जन्म : 10 जुलाई शिक्षा : एम ए (हिंदी साहित्य) सम्प्रति : कारवार के एक प्रतिष्ठित कालेज में अध्यापन प्रकाशन : कुछ पत्र पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित। एक संग्रह 'कावेरी एवं अन्य कविताएं प्रकाशित।
---------------------------------
धूप की यात्रा
धूप नंगे पाव आती है
उजाले का झाडू थामे
अँधयारे को बुहारती
सख्त दीवारों पर
पैर पसारती
धूल सनी किताबों पर बैठ
कदमों में लगे
तिमिर की फांके झाड़ती
धूप नही भूलती
चूल्हे पर चढ़
तश्तरी में गिरना
पिछली रात का भीगा तकिया
बैठकर सुखाती
वहाँ से उठकर
बाबूजी की कुर्सी पर बैठ
धूप बतियाती है
नए कैलेंडर के नीचे से झांकते
पुराने कैलेण्डर से
निहारती है।
समय का काँटा
जो कभी नहीं रुकता
छांव तले आया देख
धूप संपकपाती
राह ताकती
दरवाजे के आँख में
लगा कर काजल
वादा कर धूप
मंदिर की घंटी सहलाती
मटमैले परदों से
झाँकते अँधयारे के बीच से
खिड़की से दबे पाव
चूम लेती ईश्वर का माथा
खेत से लौटती स्त्री को
पहुंचा कर देहरी
धूप लौट जाती है
फिर आने के लिए .
युद्धबंदी
युद्धबंदी उस घर की खिड़की से
मैंने सुबह झाँका
जहाँ से कल शाम को
शहीद शवयात्रा निकली थी
कल शाम खो गए थे
बहुत से रिश्ते
दुनिया वाले अपने-अपने
हिस्से का कर्तव्य करके सरक गए
खिड़की से झाँकती हूं लगता है
गोलीबारी खत्म हुई
युध्द समाप्त हुआ
शहीद की जगह कोई
और तैनात हुआ
दुनियां ने नई राह पकड़ ली
किंतु इस खिड़की के अंदर
कितने सारे युद्ध बंदी
विहल रहे हैं
कराह रहे हैं
इनकी चित्कार
बाँध रखी है
दीवारों ने
किसी कोने में लाठी पड़ी है
बिस्तर पर सूनी कोख लिए
माँ आँसू पी रही है
सिंदूर ताक पर चढ़ गई है
पालने में शीशु मृतदेह की आग से
झुलस रहा है
खिड़की के अंदर की दुनिया
बन्दी हो गई है
कभी न आजाद होने के लिए
भोर
आज भोर ने
मन में कुछ गुनगुनाया
फिर ओढ ली उसने
आलस की चादर
फूल की पंखुड़ियों पर गिरी
ओस की नरम बूंद
धिरे-धीरे लुप्त हो गई
जैसे-जैसे चढ़ा सूरज
कदमों ने ली तेज गति
हर जिम्मदारी के
मन कब गुनगुनाया था
उसका कोई छोर नहीं
दिन कब रूका है
जिसके पैरों में लगे हैं
पहिये जिम्मदारी के
फिर से वही रात
फिर से वही भोर
नित्य नई पंक्ति
भोर गुनगुनाती है
जिम्मेदारी की चादर
फिर से ओढ़ लेती है।
फिक्र
वी नहीं चाहता
हिस्सा बनना
चुनावी भीड़ का
सफेद पोश नेताओं के भाषण
ठीक उसी बीज की तरह
जो खेतों में गिरते
पर नहीं पनपते
मुरझाया चेहरा
नहीं मोहताज
सरकारी नीतियों का
पड़ जाती है झुर्रिया
उसके चेहरे पर
ताकते जीवनभर
आसमान, बरसाती का
उसे नहीं फिक्र
वायदों के राजमार्ग की
उसे रोज संवारनी
वो धसती पगडण्डी
पुरखों की
इन्द्रधनुष्य रंग देख
नहीं चमकती
उसकी पुतलियां
परिश्रम रूपी
हरे रंग से सजाना
वसुन्धरा का तपता सीना
केसरियाँ रंग की लपटें
हर उस चूल्हे की पहचान बने
जहाँ
भूख मचा रही है तांडव
कभी गरीबी के
तो कभी नंगो के भेष लिए
अंत में वही सवाल
फिर है तैयार लाचार सा
हमें फिक्र है
चाँद की, धरती की
हमें फिक्र है गिरते नोटों की
बढ़ते दामों की
शेयर बाजार के बदलाव की
हमें क्यों नहीं फिक्र
दो वक्त के
रोटी के निर्माणकर्ता
अन्नदाताओं की।
इमारती मजदूर
उस इमारती मजदूर को देख
कई प्रश्न जगे मन में
स्थगित न रह
मुंह से निकल ही पड़े
पूछा उसका गांव
बोल पडा बहुत दूर
पूछा, उसका मकान
हर्ष से कहने लगा
शहर की जितनी
इमारतें इठला रही है
हर एक में थकान
मिटा चुका हूँ।
जब से आपके शहर ने
घरों को निकाल
इमारतें बसा दी है
तब से मकान बदल बदल
रह रहा हूँ आप के शहर में
मजदूर तो पीछे रह गया
जेहन में एक सवाल
तैर रहा है आज भी
स्थगित
न जाने कितने कीमती घरों में
गृह प्रवेश किया होगा
इस दूर गांव के इमारती मजदूर ने।
सम्पर्क : महानंदा जी नाईक, महानंदा कॉम्पलेक्स, कैचा रोड, कारवार, कर्नाटक, मो.: 8431237476