|'कविता - उपासना झा की तीन कविताएं

ग्यारह बरस की माँ


उसे नहीं भाती देर रात


शिशु की रुलाई


उठते डर लगता है उसे कम रौशनी में ।


अचानक उसकी टूटती है नींद


माघ की ठंड में उसकी गात है।


पसीने से धुली हुई


एक क्षण को कभी


मन में उठता है दुलार


मगती है नयों में एक पवित्र अनभूति


अवयस्क उसकी छातियों में


उतरता है दूध


लेकिन ये क्षण भीषण अंधकार को


पाट नहीं पाते


उसके सपनों में परियाँ नहीं आती


उसकी किताबें हैं।


बोरी में बन्द, दुछत्ती पर धरी हुई


छोटे भाई की किताबों को


देखती है छूकर


सोचती है कि स्कूल जाना


उसे इतना तो नापसन्द न था


नहीं आती उसकी सहेलियाँ अब घर


गुड्डे-गुड़ियों की बारात में।


उसकी अब कोई जरूरत नहीं।


न छप्पमछुपाई में अब उसकी डाक


होती है।


उसे कर दिया गया है निर्वासित


जीवन के सभी सुखों से


दादी अब नहीं देती उसे मीठी गालियाँ


पिता की आँखों में सुनेपन के सिवा


कुछ नहीं


चाचा के गुस्से की जगह


आ बैठा हैं डबडबाया हुआ पछतावा ।


क्यों नहीं रखा उन्होंने उसका ध्यान ।


माँ को बोलते अब कोई सुनता


उसे नहीं धोने इस शिशु के पोतडे


उसे खेतों में फूली मटर


और सरसों के पीले फूल बुलाते हैं।


लेकिन यह अब किसी और ही।


युग की बात लगती हो जैसे


उसे डर लगता है शंकित आँखों


और हर तरफ फुसफुसाहटों से


इस घर में शिशु-जन्म


ऐसा शोक है, जिसमें यह घर है संतप्त


यह शिशु है अवांछनीय, अस्वीकत


हर दिन यह परिवार कछ और ढहता है।


देश का अंधा कानून आत्ममुग्ध है।


अपने अँधेरे कमरे की फर्श पर बैठी


यह ग्यारह बरस की माँ।


किसी से कुछ पूछ भी नहीं पाती... | 


अपनी-अपनी आगहम


सभी भरे हुए हैं प्रेम से


और कर सकते हैं धूप, हवा और पानी


की तरह प्रेम


लेकिन चुनते हैं आग


जिसकी अनियंत्रित लपट


जलाती है सबसे पहले:अपना ही हृदय


हम सभी भरते जाते हैं स्वयं में


अपरिमित अंधकार


रौशनी के सारे पुल


हम स्वयं नष्ट करते चलते हैं।


जब परछाईं की भूख उगती है।


तब समझ पाते हैं कि बन गए हैं हमः


अमावस का श्राप


 


हताशा


जिम्मेदारियों से भी भारी होती है।


हताशा


पीठ ही नहीं, कंधे भी झुका देती है।


सबसे गहन रात्रि होती है वह


जिसमें चारों दिशाओं से लुप्त हो जाती है;


उम्मीद सन्नाटा अपनी नीरवता में होता है।


बहुत कुरूप


ज्यों पेड़ से पत्ते झड़ जाएं सब


रहे बचा केवल नग्न ठूठ


मंथर गति से पाँव घसीटते समय को


केवल एक थाप चाहिए पीठ पर


सूखी आँखों को चाहिए


हथेलियों की नर्माहट


बीत तो जाएगा ही; शाश्वत है यह


लेकिन जो रीत जाएगा, क्या भरेगा! ।