खुश खुश होना अनैतिक है इस समाज में
अपने लिए मात्र ठौर ढूंढता घोर अपराध है
भारतीय दंड संहिता की कोई धारा होनी चाहिए बाकायदा
इसके लिए घृणा और छिः छिः का विधान होना चाहिए
लोगों के दिल में पत्थर डले हैं और तुम्हें अपनी पड़ी है
विनोद जी,
आप और हम अपराधियों की निकृष्टतम कोटि में आते हैं
देखिए, वह मक्खी, हरी वाली- इतनी बड़ी जो विष्ठा की
बू से आती है।
वही आ रही है। हरियाली नहीं है यह जिसे हम आप लिख
रहे हैं, निरख रहे हैं
इस वर्षा ऋतु में। विदर्भ की विशिष्ट वनस्पति की हरी कोई
पत्ती नहीं है
खुशी के लिए जगह नहीं है आत्मघात के लिए है, लेकिन
आप तो बस
अनन्त आशावान भिक्षुक हैं इस जीवन समर के आप प्रेम
कर सकते हैं।
मर नहीं सकते। जीवन-धन के चौर्य-क्रम में परम-पट हैं
आप और हम
कितनी सभ्य बेहयाई से हंसते हैं हहास मार छोटी छोटी
निरर्थकताओं पर
क्यों हैं हम आप बोलिए विनोद जी!
वह जो लौटा जेल से-बिना अपराध के धरा गया था- लौटा
लेकिन जीने लायक नहीं छोड़ा उसे। हड़ी कहां बची भुर्रा
है पूरा शरीर
वह एक कराह है बस- वह हमारा ग्रेट भट्टाचार्य- जो कभी
नहीं कहता
कछ, और आप हैं कि भिक्षा-पात्र
दनिया के आगे फैलाने में शर्म तक नहीं लगती आपको
लिखने से क्या होगा विनोद जी,
मांगते-जाचते मर जाएंगे आप
खुश होते होते। इस तरह नाटक करते-करते
चुटिया बांधते-बांधते नरक की राह में आप
मैं तो आत्मघात की सोच रहा हूं अपने पुराने नए पापों के
लिए
कायरतापूर्वक। अनीति की एक कोटि यह भी है।
अचानक क्यों लगा-खुश होना अनैतिक है इस समाज में
जबकि मेरे लिए जगह थी- जैसे कमलेश के लिए है
जो सिर्फ मुस्कराते हैं-खुश नहीं होते
छोटी औकात है मेरी
क्षमा करिए आप कमलेशजी
और आप- विनोद जी!
सभी विशिष्ट और सरल समझदार जन
सभी मेरे भई-बन्द
सभी मेरे दुश्मन और दोस्त
सभी आश्चर्यचकित शुभम
अनुपम अपावन
क्षमा करें
इस बर्राहट के लिए।