लेख -गणिका विमर्श -डॉ. सत्य प्रिय पाण्डेय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय


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         प्राचीन साहित्य को देखकर यह लगता है कि वेश्याओं की स्थिति आज की अपेक्षा काफी अच्छी थी, उन्हें राज्याश्रय प्राप्त था, राज्य में वेश्याओं को लिए समुचित व्यवस्था थी। राजा के राज्याभिषेक के अवसर पर अथवा सेना के प्रयाण के अवसर पर वेश्याओं को सम्मुख किया जाता था। इनका दर्शन शुभ माना जाता था। वाल्मीकि रामायण में लंका विजयोपरांत राम के राज्याभिषेक के अवसर पर गणिकाओं की उपस्थिति वर्णित है, जिसके अनुसार - स्तुति और पुराणों के जानकार सूत, समस्त वैतालिक (भांट) बाजे बजाने में कुशल सब लोग, सभी गणिकाएँ, राजरानियाँ, मंत्रीगण, सेनाएँ, सैनिकों की स्त्रियाँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा व्यवसायी - संघ के मुखिया लोग श्रीरामचंद्र जी के मुखचन्द्र का दर्शन करने के लिए नगर से बाहर चलें (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, १२७/३-४) । युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिए भी गणिकाओं को राजा के साथ भेजा जाता था। यथा-रूप से आजीविका चलाने और सरस वचन बोलने वाली स्त्रियाँ तथा महाधनी एवं विक्रय योग्य द्रव्यों का प्रसारण करने में कुशल वैश्य, राजकुमार श्रीराम की सेनाओं को सुशोभित करें (वाल्मीकि रामायण, अयोद्धयाकांड, ३६/३)। राजा के विजय प्राप्त करने के बाद वेश्याओं, गणिकाओं को उनके स्वागत के लिए भेजा जाता था। महाभारत में विराट को युद्ध में विजय दिलाने के उपरान्त विराट द्वारा नगर में यह घोषणा की गई कि - सब प्रकार के बाजे बजाए जाए और वेश्याएँ भी सज - धजकर तैयार रहें और भी - मेरे नगर की सड़कों को पताकाओं से अलंकृत किया जाए, फूलों तथा नाना प्रकार के उपहारों से सब देवताओं की पूजा होनी चाहिए। कुमार, मुख्य - मुख्य योद्धा, श्रृंगार से सुशोभित वारांगनाएं और सब प्रकार के बाजे - गाजे मेरे पुत्र की अगवानी में भेजे जाएँ। गणिकाओं की स्थिति सामान्य स्त्री से अच्छी थी। कई संस्कृत नाटकों में गणिकाएँ संस्कृत बोलती हैं, न कि स्त्री और शूद्रों की तरह प्राकृत । हितोपदेश तो कहता है कि - अत्यंत दुष्ट कुलबधू से अच्छी है, वेश्या। दुष्ट बैल से अच्छा है कि शाला सूनी ही रहे। अविवेकी राजा के राज्य से अच्छा है जंगल का वास और अधम की संगत से अच्छा है, प्राण का त्याग। (हितोपदेश - १-१२९) संस्कृत साहित्य शास्त्र में गणिका प्रसंग पर काफी विस्तृत विवेचन हुआ है और गणिका से सावधान रहने की हिदायत दी गई है। यह अपने आपमें इस बात का प्रमाण है कि उसमें एक चुम्बकीय शक्ति थी जिससे कोई भी आकर्षित होता चला आता था, चाहे वह राजा ही क्यों न हो। कहा भी गया है - वेश्या का हृदय चुम्बक की तरह होता है जो कि विषयासक्त मनुष्यों को अपनी तरफ उसी तरह खींच लेता है जैसे चुम्बक लोहे को खींच लेता है। (कुट्टिनीमतं, दामोदरगुप्त पृष्ठ- ३१९)


       यों तो ये उच्छिष्ट समझी जाती थी, अब सवाल यह है कि समाज ने इसे बनाया ही क्यों ? गणिका को समाज ने ही निर्मित किया। यों इसके लिए आजकल एक मुहाबरा चलता है कि - ‘गन्दा है पर धंधा है' नि:संदेह यह व्यवसाय ही था और राज्य को इससे राजस्व आता था। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने इसकी समुचित व्यवस्था की है जिसके अनुसार वह राजा की सेवा में तत्पर रहे और उसको इस कार्य में गणिकाध्यक्ष नियुक्त करे। ' राजा की परिचर्या करना ही गणिका कुटुम्ब का कार्य है। वह कार्य आधा- आधा बांटकर प्रतिगणिका की नियुक्ति की जाए। उसके रूप सौन्दर्य के आधार पर उसकी श्रेणी बनाई गई थी और तद्नुरूप उन्हें राज्य की तरफ से बेतन दिया जाता था। मसलन ‘सौभाग्य और अलंकार की अधिकता के अनुसार ही एक हजार पण देने के क्रम से वारांगनाओं के तीन विभाग किए जाए, - कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम। अर्थात जो वारांगना (वेश्या = गणिका) सौन्दर्य आदि सजावट में सबसे कम हो, वह कनिष्ठ समझी जाए और उसे एक हजार पण दिया जाए, इसी प्रकार जो सौन्दर्य आदि में उससे अधिक हो वह मध्यम, उसको दो हजार पण दिया जाए और जो सबसे अधिक हो वह उत्तम और उसको तीन हजार पण वेतन दिया जाए। गणिकाएँ आमोद प्रमोद का साधन थीं (यों तो समूची स्त्री जाति ही आमोद प्रमोद का साधन मानी जाती रही है।) यह कहा गया है कि ऐसी पत्नी जो गणिका की तरह सुरत व्यापार में सन्नद्ध हो और अपने पति को संतुष्ट करे तो वह अपने पति की प्राण प्यारी होती है, श्लोक देखें -


              कोपे दासी रतौ वेश्या, भोजने जननी समा।


              मंत्रिणी विपदः काले, सा भार्या प्राणवल्लभा।।


             और शास्त्रों में तो बार - बार यह आगाह किया गया है कि सावधान - वेश्या से अनुराग मत करना वह अनुराग की वस्तु नहीं है, बल्कि क्रीड़ा की वस्तु है और यदि वह अनुराग का आडंबर करे तो विश्वास मत करना क्योंकि वेश्या अनुराग कर ही नहीं सकती। अनुराग करना उसके व्यवसाय के विरुद्ध है। शूद्रक के प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम में कहा गया है कि - समुद्र की लहर की भांति स्वभाव वाली और संध्या के मेघों की अस्थाई प्रीति वाली वेश्याएँ तो धन उड़ाना चाहती हैं। जैसे महावर लगाने बाद उसकी रुई निचोड़कर फेंक दी जाती है, उसी प्रकार वे मनुष्यों का धन हरण कर उन्हें छोड़ देती हैं। यह कितना कठिन है, देह को हृदय से विलग करके यंत्रवत सुरत व्यापार में तल्लीन हो जाना। यों इस बात के एकाध अपवाद भी हैं जिसमें वेश्या ने किसी पुरुष प्रेम किया, निर्धन व्यक्ति से न कि धनवान से ; इसका सबसे अच्छा उदाहरण शूद्रक का मृच्छकटिकम है जिसमें बसंतसेना दरिद्र ब्राह्मण चारुदत्त से प्रेम करती है और उसका मानना है कि ऐसी वेश्या घृणा का पात्र नहीं मानी जाती क्योंकि यह अकल्पनीय है कि वेश्या किसी निर्धन से स्नेह करे। वे तो धन से ही स्नेह करती हैं। यों ही नहीं एक गणिकाध्यक्ष गणिका को उपदेश करते हुए कहती है कि - सुजनों यानी धनवानों के शव का स्पर्श किया जा सकता है लेकिन निर्धन व्यक्ति का नहीं।। और भी- निर्धन पुरुष को वेश्या, पदच्युत राजा को प्रजा, फल से हीन वृक्षों को पक्षी और भोजन के बाद अतिथि गृहस्थ के घर को छोड़ देते हैं। इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को चाहिए कि वे वेश्या को उसी तरह त्याग दें जैसे श्मशान के फूल त्याग दिए जाते हैं। कथासरित्सागर में भी ऐसी कथाएं आई हैं जिनमें यह दिखाया गया है कि वेश्या के लिए धन ही सर्वस्व है। एक सन्दर्भ देखें जिसमें कुट्टिनी मकरदंष्ट्रा अपनी पुत्री से कहती है - बेटी तुम इस दरिद्र से क्या प्रेम कर रही हो। अच्छे व्यक्ति मुर्दे को भी छू लेते हैं, वेश्या निर्धन को नहीं छू सकती। कहाँ सच्चा प्रेम और कहाँ वेश्या वृत्ति, क्या तुम वेश्याओं के सिद्धांत को भूल गई। बेटी, स्नेह करने वाली वेश्या संध्या के समान अधिक देर तक नहीं चमक सकती। वेश्या को तो केवल धन के लिए अभिनेत्री के समान प्रेम दिखलाना चाहिए। (कथासरित्सागर, लोजंग की कथा, द्वितीय लम्बक) यद्यपि वे त्याज्य भले रही हों लेकिन, वेश्याओं का प्रभाव हर काल में में रहा है। गुप्तकाल में तो बाकायदा नगरबधुओं की व्यवस्था थी। वैशाली की नगरबधू ऐसी ही एक वेश्या थी जिसके पास राजा बिम्बिसार जाता था। गुप्तकाल में श्रृंगार हाट की व्यवस्था थी और इसी पर आधारित संस्कृत में चार चार नाटकों की रचना हुई है जिन्हें चतुर्भाणी नाम से वासुदेवशरण अग्रवाल ने संकलित एवं संपादित किया है जिसमें क्रमशः पद्मप्राभृतकम, धूर्तविटसंवाद, उभयाभिसारिका, पाताडितकम जैसे नाटिकाएँ हैं। चतुर्भाणी की भूमिका में वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं -


         चतुर्भाणी के लेखकों का मुख्य उद्देश्य उस समय के गता चित्र सामने लाना और ढोंग का ड करना था। भांणों के पढ़ने से पता चलता है कि राजा, राजकुमार, ब्राह्मण, बड़े -बड़े सरकारी कर्मचारी, व्यापारी, कवि और यहाँ तक कि व्याकरणाचार्य, बौद्ध भिक्षु इत्यादि भी वेश में जाने से नहीं हिचकिचाते थे। वेश्याओं और उनकी माताओं द्वारा कामियों को दुहने की तरकीबें, कामुकों के नाज और नखरे, मान, लीला, हाव भाव इत्यादि का भी इन भांणों में बड़ा चुस्त वर्णन हुआ है। साथ ही वेश्याओं के प्रकार और उनके लक्षणों की भी चर्चा हुई है। मसलन वेश्याओं की श्रेणियां होती हैं - उत्तमा, मध्यमा और अधमा। अधमा दान से अथवा अकारण ही प्रेम करती। है, मध्यमा दान अथवा जवानी से प्रसन्न होती है और उत्तमा दानी, सुन्दर और अनुकूल कामी की सेवा करती है। इसमें विट और विश्वलक के संवाद के माध्यम से वेश्याओं पर बड़ी ही महत्पूर्ण चर्चा की गई है। मसलन विस्वलक के यह पूछने पर कि क्या वेश्या को दिया गया धन व्यर्थ जाता है, विट इसका उत्तर देते हुए कहता है कि धन का उपयोग दान, उपभोग और गाड़ने में होता है। इसमें दान और उपभोग ही ठीक है। अर्थ सुख प्राप्ति के लिए है और वह सुख वेश्या से मिलता है। कला इत्यादि और कामशास्त्र का ज्ञान होने से मनुष्य वेश में क्यों न जाए? ............ विट ने कहा कि भोग की श्रेष्ठता से वेश्याएँ श्रेष्ठ हैं। सुख इसी जन्म में मिलता है, दूसरे जन्म में उसका मिलना संदेहजनक है, फिर उसमें क्या मजा ? इसके बाद अनेक प्रकार से वेश्याओं के साथ मिलने वाले सुखों का विट उल्लेख करता है जैसे - भरे हुए गोल उरुओं और नितम्बों से युक्त तथा उघडे हुए आशुक और बंधी हुई मेखला से युक्त वेश्या के जघन। प्रदेश का स्पर्श जिसे अच्छा लगता है, वह उसके लिए जान भी दे सकता है, धन की तो बात ही क्या ? सब रसों में सुरापान अत्यंत निन्दित है, पर वेश्या के साथ उसका भी उपयोग मजा देता है। वेश्या और कायस्थ की तुलना करते हुए वह कहता है, “अरे वेश्या और लिपिकर्ता दोनों छिद्र देखकर प्रहार करने में एक समान हैं। उनमें लिपिकार भी वेश्या की तरह मुट्ठी गरम करके रहता है पर कुछ देर आराम से बैठने देता है। परन्तु वेश्या वात रोग की तरह बहुत खर्च करा देती है और चैन से बैठने भी नहीं देती है। यहाँ एक बात और बड़ी महत्वपूर्ण है जिसका उल्लेख किया गया है, वह है कुलबधू और वेश्याओं में तुलना। इसकी तुलना में ही मानी यह उत्तर निहित है कि लोग वेश्याओं के पास क्यों जाते होंगे ? मसलन वह कहता है - अनुकूलता कुलबधू में एक तरह की होती है। कलबधु यदि सीधी है तो पहले तो वह जो प्रिय बोलती है, वह कुसमय में बोलती है। फिर वह पति को अतीव प्रिय मानकर विप्रिय भी कह देती है। यही बात सर्वत्र देखने में आती है। काम एक इच्छा विशेष है। और प्रार्थना भी इच्छा है। न मिलने से प्रार्थना पैदा होती है। वह प्रार्थना वेश्या के वश में आ जाने पर भी ईष्र्या से भरी होती है, क्योंकि वेश्या में सबका हिस्सा है। ईष्र्या से लोभ होता है, इसलिए वेश्या के प्रति काम हटता नहीं। काम राग का मूल है। और भी - वेश्या के जघन रूपी रथ पर चढा ऐसा कौन चेतन प्राणी है जो कुल्नारी की परवाह करे? कोई ऐसा पुरुष नहीं जो रथ को छोड़कर बैलगाड़ी की सवारी चाहेगा। कुलबधू की एकरसता और विरसता को अभिव्यक्ति देता एक श्लोक क्षेमेन्द्र की रचना समय मातृका में आया है जिसके अनुसार - नित्य ही बच्चा पैदा करने से विनष्ट यौवनवाली, वेश प्रसाधन से रहित अर्थात् वेश को आकर्षक बनाने की कला से अनभिज्ञ, मदहीन, सामाजिकों की गोष्ठी में होनेवाले विलास की रसकेलि का तिरस्कार करनेवाली, कलह की मूल, गृहिणियों में भला पुरुषों की कैसे कामरूचि होती है? यही पर और भी कहा गया है कि पुरुषों का गृहिणी के साथ संगम जन्म से ही जघन्य एवं एक दिन तक अर्थात् स्वल्पकाल तक ही रमणीय है। तो भी (मोहवश) पशुओं के सामान अविचारी पुरुषवर्ग विवाह के विषय में आग्रह करते हैं।' वेश्या तो चाहती ही है कि लोग अपनी कुलबधुओं को छोड़कर उसके पास आए, यों भी लोक में कहा जाता है कि रांड चाहती है कि सारी विवाहिताएँ रांड़ हो जाएँ। वेश्या तो चिर विधवा है, उसके भाग्य में विवाह कहाँ? बहरहाल वह आगे कहता है - ‘जो वेश्या को छोड़कर स्वर्ग के दिव्य कामोपभोग की इच्छा करता है, मैं उसे ठगा हुआ मानता हूँ।' वेश्या से जो आनंद मिलता है, वह प्रत्यक्ष है और सद्दयः प्राप्त होता है, पुनर्जन्म किसने देखा है। यह-


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                                          उन्हें तरह - तरह के यौनजन्य रोग हो जाते हैं


                                             और वे निरंतर मृत्यु के मुख में जाने को


                                            अग्रसर हैं। इसमें कहा गया है कि अपनी


                                                  पत्नी को प्रेम करने वाले से भी वेश्या ।


                                                              सम्बन्धन बनाए


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 घोर भौतिकवादी व्याख्या है। चार्वाक दर्शन की तरह यह दैहिक भोग को बल देती है और वेश्यागमन इसी भोग की तुष्टि करता है। इस भोग के समक्ष बड़े -बड़े नतमस्तक हो गए। भर्तृहरि ने अपने श्रृंगार शतक में वेश्या की भत्र्सना और प्रशंसा करते हुए लिखा कि - यह वेश्या सौन्दर्य रूप ईंधन से बढ़ाई गई कामाग्नि की ज्वाला ही है जिसमें कामुक अपने यौवन और धन की आहुतियाँ दिया करते हैं। और भी कहा कि - वेश्या का अधर पल्लव (ओठ) यद्यपि अतीव मनोहर है; किन्तु वह जासूस, सिपाही, चोर, नट, दास,नीच और जारों के थूकने का ठीकरा है, इसलिए कौन कुलीन पुरुष उसे चूमना चाहेगा? कामसूत्र में वेश्याओं का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। यहाँ वेश्याओं के कई भेदोपभेद दिए गए हैं। मसलन, कुम्भदासी, परिचारिका, कुलटा, नटी, शिल्पवारिका, प्रकाश विनष्टा, रूपजीवा, गणिका, वेश्या आदि। रूपजीवा का तो अर्थ ही है ऐसी स्त्री जी अपने रूप से अपनी आजीविका चलाती हो। अर्थशास्त्र में रूपजीवा शब्द का व्यवहार साधारण वेश्या और विशेष तरह की वेश्या के लिए किया गया है। कामसूत्र में इस बात का शब्द का व्यवहार साधारण वेश्या और विशेष तरह की वेश्या के लिए किया गया है। कामसूत्र में इस बात का उल्लेख हुआ है कि गणिकाएँ चौंसठ कलाओं में पारंगत होती थीं क्योंकि न जाने कौन सी कला की जरूरत पड़ जाए पुरुष से धन ऐंठने के लिए। कामसूत्र तो यह भी कहता है। कि वेश्याओं को किन पुरुषों से सम्बन्ध बनाना चाहिए और किनसे नहीं। मसलन-क्षय से पीड़ित, रोगी, कृमि रोग से पीड़ित, दुर्गंधित मुखवाला, अपनी स्त्री को प्यार करने वाला, कंजूस, बड़ों से त्यागा हुआ, चोर, दम्भी,वशीकरण इत्यादि में विश्वास करने वाला, मान, अपमान की परवाह न करने वाला और लज्जालु इनके साथ वेश्या को प्रेम करने की मनाही थी। यानी उस सामाज में वेश्या के स्वास्थ्य को लेकर इतनी चिंता थी कि उसे रुग्ण और अस्वस्थ पुरुष से दूर रहने की हिदायत दी गई थी।


         आज जबकि समाज का इतना विकास हो गया है फिर भी वेश्याओं की सुध लेने वाला कोई नहीं। वे तथाकथित रेड लाइट इलाके में नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। उन्हें तरह - तरह के यौनजन्य रोग हो जाते हैं। और वे निरंतर मृत्यु के मुख में जाने को अग्रसर हैं। इसमें कहा गया है कि अपनी पत्नी को प्रेम करने वाले से भी वेश्या सम्बन्ध न बनाए यानी कि वेश्या के पास प्रायः ऐसे पुरुष आते हैं जो अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करते थे अथवा वेश्या के लिहाज से देखें तो ऐसा पुरुष उसे सुरत में पूर्ण आनंद नहीं देगा। इस आनंद का कारण एक तो यह है कि वह कुलबधू की तरह सुरत में लज्जा नहीं दिखाती, वह अपने तन को परोस देती है सूरत के लिए और यदि गणिका लज्जाल होगी तो वह नष्ट हो जाएगी उसका व्यापार नहीं चलेगा, कहा भी गया है -


              असंतुष्टा द्विजा नष्टाः, संतुष्टाश्च महीभुजः।।


              सलज्जा गणिका नष्टा, निर्लज्जाश्च कुलांगना।।  


     शास्त्रों में तो इस बात पर विशेष बल दिया गया है। कि वेश्या किसी से प्रेम नहीं करती है। वह केवल धन हरण करती है, वह धूर्त होती है जैसे पक्षियों में कौआ, जातियों गणिका में नाईऔर जंतुओं मेें सियार यथा -


               पक्षिनां वायसौ धूर्तः श्वपादानाम च जम्बुकः ।


               नराणाम नापितो धूर्ती नारीणाम गणिका मता।।


            दरअसल वेश्याओं का व्यापार झूठ और छल पर ही आधारित होता है, इसमें सत्य के लिए कोई स्थान नहीं होता। वेश्या यदि सत्यवादी होगी तो वह नष्ट हो जाएगी। आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपनी पुस्तक समय मातृका में लिखा है कि - दान देने से व्यापारी नष्ट हो जाता है, और सत्य बोलने से वेश्या। अत्यधिक विनयशील होने पर गरु नष्ट हो जाता है और दूसरों पर दया दिखाने से कायस्थ नष्ट हो जाता है। जो भी हो शास्त्रों में वेश्या से दूर रहने की ही बात कही गई है क्योंकि वह धन, बल, कुल,शील सबको हरण ही करती है। उसमें कुछ भी श्रेष्ठ नहीं मसलन कहा भी गया है - जिसके दर्शन मात्र से चित्त विकल हो जाता है, स्पर्श से धन नष्ट हो जाता है, मैथुन से वीर्य नष्ट हो जाता है, ऐसी वेश्या मानों प्रत्यक्ष राक्षसी ही हो। आचार्य क्षेमेन्द्र ने तो गणिकाओं पर आधारित एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही लिख दिया है जिसका नाम है ' समयमातृका'। दरअसल कालांतर में वेशकर्म अत्यंत घृणित और गर्हित माना जाने लगा।


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