कला- झुन्झुनू क्षेत्र की हवेलियों के भित्ति-चित्रों का संयोजन - डॉ. निरुपमा सिंह

असिस्टेन्ट प्रोफेसर दृश्य कला विभाग, आई.आई.एस विश्वविद्यालय गुरुकुल मार्ग, मानसरोवर-302020 जयपुर


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झुन्झुनू  क्षेत्र राजस्थान में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में भित्ति-चित्रों का महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध स्थान रहा है। झुन्झुनू राजस्थान प्रांत में एक जिला हैं यह क्षेत्र जुझार सिंह नेहरा के नाम पर सन् १७३० में बसाया गया था। इस शहर के छोटे से छोटे गाँव की हवेली भी यहाँ चित्रित की हुई मिलेगी। यह क्षेत्र जयपुर राज्य की एक बड़ी और महत्वपूर्ण निजामत थी। यहाँ के सामन्त जयपुर राज्य और मुगल दरबार से अच्छे सम्बन्धों के कारण, इस राज्य के वासी व्यापार और अपने कारोबार को सफलता की ओर ले गए। इसी प्रकार से ये लोग बड़े-बड़े सेठ और धनी व्यक्तियों की गिटी में शामिल हुए। झुन्झुनू जिले के नवलगढ़, महनसर, अलसीसर, मडावां, बगड, रामगढ़, सूरजगढ़, उदयपुवाटी जैसे अनेक सथान पर हवेलियों का निर्माण बड़े-बड़े सेठ साहुकारों तथा धनी व्यक्तियों ने अपने निवास के लिए करवाया। ये हवेलियाँ गोयनका, सिंघानियाँ, पोद्दार, मोदी, बिरला, पीरामल, डालमिया, मोरारका जैसे देश के बड़े उद्योगपति घरानों की हैं और ये विशाल हवेलियां बहुमंजिला हैं। जिनके बाहरी दोनों ओर चबूतरे बने हैं तथा इनके दरवाजे चौखट लकड़ी के बने हुए हैं। जिन बारीक और कलात्मक खुदाई से सुसज्जित हैं। इनकी दीवारों पर का हर एक हिस्सा नयनाभिराम रंग-बिरंगे आकर्षक भित्तिचित्र एवं वास्तुकला मन मोह लेते हैं। इन भित्ति-चित्रों पर विविध रूप, रंग और विषयों को साकार करने की चेष्टा की गई है। जैसे खेती करते हुए किसान से लेकर युद्ध करते सेनानी तक, रामायण की कथाओं से लेकर महाभारत के विनाश तक, देवी-देवताओं से लेकर ऋषि-मुनियों तक, पीर बाबा से लेकर ईसा तक, बैलगाड़ी से लेकर रेलगाड़ी, हवाई जहाज तक आदि विषयों पर चित्र बने हुए हैं। इन भित्ति-चित्रों में धार्मिक विषयों के चित्र, नायिका भेद तथा रागमाला के चित्र, प्रतीकात्मक विषयों पर चित्र, राजदरबार से सम्बन्धित विषयों पर चित्र, लोक जीवन, पशु-पक्षी आदि के चित्र चित्रित किए गए हैं। कलाकारों की कल्पना जितनी उड़ान भर सकती थी, इन हवेलियों की दीवारों पर उड़ी।


         भित्ति-चित्रों की निर्माण पद्धति विशेषकर आरायश फेस्को-सेको तथा टैम्परा ही रही है झुन्झुनूं में। इस पद्धति में जिस जगह चित्र बनाना हो, वहां सर्वप्रथम दीवार की टंचाई की जाती है। इस क्रिया से जगह समतल हो जाती है तथा कुछ खुरदरी भी जिससे बाद में लगाए जाने वालाप्लास्टर दीवार में अच्छी तरह से चिपक जाता है। उसके बाद तराई करके चूने और बजरी के एक व तीन के अनुपात के मसाले को दीवार पर लगाया जाता है। इस लेप के बाद बटुकड़े से इसकी ठुकाई और रगड़ाई की जाती है ताकि दीवार पर समान मोटाई का प्लास्टर हो जाए और ठोस भी। कुछ दिन सूखने के बाद, कड़ा किया जाता है जिसमें चूने को भिगोकर विशेष प्रकार से तैयार किया जाता है। भिगोते समय इसमें खट्टी छाछ व दही और गुड के मिश्रण को लगाया जाता है। इसमें १० से १५ बार चूने के पानी को बदला जाता है और यह चूना जितना पुराना होता है, उतना ही अच्छा होता है। कड़ा करने के पहले दीवार की भली-भांति तराई कर लेते हैं। उपर्युक्त विधि से तैयार किए गए पेस्ट तथा झीकी को एक तीन के अनुपात में मिलाकर जमीन पर लगाया जाता है तथा उसे पत्थर के झांवे से रगड़ते हैं जब तक जगह समतल और चिकनी न हो जाए। तीसरे लेप और अन्तिम चरण में केवल विशेष प्रकार के शोधित चूने का पेस्ट को दीवार पर तीन व चार बार मुलायम कूची से लगाया जाता है तथा अकीक पत्थर की बूटी से घोटते । जाते हैं। इस प्रकार दीवार चिकनी और चमकदार हो जाती । है। चित्र आरम्भ करने से पहले रेखाचित्र के उतने ही हिस्से को दीवार पर उतारता है। जितना की एक बैठक में पूरा कर सके। इसके लिए चित्र के साचे को सुई की सहायता से छेद लेते हैं और उसे दीवार पर कोयले के पावडर को कपड़े की पोटली बनाकर उस पर झाड़ देते हैं। इसमें छेदों में से छानकर कोयले का पावडर आ जाता है जहाँ भित्ति चित्र बनना है और इस प्रकार चित्र अनुरेखित हो जाता है। इसको किसी भी रंग के द्वारा रेखांकन करने के बाद ही रंग भरते हैं। इन रंगों में शुद्ध लेप को अल्प मात्रा में सभी रंगों में निमला लेते हैं क्योंकि यह रासायनिक प्रक्रिया के आधार पर चिपकाने वाले माध्यम का कार्य करता है। रंगों को भरने के बाद, थोड़ा सा सूखने के लिए छोड़ देते हैं। उसके बाद उसे नेले की सहायता से धीरे-धीरे आर सक्र से ठोकते हैं, जिससे रंग प्लास्तर के अन्दर प्रवेश कर जाता है और सतह समान और चमकीली हो जाती है। रंगों के समान रूप से बैठाने के उपरान्त आवश्यक रेखांकन किया जाता है। और इन रेखाओं को भी नैले की सहायता से ठोकते हैं जब तक सतह समान और चमकीला न हो जाए। उसके बाद नारियल के गोले के सफेद हिस्से को पानी में घिसकर हाथों । पर मसल लेते हैं और हल्के हाथ, सूती सफेद कपड़े से साफ किए हुए चित्र पर फेरते हैं। इससे गोले की चिकनाई चित्र सतह पर आ जाती है। दूसरे दिन पास वाली जगह यानी दूसरे चित्र के समय मसाला कड़ा व शुद्ध लेप इस प्रकार लगाया जाता है कि जोड़ दिखाई ना दे और उसके बाद फिर से पिछली विधि के अनुसार चित्र के दूसरे भाग को पूरा करते हैं।


           आरायश पद्धति के चित्रों में प्रथम श्रेणी के रंगों में मिट्टी व पत्थर के रंगों, धातु के शोधित रंगों का ही प्रयोग करते हैं। रंगों में रामरज यानी यलो ओकर, हिरमिच व गेरू, हरा भाटा यानी टेटावर्ट, नील यानी इंडिगो, तिल्ली का तेल का कांजल और कोयले का बारीक पावडर तथा कली आदि ऐसे रंगों को इस्तेमाल किया जाता है जो चूने के साथ रासायनिक क्रिया के बाद भी अपनी आभा व रंग भास को नहीं खो पाते। दूसरी श्रेणी के रंगों में पेवड़ी, हींगुल, सिन्दुर, लाजवर्द व सुनहरी रंग भी प्रयोग में लाए जाते हैं। परन्तु इनका परिणाम इतना स्थायी व सन्तोषप्रद नहीं होता जितना कि प्रथम श्रेणी रंगों का होता है। अत: दूसरी श्रेणी वाले रंग वास्तव में टैम्परा पद्धति के लिए ही उपयुक्त है।


            आरायश पद्धति में प्रयोग किए जाने वाले रंगों को तैयार करना भी काफी मुश्किल और लम्बी प्रक्रिया है। कई महीनों में जा कर तैयार होते हैं। सबसे पहले रंगपदार्थ को आवश्यकतानुसार कूटा, पीसा और घिसा जाता है तथा पानी में घोल दिया जाता है। कई बार छानने, निथारने के बाद शुद्ध रंग के घोल से अघुलनशील तत्व गन्दगी को अलग कर एक बड़े बर्तन में रखकर काफी दिनों तक सुखाया जाता है। इससे रंग के घोल का पानी सूख जाता है और बर्तन की तली में शुद्ध रंग के गाढे पदार्थ को टिकिया के रूप में अथवा गीली अवस्था में सुरक्षित रखा जाता है। इस प्रकार इन रंगों को आरायश पद्धति के चित्रांकन में प्रयोग किया जाता है, किन्तु टैम्परा पद्धति के भित्ति-चित्रों में इन रंगों का प्रयोग न करके, अन्य सिंथेटिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है।


                                                                झुन्झुनू की एक हवेली में लेखिका


           चित्र एक संयोजन है और ऐसा संयोजन जिसमें केवल दृष्टिगत आकारों तथा वर्गों का ही प्रयोग नहीं होता बल्कि संयोजन के मूल तत्वों को ध्यान में रखते हुए कलाकार अपनी सृजनकारी प्रवृत्तियों को भी प्रकट करता है। झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में रेखाओं का प्रवाह, आकृति विधान और रंग योजना, आदि तत्वों पर विशेष ध्यान दिया गया है।


             रेखाः झुन्झुनूं के भित्ति-चित्रों की रचना में रेखा । का बहुत महत्त्व है। रेखा में आकृति के अभ्यास तथा गत्यात्मकता की सामर्थ्य होती है। यद्यपि रेखा स्वयं न तो चलती है और न ही नृत्य करती है अपितु वह दर्शक को अपने भावों तथा थिरकने का अनुभव कराने में सक्षम है। झुन्झुनूं शहर के भित्ति-चित्रों में रेखा के विभिन्न प्रभावी । स्वरूपों को संजोया गया है। वास्तव में प्रकृति में रेखा नहीं होती है, किन्तु चित्र में रेखाओं का विकास करके चित्रकारों न केवल आकारों को सीमाबद्ध ही नहीं किया, बल्कि उसमें गति तथा ठोसपन की अभिव्यक्ति भी की हैं रेखा की गत्यात्मक शक्ति इसी में निहित है कि वह किस प्रकार और कितनी तीव्रता से आँखों को गतिमान कर देती है। झुन्झुनूं जिले के भित्ति-चित्रों में रेखाओं की यह गत्यात्मक शक्ति हाथी तथा ऊँट की चालों तथा स्त्री-पुरुषों की विभिन्न सुन्दर मुद्राओं में प्रदर्शित होती है। इस प्रकार के भित्तिचित्र बिसाऊ में नौ नारी कुंजर तथा पंचनारी अश्व, होली खेलते कृष्ण जी नवलगढ़ की हवेली में, शिकारी हाथी पर शिकार करते हुए दर्शाया गया चिड़ावा की डालमिया हवेली में, श्री कृष्ण जी बासुरी बजाते हुए गोपियों आनन्दीलाल पोद्वारों की हवेली में चित्रित हैं। इन चित्रों के अन्तर्गत चित्रकार ने निरन्तर गतिमान तथा प्रवाहयुक्त रेखाओं का नियोजन किया है। दर्शक की आँखें रेखाओं के आधार पर गति पाती है तथा चित्र सतह पर निरन्तर गति से घूम जाती है। रेखाओं के माध्यम से शारीरिक मुद्राओं का गत्यात्मक,सशक्त तथा प्रवाह्मय अंकन हो सकता हैं l


           झुन्झुन् झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में कभी-कभी ऐसा अनुभूत । रेखाओं का विकास भी देखने को मिलता है, जो वास्तव में चित्र में रेखांकित तो है नहीं, परन्तु उनका आभास देखने से हो जाता है। ऐसी रेखानुभूति चित्र के अन्तर्गत आकृति की स्थिति, बनावट तथा मुद्राओं में निहित से प्रस्तावित होती है। रामगढ, बिसाऊ और अलसीसर के भित्ति-चित्रों को इस दृष्टि से देखा जा सकता हैं 'अश्व विहार' मण्डावा और ऊँटों की सवारी पिलानी की बिरला हवेली में प्रवाहमयी रेखाओं का प्रभाव है। पहले चित्र में घोड़े की टाँगों की लम्बी-लम्बी डगों की बनावट तथा उनकी गर्दन के झुकाव द्वारा तीव्र गति से आगे बढ़ने का आभास होता है। दर्शक की दृष्टि चित्र की तीव्र तथा अविरल प्रवाहमयी रेखाओं के साथ गति पाती है। प्रवाहमयी रेखाओं के द्वारा घुमावदार लहँगे तथा ओढ़नी की पहरान को झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में कभी-कभी ऐसे भी उदाहरण मिल जाते हैं जो मात्र साधारण स्तर के ही हैं तथा लोक कला में अभिहित रेखीय प्रभाव तक सीमित हैं। इस श्रेणी में सूजरगढ़, मण्डावा और परसरापुरा के भित्ति-चित्र रखे जा सकते हैं जबकि नवलगढ, चिड़ावा, बिसाऊ तथा खेतड़ी के भित्ति-चित्र रचनाएँ, रेखीय सौष्ठव के उत्तम उदाहरण कहे जा सकते हैं।


         आकृतिः झुन्झुनू राज्य के भित्ति-चित्रों में विशेषकर आकतियों पर ध्यान दिया गया है। चाहें वे पुरुष और स्त्री आकृतियाँ हो या फिर पशु-पक्षियों की। पुरुष आकृतियों में मुख्यतया देश-भक्त योद्धाओं, शिकारियों, प्रेमियों, पुजारियों, कृषकों, श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाएँ, राम, शिव तथा गणेश को रूपांकन किया गया है। पुरुष आकृतियों को साधारण लम्बा शरीर गठीले और स्फूर्ति से भरे अंकित किया गया है। मूछों से युक्त भरे चेहरे, विशाल नेत्र इनकी विशेषता हैं।


           झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में स्त्री आकृतियों में सौन्दर्य पर विशेषकर ध्यान दिया है। स्त्रियों की लम्बाई साधारण कद की है, इनकी छाती उभरी हुई है तथा नितम्ब ठोस व पुष्ट हैं। वेश-भूषा शेखावाटी, आभूषण नियमित तथा बालों को जूडी के रूप में बांधा हुआ तथा कभी-कभी कमर तक लटके हुए दिखाए हैं। अधिक घेर वाला घाघरा, ओढ़नी तथा चोली यहां की स्त्रियों का प्रमुख परिधान है। नाक में नथ, मस्तक पर माँग पट्टी, टीका कानों में कर्णफूल, गले में हार-मालाएँ, पैरों में पाजेब तथा हाथों में कंगन आदि आभूषण चित्रित किए गए हैं। नारी आकृतियों में प्रेमी नायिका, नृत्यांगना, श्रृंगार आदि को चित्रित किया है। नारी के हर एक रूप को दर्शाया गया है। एक ओर स्त्री को वीर रूप तथा दूसरी और ममत्व के रूप में शिशु का लालन-पालन करते हुए भी चित्रित किया गया है। इनमें सामन्ती प्रथा के अनुकूल स्त्री का रूप विलासप्रिय तथा कामुकता से परिपूर्ण भी प्रतीत होता है। इसलिए वह सदैव आलिंगनबद्ध, प्रतीक्षातुर तथा मदिरा अर्पण में नम्न दिखाई देती है।


         झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में पशु-पक्षियों की आकृतियों को भी बड़े मनोयोग से सुगठित रूप में अंकित किया गया है। हाथी, घोडे और ऊँटों के अतिरिक्त बैल, गाय, कुत्ता, हरिण, शेर, चीते आदि पशुओं के भित्ति-चित्रों को दर्शाया गया कि पक्षियों में कुरजा, कबूतर, मोर, बतख आदि विभिन्न प्रकार की चिड़ियाओं को स्त्री पात्रों के सन्निकट दुःख-सुख के साथी के रूप में प्रचुरता से रूपांकित किया। गया है।


        रंग योजनाः झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में सीमित रंगों का प्रयोग हुआ है, किन्तु जो भी रंग प्रयुक्त हुए हैं वे अमिश्रित तथा तीक्ष्ण तरंग गति के रंगों की संगति के परिचायक है। यद्यपि यहाँ पर नीले रंग का पृष्ठभूमि में प्रयोग प्रचुरता से हुआ है किन्तु लाल-नारंगी-पी रंगों का प्रयोग अधिक दिखाई देते हैं। वर्ण योजना प्रायः चटख तथा चुचुहाते रंगों से युक्त है। रंगों के विधान में छाया प्रकाश द्वारा घनत्व को प्रदर्शित करके रंगों का सीधा एवं सपाट प्रयोग किया गया है। विरोधी रंगों की रंग योजना तथा बाल सीमा रेखा प्राय: काले रंग की होने के कारण रंग कभी-कभी अत्यधिक तीखेपन के कारण नेत्रों को कटु लगने लगते हैं। अत: रंगों का चटकीला एवं रूपहला स्वरूप तथा सुस्पष्ट रेखाओं का अंकन उल्लेखनीय है। चित्रों में रंगों की सहायता से प्राबल्यता, संतुलन, लयात्मकता, सामंजस्य तथा सहयोग का प्रभाव यहाँ के चित्रकारों ने लाने का अच्छा प्रयत्न किया है।


       भित्ति-चित्र संयोजन में चित्र के मुख्य तत्त्व रेखा, रंग तथा आकृति आदि को सुनियोजित करके कलाकार सशक्त अभिव्यक्ति व सृजन कर सकता है। यहाँ के चित्रों में संयोजन के तत्वों का पालन लगभग सभी चित्रों में किया गया है, उदाहरण के लिए चिड़ावा में दुलीचन्द ककरानीया जी की हवेली के एक भित्ति-चित्र में श्री राम की सवारी का चित्र दिखाया गया है जिसमें साथ अन्य घुड़सवार भी चलते हुए दर्शाए गए हैं। इस चित्र में अन्तराल का असल विभाजन किया गया है। चित्र का मुख्य आकर्षण केन्द्र श्री राम है, जिनको यान्त्रिक केन्द्र से हटाकर स्थित किया गया है जो आकर्षण वृद्धि के सिद्धान्त के अनुरूप है। यहाँ पर स्वत: ही प्राबल्यता भी मिल गई है, चूंकि अन्य घुड़सवार इनके चारों ओर इन्हीं से सम्बद्ध होकर चल रहे हैं जिनकी स्थापना एक अण्डाकार दृष्टिपथ का निर्धारण भी करता है। तथा जिसके सहारे दृष्टि स्वतः ही चलकर मुख्य आकर्षण केन्द्र पर स्थित हो जाती हैं इस प्रकार झुन्झुनू के भित्तिचित्रों में प्राबल्यता लय, सन्तुलन, सहयोग तथा सामंजस्य आदि की निष्पत्ति दर्शनीय है। चित्र में रंग योजना, रेखाओं का प्रवाह तथा आकृति विधान आदि मूल तत्वों का संयोजन भी अनोखा है। इसी प्रकार से झुन्झुनूं जिले की हवेलियों के भित्ति-चित्रों में हमें सारी खुबिया मिलेंगी। अतः झुन्झुनू के भित्ति-चित्रों में भारतीय चित्रकला क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान एवं योगदान है।