लघु कथा - शेष बचा - आशा शैली

             शान्ता को ये कटोरियाँ बहुत पसन्द थीं। विवाह के बाद जब पहली दीपावली से पहले राकेश उसे बाज़ार ले गए तो रिवाज के अनुसार धन-तेरस को कोई बर्तन तो खरीदना ही था।


             शान्ता ने वे कटोरियाँ देखीं तो राकेश ने पूरी बारह कटोरियाँ बंधवा लीं।


             शान्ता ने कहा भी, ‘छः काफी हैं। लेकिन राकेश ने जवाब दिया, ‘अब तो बंध गईं।'


             बड़े बेटे के विवाह के तुरन्त बाद ही राकेश चल बसे और बेटे ने अलग होने का खटराग लगा दिया। दो छोटे भाइयों का दायित्व वह क्यों सम्भालता। पंचायत बुलाई गई, सारे सामान के साथ रसोई घर के बर्तन भी बंटे तो कटोरियों को भी बंटना ही था। चार कटोरियाँ बड़ी बहू की रसोई में चली गई।


              छोटे का विवाह कर दिया गया, तो छः महीने बाद ही वह भी अलग हो गया, रसोई के बर्तन और कम हो गए, कटोरियाँ भी चार बच गईं और बचा शान्ता के पास एक बेटा और कुछ गिनेचुने बर्तन। शान्ता का स्वास्थ्य गिरने लगा तो शान्ता ने तीसरे बेटे से शादी कर लेने को कहा। बेटा चुपचाप उसका मुँह देख ही रहा था कि शान्ता ने उठकर रसोई के बर्तन गिने और आधे बर्तन एक ओर निकालकर रख दिए। शेष बची दो कटोरियाँ। बेटा अचकचा गया, “यह क्या कर रही हो माँ?''


              “यह तुम्हारे हिस्से के बर्तन हैं। शेष बचे बर्तनों से मेरा काम चल जाएगा।''


               “कैसी बातें कर रही हो तुम? मैं किससे अलग होने जा रहा हूँ? अपनी माँ से? नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है?''


                “हो तो रहा है, जब तक वे दोनों बेटे थे तब तक सब ठीक था। जब वे पति बन गए तो अपना भाग लेकर अलग हो गए। शेष बचे में मैंने काम चलाया, अब भी चला लूंगी। बस मुझे एक ही बात कहनी है।''


                **क्या?''


                **जितना शेष बचा है तुम ले जा सकते हो लेकिन मुझे कभी शेष बचा मत समझना।


                मैं अपने आप में पूर्ण हूँ।''