लोक विमर्श - भोजपुरी लोक-गीतों में प्रतिरोधी स्वर- संतोष कुमार चतुर्वेदी


                    इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास संस्कृति और पुरातव में डी. फिल। पत्रिका 'अनहद' के संपादक। आलोचना के क्षेत्र में एक स्थापित युवा नाम्। सम्प्रति- एक महाविद्यालय में एसोसिएट प्राफेसर।


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           प्रतिरोध मानव का मूल चरित्र है। दूसरे अर्थों में कहें तो प्रतिरोध ही जीवन का मूल स्वर है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में जब एक बार जीवन का उद्भव हो जाता है तब वह तमाम प्रतिरोधों से जूझते हुए स्वयं को बचने बचाने का प्रयत्न करता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य को अनेकानेक प्रतिरोधों का सामना करना पड़ता है। यही नहीं प्राचीन काल का मानव भी अपने अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष करता रहता था और आज जब हम इक्कीसवीं सदी यानी कम्प्यूटर इंटरनेट के युग में हैं तब भी अपने जीवन अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हाँ, परिस्थितियाँ और हमारे संघर्ष का माध्यम अब जरूर बदल गया है। लेकिन आज भी जब कोई दिक्कत आती है, समस्या से जुड़े व्यक्ति को उससे जूझने के लिए अपने को नए सिरे से तैयार करना पड़ता है। मानव के विकास से सम्बन्धित क्रान्तिकारी अवधारणा प्रस्तुत करते हुए महान् वैज्ञानिक डार्विन जब कह रहे थे ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता' तो वस्तुतः वह उसी प्रतिरोधी शक्ति, चेतना और स्वर की बात कर रहे थे जिसका उपयोग कर सम्बन्धित जीव अपने अस्तित्व बनाए रखता है। इतिहास के अर्थों की बात जब आती है। तब मुझे लगता है कि मनुष्य के इस प्रतिरोधी चेतना का अध्ययन ही इतिहास के अन्तर्गत किया जाता है। इतिहास की इस परिभाषा से शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो।


           पृथ्वी के इस जीव जगत में मनुष्य इसीलिए सर्वश्रेष्ठ प्राणी है क्योंकि उसके पास न केवल एक उन्नत मस्तिष्क है बल्कि संवेदनाओं से भरा हुआ हृदय भी है जिसमें वह अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर मानव जगत के लिए काम करने हेतु उद्यत हो जाता है। संयोगवश कला के क्षेत्र में मानव की प्रथम अभिव्यक्ति चित्र और कविता ही है। दुनिया का प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद जो शताब्दियों से मौखिक परम्परा में संचित हो कर अपनी निरन्तरता में विद्यमान रहा, मूलतः एक काव्यकृति ही है। आज भी विश्व में सर्वाधिक लिखी जाने वाली विधा कविता ही है। वह कविता जो मस्तिष्क से नहीं अपितु हृदय की संवेदनाओं से उपजती है। वह कविता जो हमेशा प्रतिपक्ष में बनी रही। वह कविता जिसने खुलेआम सत्ता का विरोध करते हुए यह कहने का साहस किया ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सो काम।' वह कविता जो अधिकाधिक लिखी जाने के बावजूद कभी भी बाजारू नहीं बनी बल्कि बाजार का


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                                                                     इतिहासकार जो इस समय प्रायः साम्राज्यवादी, 


                                                                   राष्ट्रवादी, उपनिवेशवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी


                                                                      आदि-आदि खेमों में बँटे हुए थे, घटना के इन 


                                                                      महत्त्वपूर्ण साक्ष्यों को लगातार उपेक्षित करते चले


                                                                        आ रहे थे। लोक ने अपनी प्रतिरोधी चेतना को


                                                                       जीवन्त बनाए रखने के लिए सहज ही वह माध्यम ।


                                                                          चुना जो मौखिक परम्परा में आसानी से पीढ़ी


                                                                              दर-पीढ़ी एक लम्बे समय तर चलता रहा।


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           लगातार प्रतिरोध करती रही, प्रतिरोध रचती रही। वह कविता जो दुरदराज के किसी दलित-दमित आम जन का स्वर मुखरित करती हुई वैश्विक स्वर बन जाती है। वह कविता जो अन्यायी व्यक्तियों से जूझने के लिए बेधड़क आह्वान करती है ‘शक्ति की करो। मौलिक कल्पना।'


            मानव की यह प्रतिरोधी चेतना ही दरअसल उसे विकसित करती है, उसे नित नवीन बनाती है और उसके लिए उम्मीद बंधाती है। तुर्की के मशहूर कवि नाजिम । हिकमत लिखते हैं-


                                           सिर्फ इसलिए कि तुमने अपनी उम्मीदें नहीं छोड़ी


                                            दुनिया की, मुल्क की आदमी की बेहतरी की


                                            इस तरह कुछ भी असंभव नहीं बिता देना


                                            -यह बात संभव है।


                                             हाँ शर्त यह है कि छाती की बाईं ओर वह कीमती हीरा है।


                                             वह कीमती हीरा-चमकता रहे।


        अपनी इस कविता में नाजिम हिकमत छाती की बाईं ओर जिस कीमती हीरे की बात करते हैं, वह दरअसल हृदय ही है जो संवेदनाओं से पूरी तरह भरा होता है और जब तक संवेदना है तब तक कुछ भी मुश्किल नहीं। यह एक कवि दृष्टि ही है जो कठिन से कठिनतर परिस्थितियों में भी बेहतरी थी उम्मीद नहीं छोड़ता। और इतिहास लेखन, अध्ययन का मूल ध्येय भी तो मानव जगत के भविष्य को बेहतर बनाना ही है। बहुत से लोग साहित्य और कला को निरी कल्पना मान कर इसे खारिज करने से गुरेज नहीं करते। लेकिन ऐसी सोच वाले लोग साहित्य और कला को समग्रता की दृष्टि से देख ही नहीं पाते। दरअसल साहित्य और कला मानव मूल्यों का वह निधान है जो अपना सहज महत्त्व रखता है। तात्कालिक रूप में यह अनुपयोगी लग सकता है लेकिन मानवता के विकास और समृद्धि में इसकी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके द्वारा मानव मस्तिष्क ने न केवल कल्पना के अकल्पनीय उडान भरे बल्कि यही वह माध्यम था जिसमें यथार्थ का रंग भर कर मनुष्य इतना आगे बढ़ पाया।


          मानव को सही मायनों में मानव बनाया संस्कृति ने। जीवन जैसा है, उसे अधिक सन्दर उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरंभ से ही मनुष्य में रही है। यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर रूप ले लेती है, तब वह संस्कृति कहलाती है जिसके अन्तर्गत धर्म, नीति, कला, साहित्य संगीत आदि आते हैं। संस्कृति समाज की मूल जीवनदायिनी शक्ति है, राजनैतिक शक्ति से भी अधिक। भारतीय समाज इसका प्रमाण है। राजनैतिक दासता सदियों रही पर संस्कृति की शक्ति के कारण यह जाति जीवित रही और विकास करती गई। यह जो धर्म, नीति, कला, साहित्य और संगीत है और जिससे संस्कृति का एक वितान बनता है, दरअसल यह स्वयं में एक प्रतिरोधी चरित्र है। ऐसा प्रतिरोधी चरित्र जो मानव को अमानव होने से बचाने की कोशिशों में लगातार जुटा रहता है और जिसके चलते तमाम अवरोधों के बावजूद हम वह हैं, जो हम आज दिखाई पड़ रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द ने एक अवसर पर कहा था 'भारत की आशा का केन्द्र केवल जनता है, उच्चतर वर्ग मानसिक और नैतिक धरातल पर मृतवत हो गए हैं।' बहुत हद तक यह बात मानव इतिहास के बारे में कही जा सकती है। हमेशा मानव इतिहास को एक नया मोड़ इस आम जन ने ही दिया। सम्पन्न वर्ग चाहे जिस जमाने में रहा हो, अपने को येन-केन-प्रकारेण और सम्पन्न बनाने में जुटा रहता था। धन जुटाने की हवस इस सम्पन्न वर्ग को किसी भी स्थिति से समझौता करने के लिए विवश करती थी जबकि आम जन, जिसके पास हमेशा से खोने के लिए कुछ खास नहीं रहारहारहा, वही आगे आ कर किसी भी क्रान्ति या आन्दोलन को एक नया रूप देता रहा। इस प्रकार लोक का प्रतिरोध से हमेशा से सम्बन्ध चलता चला आया है, और यही उसकी मूल शक्ति है। यह लोक शक्ति का भय ही है जिसके चलते शक्तिशाली से शक्तिशाली शासक और तानाशाह भी लोक की उपेक्षा नहीं कर पाए। आधारभूत सुविधाओं से भी हीन इस लोक को ही राष्ट्रों का आधार बताया गया।


         भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन जिसका समय मूलरूप से १८५७ ई. से १९४७ ई. तक का माना जाता है, की विशेषता यही है कि शुरू से ही इसमें लोक की सशक्त भागीदारी रही। वर्तमान समय में लोक-गीतों के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है जिसमें स्वाधीनता आन्दोलन के प्रायः सभी मुख्य घटनाक्रमों को अपनी तरह से रेखांकित करने का प्रयास किया है। ध्यातव्य है कि इन लोक-गीतों को अगर काव्य सौष्ठव की कसौटी पर रखा जाए तो ये उस पर खरे नहीं उतर पाएंगे। इन गीतों की विशिष्टता सादगी, सरलता एवं स्वाभाविकता है। अपने आसपास के घटनाक्रम को अभिव्यक्त करने की एक छटपटाहट इन लोक-गीतों में साफ-साफ दिखाई-सुनाई पड़ती है। काव्य सौष्ठव की जगह इन गीतों में भावना, अनुभूति, कल्पना, यथार्थ एवं लय पर ध्यान दिया गया है जिससे कि ये आम जन के दिलो-दिमाग में बस जाए। इन लोक-गीतों में कोई बनावट या किसी तरह की कृत्रिमता नहीं दिखाई पड़ती। इन्हीं अर्थों में ये एक नई विधा का अहसास कराते हैं। जिनमें उस समय या घटना विशेष का बेतकल्लुफी से जिक्र किया गया है। यह जिक्र काव्यात्मक या लोक काव्य के रूप में है। इसे ठीक-ठीक काव्य न मानते हुए भी लोक जिनमें किया काव्य इसीलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि लोक ने इसे अपनी स्वीकृति प्रदान की। इतिहासकार जो इस समय प्रायः साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी, उपनिवेशवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी आदि-आदि खेमों में बँटे हुए थे, घटना के इन महत्त्वपूर्ण साक्ष्यों को लगातार उपेक्षित करते चले आ रहे थे। लोक ने अपनी प्रतिरोधी चेतना को जीवन्त बनाए रखने के लिए सहज ही वह माध्यम चुना जो मौखिक परम्परा में आसानी से पीढ़ी-दर-पीढी एक लम्बे समय तर चलता रहा। यहाँ पर हम हजारों वर्ष पहले की अपनी उस ऋग्वेदीय परम्परा को याद कर सकते हैं। जिसने लिपि के अभाव को भी नजरंदाज करते हुए अपनी बातें पीढ़ी दर । पीढ़ी एक लम्बे समय तक बनाए रखी और जो आज भी । विश्व का बेहतरीन काव्य माना जाता है जिसमें उस समय की ऐतिहासिक घटनाएँ भी यदा-कदा रेखांकित की गई। हैं। यह महाकाव्य साफ तौर पर जाहिर करता है कि लोक अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी का मोहताज नहीं रहता बल्कि वह अपना तरीका, अपनी विधा, अपना माध्यम, अपने आप ही खोज लेता है।


           अंग्रेजी राज के प्रति भारतीय लोक की घृणा, भय एवं आश्चर्य को साफ तौर पर देखा जा सकता है। एक बघेली लोक-गीत में इसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार मिलती है।


                                                              या अंग्रेजी राजन का देखा हो


                                                              तौल, तौल के अन्न का बॅचें


                                                               और धुंआ ते चलावें रैल


                                                                गलिन गलिन मां थाना बनावें


                                                                बीच शहर मां जेल


                                                                इन पंचेन से कैसे जीतबे


                                                                कठिन जिन्दगी भई गेल


                                                                या अंग्रेजी राजन का देखा


          यहाँ के आदिवासियों को आश्चर्य है कि यह अंग्रेजों का राज्य कैसा है? ये तो धुआँ से रेल चलाते हैं। इन लोगों ने गलियों में थाने बना दिए, शहरों में जेल बना दिए। एक ओर आश्चर्य है तो दूसरी ओर अत्यन्त चिन्ता है कि भारत इनसे कैसे जीतेगा। आज तो यही जीवन मरण का प्रश्न है। यह विचार तथाकथित असभ्य कहे जाने वाले उन आदिवासियों के हैं जो निरक्षर हैं। ये आदिवासी सम्राज्यवादी अंग्रेजों की मंशा को भलीभाँति जानते और पहचानते हैं। ये अंग्रेजों की गतिविधियों को देखकर ताड़ जाते हैं कि जो भी व्यवस्थाएँ भारत को आधुनिकतम बनाए जाने के नाम पर की जा रही हैं उनके मूल में भारत का शोषण कर अपने को समृद्ध और अपने शिकंजे को और  मजबूत  करना है 1 


            राष्ट्रीय, क्षेत्रीय अथवा सामाजिक घटनाएँ लोगों पर अपना व्यापक प्रभाव डालती हैं। इन घटनाओं से लोक उसी तरह प्रभावित होता है जिस प्रकार समाज का अभिजात वर्ग। कहीं-कहीं तो लोक पर यह प्रभाव ज्यादा दिखाई पड़ता है। अभिजात वर्ग और लोक-समाज दोनों घटित घटनाओं को सहेजने का प्रयत्न करते हैं और इसी क्रम में जो साहित्य सृजन होता है, उसे अभिजात साहित्य और लोक साहित्य की संज्ञा दी जाती है। अभिजात साहित्य प्रायः लिखित रूप में होता है। इसमें शासन और सत्ता के प्रति आक्रोश कमतर दिखाई पड़ता है क्योंकि यह वर्ग किसी-न-किसी तरह से शासन सत्ता से जुड़ा होता है और उसके अनुग्रहों एवं उनकी सेवाओं का लाभ उठाता रहता है। इसके विपरीत लोक हर जमाने में हाशिए पर होता है। शासन सत्ता के लाभों से वंचित यह वर्ग अपने जीवनयापन के लिए लगातार संघर्षरत रहता है। यही वजह है कि लोक अपने समय का मूल्यांकन अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ ढंग से कर पाता है। यह लोक अपने घटित को कविता कहानी के रूप में कुछ इस प्रकार गुंथ देता है कि इसमें निहित प्रतिरोधी चेतना को सजग सतर्वस हो कर ही महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार तथाकथित सभ्य समाज से बहुत दूर रह कर भी ग्रामीणों में नवीन चेतना एवं नवजागरण की दीपशिखा प्रज्वलित होती दिखाई देती है। अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम, राष्ट्र की बदलती स्थितियाँ एवं जनजागृति के सम्बन्ध में अत्यन्त सुलझे हुए स्वाभाविक विचारों की सहज अभिव्यति लोक-गीतों में देखी जा सकती है।


           लोकसाहित्य का राष्ट्र से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। देश काल के प्रत्येक पक्ष, समसामयिक स्थितियाँ और राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप लोक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ता है। हिन्दु परम्परा में षोडस संस्कारों का उल्लेख मिलता है। गर्भाधान से अंत्येष्टि तक के सभी संस्कारों में लोक शिद्दत से जुड़ा दिखाई देता है। इन सभी सांस्कारिक अवसरों के साथ लोक-गीत आवश्यक रूप से जुड़े होते हैं। यहाँ तक मृत्यु जैसी विकट और दुखद स्थिति के लिए भी मृत्यु-गीत की परम्परा दिखाई पड़ती है। आमतौर पर अपमानजनक समझी जाने वाली गाली भी गीतों में ढल कर शादी विवाह के समय हँसी ठिठोली का प्रतीक बन जाती है और इसका कोई बुरा भी नहीं मानता। प्रयासरहित, स्वाभाविक रूप से अन्त:निसृत होने के कारण। इन लोक-गीतों में राष्ट्र एवं समाज का सत्य स्वरूप दिखाई देता है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए जनसंघर्ष से जुड़ी सामग्री इसीलिए इन लोक-गीतों में प्रचुर रूप से प्राप्त होती है। इस प्रकार ये लोक-गीत मनोरंजन से जुड़ कर न केवल लोक के अन्त:करण से जुड़ जाते हैं अपितु बड़ी तेजी से व्यापक क्षेत्र में प्रचलित प्रसरित हो जाते हैं और लोगों पर अपना व्यापक प्रभाव छोड़ते हैं। मौखिक परम्परा में होने के कारण इन्हें प्रतिबन्धित या जब्त भी नहीं किया जा सकता। इस प्रकार ये लोक-गीत लोक की अभिव्यक्ति तथा लोक प्रतिरोध के मारक हथियार के रूप में सामने आते हैं।


          अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से भोजपुर ऐसा क्षेत्र है जहाँ के लोगों को जीने के लिए निरन्तर जद्दोजहद करना पड़ता है। गंगा, गोमती, सरयू और सोन जैसी नदियाँ प्रतिवर्ष बाढ़ग्रस्त हो कर लोगों के लिए आपदा लाती है। लगातार संघर्ष करने के कारण इस क्षेत्र के निवासियों में प्रतिरोध की चेतना ठूस-ठूस कर भरी हुई है। इस चेतना को महसूस करते हुए हिन्दी और मैथिली के विख्यात कवि नागार्जुन अपनी कविता भोजपुरी में लिखते हैं


                                                 यही धुंआ मैं हूँढ़ रहा था


                                                  यही आग मैं खोज रहा था


                                                  यही गन्ध थी मुझे चाहिए


                                                   बारूदी छ की खुशबू।


                                       ठहरो-ठहरो इन नथनों में इसको भर  लूँ 


                                                  बारूदी छर्रे की खुशबू।


                                                   भोजपुरी माटी सोंधी है,


                                                    उसका यह अद्भुत सौंधापन।


                                                    लहरा                         उट्ठी


                                                    कदम-कदम पर इस माटी पर


                                                   महामुक्ति की अग्नि-गन्ध


                                           ठहरो-ठहरो इन नथनों में इसको भर लूँ 


                                                   अपना जनम सकारथ कर लूँ 


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                                                   एक-एक सिर सँघ चुका हूँ


                                                    एक-एक दिल छू कर देखा,


                                          इन सबमें तो वही आग है, ऊर्जा वो ही


                                                   इस माटी का तिलक लगाओ।


          यह कविता खुले तौर पर इस क्षेत्र और क्षेत्र के लोगों की विशिष्टता का जिक्र करती है। प्रतिरोध की आग और धुएँ की जो खोज नागार्जुन कर रहे थे वह भोजपुर की मिट्टी में वे पाते हैं। भोजपुर की सोंधी माटी में वे बारूदी छरें की खुशबू महसूस करते हैं। महामुक्ति की अग्नि गन्ध जैसी पंक्ति नागार्जुन भोजपुर के लिए ही लिख सकते थे। अग्नि की गन्ध महामुक्ति दिलाने वाली होती है और वह गन्ध यहाँ के जन-जन के मन में पाई जाती है। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के जो भी महत्त्वपूर्ण अध्याय रहे हैं सभी में इस क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भागीदारी रही है। १८५७ के संग्राम की शुरुआत करने वाले मंगल पांडेय इसी मिट्टी के सपूत थे। बूढे होने के बावजूद कुंवर सिंह ने अंग्रेजों की शक्ति का जिस मजबूत जीवट के साथ सामना किया उससे अंग्रेज सेनानायक भी अचंभित रह गए। महात्मा गाँधी ने चम्पारण में निलहों के अत्याचार से पीड़ित किसानों का साथ देकर राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार इसी क्षेत्र में रहते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन में इस क्षेत्र के लोगों ने जिस तरह बढ़-चढ़कर भाग लिया, उसका इतिहास गवाह है और १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जिस तरह बलिया ने अपनी आजादी की घोषणा कर दी और १४ दिनों तक लगातार यह स्वतन्त्रता बनाए रखी, वह अन्ततः अंग्रेजी शासन के अन्त का ही उद्घोष बन गई।


        सामूहिकता भोजपुर क्षेत्र की अपने विशिष्टता है। इस क्षेत्र में विविध प्रकार के उपक्रम किए जाते है लोगों को एकजुट करने के लिए। विभिन्न लोक भाषाओं में १८५७ ई. के गदर के दिनों के लोकप्रिय आवाहन गीत प्रचलित । हैं। इस तरह के अनेक आवाहन गीत भोजपुरी लोक-गीतों में भी मिलते हैं। लोगों को एकजुट होने का आवाहन इस क्षेत्र में डुग्गी पिटवा कर या नेवता (निमन्त्रण) दे कर किया। जाता है। क्रान्तिकारी तेवर का एक अद्भुत आवाहन गीत भोजपुरी लोक में बहुत प्रचलित है। यह गीत इस प्रकार  हैं -


                                गाँव-गाँव में डुग्गी बाजल, बाबू के फिरल दोहाई-


                                लौहा चबवाई के नेवता बा, सब साज आपन दल बादल


                                बा जान गवांवई के नेवता, चूड़ी फोरवाई के नेवता


                                 सिन्दुर पौछवाई के नेवता, बा रॉड हवावई के नेवता


                                 जेई हो हमार ते माथ देई, जेई हो हमार ते साथ देई


                                  बा इहाँ न मौका समझइ के, बा इहाँ न मौका बूझइ ।


                                  की तो पेसरौ नेवता हमार, की तो तइयार हो जूझइ के


         अनेकानेक आवाहन गीतों में यह इसलिए विशिष्ट है कि यहाँ भूमि के लिए सब कुछ न्यौछावर करने का आवाहन है। भारतीय स्त्रियों के लिए सुहाग (पति) ही उसका सब कुछ होता है। पति के निधन के पश्चात् सुहागन स्त्री को अपनी सारी निशानी त्यागनी पड़ती है और विधवा का वेश धारण करना पड़ता है। किसी भी स्त्री के लिए यह अकल्पनीय स्थिति ही है। लेकिन इसी अकल्पनीय स्थिति का सामना करने का नेवता लोगों में बांटा जा रहा है। कुँवर सिंह अपने लोग यानी विश्वसनीय वफादार लोग चाहते हैं जो मौका पड़ने पर अपनी जान तक दे देने के लिए उद्यत दिखे। यहाँ पर निर्णय तुरन्त लेना है। सोच-विचार का कोई अवसर नहीं है। या तो नेवता वापस कर दो या उसे स्वीकार कर जूझने के लिए तैयार हो जाओ। आमतौर पर इस क्षेत्र में नेवता फेरा नहीं जाता। अदावत या निजी खुन्नस की स्थिति में ही लोग नेवता फेरते हैं। लेकिन यहाँ तो कोई व्यक्ति विशेष की बात ही नहीं है। यहाँ तो देश के लिए जान देने का न्यौता है। अब इसे भला कैसे फेरा जा सकता है। फेरने वाले को लोक-निन्दा का सामना करना पड़ सकता है या लोगों द्वारा राष्ट्रद्रोही ठहराया जा सकता है। लेकिन इस मिट्टी की तो यही विशेषता है कि लोग मर-मिट जाना तो पसन्द करते हैं लेकिन लोकनिन्दा के साथ जीना कतई पसन्द नहीं करते। फिर एक ही रास्ता है कि रणभूमि में चलकर दुश्मन से लोहा लिया जाए। लोक का यह समर्थन सहयोग और बल ही था जिसके बूते कुंवर सिंह ने लम्बे समय तक अंग्रेजी शक्ति का सफलतापूर्वक सामना किया और भोजपुर क्षेत्र की शक्ति का भरपूर अहसास करा दिया।


         हमने पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि विस्थापन और फिर नए सिरे से सब कुछ का पुनर्निर्माण भोजपुरी क्षेत्र की नियति रही है। प्रकृति के इस प्रकोप को लोग उसकी क्रीड़ा समझते हुए उसे अपनी जीवन चर्या बना लेते हैं। और इसी क्रम में इस क्षेत्र की एक प्रमुख विशिष्टता सामने आती है-प्रतिरोध का जीवट और सामूहिकता। यहाँ का जन कभी भी पराजित महसूस नहीं करता। हार के बाद भी फिर नए सिरे से नवउल्लास की खोज में जुट जाता है। पराजय को पराजय नहीं बल्कि जिन्दगी का अंग समझ कर उसके साथ भी हास-परिहास-मजाक कर लेता है। यही भावना उसे टूटने नहीं देती। इतिहास गवाह है इस क्षेत्र के लोगों को गिरमिटिया मजदूर के रूप में ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने अन्य उपनिवेशों में ले जाया गया। घर-बार, जगहजमीन, परिवार-दोस्त-गाँव सब कुछ छूटने की पीड़ा के बावजूद ये गिरमिटिया जहाँ भी गये वहाँ अपने परिश्रम से एक नया अध्याय लिख डाला एवं वहाँ के स्वरूप को बदल डाला। समय के साथ संघर्ष करते हुए ये उत्साही जन अब मारीशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड-टोबैगो जैसे देशों में शीर्ष पदों पर पहुँच कर देश को एक नई दिशा दे रहे हैं। इतने ऊँचे पद पर पहुँचने के बाद भी अपने जड़ की तलाश उन्हें भारत और यहाँ अपने गाँव खींच ही लाती है जहाँ ये आँवई लोगों से मिल कर सैकड़ों वर्ष पहले गुम गई अपनी पहचान को तलाशने का प्रयास करते हैं। और इस प्रयास में इनके चेहरे पर कोई झिझक या शिकन तक नहीं दिखाई देतीदेती। प्रतिरोध का यह जीवन और यह अन्दाज और आप में दुर्लभ है। अपने विश्व की चुनिन्दा जातियों प्रजातियों में ही यह पाई जाती है।


            यह लोक सामूहिकता को जीता है और उसे अपने जीवन में उतारता है। इसीलिए इसके प्रतिरोध के जो भी माध्यम मिलते हैं उनमें अपने-आप में एक सामूहिकता दिखाई पड़ती है। मनोरंजन के रूप में यह लोक गीत गवनई को पसन्द करता है। विभिन्न ऋतु पवौं पर भोजपुरी लोक अपने लोक-गीतों के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करता है। कजली, सोहर, बिरहा, चैता, झूमर, फाग आदि लोक गीतों में प्रकृति, जीवन और संघर्ष के विभिन्न रंग अपने पूरे उल्लास के साथ दिखाई पड़ते हैं। चूंकि स्वतन्त्रता संघर्ष भी इस लोक के लिए जीवन मरण का प्रश्न था इसीलिए इसकी अनुगूंज इन लोक-गीतों में सहज ही दिखाई पड़ती है। लोक-गीत की कोई विधा इस अनुगूंज से अछूती नहीं रही । यह प्रकारान्तर से इस बात को दर्शाता है कि लोक का स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ जुड़ाव कैसा और किस प्रकार का था। वास्तव में इसका तरीका इतना अलग- अलग और व्यापक था कि देख कर आश्चर्य होता है। इसी के मद्देनजर अपने शोधकार्य ‘लोकसंस्कृति में राष्ट्रवाद' में बद्री नारायण करते हैं कि लोक की समानान्तर राजनीति का स्वरूप अत्यन्त जटिल है। एक विशिष्ट प्रकार की स्पष्टता की तह में अनेक विशिष्ट अस्पष्टताएँ सक्रिय हैं। किन्तु यह अस्पष्टता हमारे बौद्धिक ज्ञान की सीमा है न कि लोक के राजनीति के स्वरूप की। वास्तव में आज इसी बात की जरूरत है कि अपने सीमित दायरे से ऊपर उठकर लोक के विभिन्न स्तरों की सूक्ष्म छानबीन की जाए जिससे हमारे इतिहास का एक अलग स्वरूप दिखाई पड़ सकता है। ‘अस्पष्टता' या ‘बौद्धिक सीमा' कह कर हम निजात नहीं पा सकते। क्योंकि लोक अपने-आप में व्यापक होता हैऔर इसकी व्यापकता को समझने के लिए हमें इसके भीतर उतर कर समझने की कोशिश करनी होती है। तभी कथित अस्पष्टताएँ स्पष्ट हो सकती हैं।


       बारहवी शताब्दी के एक संस्कृत ग्रन्थ सदुक्तिकर्णामृत में लोकजीवन के दु:ख दारिद्रय को जिस तरह से व्यक्त किया गया है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है।


                                               दारिद्रय गृध्रपरिमुक्त समस्तमांसं


                                                स्नायूपरूद्ध सकलास्थिवयावशेषम्।


                                                पीयूषवृष्टिमिव नाथ निधेहि दृष्टिं


                                                वंसकाल जाल मिद मंकुर मातनोति।।


         अर्थात-सारा मांस नोच-नोच कर खा चुका है। दलिद्दर का गीध -


                                                  हड्डियों का बचा हुआ एक ढेर है।


                                                  जिसे बाँधे हुए है नाड़ियों का जाल


                                                   अब तो अमरित बरसाइए


                                                    राजन! शायद इस अस्थिवंसकाल में


                                                   फिर से जीवन जाग जाए।


           प्रश्न यह है कि दीन-दुखी जन किससे अमृत बरसाने की प्रार्थना कर रहा है। सामान्य तौर पर इसे ईश्वर से की गई याचना कहा जा सकता हैं। और इसमें कुछ झूठ भी नहीं है। इसी से जुड़ा एक सन्दर्भ मुझे व्यक्तिगत तौर पर याद आ रहा है जिसमें अपने किसान पिता से बालसुलभ जिज्ञासा में मैंने कभी पूछा था कि जब मुझे कोई परेशानी होती है। तो उसका निराकरण आप कर देते है। लेकिन आप अपनी परेशानियाँ सुलझाने का आग्रह किससे करते हैं? पिता ने एक लम्बी चुप्पी के बाद जवाब दिया- मेरे पास ईश्वर के सिवाय कौन है? मैं उसी से अपनी परेशानी सुलझाने का आग्रह करता हूँ। यह जो ईश्वरीय अवधारणा लोक में व्याप्त है, क्या है? अब जो मुझे समझ आता है उसके आधार पर मैंने पाया है कि यह ईश्वर दर असल अपना आत्मविश्वास है। यह लोक अपने आत्मविश्वास के जरिए खुद को संकट की घड़ी में संभालने और मजबूत बनाने का कार्य करता है। लोक में ईश्वर की मौजूदगी बहुतायत में मिलती है।


          लोक में ईश्वर की मौजूदगी बहुतायत में मिलती है। लोक से ईश्वर को काट कर देखा समझा ही नहीं जा सकता। लोक को और लोक की मनोभावना को समझने के लिए पहले हमें इस ईश्वर को समझने का प्रयास करना होगा। लोक से ईश्वर को हटा देने पर कुछ भी नहीं बचेगा और जो भी अवधारणाएँ सामने आएँगी वह कदाचित वायवीय ही होंगी। यद्यपि इस समय कुछ इतिहासकार इस लोक में भी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणाएँ तलाशने में जुटे हुए हैं और अपने तर्को से इसे प्रमाणित करने का प्रयास भी कर रहे है। वे दरअसल यही पर एक चूक कर जाते हैं जब ईश्वर को सगुण-निर्गुण और धार्मिक परम्परा के चौखटे से बाहर निकल कर देख ही नहीं पाते। अगर पहले से बने-बनाए खांचे से बाहर निकल कर हम ईश्वर का विश्लेषण करें तो कहीं-न-कहीं इसका सम्बन्ध आत्मविश्वास से जुड़ता है। जो लोक की प्राणशक्ति बन कर सामने आता है। लोक की यह मजबूती ही हैं जो उसे अनेकानेक विडम्बनाओं और परेशानियों में भी थामे रहती है।


         संस्कृत जिसे अभिजात साहित्य कह कर हमेशा टाला जाता रहा है उसमें भी लोक के दुख दर्द का ऐसा विवरण  मिलता है जिसे देख कर सहसा विश्वास नहीं होता।


                                                          धूमेन रिक्तमपि निर्भे रवाष्पकारि


                                                           दूरीकृतानलमपि      प्रतिपन्नतापम्


                                                           दैन्यातिशून्यमपि           भूषितबन्धु


                                                          वर्गमाश्चर्यमेव खलु खेदकर गृहं नः


                                                          अर्थात् यह हमारा घर है।


                                                           धुआँ तो नहीं उठता।


                                                            आँसू फिर भी घुमड़ते हैं उसमें


                                                             आग तो नहीं जलती ।


                                                             फिर भी ताप बहुत है इसके भीतर


                                                             दलिद्दर ने सब कुछ कर दिया है सूना


                                                             केवल धरती ही है हम लोगों का गहना


                                                             कुछ अचरज भरा ही है हमारा घर


                                                            दुख का एक खजाना है यह।  


                                                            इसी प्रकार एक अन्य श्लोक में कहा गया है-


                                                            उत्सन्नच्छदिरूच्छ्सद्वति गलद्भित्ति स्खलन्मण्डलि


                                                            भ्राम्यत्कुण्डलि डिण्डदाखु खुरलिप्रक्रीडिमेकावलि


                                                            न ज्वच्चर्मचरौधपक्षतिपट प्रारब्धभांभांति


                                                            श्री मत्सेनकुलावतंस भवतः शत्रौरवास्महम् ।।     


                                                  आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने उपर्युक्त श्लोक का काव्यानुवाद इस प्रकार किया है


                                                              छाजन गिर-गिर पड़ने को है।


                                                              हिल रही है नींव ।


                                                              गल रही हैं दीवारें


                                                              धरन तक दरक गई है भीतर तक


                                                              रेंगते हैं साँप, विहार करते है चूहे


                                                              छुआ-छाई खेलते हैं मेढक उछल-उछल कर ।


                                                              चंचल चमगादड़ पंख फैसला कर उड़ते हैं जब


                                                              भाँय-भाँय की आवाज सनसना कर तिरती है हवा में।


                                                              राजन, हमारा घर ठीक वैसा ही है।


                                                             जैसा आपके शत्रु का होना था।


              शासन सत्ता हमेशा जनता को बेहतर जीवन सुविधाएँ देने की बात कह कर आम जनता को छलता आया है। सदुक्तिकर्णामृत १२वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। इस समय उत्तर भारत में कई छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य थे। जो छोटी-छोटी बातों और स्वार्थों को लेकर अक्सर आपस में ही उलझे रहते थे। महमूद गजनवी के १००० ई. से १०२६ ई. तक के भारत आक्रमणों से इन शासकों ने कोई सबक नहीं लिया। एक और मुस्लिम आक्रमण का खतरा भारत के ऊपर लगातार मंडरा रहा था लेकिन न तो इसकी किसी को चिन्ता थी न ही परवाह। क्योंकि इन शासकों का व्यक्तिगत अहम् ही सर्वोपरि था। ऐसी परिस्थिति में जनता की क्या हालत थी उसे इस ग्रन्थ में बड़े यथार्थपरक ढंग से दर्शाया गया है। लेकिन यह श्लोक आज इक्कीसवीं सदी में भी मौजू लग रहा है। लगभग हजार वर्ष बीत गए। तब से गंगा में न जाने कितना पानी बह गया लेकिन आम आदमी की दैन्यता में कोई बदलाव नहीं आया। कहने को हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के नागरिक हैं लेकिन अगर गौर से देखा जाय तब इस व्यवस्था में न तो लोक का बेहतर जीवन दिखाई पड़ता है न ही इसे बदलने के लिए कोई तन्त्र ही उद्यत दिखाई पड़ता है। आज भी हमारी आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है जिसे अपनी छत अपना घर नसीब नहीं है। फिर यह कैसा लोकतन्त्र है जिसका जाप हम स्वाभिमान और अपनी उच्चता अग्रता और आधुनिकता दिखाने के लिए करते हैं।


           भोजपुरी लोक की एक विशिष्ट पहचान रहा है डण्डा। यह डण्डा इस लोक का सच्चा साथी हुआ करता था। सामान्य और पर यह सहारे के लिए प्रयुक्त किया जाता लेकिन आपदा के समय यह हथियार का भी काम करता था। गिरधर कविराय की लाठी से सम्बन्धित कुंडलिया ‘सब हथियारन छोडि हाथ में रखिहऽलाठी' का उल्लेख इस क्षेत्र के लोगों के सन्दर्भ में हम पहले ही कर चुके हैं। कैलाश कवि जिनका जिक्र बद्रीनारायण ने अपने शोध कार्य में विस्तार से किया है, १९२१ ई. के आन्दोलन के बाद के भोजपुरी क्षेत्र के राष्ट्रवादी संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे। कैलाश स्वयं एक अच्छे लोक कवि और गायक थे जिनके भीतर समानान्तर राजनीतिक चेतना का विकास होता रहा। यह ‘समानान्तर' बहुत कुछ अभिजन से लोक के मोहभंग और विरहों के टकराव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इस समानान्तर की चेतना को समझने के लिए बद्रीनारायण कैलाश कवि की तुक्कड़ियाँ प्रस्तुत करते हैं जिनका सम्बन्ध लाठी या डंडा से ही है।


          १. जो खावे घीव-मलीदा, ओकर कान बहिराइल  बा।


               डण्डा उठावा ऽऽ चल ऽऽ फिरंगियन के


               भगावे के दिन आइल बा। ।


         २. कहै कवि वैसलाश उठाव ऽऽ डण्डा । तबिंह पूसटी अंगरेजवन के भण्डा।  


           ध्यातव्य है कि यह तुक्कडिया असहयोग आन्दोलन के बाद की है। गाँधी जी अपनी अहिंसा के प्रचार और प्रयोग में लगातार जुटे हुए थे। लोक इसे अभिजन की स्ट्रैटजी मानते हुए क्रान्ति और अंग्रेजों से सीधे तौर पर विरोध की बात करता था। इतिहासकार विपिनचन्द्र मानते हैं कि इसी समय क्रान्तिकारी आतंकवाद की दो धाराएँ विकसित हुई। पहली पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार में तथा दूसरी बंगाल में यह दोनों धाराएँ सामाजिक बदलाव से उपजी नई सामाजिक शक्तियों से प्रभावित हुई। इनमें एक थी प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उपजा मजदूर संगठन। भोजपुरी क्षेत्र की अधिकांश जनता खेती मजदूरी से ही जुड़ी हुई थी। अपनी दुर्दशा के लिए यह जनता अंग्रेजी शासन को ही जिम्मेदार मानती समझती थी। ऐसे में किसानों मजदूरों का यह आम वर्ग स्वाभाविक रूप से क्रान्तिकारी से आतंकवाद की दिशा में मुड़ा जिसका जिक्र कैलाश कवि ने अपनी तुक्कड़ियों के माध्यम से करने का प्रयास किया है। इसी समय अक्टूबर 1924 में क्रान्तिकारी युवकों का कानपुर में एक सम्मेलन हुआ और ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का गठन किया गया जो आगे चल कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' में परिवर्तित हो गया। लोक से जुड़े युवाओं को ऐसा लग रहा था कि क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजों को डरा-धमका कर भारत से बाहर किया जा सकता है और इसी क्रम में ये युवा बड़ी तेजी से इन क्रान्तिकारी संगठनों से जुड़ने लगे। इस समय इन युवाओं के आदर्श गाँधी की जगह चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाकउल्ला खाँ, सूर्यसेन आदि बनते चले गए। १९२५ ई. से लेकर १९३१ ई. तक यह क्रान्तिकारी धारा अपने प्रबल रूप से दिखाई पड़ी। आगे क्रान्तिकारी धारा का प्रतिनिधित्व सुभाष चन्द्र बोस ने अपने तरीके देश से बाहर जा कर किया। बहरहाल क्रान्ति के इस दौर में भोजपुरी लोक ने क्रान्तिकारियों के कंधे-से-कंधा मिला कर अपना भरपूर साथ एवं सहयोग दिया। इस समय इस लोक का हथियार लाठी जन-जन के हाथों में थी। लोगों का विश्वास चरम पर । था और इसकी अभिव्यक्ति लोक-गीतों में मुखर रूप से हो रही थी। लाठी जो आसानी से सर्व सुलभ थी, जो एक दरिद्र के घर में भी अपनी पूरी उपस्थिति के साथ मौजूद थी, इस समय लोक के प्रतिरोध का एक प्रमुख अस्त्र बन गई।


          लोक प्रतिरोध एक अन्य सशक्त माध्यम बना अपनी भूमि का गौरव गान। अपने उस देश को जो अंग्रेजों का शिकार हो कर आर्थिक रूप से बदहाल हो गया था, जहाँ जीवन अत्यन्त दुष्कर बन गया था उसके प्रति भी एक आदर सम्मान एवं गौरव का भाव लोगों के दिल में था। रघुवीर नारायण अपने गीत ‘बटोहिया' में लिखते हैं -


                                            


                                              सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से


                                              मोरे प्रान बसे हिम-खोह रे बटोहिया


                                              एक द्वार घेरे राम हिम-कोतवालवा से


                                              तीन द्वार सिन्धु घहरावे रे बटोहिया


                                               जाहु-जाहु भैया रे बटोही हिन्द देखि आउ,


                                               जहँवा कुहुँक कोइल बोले रे बटोहिया


                                                पवन सुगन्ध मन्द अगर चननवा से


                                                कामिनी बिरह राग गावे रे बटोहिया।


          अपने देश के प्रति गौरव का यह भाव लोगों में हीन-भावना पनपने से रोकता था। जिस समय अंग्रेज अपने को सर्वोच्च आर्य जाति का मानते हुए भारतीयों को काले, कुत्ते आदि अपमानजनक उद्बोधनों से सम्बोधित करते थे, भारतीयों पर उनका जुल्मों सितम काफी बढ़ गया था, ऐसे समय में यह आवश्यक था कि भारतीयों का आत्मविश्वास डिगने न पाए। गर्व की भावना से अपने देश को संसार की सुन्दर भूमि, जिसके सिर पर हिमालय की पर्वत चोटियों का ताज है, जिसके पैर तीन समुद्र पखार रहे हैं, बताना इसी आत्मविश्वास का परिणाम था। संभवत- भारतीयों की यह एक मजबूती थी जिसके दम पर एक लम्बे समय तक उन्होंने संसार की इस समय की श्रेष्ठ ताकत का मुकाबला किया और अन्तत: स्वतन्त्रता प्राप्त करने में सफलता पाई। अपने देश और अपनी भूमि के प्रति गौरव का यह भाव देश भर के लोक-गीतों में आवश्यक रूप से मिल जाता है।


          भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में एक नया मोड़ तब दिखाई पड़ता है जब औसत कद काठी वाले गाँधी जी ने आगे बढ़ कर इसकी बागडोर थाम थी। कुछ ही दिनों में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के बावजूद गाँधी जी ने आम जनता से अपना सम्बन्ध हमेशा बनाए रखा। यही नहीं लोक का विश्वास जीतने के लिए गाँधी जी ने लीक से जुड़े प्रतीकों को ले कर राष्ट्रीय आन्दोलन का विषय बना दिया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था तब यह कौन सोच सकता था कि चरखा भारतीयों को आपस में जोड़ने और आर्थिक स्वाभिमान भरने का एक ऐसा अस्त्र बन जाएगा जो अंग्रेजों को पूरी तरह निरूत्तर कर देगा। कौन यह सोचता था कि नमक जैसी मामूली चीज से पूरे देश में जन-भावना का ज्चार पैदा किया जा सकता है। अनेक लोगों ने गाँधी जी द्वारा सत्याग्रह के लिए नमक के चयन की हँसी उडाई । लेकिन गाँधी जी जिन्हें विपिन चंद्र ने जन आन्दोलन का माना हुआ विशेषज्ञ कहा है, इसकी महत्ता और व्याप्ति से भलीभाँति परिचित थे। नमक का भारतीय परिवेश में विशेष महत्त्व था। नमक का जुडाव लोक में अपनों का जुड़ाव माना जाता है। भोजपुरी लोक में तो इसका विशेष सन्दर्भ है। शादी व्याह से लेकर श्राद्ध तक। के आयोजनों में जन भोज के बाद जो भोज आयोजित होता है उसे 'नूने मिलना' कहते हैं। इस मिलन में अपने । अत्यन्त करीबी सगे सम्बन्धी एवं खानदान के लोग ही आमन्त्रित किए जाते है। किसी का नमक खा कर उसे धोखा देना नमकहरामी माना जाता है। ऐसे में नमक का मसला उठा कर गाँधी जी ने पूरे भारतीय मन-मस्तिष्क को संवेदनात्मक तारों से जोड़ दिया। १९३० ई. के फरवरी महीने में गाँधी जी ने जैसे ही नमक की बात करनी शुरू की, सत्याग्रह का सूत्र स्पष्ट होने लगा। पानी से पृथक नमक नाम की कोई चीज नहीं है जिस पर कर लगा कर राज्य करोड़ों को भूख से मार सकती है। बीमार असहाय और विकलांगों को पीडित कर सकती है। इसीलिए यह कर अत्यन्त अमानवीय है, अविवेकपूर्ण है जिसका उपयोग मानवता के विरूद्ध किया जाता है।


         लोक गाँधी जी के नमक सत्याग्रह से पूरी तरह जुड़ गया। देश भर में जगह-जगह पर लोग प्रतीकात्मक रूप से नमक बनाने लगे। नमक बनाने की घटना लोक-गीतों का विषय बनने लगी ऐसे ही एक लोक-गीत में चना बेचने वाला कहता है।


         चना को गाँधी जी ने खाया


         जा के डंडी नमक बनाया


         सत्याग्रह संग्राम चलाया, चना जोर गरम ।


         तुम भी चना चबेना खाऔ, खा के गाँधी जी बन जाओ


         अंगरेजन का मार भगाओ, चना जोर गरम।


          घर-घर का नमक अब एक राष्ट्रीय प्रतीक बन गया। लोगों ने जगह-जगह पर नमक बना कर गाँधी जी से नूने मिलने की रस्म पूरी करते हुए जनान्दोलन में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित कर दिया। इसी क्रम में गाँधी जी ने विदेशी वस्तुओं की होली जलाने, स्वदेशी को अपनाने और लोगों से चरखा चलाने का आह्वान किया। चरखा घर-घर पहुँचने लगा। चरखे पर प्रतिदिन सूत कातने जैसा मामूली काम राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया। गाँधीजी का मानना था कि सत्य, अहिंसा और चरखा ये तीनों ही लोकजीवन के अपने हैं। लोक से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध इस समय के अनेक लोक-गीतों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।


         हम भारतवासी हम भारतवासी पाए सुराज सही रे सही ।


         मिले गाँधी-जवाहिर मिले, गाँधी जवाहिर एक बात कही रे कही।


          सब कातहु चरखा सब कातहु चरखा, सुन कर मूल यही है यही


          छोड़ो कपड़ा विदेशी छोड़ो कपड़ा विदेशी, खद्दर लेहु गही रे गही


          लाज भारत की मारी, लाज भारत की मारी, कपड़े बिना नर नारी सभी


          सुंदर चरखा चलाऔ, सुंदर चरखा चलाओ तब घर बार सभी के सभी


          पहिरौ खद्दर मोटा पहिरो खद्दर मोटा, सुनो नर नारी सभी के सभी


          प्यारे हिन्दू मुसलमान, प्यारे हिन्दू-मुसलमान, आपस में मेल चही रे चही।


          जब से गाँधी जी ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर स्वदेशी खादी से बने वस्त्रों को पहनने का सन्देश घर-घर पहुँचाया तब से यह राष्ट्र प्रेम का प्रतीक बन गया। चरखा देश की सभी भाषा बोलियों के लोक-गीतों में पहुँच गया। प्रतिदिन चरखा कातने से अधिक सूत एवं शुद्ध स्वदेशी वस्त्र प्राप्त होते हैं और भारत का धन विदेश जाने से बच जाता है। चरखे की घर-घरर की ध्वनि कर्ण प्रिय और मधुर लगती है।


             घरर घर घरर चलै चरखा रे।


             चलै चाक पै माल तौ चरखा करै सूत बरखा।।


             तजि देउ सब आलस्य किफायत पैसा की कीजो


             घर घर कातौ सूत ओढ़ सब कपड़ा की कीज।।


              घरर घरर... ...


              शुद्ध सूत के कपड़ा पहिरौं स्वच्छ रहो दिन रात


              पैसा बाहर न जाये तो सदा रहे अपने पास ।।


              घरर घरर ... ...


                लोक चरखे के महत्त्व को भलीभाँति पहचान रहाथा। यह अब अपना जरूरी काम बन गया था। सारे कामों के बीच एक और महत्त्वपूर्ण काम जो हमारी देशज पहचान को पुष्ट करता था। घर पर सूत कातने से शुद्ध सूतीवस्त्र तो मिलता ही अपना आर्थिक आधार भी मजबूत बनता था। लोग इस बात के प्रति जागरूक हो चुके थे कि विदेशी कपड़ा खरीदने का मतलब अपना धन विदेश को देना और उसे मजबूत बनाना है। एक चरखे ने सारी समस्याओं का निराकरण कर दिया। ऐसा था यह चरखा जिसने भारत की समस्त जनता को अनेकानेक भेदभावों के बावजूद एक सूत्र में बाँध कर उसे और मजबूत बना दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन को भारतीय लोक के इसी एकता की जरूरत थी। प्रतिरोध का हथियार बने चरखे ने यह काम बखूबी किया। अंग्रेजी सरकार इस चरखे की कोई काट नहीं ढूँढ सकी। वह चरखेके सामने असहाय नजर आने लगी।


                भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती। है। लोक अपनी सहज अभिव्यक्ति अपनी भाषा में ही कर पाता है। महात्मा गाँधी ने इस मर्म को गहरे तौर पर समझ लिया था इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी के भारत की भाषा होने को एक सिरे ही खारिज कर दियाऔर हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा बनाए जाने पर बल दिया। गाँधी जी का मानना था कि अगर हमें एक राष्ट्र होने का दावा साबित करना है, तो हमारी अनेक बातेंएक सी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों को। एक सूत्र में बाँधने वाली हमारी एक साझा संस्कृति है...हमें एक सामान्य भाषा की भी जरूरत है। देशी (प्रान्तीय) भाषाओं की जगह पर नहीं, परन्तु उसके अलावा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होनाचाहिए जो हिन्दी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फारसी या अरबी की ही भरमार हो। एक अवसर पर तो गाँधी जी ने खुले तौर पर यह उद्घोषित किया कि जा कर अंग्रेजों से बता दो कि गाँधी अंग्रेजी नहीं जानता।।


            भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसके पहले ‘निज भाषा की उन्नति' को व्यक्ति की उन्नति से जोड़ कर इसे अपना समर्थन प्रदान कर चुके थे। लोक अपनी भाषा बोली में लोक-गीतों के माध्यम से अंग्रेजी सरकार के खिलाफ प्रतिरोध का जो गीत रच रहा था, वह अप्रतिम था। अंग्रेजों को भारत पर शासन करने के लिए हिन्दी या यहाँ की स्थानीय भाषाएँ सीखने की जरूरत हो सकती थी लेकिन भारतीयों को अपना प्रतिरोध जताने के लिए किसी और भाषा की जरूरत नहीं थी। वह बेबाकी से अपनी भाषा में अपनी बात कह रहा था। अपनी बोली में वह अंग्रेजी अत्याचारों और अपनी दुर्दशा को उद्घाटित कर रहा था। केन्या के प्रसिद्ध रचनाकार मूमी वा थ्यांगो ने लिखा है वेस्टेण्डीज के किसी विचारक ने एक बार कहा था कि भाषा का चुनाव अपने लिए एक दुनिया का चुनाव करना होता है और हांलाकि में किसी दुनिया के ऊपर भाषा के कल्पित प्रभुत्व को नहीं मानता, पर भाषा का चुनाव करते समय ही किसी साहित्यकार के सामने खड़े सबसे अहम सवाल का जवाब मिल जाता है कि मैं किसके लिए लिख रहा हूँ। मेरा पाठक कौन है। अगर केन्या का कोई लेखक अंग्रेजी में लिखता है तो बेशक उसका कथ्य कितना भी क्रान्तिकारी क्यों न हो, वह निश्चय ही केन्या के किसानों मजदूरों तक नहीं पहुंच पाता न उसका इनके साथ सीधा संवाद ही बन पाता है। लोक को यह बात पहले ही मालूम थी इसीलिए उसे भाषा सम्बन्धी इस तरह की कोई दिक्कत ही नहीं थी। दुनिया का हर लोक-गीत बिल्कुल अपनी ठेठ बोली भाषा में ही रचा जाता है। इसीलिए यह अधिक प्रभावशाली साबित होती है। इन लोक-गीतों की एक खासियत और भी है कि शायद ही इसमें किसी और लोकभाषा के लिए निन्दा या ईष्र्या का भाव दिखाई पड़े। यही उसकी मजबूती भी होती है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हमारे भारतीय लोक ने प्रतिरोध के हथियार के तौर पर जिस भाषा को चुना वह उसकी अपनी भाषा बोली थी। जिस सहजता से वह अपनी बातों, अपने विचारों को अपनी भाषा में व्यक्त कर सकता था वह दूसरी भाषा में संभव ही नहीं था। इस प्रकार लोक की अपनी भाषा भी साम्राज्यवाद के प्रति अपना प्रतिरोध जताने का एक प्रमुख माध्यम बनी।


           गाँधी भारतीय इतिहास की ऐसी शख्सियत थे जो एक व्यक्ति मात्र न हो कर खुद में एक विचार और प्रतिरोध के प्रतीक बन गए थे। इस प्रतीकात्मकता के पीछे कहींन-कहीं यह लोक ही था। यहाँ यह लोक मिथक आम है। कि जब-जब मानवता संकट में पड़ती है तब-तब उसका उद्धार करने के लिए कोई न कोई अवतार होता है। यह अवतार बुरी शक्तियों का नाश कर मानवता की रक्षा करता है। इसी परम्परा में दस, चौबीस और कहीं-कहीं छत्तीस अवतारों की चर्चा मिलती है। ध्यातव्य है कि यह अवतार प्रायः मानव रूप में ही होते थे। इनके मानवीय कृत्य ही इन्हें अवतार की पंक्ति में खड़ा करते थे। गाँधी जी को लोक ने इन्हीं अवतारों की परम्परा में जोड़ कर देखा


                   अवतार महात्मा गाँधी के भार उतारै का।।


                    सिरी राम के सेना बानर रही सिरीकिसन के सेना ग्वाल बाल


                    गाँधी के सामने पब्लिक रहै, भारत के भार उतारै का


                    सिरीराम के साथै लछिमन रहै सिरीकिसन के साथे ग्वाल बाल


                     सिरीराम के हाथे धनुष बाण, सिरीकिसन के हाथे बंसी रही।


                     गाँधी के हाथे में चरखा रहा, भारत के भार उतारे का


                     सिरीराम मारे रहे रावन का सिरीकिसन मारे रहे। वंससा का |


                      गाँधी जी जग मा परगट भए अन्यायी राज हटावे का।


            राम और कष्ण भारतीय जन के संस्कति पुरुष हैं। दोनों ने अपने समय में लगातार संघर्ष करते हुए अपने समय की बुरी शक्तियों का अन्त किया। इसी परम्परा में लोक अपने समय के गाँधी को रखता है जिसकी सेना उन दोनों महापुरुषों से भी बड़ी पब्लिक यानी जनता की सेना है। गाँधी का हथियार चरखा है और अपने इस हथियार के माध्यम से गाँधी जी अंग्रेजों का अन्यायी राज हटाने के लिए प्रकट हुए हैं। गाँधी जी को अपने इस अभियान में सफलता मिली। ठीक राम-कृष्ण की ही परम्परा में गाँधी जी ने अंग्रेजी महाशक्ति को पराभूत किया और इस प्रकार भारत ने सदियों से चली आई अपनी पराधीनता को अन्तिम रूप से समाप्त कर स्वाधीनता के नये अध्याय की शुरुआत की।


            कभी कभी हमारे आदर्श पुरुष हमारे लिए खुद ही  प्रतिरोध का माध्यम बन जाते हैं। हमारे मन मस्तिक में आदर्श पुरुष की विशिष्ट छवि हमें उन्हीं जैसा बनने के लिए।


              उत्प्रेरित करती रहती है। गाँधी जी समय के साथ अपने जीवन में ही किवदंती बन गए और उनसे जुड़ी कई चमत्कारिक कथाएँ लोक कविताएँ, तुक्कड़ियाँ आदि लोक में गढ़ी गईं। गाँधी में ही लोक वह छवि देखता था जिसमें बिना कुछ आगे-पीछे सोचे उनके एक आह्वान पर निकल पड़ता था। हाथ में डण्डा लिए बापू के लोक लगाव । से ब्रिटिश सरकार भयभीत रहने लगी और अन्ततः उसे मजबूरी बस भारत को स्वाधीन करना पड़ा। गाँधी जी की एक हिन्दू उग्रवादी नाथूराम गोडसे द्वारा ३० जनवरी १९४८ को गोली मार कर हत्या कर दी गयी। उनकी हत्या से लोग खुद को अनाथ समझने लगे और यह प्रतिज्ञा करने लगे कि बापू के सुझाए रास्तों पर चल कर हम उनकी याद बनाए रखेंगे और अपने आँसुओं से तर्पण करेंगे हम आजीवन आपके नाम को भज कर सद्मार्ग पर चलने का प्रयास करेंगे।


                 जिनगी भर भजब रउरे नाम ऐ मोरे गाँधी बाबा


                 बापू जी के नाता लगा के गइली सुरधाम ए मोरे गाँधी बाबा


                  सारी दुनिया हो गइल अनाथ, ए मोरे गाँधी बाबा


                  भारत आजाद कइली, गोली खा के मरल ए मोरे गाँधी बाबा


                  नइया परलि बा मझधार, ए मोरे गाँधी बाबा


                  ब्रिटिश के नास कइ के भैजली इग्लिस्तान ए मोरे गाँधी बाबा


                  सारी दुनिया होइ गइल बेहाल, ऐ मोरे गाँधी बाबा


                  जिनगी भर भजब रउरे नाम ए मोरे गाँधी बाबा।


              इस प्रकार लोक ने प्रतिरोध के अपने औजार समय के साथ खुद विकसित किए। लोक का यह जमीनी जुड़ाव ही था कि उसे उखाड़ फेंकना शायद किसी भी शक्ति के लिए संभव नहीं होता फिर अंग्रेजी शक्ति की क्या बिसात थी। लोक-गीतों में मनोरंजन के माध्यम से अंग्रेजी शासन के अत्याचारों को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया कि इसके प्रवाह को रोकने के लिए अंग्रेज कुछ भी नहीं कर पाए और खुद को भारतीय जन के समक्ष असहाय पाने लगे। गाँधी ने लोक के मन और उसकी संवेदना को अच्छी तरह से समझा बुझा था। इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी सत्ता के प्रतिरोध के लिए जो हथियार चुने वे अत्यन्त साधारण होते हुए भी अंग्रेजों के लिए मारक बन गए। लोक का यह प्रतिरोध दिनोदिन व्यापक से व्यापकतर होते हुए ऐसा स्वरूप ग्रहण कर लिया कि उसे गुलाम बनाकर अब नहीं रखा जा सकता था। लोक अपनी प्रकृति में ही स्वतन्त्र मन मिजाज वाला मन मिजाज वाला लोक प्रपुसल्लित हो उठा। अब उसकी आँखों में कुछ नए सपने और कुछ नई उम्मीद थीं। इसी उम्मीद के साथ आजादी की सुबह उसने एक नए युग में कदम रखा।


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