समर्थ कवि नहीं बन पाए उनकी एकाध को छोड़कर कोई भी पूरी कविता नहीं हुई। इस अभिमत का दूधनाथ जोरदार खंडन करते हैं। यह   खंडन तर्कतः पूर्ण और मुक्तिबोध के चिन्तन के अनुकूल है। अज्ञेय प्रयोगधर्मी थे, मुक्तिबोध जनवादी वामपंथी थे। उनके वैचारिक एवं काव्यात्मक सरोकारों को समझना व उस समझ के आधार पर कोई सुधडा मत स्थापित करना अज्ञेय जैसे कवि संपादक नहीं कर सकते थे। दूधनाथ सिंह लिखते हैं “मुक्तिबोध की कविताई के बारे में यह गलत वक्तव्य है। कविता के जो मान अज्ञेय तैयार करते हैं, उनके आधार पर भी यह कथन अनुचित और अतिरेक का शिकार है। उनका खुरा चिन्तन और सामाजिक चिन्ता ही। मुक्तिबोध को समर्थ कवि और हिन्दी कविता के इतिहास में अलग तरह का कवि बनाती है'' इस खंडन के उपरान्त वे मुक्तिबोध की विचारधारा का स्पष्टीकरण देते है। आलोचक का पहला दायित्व होता है कि वे पहले कवि की कविताओं में परिव्याप्त विचारधारा का अन्वेषण करे। दूधनाथ सिंह मुक्तिबोध को आरम्भ से ही वाम स्वीकार करते हैं और उनकी रचना प्रक्रिया का निर्धारण भी करते हैं। तार सप्तक में छपी कविता पूँजीवादी समाज में छपी कविता पूँजीवादी समाज के प्रति का हवाला देते हुए वे लिखते हैं “यह एक ऐसी कविता है जिसकी झंकृति उनके काव्य विकास में अन्त तक बनी रही।'' अन्त तक बने रहने का परिणाम है। कि कामायनी पर उन्होंने महत्वपूर्ण समीक्षा लिखी जो आज भी प्रगतिशील आलोचना का एक मानक निर्धारित करती है। दूधनाथ सिंह कभी भी एकांगी समीक्षा नहीं करते हैं। उनका दृष्टिकोण कवि के समग्र पर रहता है। समग्रता पर ही उनका नजरिया निर्धारित होता है। वह गद्य और पद्य महत्वपूर्ण और गैर महत्वपूर्ण सभी प्रकार की रचनाओं पर अपनी बेबाक राय देते हैं। जिनके लिए मुक्तिबोध की छवि राजनैतिक और प्रतिरोधी कवि के रूप में है, वे उनकी अन्य कविताओं को अनदेखा करते है। जैसा मैंने बताया कि दूधनाथ तोड़फोड़ के लेखक हैं। उनका कोई निश्चित फार्मूला नहीं है। वह किसी फार्मूले व चले आ रहे जड़ रीतिवाद का पुरजोर विरोध करते हैं। यही बात दूधनाथ सिंह को अन्य से पृथक् कर देती है। वे मुक्तिबोध की प्रेम और प्रकृति सम्बन्धी कविताओं का भी विवेचन करते हैं। उनकी लम्बी कविता मालव निर्झर की झर झर कंचन रेखा और अन्य प्रेम कविताओं का विवेचन करते हुए कहते हैं, “मुक्तिबोध केवल वैचारिक श्रृंखला के चितेरे ही नहीं प्रेमानुभव के भी कवि हैं, हालांकि कविताओं के इस ढेर में ऐसी कविताएं बहुत कम हैं और सामान्य तौर पर उतनी महत्वपूर्ण भी नही है।'' प्रेम और प्रकृति के लगाव को मुक्तिबोध में खोजने वाले वे शायद पहले आलोचक हैं। ऐसी कविताएं कम हैं, वे इस बात को भी स्वीकार करते हैं। अक्सर अन्धेरे में कविता की लोकप्रियता व महत्ता के आगे आलोचक उनकी अन्य कविताओं की उपेक्षा करते है जिसके कारण मुक्तिबोध पर वही मूल्य प्रभावी कर दिए जाते है जो इस कविता से निसृत होते हैं। कम महत्वपूर्ण कविताओं पर अध्ययन न होने से ही आज तक मुक्तिबोध का समूचा व प्रामाणिक पाठ नहीं हो पाया है। दूधनाथ सिंह अपनी किताब ‘मुक्तिबोध साहित्य की नयी प्रवृत्तियां' में इस गलती को नहीं दोहराते हैं।


        मुक्तिबोध के सन्दर्भ में दूधनाथ सिंह उनकी उन कविताओं पर अधिक ध्यान रमाते हैं जिनकी चर्चा करने से आलोचक बचते रहे हैं। ऐसी कविताओं में जमाने का चेहरा, अन्तः करण का आयतन, भूल गलती, दिमागी गुहा अन्धकार का औरांग ऊटांग, काव्यात्मन फणिधर, ब्रह्मराक्षस, एक अरूप शन्य के प्रति लकडी का रावण चम्बल की घाटी आदि हैं। इन कविताओं को पाठक अरसे से पढते आए हैं और आलोचक उद्धरणों में प्रयोग करते आए हैं मगर विश्लेषण द्वारा मुक्तिबोध के अन्दरूनी मनोविज्ञान व आत्म संघर्ष को व्यक्त करने का जोखिम बहुत कम उठा पाए हैं। मुक्तिबोध के रचनात्मक सरोकारों की खोज में दूधनाथ सिंह पुरातन स्थापनाओं से हटकर स्थापनाएं करते हैं। वे मुक्तिबोध की समकालीनता को लेकर एक नई बात कहते हैं। वह नई बात मुक्तिबोध के सन्दर्भ में एकदम सटीक है। वे कहते हैं कि हिन्दी कविता में सभी कवियों का एक आधार होता है पर मुक्तिबोध के लिए कोई आधार नहीं है। वे न तो किसी पूर्वस्थापित परम्परा का अनुसरण करते हैं न किसी परम्परा को आगे ले जाते हुए देखते हैं। वे सर्वथा अपनी तरह के कवि थे। दूधनाथ सिंह जिस आत्मीयता व संवेदनात्मक तर्कों के साथ मुक्तिबोध की कविताओं का विश्लेषण करते हैं, उनके कथ्य को युग के खतरों से जोड़ते हैं, उस शैली में पाठक मोहित हो जाता है और उनकी आलोचना भी आलोचनात्मक प्रतिमानों के


         


                        चार यार : काशीनाथ सिंह, ज्ञान रंजन, दूधनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया


दायरे को तोड़ती हुई प्रतीत होने लगती है। जैसे अन्धेरे में कविता का नया पाठ करते हुए कविता की प्रतीकात्मक बुनावट द्वारा नए अर्थ की अलग हटकर खोज करते हैं। वे अन्धेरे में की खोज को ‘‘एक रक्तलोक स्नात पुरुष'' की खोज की कविता कहते हैं। रक्तलीक स्नात पुरुष की व्याख्या उन्होंने भारतीय सामाजिक और राजनैतिक जीवन के अनतर्विरोधों में छटपटाते व्यक्ति के रूप में की है। यह विवेचन नामवर सिंह के विवेचन से सर्वथा अलग है। यह सभी पूर्ववर्ती विवेचनों से अलग स्पष्ट और मूर्त है। अपनी इस किताब में दूधनाथ सिंह मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष का सटीक विवेचन करते हैं। उनके इस विवेचन काआधार पक्षधरता है। अर्थात मुक्तिबोध के इस कथन ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?'' को आधार बनाकर उनके आत्मसंघर्ष का आशय स्पष्ट करते हैं और मुक्तिबोध के इस विश्लेषण में वे उनके काव्येतर साहित्य का भी प्रसंगतः प्रयोग करते हैं। यह एक प्रकार का सामूहिक विश्लेषण है जिसमें गद्य साहित्य व पद्य साहित्य की बराबर आवाजाही है। यह इसलिए कि मुक्तिबोध का गद्य हीउनकी रचनात्मक प्रक्रिया समझने का सूत्र देता है और यह क्रिया सामूहिकता, तार्किकता, प्रभावपरकता को बरकरार रखने के साथ-साथ आलोचना को भी नया व प्रामाणिक बनाता है। उदाहरण के तौर पर मुक्तिबोध की फैन्टेसी विवेचन के दौरान समझौता पक्षी और दीमक, क्लाड ईथरली, और काठ का सपना जैसी कहानियों का हवाला देना। वे महज हवाला भर नहीं देते है अपितु उनकी निर्वैयक्तिकता आत्मपरकता, ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदानात्मक ज्ञान का मूलाधार भी इन कहानियों को बताते हैं। अब तक की परम्परा में कामायनी एक पुनर्विचार को ही उनकी काव्य निर्मिति का आधार बनाया जाता था लेकिन दूधनाथ सिंह ने इस धारणा को तोड़ा और प्रमाणित करके दिखाया कि मुक्तिबोध की कहानियों से भी फैन्टेसी के सूत्र खोजे जा सकते हैं। दूधनाथ सिंह के अपने इस अध्ययन में एक सौ चवालिस पेजों में बारह अध्याय हैं। इन सभी अध्यायों में वे गद्य और पद्य को देखते चलते हैं, साथ ही अन्यत्र प्रकाशित मुक्तिबोध के कथनों, कहानियों आदि की भी सहायता लेते हैं। वे किसी एक फार्मेट को सर्वथा अस्वीकार करते हैं, इसीलिए वे मुक्तिबोध का समग्रता से मूल्यांकन करने में बेतरह सफल होते हैं। मुक्तिबोध की आलोचना में दूधनाथ सिंह किसी सफल होते हैं।


      मुक्तिबोध की आलोचना में दूधनाथ सिंह किसी भी स्थल पर पेशेवर आलोचक के रूप में नहीं आते हैं,  भाषा और तर्क दोनो स्तरों में आत्मीय बने रहते हैं। उनकी आलोचना की प्रमुख शैली आत्मीयता है जिसके कारण वे पाठक को सीधे कवि से संवाद कराने में सफल हो जाते हैं। एक आलोचक पाठक को कवि की कविताओं के गहरे आवर्ती में कैसे उतारता है, ‘दूधनाथ सिंह की निराला आत्महन्ता आस्था से समझा जा सकता है। इस कृति का प्रकाशन १९७२ में हुआ था। निराला की कविताओं को उनके युग और व्यक्तित्व से जोड़कर देखने की यह पहली अनूठी और लोकप्रिय किताब है। उपन्यास, संस्मरण नाटकीयता जैसे संवादी अभिकथन, निजता, आलोचना की सैद्धांतिकता का यह संगम है। किसी भी विधा के मानक से इस पुस्तक की आलोचना कर लीजिए, वही इसमें प्राप्त हो जाएगा। दूधनाथ सिंह ने इसकी भूमिका में इसे निजी नोटबुक कहा है। नोटबुक आलोचना नहीं होती है। उसमें आत्मीयता से युक्त मन्तव्यपूर्ण । आत्मीयता से युक्त मन्तव्यपूर्ण । तथ्य होते हैं, भले ही यह किताब डायरी विधा के मानकों पर खरी नहीं उतरती है पर लेखकीय शैली । डायरी की ही है। कालविभाजन व तिथिगत विभाजन की बातें व घटनात्मक तारतम्यता छोड़ दी जाए तो यह डायरी से कम आत्मीय नहीं है। यह किताब ‘‘एक लेखक की निजी नोटबुक में दूसरा लेखक है'' लेखक उन्हीं नोट्स का रूपान्तरण कहता है। डायरी लेखक के निजी आनन्द का रुपान्तरण होता है पर इसमें लेखक के तार्किक दिमाग की रससिद्धि है। उसके सधे हुए आलोचक की अभिव्यक्ति है, मूल्यांकन का स्थापनापरक आख्यान है। यह निराला का प्रशस्ति वाचन नहीं है, अध्ययन के लिए आलोचक विनिर्मित पाठकीय द्वार है। इसे डायरी कह देने से दूधनाथ सिंह आलोचकीय खतरों से खुद को बचा लेते हैं और शास्त्रीयता के गम्भीरता पूर्ण समावेश को बरकरार रखते हुए समस्त नकारात्मक पाठकीय प्रभावों की जिम्मेदारी भी खुद उठा लेते हैं। इस पुस्तक को पढ़ने से ज्ञात होता है कि दूधनाथ सिंह ने अपनी किस्सागोई शैली का आलोचना में बड़ा खुबसूरत घालमेल किया है। इसे हम विधागत तोड़फोड़ भी कह सकते हैं। इस घालमेल का यह परिणाम हुआ कि उनके अध्ययन व अध्यापन की विस्तीर्णता और फैलाव का पता पाठक को आसानी से हो जाता है। पुस्तक का शीर्षक किसी को भी भ्रम में डाल सकता है। आलोचक इस तथ्य को भली प्रकार जानता है, इसलिए वे आरम्भ में ही शीर्षक की सार्थकता का सवाल खड़ा देते हैं और उसका जवाब देते हुए ‘‘आत्महन्ता आस्था'' शीर्षक की सिद्धि करते हैं, वे लिखते हैं “कला और कविता के प्रति पूरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर घनी सुनहरी अयालों वाला सिंह होता है। जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंह वृत्ति के कारण वह कभी भी इस खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है। इस तरह यह एकान्त समर्पण एक प्रकार का आत्मभोज होता है। कला रचना के प्रति यह अनन्त आस्था एक प्रकार के आत्महनन का पर्याय होती है जो जितना अपने को खाता है, वह बाहर उतना ही रचता है'' (आत्महन्ता आस्था पृष्ठ १४)। यह सच है, कोई भी रचना हो लेखकीय व्यक्तित्व का विस्तार है। शीर्षक सिद्ध करते समय दूधनाथ सिंह ने साहित्य के मौलिक रेखांकन का तार्किक अभिमत भी कह दिया है। यदि रचना से लेखकीय व्यक्तित्व व उसके जीवन द्वन्द्वों, परिवेश को अलग किया जाएगा तो रचना को समझना बेहद कठिन है । जितने भी बड़े कवि लेखक हैं, उनकी रचनाएं उनके जीवन से ग्रथित रही हैं। निराला का जीवन संघर्षों और विरोधों से भरा था। जिस कवि का जीवन विरोधों से युक्त रहा हो, जिन विरोधों से वह अपनी रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करता रहा हो, उसे सिंह वृत्ति से जोड़ना आलोचकीय इमानदारी और लेखकीय प्रेम की भावुकता है जिसे दूधनाथ सिंह ने अपनी कृति में अभिव्यक्त किया है। निराला ने खुद स्वीकार किया है ‘‘जनता के ह्रदय जिया / जीवन विष विषम पिया / धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध / धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध''। कवि के जीवन का यह विरोध उसके संवेदनात्मक ताप को लगातार बढ़ाता ही गया है और यही ताप उनकी रचनात्मक ऊर्जा का आधार बना। जीवन के लिए जीवन को जीना कवि के सामाजिक सरोकारों की पुष्टि करता है। यदि इन सरोकारों की पुष्टि में विरोध न होते तो कवि निराला, निराला नहीं कहलाते। आलोचक ने यदि सिंह वृत्ति से निराला को जोड़ा है तो यह समझ निराला के जीवन की गहन संवेदनायुक्त समझ है। इसके बाद दूधनाथ सिंह निराला की आलोचना के खतरों को रेखांकित करते हैं। जिस तरह से उन्होंने मुक्तिबोध, पन्त और महादेवी वर्मा को समग्रता से देखने की कोशिश की है, उसी तरह उन्होंने निराला को भी समग्रता से देखने की सिफारिश की है। उनका कहना है कि निराला की रचनाओं का मूल्यांकन उनके रचना समय के आधार पर करना गलत है क्योंकि वे विद्रोही कवि है और विद्रोह पूरे जीवन भर रहा। विरोध और दंश उन्होंने आजीवन झेला, इसलिए उनकी कविताओं पर समय नहीं उनका व्यक्तित्व व चेतना प्रभावी है। एक जगह वे कहते हैं, “निराला का जगह वे कहते हैं, “निराला का काव्य व्यक्तित्व इतना विराट् गहन गम्भीर और ऐसा कुछ सीमाहीन लगता है जिसके अन्दर बाहरी विचार और सिद्धांत और अध्ययन रेखाएं तिरोहित हो जाती हैं और फिर जो भी कुछ बचकर आता है, वह सिर्फ निराला होते हैं। सामयिकता उनके व्यक्तित्व में घुलकर निजी और मौलिक रूप धारण करती है। रचना प्रक्रिया के ये कई कई आवर्त लगातार हर समय उनके काव्य व्यक्तित्व को आन्दोलित करते रहते हैं। इसलिए काल क्रम के आधार पर एक ही समय के आस-पास रची गईं इन भिन्न भिन्न ढंग की कविताओं में कोई तारतम्य या संगति बैठाना विचित्र सा लगता है।'' (आत्महन्ता आस्था पृष्ठ १६) दूधनाथ सिंह की यह आलोचना प्रक्रिया कवि और कविता को एकाकार कर देती है जिसमे कविता और कवि का व्यक्तिव एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं। आलोचना से व्यक्तित्व परिवेश और द्वन्द्व को बहिष्कृत करने का जुमला उत्तर आधुनिकता और न्यू क्रिटिसिज्म का फार्मूला है। इस धारा के आलोचक विचारधारा युगबोध और इतिहास को कृति से अलग करके कृति की स्वतन्त्रता के पोषक हैं। चूंकि दूधनाथ सिंह। वामपक्षधर लेखक रहे हैं, इसलिए उन्होंने निराला के सन्दर्भ में कवि और कविता के व्यक्तित्व को जोड़ा व कवि के अनुभव, पीड़ाएं, सम्वेदनाएं, द्वन्द्व, को रचनात्मक आधार मानकर एक बार पुनः वाम लोकधर्मी आलोचना की पुष्टि की है। यह कृति १९७२ में प्रकाशित हुई थी। उस समय प्रयोगवादी कलावाद और मनोविज्ञानवाद का बोलबाला था। वाम प्रगतिशील कविता और समीक्षा सब कुछ हाशिए में था ऐसे खतरनाक समय में तार्किक ढंग से पुनः जनवादी मूल्यों की स्थापना करना उनका बड़ा अवदान है।


         निराला के सन्दर्भ में उनके जीवन और व्यक्तित्व को नहीं उपेक्षित किया जा सकता है। आलोचक ने निराला की कविताओं का सही सूत्र खोजा है। दूधनाथ सिंह लिखते हैं। “निराला की रचनात्मकता का श्रेष्ठ प्रतिफलन (गद्य और पद्य) अपने निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति में हुआ है। यह एक प्रकार का सघनतम आत्म साक्षात्कार है। कविता या रचना को अपने निजी जीवन में घुला देने का सफल प्रयास'' (आत्महन्ता आस्था पृष्ठ २), समूची पुस्तक में यही दृष्टि गूंजती रहती है। निराला के गद्य और पद्य पर वे बड़ी तार्किकता के साथ ! जीवन का आत्मसाक्षात्कार खोज लेते हैं। ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो हम निराला का जीवन पढ़ रहे हैं न कि उनकी कविता पढ़ रहे है और आलोचक उनकी कविता का मर्म नहीं समझा रहा बल्कि जीवन का मर्म समझा रहा है। किसी भी कवि के जीवनानुभव में जितना अधिक सामाजिक जीवन अनुभव ग्रथित होगा, वह कविता उतनी ही बेहतरीन होगी और कालजयी होगी। छायावाद के अधिकांश आलोचकों ने निराला की कविताओं में रोमानी राष्ट्रवाद के स्वरों को सुना लेकिन दूधनाथ सिंह ने समूची धारणा को बदलकर उसे जीवन का स्वर बना डाला। निराला : आत्महन्ता आस्था को दूधनाथ सिंह अध्यायों में विभक्त करते है। ये अध्याय कलात्मक या विषयपरक न होकर उनकी चिन्ता व जीवन की वैविध्यपूर्ण अवस्थितियों के अनुकूल हैं। जैसे सही अध्ययन दृष्टि स्थापना, अन्तः संगीत, लम्बी कथात्मक कविताएं, काव्य अभिजात्य से मुक्ति, ऋतु प्रार्थनाएं, प्रपत्तिभाव, आदि। इन अध्यायों के शीर्षक कुछ भी हों लेकिन समूचे विश्लेषण में आत्मसाक्षात्कार का स्वर ही प्रमुख रूप से विद्यमान है, जैसे उनकी लम्बी कविताओं का विश्लेषण देखा जा सकता है। उन्होंने राम की शक्तिपूजा और तुलसीदास दोनों कविताओं की एकदम नई व्याख्या  की है। राम की शक्तिपूजा पर दूधनाथ सिंह कहते हैं, “निराला की इन लम्बी कविताओं में भी आत्म साक्षात्कार ही प्रमुख है। ये कविताएं मूलतः आत्मचरितात्मक ही हैं।'' (आत्महन्ता आस्था पृष्ठ ११६) हालांकि इस कविता में राष्ट्रीयता का स्वर माना गया है लेकिन निराला भी उस राष्ट्र के नागरिक है जिसके स्वर की बात की जाती है। जब राष्ट्र पीड़ित होगा तो नागरिक भी पीड़ित होगा। नागरिक को हम उसके देशकाल से पृथक नही कर सकते हैं। ऐसे खतरनाक समय में कवि द्वारा अपनी रचनात्मक विजय की घोषणा करना ही इसका आत्मचरितात्मक चरित्र है। दूधनाथ सिंह ने इस कविता को रामकथा से हटकर व महाकाव्य के परम्परागत ढाँचे से अलग हटकर विश्लेषण किया है और इसे निराला के आत्मसाक्षात्कार से जोड़ते हुए युग बोध का रहस्य उदघाटित किया है। इसी तरह निराला की दूसरी लम्बी कविता “तुलसीदास'' लम्बी कविता “तुलसीदास'' का भी वो विवेचन करते हैं। इस कविता को भी वे निराला के आत्मसंघर्ष से जोड़ते हैं। उनके । इनके अनुसार तुलसीदास लम्बी कविता में तुलसी के व्यक्तित्व के माध्यम से निराला ने अपने ही रचनात्मक * आयामों की चिन्ता का उद्घाटन दधनाथ किया है। लेकिन यह भी स्वीकार । करते हैं कि इस कविता की मुख्य चिन्ता भारत के सांस्कृतिक संकटों को लेकर है जिसके लिए तुलसी जैसा कवि चिन्तित है। ये तुलसी की रचनात्मक चिन्ता नहीं है। निराला की रचनात्मक चिन्ता है अर्थात वे निराला और तुलसी दोनों को एकमेव कर देते हैं। तुलसी का चरित्र निराला का चरित्र बना देते हैं। कवि और कविता के बीच की दूरी खत्म करके कवि की व्यापक चिन्ता का सरोकार व्यक्त करते हैं। ये दृष्टि निराला के सन्दर्भ में सर्वथा मौलिक और नई है। निराला के व्यक्तित्व को उनकी कविता नायकों से जोड़कर देखने का प्रयास कविता को बिल्कुल सही दिशा में ले जाता है। और एक मौलिक स्थापना देकर कविता का तार्किक पाठ करता है। दूधनाथ सिंह की कविता को समझने व स्थापित करने वाली सजग दृष्टि की पहचान तब होती है जब वे इन दोनों लम्बी कविताओं की आपसी समता स्थापित करते हैं। वे भी आत्मसाक्षात्कार को लेकर निराला के निजीपन व व्यक्तित्व से दोनों कविताओं को जोड़ते हुए लिखते हैं, “तुलसीदास कविता में निराला द्वारा प्रतिष्ठित ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनैतिक अर्थ स्पष्ट है। उसके संकेत साफ़ हैं। दुहरी अर्थव्यंजना पकड़ने में कठिनाई नहीं होती है। भारत के सांस्कृतिक अन्धकार की चिन्ता से कविता प्रारम्भ होती है लेकिन इस अर्थ के साथ ही निजी आत्मसाक्षात्कार का अर्थ और अधिक स्पष्टता और गहराई से निराला ने पिरोया है।'' (आत्महन्ता आस्था पृष्ठ १२४) इस अर्थ में आलोचक अपने विवेचन को और अधिक उद्दात कर देता है। राम की शक्तिपूजा में राम निराला हैं तो तुलसीदास कविता में निराला को राम व तुलसी दोनों से जोड़ देते हैं। और वे महत्वपूर्ण स्थापना करते हुए लिखते हैं “तुलसीदास के माध्यम से यह जनसाधारण की दुर्दशा और सांस्कृतिक अंधकार की चिन्ता निराला के कवि की आधुनिक चिन्ता है।'' (आत्महन्ता आस्था पृष्ठ १२४) तुलसीदास कविता में निराला के व्यक्तित्व का आरोपण कविता का अर्थ विस्तार करता है। कवि साथ ही अभिधार्थ के अतिरिक्त कविता का नया पाठ प्रस्तावित करते हुए युगबोध व युग की विसंगतियों को सीधे रचनात्मक कार्यों से जोर देता है। उधनाथ सिंह की यह दृष्टि पूर्णरूप से लोकधर्मी आलोचना दृष्टि है जो कविता की अर्थवान गहराई में पहुँचकर सार्थक वक्तव्य खोजने को प्रेरित करती है। दूधनाथ सिंह द्वारा निराला का किया गया पाठ जीवन के सभी क्षेत्रों से जुड़ा होने कारण अधिक प्रभावी और तर्कसंगत प्रतीत होता है। यही कारण है, वे नई कसौटियों और मूल्यों की स्थापना करने में सफल हो जाते हैं व पूर्वप्रचलित लिजलिजी अवधारणाओं का बगैर किसी प्रयास के खंडन भी कर देते हैं। आलोचना की यह पद्धति दमित और छिपे अर्थों को उभारने का काम करती है वह किसी भी केन्द्रिक अर्थवत्ता को थोपती नहीं है। किसी अवधारणा को मूल स्वर में सलंग्न नही करती है जो भी प्रदत्त करती है वह मौलिक और नया संधान होता है।


        मुक्तिबोध और निराला पर दूधनाथ सिंह की आलोचनात्मक कृतियाँ न केवल साहित्य मर्मज्ञ लेखकों,  आलोचकों को प्रभावित करती हैं अपितु हिन्दी के विद्यार्थियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। उबाऊ अकादमिक जड़ता से रहित ये किताबें संस्मरण आलोचना और जीवन दृष्टि का आपसी संघात प्रदर्शित करती हैं। हिन्दी आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता व चली आ रही रीति शास्त्रीयता है। काव्यालोचन में शास्त्रीयता तो जैसे अनिवार्य ही है, साथ कथा आलोचना ने भी अपनी एक खास शास्त्रीयता निर्मित कर ली है। दूधनाथ सिंह ने आलोचना को शास्त्रीयता से मुक्त कर उसे आत्मीयता से जोड़ा है। आत्मीयता का आशय है कि आलोच्य कवि के साथ उनके जो व्यतीत क्षण रहे, कवि का जिस तरह का जीवन रहा, उसके जीवन संघर्ष रहे, उन सभी अवस्थितियों द्वारा वह सबसे पहले कवि के व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं और फिर इस व्यक्तित्व के साथ निष्पक्ष आत्मीयता रखते हुए। उसकी कविताओं का विश्लेषण करते हैं। जहाँ कहीं भी जिस कविता का पाठ हुआ या कवि के व्यक्तित्व को कमतर करके आँका गया, वहाँ पर वह सर्वथा नया पाठ करते हुए तर्क और तथ्यों की झड़ी लगा देते हैं। न तो कवि के व्यक्तित्व को कमजोर होने देते हैं न कविता को इतर अर्थ सन्दर्भो में जाने देते हैं। तारापथ में वह पन्त का बचाव इसी तरह करते हैं। इसी तरह अज्ञेय द्वारा मुक्तिबोध की की गई आलोचना का समुचित उत्तर देते हैं। निराला : आत्महन्ता आस्था में तो सैकड़ों ऐसे प्रसंग हैं जहाँ पर वह व्यक्तित्व और काव्य को तथ्यात्मकता में बदल देते हैं। दूधनाथ सिंह जिस सादगी सहजता से कवि के भीतर की बेचैनी व उसके सौन्दर्यशास्त्रीय मर्म को उद्घाटित करते हैं, वह आज के आलोचक के लिए काबिलेगौर है। उनका गद्य पाठक को आत्मीयता से सरोबोर करते हुए कवि की मूल संवेदना और आलोचक की तर्कपटुता दोनों को साधारणीकृत कर देता है। निराला और पन्त की प्रेम और अध्यात्म वाली कविताओं के विश्लेषण में इस बात को परखा जा सकता है। आलोचना की यह पद्धति हिन्दी आलोचना के लिए नई है बल्कि प्रामाणिक और विश्वसनीय भी है। जब कविता का समालोचन एक आलोचक के नजरिए से होता है तब बाह्य प्रतिमानों को थोपने और अनावश्यक तुलनाओं की बहुलता होने लगती है जब कवि का व्यक्तित्व ही कविता का प्रतिमान बन जाता है, तब बाह्य महत्वहीन वस्तुओं और उपादानों का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। इससे आलोचना भी एक रचना बन जाती है। दूधनाथ सिंह ने अपनी आलोचना कृतियों से देरीदाँ की सैद्धांतिकी विखण्डनवाद के लिए बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। देरिदाँ आलोचना को रचना कहता है और दूधनाथ सिंह ने इस रचना को रचकर दिखाया है।


        आलोचना में रूढिवाद से बचने के लिए बहुत से आलोचक विपरीत अवधारणाओं की शरण में चले जाते हैं। जैसे मनोविज्ञान का आलोचना में प्रयोग। इससे कृति स्वतः निर्मित अराजकता व रीतिवाद का प्रभाव बढ़ जाता है मगर दूधनाथ सिंह ने अपना समूचा आलोचनात्मक कृतियों को कवि के निजीपन कृतिय व उसकी रचनात्मक समग्रता से जोड़कर परखा है। इसका प्रतिफल यह हो गया कि उनकी आलोचना आलोचकीय पक्षधरता के अनुकूल रही, वह किसी भी जगह अराजकता का शिकार नहीं हुई। अक्सर देखा जाता है कि नई स्थापनाओं का उतावलापन आलोच्य विषय को अराजक खंदकों में फेंक देता है और कृति का कोई भी सांस्कृतिक व साहित्यिक महत्व नहीं रह जाता है। सब कुल मिलाकर इस आलोचना पद्धति को व्यापक सरंचनापरक पद्धति कह सकते हैं जो रचना की स्वतन्त्रता को युग और समाज की स्वतन्त्रता से जोड़कर देखती है। मुक्तिबोध निराला, महादेवी, पन्त की दूधनाथ सिंह द्वारा की गई आत्मीय आलोचनाएं इसी कोटि की है जो सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के समान्तर साहित्यिक संरचनाओं का मूल्याकन करने को प्रेरित करती हैं। 


                                                                                                      सम्पर्क : द्वारा गऊलाल डाकिया,                                                                       प्रधान डाकघर अतर्रा रोड बबेरू, जनपद, बाँदा-210121                                                                           इमेल : umashankaersinghparmar@gmail.com


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