लघु कथा - बेचैनी - अनु नैयर

          यह वक्त भी न, अजीब पहेली है। जाने कैसे। इसे हमारी बेकरारी की खबर हो जाती है। जिस दिन आप जल्दी में हों, ठीक उसी दिन ये थम सा जाता है। घड़ी की सुइयां चिपक सी जाती हैं। सेकेंड की सुई मिनट से भी धीमे चलती है और आप ठंडी आहें और खुद पर झल्लाने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकते। मेरा भी बुरा हाल था। फ्लाइट की स्पीड मुझे बैलगाड़ी से भी कम लग रही थी। पहली बार मैं उन्हें छोड़ कर गोवा गई थी। बार-बार घड़ी देखती और उचक-उचक कर खड़की के बाहर देखती। और फिर मैं मन में बुदबुदा कर ढाढस कर लेती। वे भी तो कई बार लेट हो जाते हैं। आज मेरा थोड़ा इंतजार कर लेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा। पल दो पल सुकून से बीते और फिर मुझे उनका भोला सा चेहरा याद आने लगता। अब ख्याल आने लगा कि उन्होंने तो ढंग से कुछ खाया भी नहीं होगा। कहां खाते थे मेरे हाथ से बनाए बिना--सीधे ऑफिस से आ रहे होंगे--थके हारे-- हैं भी तो कैसे जिद्दी -- बस एयरपोर्ट के चक्कर लगा रहे होंगे। वे इंतजार करेंगे कि मैं पहुंचे और फिर निश्चय किया जाए कि कहां जाना, क्या खाना है, मेरे । लिए और मैं पगली इतनी लेट हो गई।


          फ्लाइट लैंड हो गई थी। ‘इन मॅडम का कुछ पता ही नहीं।' वे बस गाड़ी एक तरफ लगा कर सोच रहे थे। आधे घंटे से ज्यादा हो गया। फोन मिल नहीं रहा था और वे गाड़ी से टेक लगा कर खडे खुद को सनियमित दिखाने की असफल कोशिश कर रहे थे। पर जब मन में खलबली मची हो तो चैन कैसे मिले। हाथ झटक कर घड़ी में वक्त देखते और फिर झल्ला कर मोबाइल चैक करने लगते । कोई मैसेज भी नहीं। ''उसका फोन भी आउट आफ नैटवर्क है। कहीं कुछ हो तो नहीं गया। लापरवाह भी तो कितनी है वह। न रास्तों का पता न खुद का होश। सड़क भी ऐसे क्रॉस करती है, मानो बाग में टहल रही हो। महारानी जी के लिए परा ट्रैफिक रुक जाएगा न. जैसे। हक समझती है हर चीज पर अपना और हर किसी पर अंधा विश्वास। उफ, यह भी न कब समझेगी। ठीक हो सब। अब आ भी जाओ।'' बस यही सब बाते उन्हें मेरे बारे में परेशान कर रही थीं और सब्र का बांध टूटे जा रहा था। हड़बड़ाती सी में एयरपोर्ट से बाहर आई और मस्कुराते हुए वे मेरे सामने थे। त्योरियां चढ़ा कर मैंने पूछा, “ज्यादा देर तो नहीं कराई मैंने। लगेज लेने में टाईम लग गया। थोड़ी सी देर हो गई। वैसे मैंने तो अनगिनत बार तुम्हारे से भी ज्यादा वेट की है।'' इतनी बात सुनते ही बोले, “अब तुमसे इस इंतजार का बदला जरूर लूंगा।'' मैं जैसे बड़ी सुनने वाली थी। पलट कर बोली, “जाओ जहां जाना है, जैसे में मरी जा रही तुम्हारे बिना।'' तब कहां पता था वे सच में ही किसी नए रास्ते से नई मंजिल की ओर निकल जाएंगे और मैं उनकी तरह वैसे ही गाड़ी से टेक लगा कर इंतजार करती रह जाऊंगी जिंदगी भर।