डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला सहायक प्रोफेसर वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान) । पुस्तकें वानगो और निराला चित्रकला एवं काव्य की अंतरंगता, किशनगढ़ की चित्रशैली, जलरंग चित्रण पद्धति । सोलह विभिन्न सम्मान, 27 अवार्ड्स।
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अनुभूतियों का जमघट जब अन्त्स में विराजित होता है तब ललित कलाएं उद्दाम गति से प्रवाहित होती हैं। यही अन्त्स यात्रा ललित कलाओं की सहयात्री है। जबकि आज के सन्दर्भ में यदि देखा जाए तो सभी कलाओं को एकजुट होना मानवीय सम्वेदनाओं की आवश्यकता है। जब कि सदियों पहले भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में सम्पूर्ण कलाओं के सह अस्तिव की बात की थी। इससे स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि कलाओं की आत्मा एक है बस अभिव्यक्ति विभिन्न माध्यमों में होती है।
हमारे इस लेख का मूल भाव ही यह है कि सभी कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों को उजागर करते हुए अनन्त काल से सहयात्री बने काव्य और चित्र की मुख्य धारा के गहनतम भाव बोध को जन मानस तक सहज रूप में पहुँचाना है जिससे सामाजिक तरो ताजा हो, अपनी नवीन सम्वेदनीय दृष्टि का विकास कर कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों को समझ सके। कलाओं के तात्विक विश्लेषण से पता चलता है कि सभी ललित कलाओं के अन्त:सम्बन्ध बहुत गहरे हैं। कलाओं में चित्रकला तो काव्य के समानान्तर ही विकसित हुई है। गौतम चटर्जी के शब्दों में अभिव्यक्ति में कला माध्यमों का रूप भले ही भिन्न दिखें, सबकी संवेदना और सुन्दर-सम्पूर्ण होने की आत्यन्तिक ज्यामिति एक है। यदि, शब्दों की अपनी अर्थ गंभीरता है तो रेखाओं का अपना आवेग है। यदि सुर का अपना लोक है, तो मुद्राओं की अपनी मनोदशाएं हैं। यदि प्रत्येक थाप की अपनी गुफाएं है, तो प्रत्येक बिम्ब का अपना आन्तरिक है।'' कालान्तर में उसने शब्द की शक्ति को पहचाना और भाषा का विकास किया। निश्चित ही यह ऐसा सूक्ष्म और सशक्त माध्यम है, जिससे गहनतम अनुभूतियों की पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव है। मनुष्य ने जहां एक ओर भौतिक शक्ति को पहचाना, वहीं उसने अपनी आध्यात्मिक शक्ति को भी जगाया। जहां भौतिक शक्ति की सूक्ष्मतम इकाई ‘‘परमाणु'' की दिव्य शक्ति उसके हाथ लगी, वहीं आध्यात्मिक शक्ति की अभिव्यक्ति की सूक्ष्मतम इकाई ‘‘शब्द'' की शक्ति को भी उसने जाना। परमाणु में पूरा भौतिक जगत समाया है और शब्द में पूरी आध्यात्मिक शक्ति की चेतना समाहित है। इसीलिए ‘‘शब्द'' को ब्रह्म कहा गया है। काव्य और चित्रकला के सम्बन्धों में प्रमुख रेखा और शब्द का अन्त:सम्बन्ध भी है जैसा कि विद्वानों का मत है कि चित्रों से ही भाषा विकसित हुई है। अर्थात् रेखा का परिष्कृत रूप ही शब्द है, इसीलिए शब्द रेखा से सूक्ष्म और सशक्त है। रेखा आदि "अणु'' है तो शब्द ‘‘परमाणु'' इसीलिए इसकी शक्ति अनन्त है। भौतिक जगत् में जो स्थान ‘‘परमाणु' का है, चेतन जगत् में वही स्थान ‘‘शब्द'' का है। एक ओर जहां ‘परमाणु'' में प्रलय छिपी है, वहीं दूसरी ओर ‘‘शब्द'' में लय छिपी है। लय और प्रलय का संतुलन ही सृष्टि की सत्ता है। परमाणु जब विश्लेषित होता है तो उससे अनन्त भौतिक ऊर्जा निकलती है और जब शब्द विश्लेषित होता है तो उससे वेद, पुराण और उपनिषद् के रूप में अनन्त आध्यात्मिक ऊर्जा प्रकट होती है। जहां परमाणु का विश्लेषण भौतिक ऊर्जा बिखेरता है वहीं ‘‘शब्द'' का विश्लेषण भावों का संश्लेषण करके अनन्त चेतन ऊर्जा का प्रसार करता है। परमाणु भौतिक जगत् को तोड़ता है और शब्द भाव जगत् को जोड़ता है। परमाणु विखण्डित हो कर नष्ट हो जाता है और शब्द परिभाषित होकर जीवित हो उठता है, इसीलिए परमाणु नाशवान है और शब्द अनिवनाशी है। विज्ञान की अब तक की सबसे बड़ी खोज परमाणु शक्ति है और भाषा की अब तक की सबसे बड़ी खोज शब्द शक्ति हैं, इसीलिए भाषा में मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान निहित है और इसी का कला रूप कविता है। अत: कविता तो सभी कलाओं में सर्वोपरि ही हैं किन्तु चित्र इसकी आत्मा में सदैव विद्यमान रहता है। बिम्ब रूप में।
काव्य में रस, छन्द और अलंकार है तो विविध रंग और रूपाकार भी है तभी तो कविता एक जगमगाता बिम्ब है तो सजीव चित्र एक जगमगाती सजीव कविता। सभी कलाएं अनुभूति स्तर पर समान होती है और माध्यमों में व्यक्त होकर विभक्त हो जाती है, फिर चाहे कलाकार कहीं का हो। भारतीय मनीषियों ने कला अनुभूतियों को नौ रसों में विभाजित करके मानव मन का इतना सुन्दर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है, जितना विश्व की किसी भाषा में उपलब्ध नहीं है। चित्रकला में भी साहित्य की लगभग सभी विधाएं मिलती हैं, जिनमें ललित चित्रण, व्यंग्य चित्रण, रेखा चित्रण, कथा चित्रण आदि । इसीलिए चित्र और काव्य की जुगलबन्दी आदि काल से चली आ रही है, जो समसामयिकता में सदैव फलीभूत रही है। भारतीय काव्यशास्त्रियों जैसे-क्षेमेन्द्र,, भरत और राजशेखर ने कहा है कि कवियों के लिए चित्रकला का ज्ञान अति आवश्यक है और प्रसंगवश ललितकलाओं के अन्त:सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि काव्य विद्या के शिक्षार्थियों को चाहिए, पहले काव्योपयोगिनी विद्याओं और काव्य की उपविद्याओं का भली-भांति अध्ययन करके काव्य रचना की ओर प्रवृत्ति करें। कलाओं के तत्त्व को समझे बिना काव्य में कला सम्बन्धी वस्तु का भली प्रकार वर्णन करना सम्भव नहीं हैं, इसलिए कलाओं का ज्ञान कवि के लिए आवश्यक है। काव्य और चित्रकला के अन्त:सम्बन्धों के विषय में पश्चिम के विद्वानों का मत तो प्रचलित ही है कि चित्र मूक कविता होती है ओर कविता सवाक चित्र होता है। प्लेटो और अरस्तु ने भी इसी की पुष्टि की है। अरस्तु ने अपने ‘‘पोयटिक्स'' में काव्य कला का तात्विक साम्य चित्रकला के साथ दिखलाया भी है। चित्रकला के छ: अंगों में से तीन अंग तो काव्यकला में स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं। भाव, लावण्य-योजना और सादृश्य जो काव्य में भी महत्त्व रखते हैं। चित्रकला के अंगों पर अवनीन्द्र नाथ ठाकुर ने भी अपना मत व्यक्त किया है- “चित्र तब बनता है, जब चित्रकार की अन्तर्निहित उदयकामना या अभिव्यक्ति वेदना छन्द के नियमों से अपने को बांधकर अन्तर्बाह्य दो प्रकार से अपने को रसोदय में परिणत करती है। जिसे रंग संगति (कलर-हार्मनी) कहते हैं। ‘यामिनी राय और जार्ज कीट ने भारतीय काव्य में वर्णित कृष्ण सम्बन्धित भावों को ही अपनी चित्रकला का विषय बनाया। जार्ज कीट ने अपनी चित्रकृतियों में विशेषकर गीत-गोविन्द के भाव चित्रों को प्रस्तुत किया है। उसके चित्रों पर कृष्ण काव्य का विशेष प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने गीत गोविन्द का अनुवाद किया था। गीत गोविन्द के अनेक मनोहारी भाव उनके संस्कार में समा गए थे जिनकी सतत् अभिव्यक्ति उसके चित्रों में पाई जाती है। पाश्चात्य विद्वानों ने काव्य और चित्रकला पर बहुत विस्तार से विचार किया है। वहां साहित्य, चित्रकला के प्रति बहुत सजग रहा है। विशेषकर चित्रकारों की प्रदर्शनियों की समीक्षा काव्य समीक्षा की तरह ही की जाती है। इसीलिए वहाँ चित्रकार कवियों से और कवि चित्रकारों से बहुत प्रभावित रहे है। ‘कीट्स', चार्ल्स ब्रोदलेयर आदि ने अपनी कविताओं में जिस यथार्थ का उल्लेख किया है, उसकी प्रेरणा उन्होंने कलाकारों की चित्रकृतियों से ग्रहण की है। रोजेटी ने दान्ते की कविताओं के कुछ भावों के अनुरूप चित्र बनाए थे और अपनी कुछ कविताओं की विषयवस्तु पर भी चित्रण किया जिन्हें आधार मानकर निकोलेट ग्रे ने एक ही विषय पर रचित काव्य और चित्रकला का अच्छा तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। जुगलबन्दी की सार्थकता का स्पष्टीकरण इस बात से और भी हो जाता है कि अनेक कवियों ने चित्रों पर अपनी कलम चलाई है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है जो इन दोनों कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध को सिद्ध करती है। रवीन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओं और चित्रों के अध्ययन से इन दोनों कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध और सिद्ध हो जाते हैं। उनकी चित्रकला रेखाओं में रची हुई उनकी कविता ही है। (देखिए चित्र और कविता-१)। इस धारा के बहुत से कवि-चित्रकार हुए जिनकी सम्वेदनीय अभिव्यक्ति कलाओं के एक मंच पर स्थापित हुई। पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा जी का भी इस धारा के लिए महती योगदान रहा। उन्होंने अपनी कविताओं का बड़े ही कौशल से चित्रण किया है। यहां मैं कुछ उदाहरण विशेष रूप से दे रही हूँ जिससे काव्य और चित्र के अन्त:सम्बन्ध और भी स्पष्ट हो जाएंगे, जैसे पाश्चात्य प्रसिद्ध चित्रकार, विन्सेट वानगो के चित्र संसार और भारत के प्रसिद्ध कवि, साहित्यकार, निराला के कविता संसार को देखना होगा। निराला ने काव्य चित्र का कुशल चित्रण किया है और वानगो ने चित्रों में काव्यवत् कल्पना और आध्यात्मिकता का अधिक चित्रण किया है। दोनों अपनी-अपनी कलाओं के महापण्डित थे परन्तु अलग-अलग संस्कृतियों में पले बढे, किन्तु दोनो की रसानुभूति एवं बिम्ब विधान एक ही थे । बस अभिव्यक्ति होने पर माध्यमों के अनुरूप विभक्त हो जाते है। जैसे दोनो ने सेल्फ पोर्टेट बनाया हैं, एक ने शब्दों तो दूसरे ने रंगों से , (देखिए चित्र और कविता-२) इसी प्रकार काव्य और चित्र सहयात्री हैं। वॉनगो का चित्र ‘ओल्ड मैन इन सारो' और निराला की पंक्तियाँ ‘‘दुख ही जीवन की कथा रही। क्या कहूं आज जो नहीं कहीं''। जब हम वॉनगो के चित्र को और निराला की इन पंक्तियों को देखते हैं तो प्रतीत होता है कि चित्र निराला ने बनाया है और शब्दों को वॉनगो ने पिरोया है। यही तो काव्य और चित्र का समिश्रण है। बिम्बों का उदयन अन्तस में होता है। तभी सदियों-सदियों से काव्य और चित्रकला सहभागी रहीं हैं। (देखिये चित्र और कविता-३) यहां मैं इस बात को स्पष्ट कहना चाहती हूं कि कवि हो या चित्रकार अनुभूति के स्तर पर वह एक ही होता है। चाहे वह समुद्र पार का ही क्यों न हो। कहने का तात्पर्य यह है कि चित्र और काव्य अनन्त काल से सहयात्री रहे हैं। और सम सामयिक संदर्भो में वह और भी स्थायित्व पा रहे हैं। जो सामाजिक परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र हित के लिए अति आवश्यक है। रवीन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओं और चित्रों के अध्ययन से, महादेवी की कविताओं और चित्रों के अध्ययन से, अज्ञेय की कविताओं और चित्रों के अध्ययन, और जगदीश गुप्त की कविताओं और चित्रों से, काव्य चित्र की गहराई का और भी स्पष्टीकरण हो जाता है। काव्य और चित्र की जुगलबन्दी कुछ इस प्रकार से है जो सम्वेदनीय पन्नों को खोलती है। ‘अज्ञेय, और ‘भगवत रावत अपने समय के सहज और सामाजिक विभीषिकाओं को सम्वेदनीय बिम्बों में पिरोने वाले रचनाकार रहें है। इनकी रचनाओं पर मेरे द्वारा बनाए गए रेखाचित्रों का संयोजन इस बात को और प्रभावशाली बनाता है कि संवेदनशीलता ही बिम्बों को स्पष्टता प्रदान करती है, इसलिए संवेदनशील चित्रकार, कवि की भावानुभूति संवेदनीय स्तर पर लगभग समीपस्थ हो जाती है अर्थात् साधारणीकरण हो जाता है । एक कवि या रचनाकार एक दूसरे की काव्य रचना या चित्र रचना को अपनी अनुभूति से अपने अनुरूप फलक पर तूलिका या कलम से अंकित कर देता है जिससे काव्य और चित्र समानान्तर प्रतीत होने लगते हैं। भागवत रावत, शमशेर बहादुर सिंह, आदि (देखिए चित्र औरकविता-५, ६) महादेवी जी की काव्य और कला में जुगलबन्दी स्वतः स्पष्ट होती है। उनकी अति सम्वेदनशीलता ने चित्रों को अपना माध्यम बना ही लिया। यहां एक बात स्पष्ट कर दें कि कोई भी ललित कला हो सबसे पहले वे बिम्ब अर्थात चित्र रूप में ही अन्तस में आते हैं। महादेवी जी ने अपनी पुस्तक ‘दीप शिखा' की भूमिका में कला और चित्र के विषय में विचारों को व्यक्त किया हैं ‘‘कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वस्त सहयोगी होने की क्षमता रखता है। अमूर्त भावों का जितना मूर्त वैभव चित्रकला सुरक्षित रख सकती हैं। उतना किसी अन्य कला में सहज नहीं। इसी से हमारे प्राचीन चित्र जीवन की स्थूलता को जितनी दृढ़ता से संभाले है, जीवन की सूक्ष्मता को भी उतनी ही व्यापकता में बांधे हुए हैं।'' ललित कलाओं की तात्विक जुगलबन्दी से पता चलता है कि लगभग सभी देशों के विद्वानों ने इनके अन्त:सम्बन्धों पर बड़ी गहराई से विचार किया है। साथ ही साथ काव्य और चित्रकला के अन्त:सम्बन्धों पर विशेष बल दिया है। बल स्वाभाविक भी है क्योंकि आदि काल से ही रेखा और शब्द का अटूट सम्बन्ध रहा है। कालान्तर में यह सम्बन्ध बढ़ता ही गया। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है। कि चित्रकला काव्य की शक्तियों में से एक शक्ति रही है। जगदीश गुप्त ने तो यहां कह दिया है कि 'चित्रकला सभी कलााओं की आंखे हैं।' ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने से लगता है कि काव्य के साधारणीकरण का कार्य भी चित्रकला ने बड़े ही स्वाभाविक-ढंग से किया है। जिस कला में काव्य तत्व अधिक व्यक्त हो जाता है, वह काव्य के अधिक निकट होता है। इसीलिए चित्रकला काव्य के अधिक निकट है और इसी काव्य तत्व के कारण ही सभी ललित कलाओं का तात्विक अन्त:सम्बन्ध हैं। इसी को कला मनीषियों ने सिद्ध किया है। भाषा के माध्यम से ही ‘‘सौन्दर्यबोध'' की परिपूर्णता की अभिव्यक्ति संभव है। प्रयाग शुक्ल कहते हैं कि “कलाओं का आपसी रिश्ता बहुत पुराना है,या कहें-पुरानी कलाओं का आपसी रिश्ता बहुत पुराना रहा है। पर, मनुष्य ने क्रमशः जिन नई कलाओं का आविष्कार अपनी अभिव्यक्ति के लिए किया, वे भी इस आपसी रिश्ते में घनिष्ठ रूप से जुड़ती गई हैं। यही प्रमाणित करती हुई कि कलाओं के बीच का आपसी रिश्ता ना केवल अटूट रहा है, वह अपने को बराबर नया करने की क्षमता भी रखता है। इस प्रकार चित्र के लिए काव्य का ज्ञान और काव्य के लिए चित्र का ज्ञान अति आवश्यक बताया गया हैं तभी इन दोनों की जुगलबन्दी सम्भव हो पाई है। जब हम समभाव से सम्वेदनीय स्थिति में आकर ललित कलाओं का पो-नवजयाण करते हैं तो वह स्वतः आप अन्तस में बिम्ब रूप में आकर अनेक माध्यमों में व्यक्त होने लगती हैं। ये ही समभाव समाज और समय की उन विभीषिकाओं को भी, जिनसे व्यक्ति विशेष सामाजिक दायरे में फंसा रहता है। कवि या कलाकार अपनी तृलिका या कलम में समेट पाता है और समाज में बदलाव ला पाता है। ‘‘कला की ये दोनों सूक्ष्म कोटियाँ है जो इन जटिलताओं की महीन तन्तुओं को पकड़ती हैं। इस पूरे परिप्रेक्ष्य को देखते हुए आज हम जब उत्तर आधुनिक समाज में रह रहे है, जरूरत इस बात की है। कि कला और कविता के सरोकार मिलें और परस्पर वे समतुल्य होते हुए मनुष्य और समाज के एकल अनुभव से इस सम्पूर्ण मानवीय अनुभव की व्याख्या करें और उसकी प्रक्रिया की पड़ताल भी करें।'' तभी ललित कलाओं का सानिध्य सफल सिद्ध होगी और काव्य-कला की जुगलबन्दी की सार्थकता विश्व फलक पर नवीन दृष्टि का संचार करेगी।
चित्र-१ रवीन्द्र नाथ टैगोर
कविता-१ - थकी पलकें
इस थकान-भरी रात में मुझे
सब कुछ तेरे चरणों पर रख
निश्चिन्तता और पूर्ण आश्वासन के साथ
अपने रख पास सोने दे।
मेरी क्लान्त और शिथिल शक्तियों को
अपनी पूजा के अर्व्यसंघय में न लगाना- मेरा थका हारा
मन-पूजा की उचित तैयारी नहीं चादर से ढंक देता हैं।
चित्र-२ कवि निराला
चित्रकार वानगो के सेल्फ पोर्टेट
मैं अकेला
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती जा रही,
हट रहा मेला।
चित्र - ३ निराला
ओल्ड मैन इन सारो - वानगो
दु:ख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज, जो नहीं कही
चित्र - ४ अज्ञेय
असाध्य वीणा
किन्तु सुना
वज्रकीर्ति ने मन्त्रभूत जिस
अति प्राचीन किरीटी तक से इसे गढ़ा था।
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कन्धों पर बादल सोते थे,
उस की करि शुण्डों-सी डाले
हिम वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थी परिश्रम,
केश कम्बली गुफा-गेह ने खोला- कम्बल।
धरती पर चुप-चाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मुंद कर प्राण खींच,
कर के प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक लिया
सभा चकित थी- अरे, प्रियंवद क्या सोचा है?
चित्र-५ भागवत रावत
इतने डरे हुए है वे लोग
कि खतरे को खतरा कहते हुए
जुबान की तरह
खुद लड़खड़ाने लगते है।
चेहरे की संतुष्ट सुर्खा
पीली पड़ने लगती है।
आंखे गोल-गोल घूमती हुई
सूघंने लगती हैं कि आस-पास
कहीं कोई डर तो नहीं।
चित्र-६ शमशेर बहादुर सिंह
सोने का एक ज्वार उठा........
और गहरे नीले अनगिन पंखों से
नीले अनगिन के फेनिल पंखों से
उसे ढांप लेने को
व्यर्थ-व्यर्थ ..
उठा बवण्डर,
जिधर देखो उधर वह
गहरी सुनहरी मौज
मौज में है दूर-दूर तक
और एक नन्ही -बटिया- सा मैं।
उसी में।
खो गया।
चिडियों की डार जैसे
फान गाँग (वैनगोग) का एक चित्र
(जो अज्ञेय की ड्राइंगरूम में कभी देखा गया)
तीर सी उड़ती आए
और घने झुरमुटों में कहीं खो जाए
ज्वार----- दूर दूर दिशाओं में
हर --हर करता
ऊपर नीचे चारों ओर
इसलिए तमसा -से काले काग
झुंड-के- झुंड गहरे नीले - काले
काक-- शोर करते
ढक लेने से मानो छा ही लेंगे उसे
लाल हो जाएं वे ज्वार को ।