|'कविता - संतोष श्रीवास्तव की पांच कविताएं

जन्म : 23 नवम्बर, मँडला (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी) एम.ए.(इतिहास) बी.ए.(पत्रकारिता) बी.एड. लेखन : 1970 में धर्मयुग में पहली रचना प्रकाशित। तब से अब तक 90 कहानियाँ तथा 1000 लेख स्त्री विमर्श, धर्म, पर्यटन पर प्रकाशित


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                                                        किसे आवाज दू


किसे आवाज दू जिंदगी


किस मोड़ पर लाई मुझे।


में किसे अपना कहूं


किसको पुकारुं?


है दरो-दीवार पर


यह घर नहीं है।


सूनी सूनी जिंदगी की


अब कोई सरहद नहीं है।


है यहां सब कुछ मगर कुछ भी नहीं है


जिंदगी के मायने बदले हुए हैं


मैं किसे आवाज दें किसको पुकारू?


रात आती है दबे पांव यहां


और नींदों को लिए


करती प्रतीक्षा सुबह तक


सुबह आती है सहन में कांपती सी


मैं किसे अपन कहें किसको पुकारू?


आज वीरां हैं मेरे शामो सहर


हीर सा मन और मैं हूँ दरबदर


बांसुरी चुप है


मेरा रांझा कहां है


मैं कहां ढूँढू उसे कैसे बुलाऊँ?


जिंदगी छलती रही


हर पल मेरा ठगती रही


अब हुआ दिन शेष


मेला भी खतम


मै किसे आवाज़ दू किसको पुकारू?


                                         जंग जारी है


डूबती नाव की तरह


मैं ज़िन्दगी के समंदर में


ऊबती, डूबती रही


कभी कोनों को पकड़ कर


डूबने से बचती


कभी बेसहारा सी


लहरों की मर्जी का शिकार हो जाती


कभी उत्तालतरंग पर सवार हो


विजयी हो


अपने ही कंधों पर


बैठ इठलाती कभी तेज लहर


पाताल तक खींच ले जाती


मैं हाथ पैर मारकर ऊपर आ जाती इस


जद्दोजहद में कितनी ही बार खुद को टूटा,


बिखरा पाती सतह पर शाँत


बहते रहने के लिए मुझे खुद को


काठ करना पड़ेगा और मुझे काठ होने


से इंकार है


मेरी जंग अब भी जारी है


                                                   गीत चल पड़ा है


मेरे मन के कोने में


इक गीत कब से दबा हुआ है


सुना है


जल से भरे खेतों में


रोपे जाते धान के पौधों की कतार से


होकर गुजरता था गीत


बौर से लदी आम की डाल पर


बैठी कोयल के


कंठ से होकर गुजरता था गीत


गाँव की मड़ई में


गुड़ की लईया और महुआ की


महक से मतवाले, थिरकते


किसानों के होठों से


होकर गुजरता था गीत


अब गीत चल पड़ा है


सरहद की ओर 


प्रेम का खेत बोने


ताकि खत्म हो बर्बरता


अब गीत चल पड़ा है


अंधे राजपथ और


सत्ता के गलियारों की ओर


ताकि बची रहे सभ्यता


                                          घोंसला


इश्क दुआ बन जाता है


जब सहेज लेता है कोई


ढाई अक्षर की इबारत


दिल की किताब पर


संवर उठती है कायनात


सूरज के लाल दरवाजे तक


तोरणे बंध जाती हैं


ढोलक पर गाए जाते हैं गीत


अनंत जन्मों के


आंधियां ठिठक कर


पुकार उठती हैं।


मर्हबा ......मर्हबा


तब कहीं से एक तिनका


उडता आता है


और दिल के वीराने में


घोंसला बुन जाता है।


                                       चिलमन की गवाही


जैसे ही बाहर आई


कठोरता से लड़कर


कांटों पर चलकर


हौले हौले


पंखुड़ी की चिलमन में


जुबिश हुई


झांकना चाहा


बाहर की दुनिया को


पेड़ के अधीन रहने की


परंपरा को तोड़कर


उन्मुक्त, विस्तार देना चाहा


जबकि बसन्त


अपने पूरे दांव पेंच से


सवार था उस पर 


हवा भी तो छू--छू कर


बार-बार उसे चिढ़ाती रही


उसके सिकुडे,अधूरे तन को


डुलाती रही पेड़ की रची सीमाओं में


चिलमन की चुन्नटें


कैद दायरे में


कसमसाती रही


दूर आसमान में


तड़प के ताप से बने


बादलों की बूंदों ने


रिमझिम फुहारों की दस्तक दे चिलमन को


धरती की ओर झुका दिया


अब सांसें दुश्वार थीं


वह हांफती अंतिम सांसों में


हवा के कंधों पर सवार


...............चिलमन


एक अधखिली कली की


गवाही बन


धरती पर बिखर गई