चेयरमैन, ललित कला विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय हरियाणा, विभिन्न पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित।। देश-विदेश में अनेक प्रदर्शिनियां एवं व्याख्यान।
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के हमने बचपन से जब भी चित्र बनाए, प्रायः जलरंगों का ही प्रयोग किया। जलरंग वह सरल मीडियम है जिसे कलाकार लोग बहुत कठिन माध्यम समझते हैं। लगाने में जितने सरल तकनीक में उतने कठिन। यह एक माध्यम से बनते हैं जिन्हें पिग्मेंट कहा जाता है। जल में घुलनशील होने के कारण इन्हें जलरंग कहा जाता है। इन पिग्मैंट को बांधने के लिए अरबी गम का उपयोग किया जाता है जो कागज में लगाने के बाद रंग को स्थायित्व प्रदान करते हैं। स्वाभाविक हैं, इन्हें ब्रश या तूलिका के साथ ही लगाया जाता है। इनका चारित्रिक गुण पारदर्शी होता है। तात्पर्य, पतले लगने के कारण कागज भी दिखाई देता है। इन्हें सफेद रंग लगाकर अपारदर्शी भी बनाया जा सकता है जिन्हें वाश कहा जाता है परन्तु पारदर्शी जलरंग हमेशा ताजा व चटक दिखाई देते हैं। इसलिए अधिकतर कलाकार पारदर्शी जलरंग का प्रयोग करते हैं। इतिहास के विषय में बात करें तो अमेरिकी कलाकारों की अपेक्षा ब्रिटिश कलाकारों ने जलरंग चित्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद अमेरिकी कलाकारों ने इस विधा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। तत्पश्चात् दुनियाभर के कलाकारों ने इस माध्यम को अपनाया। विगत् शताब्दियों में ब्रिटिश कलाकारों ने जलरंगों से अनेक प्रसिद्व कलाकृतियों की रचनाएं कीं और जलरंगों की दक्षता प्राप्त की, प्रयोग किए और विश्वभर में इस माध्यम को फैलाने का कार्य किया। विशेषकर यूरोपीय देशों में जलरंग तेजी से फैला। ब्रिटिश शासन जिन देशों में था, ब्रिटिश कलाकारों ने उन देशों में भी जलरंगों का प्रसार किया। विद्यालयों में एक माध्यम जलरंग भी रहा है। १८वीं व १९वीं सदी में ब्रिटिश कलाकारों ने इस माध्यम में अनेक प्रयोग किए तथा जलरंगों में महारत हासिल की। प्रमुख विधा यह रही कि जलरंग के पारदर्शी तहों को कागज पर प्रयोग किया गया। एक के बाद दूसरी तह लगाई जाने लगी तथा प्रकाश को बनाए रखने के लिए कागज का प्रयोग किया गया। रंग को सघन बनाने के लिए तहों में रंग लगाए गए। इस विधा से रंगों में एक विशेष प्रकार चमक आने लगी तथा इन चित्रों में रंग भी स्थायित्व प्राप्त करने लगे तथा इन तहों के प्रयोग से रंगों का मिश्रण दर्शक की आंखों में होने लगे ।यह विशेष प्रकार का वैज्ञानिक युग था जिसमें रंगों में अनेक प्रयोग हो रहे थे। प्रभाववाद का समय भी यही रहा है जिसमें तैल रंगों का ऑप्टिकल मिक्सचर के रूप में प्रयोग किया गया।
लेखक की पेंटिंग
परन्तु इतिहास में दृष्टावलोकन करें तो आदिकाल से ही रंगों का प्रयोग होने लगा था। पिग्मैंट को जल में मिश्रित कर चित्रों की रचनाएं प्रागैतिहासिक काल में आरम्भ हुईं। परन्तु प्रयोग करने के बाद चर्बी, गोंद आदि से रंगों को स्थायित्व प्रदान किया गया और इस प्रकार के प्रयोग कालांतर में भी चलते आए। समकालीन समय में वाश, पोस्टर रंग व अक्रेलिक आदि माध्यम जलरंग प्रयोग के उत्पाद है। मिस्र में भी जलरंग युक्त रंगों का प्रयोग दीवारों को रंगने में किया गया।
चीन और जापान में हस्तनिर्मित कागज तथा रेशम में जलरंग का प्रयोग प्राचीनकाल से होता आया है। इन चित्रों में कैलीग्राफी का प्रयोग भी हुआ है। परन्तु सबसे अधिक मात्रा में दृश्य चित्र बनाए गए हैं। चीन और जापान में जलरंग के दृश्य चित्रों का रूपायन असंख्य रूप में हुआ तथापि, आज भी विश्व में सबसे अधिक जलरंग का चित्रण इन्हीं देशों में किया जाता है। तत्पश्चात्, भारत तथा पूर्व फारस में वाश या अपारदर्शी रंग से चित्र बने हैं। विशेषतया मिनियेचर लघु चित्रण में तो इस माध्यम का प्रयोग हुआ है। चीन में कागज का विकास हुआ इसलिए जलरंग के अधिकतर प्रयोग भी चीन में किए गए। आज भी चीन के कलाकार जलरंग में सर्वाधिक प्रयोग करते हैं। यह विधा चीन की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। चीन के कलाकार जलरंग के पारंगत कलाकार हैं। चीन का कागज विदेशों में निर्यात किया गया। अरब में यह तकनीक गई, यूरोप गई तथा इटली में १२७६ ई में कागज मिल की स्थापना की गई। तत्पश्चात् इंग्लैंड में १४९५ में कागज मिल का श्रीगणेश किया गया। इस मिल में उच्च श्रेणी के कागज का निर्माण किया गया कलाकारों की आवश्यकता के अनुसार दीर्घकाल तक चलने वाले कागज का निर्माण किया गया। इन कागजों से कलाकारों को एक माध्यम मिल गया जिससे चित्र रचना की अलग अनुभूति होने लगी। लियोनार्डो द विंची, माइकेल एंजेलो, ड्यूरर रूबेंस वॉन डाईक तथा जीन डोनेरे फ्रागोनार्ड आदि कलाकारों ने कागज पर जलरंगीय चित्रण व रेखाचित्रण किए।
ब्रिटेन में 18वी सदी में उच्च श्रेणी के कागज निर्माण के पश्चात् ‘नेशनल स्कूल ऑफ वॉटर कलरिस्ट' की स्थापना की गई। इसी युग में ब्रिटेन के सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकार टर्नर (१७७५-१८५१) का अभ्युदय हुआ। टर्नर जलरंग के प्रवीण चित्रकार थे। टर्नर के दृश्यचित्रों ने पूरी दुनिया के
चीनी कलाकार रिक हुआँग की पेंटिंग
चित्रकारों को प्रभावित किया तथा जलरंग पूरी दुनिया में फैलने लगा। अब जलरंग के प्रयोग के लिए विशेष कागज बनने लगे जिन्हें बार बार धोने के पश्चात् भी कोई हानि नहीं पहुंचती। तकनीक ने कागज को प्रमुख चित्रण आधार बना दिया। १८वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेज विलियम रिब्ज़ ने जलरंग के केक बना कर बेचने शुरू किए। विंसर न्यूटन ने टीन के डब्बे में रंग बना कर बेचना शुरू किया। तकनीक के प्रचार-प्रसार ने अनेक कलाकारों को जलरंग चित्रण के लिए प्रेरित किया। तत्पश्चात् यह पद्धति अमेरिका तक में फैल गई।
अमेरिका में प्रारंभ में जलरंगीय रेखाचित्रों से नई दुनिया के दस्तावेज तैयार किए गए। इनमें पहला कलाकार मार्क कैटेस्वाई अंग्रेज १६७९-१७४९ था। वह वर्जीनिया । में १७१२ ई में आया था। उसने अमेरिका के अनेक पौधों, तथा पशु-पक्षियों के चित्र जलरंग से बनाए।
वस्तुतः अमरिका कलाकारों ने ब्रिटिश कलाकारी के प्रभाव में १९वी सदी तक जलरंगों में चित्रण किया। तत्पश्चात् थॉमस ऐकिन्स (१८४४-१९१६), विंडस्लो होमर (१८३६-१९१०) एवं जेम्स ए एम विस्लर (१८३४१९०३) में यूरोपीय कलाकारों को चुनौती देते हुए अपनी शैली में चित्रण किया। इन कलाकारों का प्रभाव इतना व्यापक था कि अनेक अमेरिकी कलाकारों में प्राथमिक तौर पर जलरंग में चित्रण करना शुरू कर दिया। ज्ञातव्य है कि यह दर्जा तैल रंग को प्राप्त था। यह जलरंग के लिए अमेरिकी जगत् में विशेष उपलब्धि थी तथा १८६६ में ‘अमेरिकन सोसायटी ऑफ पेंटर्स इन वॉटर कलर' की स्थापना की गई और तैल रंग के चित्रों के साथ जलरंग के चित्र भी कला विथिका में लगाए गए। यह क्षण जलरंग के कलाकारों के लिए गौरवशाली क्षण थे।
यद्यपि अमेरिकी जलरंग कलाकार आरंभ में ब्रिटिश शैली से ही प्रभावित रहे लेकिन कालान्तर में उन्होंने ब्रिटिश परम्परा को तोड़ दिया तथा नए प्रयोग आरम्भ कर दिए। अंततः उन कलाकारों ने अपनी स्वयं की शैली पर ध्यान केन्द्रित किया। इस तरह से अमेरिकी कलाकारों के चित्र तकनीकी दृष्टि से ब्रिटिश कलाकारों से भिन्न दिखने लगे। यह कदम ब्रिटिश स्कूल की परम्परा के विरूद्ध था। इसके उदाहरण १८७० तथा १९१३ के मध्य कलाकारों के चित्रों में देखा जा सकता है। प्रमुख कलाकार जॉन सिंगर सर्जेंट (१८५६-१९२९) जॉन मारेन, (१८७०-१९५३) एवं मॉरिस पेंडर गास्ट (१८५९) रहे जिनके कार्यों में ये प्रयोग देखे जा सकते हैं। इन उपर्युक्त प्रत्येक कलाकार ने अपनी व्यक्तिगत शैली का निर्माण किया तथा जलरंग में विविध प्रयोग किए। इन कलाकारों ने एक नए वाद व्यक्तिवाद की स्थापना की जिसे अमेरिकी कला जगत में प्रमुखता से पहचाना जा सकता है।
१९४० में अमूर्त अभिव्यंजनावाद के प्रार्दुभाव से जलरंग के चित्रों को अधिक महत्ता नहीं मिली । कारण अमूर्त अभिव्यजंनावाद का वैचारिक प्रक्षेपण, कलाकृति का वृहद् आकार। जलरंग में अमूर्तन को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। इन कारणों से जलरंग के चित्रों को अधिक प्रमुखता नहीं मिली। यद्यपि मार्क रोतको ने अपने कैनवॉस पर पारदर्शी रंग की तहें अवश्य लगाईं जिन्हें जलरंग से प्रभावित अवश्य कहा जा सकता है। इसका उत्तर प्रभाव यह रहा है कि सैंट फ्रांसिस (१९२३-१९२४), पॉल जैनकिंस (१९२३) आदि कलाकारों ने भी इसी तरह के प्रयोग कैनवॉस में किए जिनमें जलरंग
गणेश हिरे की पेंटिंग
तकनीक दिखाई देती है परन्तु ये चित्र जलरंग के बिल्कुल नहीं थे। भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो यहां भी जलरंग चित्रण शनैः शनैः विकसित हुआ। भारत में जलरंग की तकनीक पाश्चात्य ही रही है। प्रागैतिहासिक चित्रण पद्धति से अलग पाश्चात्य जगत की भाँति ही रही है। पिग्मेंट में अनेक तत्वों का समावेश कर दीवारों पर रंग लगाए गए। परन्तु अपभ्रंश शैली के चित्रण में जलरंगों का प्रयोग प्रमुखता से दिखाई देने लगता है। परन्तु पूर्ण रूप से जलरंगों का प्रयोग बंगाल शैली तथा कंपनी स्कूल में दिखाई देता है। ब्रिटिश सरकार के कुछ कलाकार ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत भेजे जिन्होंने भारत के दैनंदिन जीवन के चित्रों का निरूपण जलरंग पद्धति में किया। इस प्रकार जलरंग का प्रयोग भारत में भी होने लगा।
बंगाल के कुछ कलाकार चीन तथा जापान की यात्रा पर गए तथा वहां से जापानी जलरंग पद्धति को सीखा। चीन व जापान में जलरंग का प्रचलन बहुतायत में होता था। वहां के कलाकार बड़े आकार के जलरंग चित्रण करते थे। उनके रंगाकन तकनीक भी पाश्चात्य तकनीक से भिन्न थी। जापानी जलरंग पद्धति अधिक लयात्मक सुरम्य तथा पारदर्शी थी। यह पद्धति भारतीय मानस व सौन्दर्य बोध के अधिक निकट थी। इसीलिए अवनीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक कलाकारों ने वाश पद्धति का विकास किया जो चीनी व जापानी पद्धति के अधिक सन्निकट थी। यहां यह कहना अधिक समीचीन होगा कि पाश्चात्य सौन्दर्य दर्शन प्राच्य सौन्दर्य दर्शन से भिन्न है। जहां पाश्चात्य सौन्दर्य दर्शन शारीरिक सौष्ठव को महत्त्व देता है, वहीं पूर्वी दर्शन आंतरिक रहस्यों के उद्बोधन को महत्त्व प्रदान करता है। इसलिए आज भी यह अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कलकत्ता में ब्रिटिश स्कूल शिक्षा पद्धति थी तो पूर्वी दर्शन की कला शिक्षा भी थी। रवीन्द्र नाथ टैगोर पूर्वी कला के घ्वज वाहक थे जिसका श्रेय अवनीन्द्रनाथ टैगोर को भी जाता है। अवनीन्द्र के शिष्यों ने जलरंग से असंख्य कलाकृतियों की रचनाएं कीं। नंदलाल बसु, क्षितीन्द्रनाथ मजुमदार, शैलेन्द्रनाथ डे, वेंकटप्पा, सुधीर खास्तगीर, ए आर चुगतई सहित अनेक कलाकारों ने जलरंग पद्धति को पूरे भारतवर्ष में फैला दिया। यह एक कलात्मक क्रांति थी। कला का पुनर्जागरण था।
नाना साहेब योले की पेंटिंग
इस जागरण में केवल जलरंग महत्वपूर्ण नहीं था अपितु भारतीय विषयवस्तु भी उतनी ही * थी। पूर्ण रूप से भारतीय आत्मा का चित्रण था, बंगाल के कलाकारों की कृतियों में इन कलाकारों ने पूरे भारत में अपना आधिपत्य जमा लिया। इसका श्रेय जलरंग पद्धति को भी जाता है।
बंगाल का प्रभाव इतना अधिक था कि बिना वाश चित्रण के कला अधूरी मानी जाती रही। केवल बंबई ही एकमात्र कला विद्यालय था जहां पूरी तरह से ब्रिटिश पद्धति से शिक्षण का चित्रण होता था। बंबई के कलाकार ब्रिटिश शैली में ही जलरंगों का प्रयोग करते थे। इस प्रकार भारत में दो तरह की जलरंग पद्धति अभी भी दिखाई देती है।
एक समय ऐसा भी आया कि जलरंग का चित्रण अधिक प्रचलन में नहीं रहा। हाँ, यह चित्रण समाप्त नहीं हुआ बल्कि दूसरे माध्यम जैसे तैल रंग, अक्रलिक रंग व कला की अन्य विधाओं ने जलरंग का स्थान ले लिया। कलाकारों को ऐसा लगने लगा कि नवीन विधाओं से । चित्रण करने पर ही वे स्थापित कलाकार बन सकते हैं तथा । अधिकतर कलाकारों ने नवीन विधाओं का बहुतायत में प्रयोग किया। कुछ समय तो ऐसा लगने लगा कि जलरंग चित्रण का युग समाप्त हो गया।
परन्तु आज अचानक जलरंग प्रचलन में आ गया। कुछ अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों ने जलरंग पद्धति को इतना लोकप्रिय बना दिया कि आज कलाकार फिर जलरंग की ओर वापस आ रहे हैं। इंटरनैशनल वॉटर कलर सोसाइटी की स्थापना ने भारत में एक आंदोलन खड़ा कर दिया। ९० देशों में इस ग्रुप की शाखाएं खुलीं तथा बिनाले का आयोजन होने लगा। जलरंग के कलाकारों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलने लगी। कलाकार फिर से सक्रिय हो गए। यह परिवर्तनकारी आन्दोलन था। आज भारतीय कला जगत में यह एक महत्वपूर्ण आयोजन है। सुखद बात यह है कि इस ग्रुप के उपाध्यक्ष दिल्ली के कलाकार अमित कपूर हैं।
ऐसा भी नहीं था कि आई डब्ल्यू एस के पूर्व जलरंग में चित्रण करने वाले कलाकार कलाकार भारत में नहीं थे। इस आंदोलन के पहले बंगाल के अनेक कलाकार सतत् जलरंग में चित्रण कर रहे थे। इन कलाकारों में संजय भट्टाचार्य, समीर मंडल, परेश मैतो, बम्बई के विजय अचरेकर, वासुदेव कामत, प्रभूति अनेक कलाकार हैं, जिन्होंने केवल जलरंग पद्वति में चित्रण किया। ये कलाकार उसी लगन से चित्रण कार्य कर रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आज भारतीय जलरंग के कलाकारों ने स्पष्ट छाप छोड़ी है। प्रफुल्ल सावंत, अमित कपूर, विजय विस्वाल, गणेश हिरे, नानासाहब मेवले, मिलिन्द मलिक, अनन्त मंडल, विलास कुलकर्णी, अमित भर, राजकुमार स्थाबाथी, विक्रांत सितोले, रमेश झाबर, संजय कांबले, अब्दुल सलीम, परवीन कर्माकर, हेलमट तथा स्वयं लेखक भी जलरंग के अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में प्रतिभागिता ले चुके हैं तथा अनेक कलाकारों ने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी अर्जित किए हैं।
भारतीय जलरंग चित्रण के लिए आज सुखद स्थिति है। जलरंग का पुनर्जागरण हो रहा है। अनेक नवयुवक कलाकार आज इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। आशा करता हूं कि भारतीय जलरंग कलाकारों के लिए सुखद समय आएगा। भारत में भी जलरंग की कोई सोसायटी बनेगी जो केवल जलरंग के कलाकारों को प्रोत्साहित करेगी। भारत सरकार भी इसमें सहयोग करे तो उद्देश्य जल्दी प्राप्त हो जाएगा। वैसे तो आईफैक्स जलरंग की प्रदर्शनी करती है परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। इस विधा के विकास के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।