पिता : अहमद अली जन्म : 1984 जन्म स्थान - बनारस शिक्षा - परास्नातक (हिंदी साहित्य) उर्दू में एक और हिन्दी में दो उपन्यास। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन
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ट्रेन अपने निश्चित समय पर थी। थर्ड ए.सी. की बोगी नम्बर बी ४ में साइड लोअर ४० नम्बर बर्थ पाकर मेरा मन मयूर थिरक उठा। सच ...मन एक अजीब से आनन्द से भर गया। कभी कभी छोटी सी उपलब्धि भी इंसान को भाव विभोर कर ही जाती है। मेरी मनोदशा इस समय ऐसी ही थी। मुंबई जाने वाली सभी ट्रेनों में टिकट के लिए जो मारा-मारी चल रही थी, ऐसे में मुझे किसी कि सिफारिश पर स्पेशल कोटे से सीट मिल जाना एक सुखद आश्चर्य ही तो था। वो भी मेरी मन पसंद साइड लोअर बर्थ ..? मैंने गुनगुनाते हुए अपना इकलौता एयर बैग सीट के नीचे डाला.. मुझे यात्रा में ज्यादा लगेज लेकर चलना सबसे उबाऊ काम लगता है, इसलिए मेरे पास सिर्फ एक बैग था, जिसे मैंने सीट के नीचे डाल कर, मोबाइल चार्ज में लगा कर पांव पसार लिए। फिर चारो और दृष्टि दौड़ाई । कम्पार्टमेंट पूरा भरा था। सहयात्री अपनी अपनी सीट पर यूँ जमे थे जैसे यह ट्रेन कि सीट न हो कर कोई शाही सीट हो, कहीं छिन गई तो राज पाट गया समझो। और जो लोग वेटिंग में थे व टी.टी.आई कि खुशामद में लगे थे.. पर पैसों का लालच भी टी.टी.आई की रूडनेस में कमी नही ला रहा था। मुझे एक बार फिर अपने भाग्य पर इतराने का मन हुआ पर, सरेआम इतरा भी तो नही सकता था, क्योंकि लोग क्या कहेंगे, या चार लोग क्या कहेंगे. ने... हम मानव जाति को सभ्यता का जो पाठ कंठस्थ कराया उसे भुलाने की हिम्मत नहीं थी, वरना आज तो मैं सार्वजनिक रूप से नाचने की गुस्ताखी कर ही बैठता। खैर.. अचानक ट्रेन ने जोर की सीटी और हल्के से झटके के साथ रन आउट किया। सामने बैठे सज्जन ने मुझे मुस्करा कर मुझे देखा और बोले। राइट टाइम ..हाँ? प्रत्युतर में मैं भी मुस्काया तब तक ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी। अब मेरा सारा ध्यान अपने स्मार्ट फोन की ओर था, मैं कोई रोमांटिक मूवी देखने का मन बना ही रहा था कि..। क्या मैं यहाँ कुछ देर के लिए बैठ सकती हूँ? आवाज़ थी या जलतरंग... में मूवी सुवी भूल कर पलटा। सामने २६, २७ साल की नवयुवती, जिसने काली जीन्स पर आगे से खुला बटन वाला लम्बा व्हाइट कुरता पहन रखा था, खुले सीधे लम्बे बाल बेतरतीबी से कंधों पर फैले थे, पतली कमर पर पुष्ट छातियों का उभार उसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा रहा था। वो बला की हसीन तो नही थी, पर बला की कशिश जरूर थी, उसके सांवले संदली मुखड़े परकटीली भंवों और कजरारी आँखों के बीच छोटी सी बिंदी, उसके व्यक्तित्व को एक सम्मोहन सा प्रदान कर रही थी।
क्या मैं बठ सकती हूँ? वो मुझे यूँ खोया खोया देख कर मुस्कुरा रही थी।
प्लीज सिट ... मैंने परे खिसकते हुए शालीनता का परिचय दिया और उससे बैठने का अनुरोध किया।
उसने अपना छोटा सा बैग साइड में रखा और सीट के कोने पर टिक भर गई।
आराम से बैठिये मिस! हम सहयात्री हैं, संकोच को आड़े मत आने दीजिए।
उसने मंद स्मित के साथ मुझे देखा और झुक कर अपनी जूतियाँ उतरने लगी, झुकने के कारण उसके कुरते का गला थोडा लटक सा गया और उसकी मांसल छातियों का भार... उफ.. मेरा गला सूखने लगा। नहीं..नहीं.. मैं कोई छिछोरा युवक नही था बल्कि ४० वर्षीय विवाहित पुरुष था.. मैंने ये सब देखने कि चेष्ठा भी नही कि थी, वह तो अनायास ही... खैर मैंने खुद को धिक्कारा और जल्दी से दूसरी ओर देखने लगा। तब तक वह जूतियाँ उतार कर पैरों पर ब्लैंकेट डाल चुकी थी मेरी मनोदशा से अनजान, .. उसने मुझे आभार भरी नजरों से देखा और फिर मुस्कुरा दी। दरअसल मेरा मुम्बई पहुंचना बहुत जरूरी है.. वरना इस तरह सफर करना कौन चाहता है .. २० दिन पहले टिकट कराया था पर आज तक कन्फर्म नही हुआ, उफफ.. ये कांफ्रेंस भी...
ओह..तो आप जॉब में है?
नहीं, शोधार्थी हूँ। ह्यूमन साइकोलॉजी ...
तो कांफ्रेंस में आपका लेक्चर भी इसी टॉपिक पर । होगा?
यस, ऑफ कोर्स ..।
मैं सुनना चाहूँ तो?
मोस्ट वेलकम .. वह मुस्कुराई।
कहाँ आना होगा मुझे?
होटल पार्क इन ....
ओह, वाट अ कोइंसीडेन्ट..? मैं हँसा।
मीन्स? उसकी मैगनेटिक आँखों में फिर से चमक उभरी।
मैं भी वही ठहरूगा.. कमरा नं. २६
रियली!! यह तो वाकई इत्तेफाक है। मैं कमरा नं. । २८.. और इसी होटल के कॉन्फ्रेंस हॉल में हमारा प्रोग्रामहै सुबह ११ से सायं ४ तक।
चलिए.. फिर तो कोई समस्या ही नही, बस २७ की दीवार है हमारे बीच।।
२७...? वह शायद समझ कर भी न समझने का स्वांग कर रही थी, क्योंकि मनोविज्ञान की शोधार्थी.. इतना सा परिहास न समझे यह तो हो ही नहीं सकता।
कमरा नम्बर २७....मेरा २६ आपका २८...।।
ओह ...वह जोर से हँसी ..मुझे उसकी खिलखिलाहट पता नही क्यूं बहुत अच्छी लगी ..उसकी मुस्कान से भी अच्छी। वैसे भी अब हमारे बीच जो अजनबियत कि दीवार थी वो, धीरे-धीरे खिसक रही थी। वह भी शायद ऐसा ही महसूस कर रही थी तभी तो उसने अपने सिमटे पैरों को सीधा कर लिया था...उसके पैरों का अंगूठा मेरे शरीर को छु रहा था। मैंने भद्रता का परिचय देते हुए खुद को थोड़ा और खिसका लिया। सोचा था, मेरी इस सज्जनता पर वह कोई अच्छा सा शब्द तो अवश्य बोलेगी, पर वह तो निर्विकार ही रही, एकदम शांत, शून्य में खोई हुई सी। में उसकी इस अदा पर सोचने लगा...इतनी सम्भ्रांत लडकी और..मेरी शराफ़त पर कोई प्रतिक्रिया नही? तभी जलतरंग फिर बजी।
पाव सुन्न हो गए थे, एक ही दशा में बैठे बैठे ..मंद स्मित उसके शहतूती होंटो से रस टपका रही थी।
ओह ..तो उसे मेरी भद्रता न तो दिखी न महसूस हुई .. पता नही क्यूँ मैं चाहता था कि ..काश वह इसे महसूस करती, और दो शब्द ही सही कहती मेरे लिए। इस भावना के पीछे का कारण तो मुझे पता नहीं, पर मेरे मन कि यह तीव्र इच्छा थी। आपके मुम्बई जाने का कारण जान सकती हूँ ...? उसने मेरी सोच को परे धकेलते हुए पूछा।
जी अवश्य ..आखिर हमारा सफ़र ही नही, हमारी मंजिल भी एक है।
जी हाँ और पड़ाव भी..... एक ही होटल ...वह फिर खिलखिलाई।
पर कमरा अलग ...मैंने परिहास किया।
कमरा ही क्यूँ, थोड़ी देर में सीट भी अलग ..वह फिर हँसी...जैसे हंसना उसकी हाबी हो। खैर इस एक और अलग के चक्कर में आपका परिचय तो रह ही गया।
मैं एक आर्थोपेडिक सर्जन हूँ। मुम्बई के एक निजी अस्पताल ने किसी जटिल ऑपरेशन के लिए बुलाया है मुझे।
ओह, मानव सेवा?
नहीं जी .. नेम फेम के चक्कर में इंसान मानव सेवा तो भूल ही बैठा है ...इस कलियुग कि यही तो त्रासदी है। बस आत्मसंतुष्टि और आत्ममुग्धता का दौर है।
ओह ...अच्छा बोलते हैं आप। वह चिरपरिचित मुस्कान के साथ बोली। वेल, अभी तक हमने एक-दूसरे का नाम नहीं पूछा। वह फिर मुस्काई।।
मधुर ...मधुर पाटिल ...।
मैंने भी मुस्कुरा कर ही कहा। नाइस नेम ...मधुर .. स्वीट ....मीठा ...है न?
वॉव ..मैं उसके विश्लेष्ण पर हँस पड़ा।
माई सेल्फ सुगंधा...सुगंधा घोषाल ...।
वो सुगंधा ... फ्रेगरेन्स .... खुशबू..... है न? मैंने भी उसी के अंदाज में कहा तो, वह खिलखिला पड़ी।
पाटिल ... यू मीन मराठी?
या आई एम मराठी। एण्ड यू बंगाली राइट? राइट ..
आमी बोंगाली..। बट आई लाइक मराठी।
राइट ..आमी बोंगाली..। बट आई लाइक मराठी। वह इस बार भी मुस्कुराई, पर यह मुस्कान पिछली सारी मुस्कानों से अलग थी, कैसी..? यह डिफाइन करना जरा मुश्किल है। हाँ, इसने मेरे मन को उद्वेलित अवश्य किया था ...इस मुस्कान का अर्थ जानने के लिए ...पता नहीं क्यूँ? उपर से, हँसते हुए, उसकी मांसल, उन्नत छातियों की थरथराहट ...व तो लापरवाह सी बातों में मस्त थी और मेरा पुरुष मन विचलित सा हो रहा था, बार बार ....माना कि मैं कोई छिछोरा मर्द नही था, पर मर्द तो था ..बुरी नीयत से न सही, अकर्षण की नीयत से ..नजर तो उठ ही जाती थी।
योर लवर इज मराठी? मैंने नजर चुराते हुए पूछा।
या... बट...? मै जनता था वह क्या कहना चाहती थी, यही कि, आपको कैसे पता?
आपकी मुस्कान ...इसी ने बताया मुझे।
ओह ..वह इस बार इतनी जोर से हँसी कि सोए हुए सहयात्री कसमसाने लगे। उसने दांतों तले जुबान दबाई ..उफ्फ ये अदा तो और कातिल ...मेरा दिल जोर से धड्का, पर दिल को सम्भालते हुए पूछा।
क्या करते है, आपके वो?
बिजनेस... गार्मेन्ट कम्पनी है उनकी ...। वह फिर अजीब सी मुस्काई।
ओह तभी तो आपके कपड़े इतने सुंदर है ...आखिर मैंने हाथ आया मौका जाने नहीं दिया और कपड़ों के बहाने ही सही उसकी ...या सच्चाई कहूँ तो..उसके अंग सौष्ठव की तारीफ कर ही डाली।
नहीं..ये कपड़े तो मैंने मार्केट से पर्चेज किए हैं.।
क्यू...आखिर उस कम्पनी पर आपका भी तो हक हैं.?
नहीं.. आई
अरे ..! क्यूँ भला?
इसके दो कारण हैं। पहला ...मुझे उससे प्यार और सम्मान के सिवा कुछ नहीं चाहिए।...दूसरा ...वो कम्पनी अण्डरगार्मेन्ट बनाती है ...और आई हेट अण्डरगार्मेन्ट ...उसने बुरा सा मुंह बनाया ..पर इस रूप में भी वह प्यारी ही लगी थी।
मैं उससे पूछना चाहता था कि क्यूँ ....उसे यू.जी.मैं उससे पूछना चाहता था कि क्यूँ ....उसे यू.जी. पसंद नही .. जबकि लडकियाँ इसके बिना अधूरी होती हैं? पर हिम्मत नहीं जुटा पाया ...और खामोश सा हो गया।
मुझे क्यों पसंद नहीं, यु.जी...? यही सोच रहे हैं न आप ...?
मैंने चौंक कर प्रश्नवाचक नजरों से उसकी ओर देखा।
आपकी खामोशी ने बताया मुझे। उसने मेरे शब्दों की नकल की तो मैं हँसे बिना न रह सका..वह भी हँसी।
हमारी यात्रा अब काफी खुशगवार हो चली थी..तभी उसने एक अप्रत्याशित सा प्रश्न कर डाला।
मिस्टर पाटिल! हिन्दू समाज में दूसरी पत्नी या प्रेमिका को उपवस्त्र या रखैल ..क्यूं कहा जाता है?
एक पल के लिए मैं फ्रीज्ड होकर रह गया। उसने मेरे । चेहरे के सामने चुटकी बजाई तो मेरी चेतना लौटी।
वाट हैंपेन्ड मिस्टर पाटिल! एनी प्रोब्लम?
नो बट..आपके प्रश्न ने मेरी यह दशा कर दी।
ओह...तो मेरा प्रश्न इतना ज्वलनशील है? वह । मुस्कुराई।
है तो..ज्वलनशील ही..पर अचानक यह प्रश्न क्यूँ? क्या आपके प्रेमी विवाहित हैं?
नहीं ..बट..यह प्रश्न मेरा नहीं, हर उस औरत का है, जिस पर दूसरी होने का टैग लगा है। इस बार वह हँसी नहीं थी ...पर उसके आकर्षण में रत्ती भर भी कमी नहीं आई थी।
पर आप तो दसरी नहीं फिर ये प्रश्न क्य? ।
दूसरी न सही..पर औरत तो हूँ..वह भी मनोविज्ञान की शोधार्थी ...जिज्ञासा का उठाना स्वाभाविक है।
हम्म ...देखिए मिस सुगंधा! हमारा मानव समाज नाना । प्रकार के विचारों की चारागाह है, कितने ही भाव, विचार उद्गार, प्रश्न, रूढियाँ, मान्यताएं यहाँ जुगाली करती रहती हैं ...एक चीज किसी एक समाज में अच्छी है तो दूसरे समाज में बुरी या अप्रिय ..पर यह उनका निजी मामला है, इसमें दखल न ही दिया जाए तो ही अच्छा है।
हूँ....समझौतावादी हैं आप ..? जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया ....। है न ?
शायद ...। या यह कि, मेरी जिंदगी में कोई दूसरी औरत नही..विवाहित हूँ पर ..प्रेमी नहीं।
क्यूँ! पत्नी से प्रेम नहीं है?
बड़ा टेढा प्रश्न था उसका...में जटिल ऑपरेशन तो कर सकता था, पर यह सवाल ..उफ्फ..उलझा दिया था मुझे सुगंधा नाम की इस लड़की ने, जो मुझसे लगभग १५ साल छोटी थी।
आई एम वेटिंग..मिस्टर मधुर !
जी ..करता हूँ ...करता हूँ न ...। मैं अब भी उलझा था इस सवाल में ...‘पत्नी से प्रेम नहीं? यह तो कभी सोचा ही नही...प्रेम है कि नही..? माँ-बाप ने एक लड़की को सजा संवार कर मेरे कमरे और मेरे बिस्तर का भागीदार बना दिया था....मैं संतुष्ट था बस,..प्रेम था या नहीं.. आई डॉन्ट नो...। सुगंधा ने शायद सच कहा था ..............जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया .....समझौतावादी ...। मुझे सोच में देख वह बोली कन्फ्यूज्ड हैं..?
में बी... पर शायद मानव समाज विवाहिता पत्नी को ही पचा पाता है, दूसरी औरत को घर तोड़ समझने की प्रवृत्ति से बाहर आने में इस समाज को शायद सदियाँ लग जाएँ। लोगों को लगता है कि..दूसरी औरत ...एक परिवार ही नहीं कई सम्बन्ध के विच्छेदन का कारण होती है...वह जानती है कि अमुक व्यक्ति विवाहित है फिर भी उसके जीवन में आकर पहली पत्नी की सुख शय्या या यूँ कहूँ कि, रति शय्या बाँटने का दुस्साहस करती है ..फिर ऐसी स्त्री सम्माननीय कैसे हो सकती है?
क्या आप भी ऐसा सोचते हैं मधुर जी?
“सच कहूँ तो इस विषय पर कभी सोचा ही नहीं, इसलिए तो आपके प्रश्न ने मुझे उलझन में डाल दिया सुगंधा जी। पर सही भी है कि जब किसी को पता है। कि सामने वाला पत्नी और बच्चों वाला है तो ..उसके प्रति आकर्षण क्यूँ? उसे अपने जैसे किसी कुंवारे पुरुष से प्रेमालाप करना चाहिए।'' मैंने सोचा मेरे इस तर्क पर वह मेरे आत्मज्ञान की कायल हो जाएगी ..पर उसने तो मुझे अजीब सी नजरों से देखते हुए जोर से ताली बजाई ...दरअसल उसने मेरी खिल्ली उडाई थी ..मैं शर्मिंदा सा होकर उसे देखने लगा और वह बोली।
वाह ..मधुर जी! वाह ..क्या तर्क दिया है आपने ...? वॉव ..विवाहित पुरुष के प्रति आकर्षण ही क्यूँ? आपके हिसाब से प्रेम भी सोच विचार के पैमाने का नाम है? तब तो प्रेम, प्रेम न होकर ठोंक बजा कर खरीदी हंडिया हो गई, जिसमे बस वासना की खीर पक सकती है या, षड्यंत्र की खिचड़ी, प्रेम मधु नहीं ...दूसरी बात ...क्या यह आकर्षण, केवल स्त्री की ओर से होता है? पुरुष भी होते हुए, कभी-कभी दूसरी स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं ..फिर उनसे भी यही पूछा जाए कि ..तुम तो विवाहित हो, तुमने यह दुस्साहस कैसे किया? मधुर जी! प्रेम सोच समझ कर होता न, तो....तो प्रेम नामक पारिजात से संसार रूपी स्वर्ग रिक्त हो जाता। प्रेम एक निश्छल भावना है। जो अचानक किसी के लिए मन में उपजती है और फिर अमरबेल की तरह उसी से लिपट कर अपना सर्वस्व उसी पर वार देती है। यह भावना..यह नहीं देखती कि..सामने वाला अक्षत है या विवाहित, छोटा है या बड़ा, सुजात है या कुजात, धर्मी है या विधर्मी, ....कुछ नहीं मधुर जी! कुछ। नहीं ..प्रेम का एक नाम कुछ नहीं भी है, प्रेम केवल प्रेम है..
मैं लज्जित सा उस कमसिन सी लड़की को देखने लगा जो, जो मेरे जैसे ४० वर्षीय विवाहित को निरुत्तर कर चुकी थी। में केवल मुस्करा भर सका, शब्द चुक गए थे मेरे, पर मैंने उसे और खुलने दिया। सुगंधा जी! आपने यह प्रश्न पूछा ही क्यूं? जबकि आप तो किसी कुंवारे पुरुष के प्रेम में है, फिर इस प्रश्न का औचित्य .......? वो मेरा प्रेम नहीं, रजामंदी है..मजबूरी नहीं कहूंगी क्यूंकि मैंने मम्मी- पापा की खुशी के लिए उससे इंगेजमेंट की है। पर पता नहीं क्यूँ, मुझे विवाहित पुरुषों की प्रेमकथा ज्यादा लुभाती है .. लैला मजनू से ज्यादा सलीम अनारकली ...शीरी फरहाद से ज्यादा बाजीराव मस्तानी, हीर राँझा से ज्यादा रत्नसेन पद्मिनी, सोहनी महिवाल से ज्यादा शिवा जी हीरा बाई, मिर्जा साहिबां से ज्यादा युसूफ और जुलेखा, देवदास और पारो से ज्यादा कृष्ण और राधा।
इन्टरेस्टिंग .....ऐसा रहा तो आप किसी विवाहित पुरुष के प्रेम में पड़ सकती हैं..फिर बेचारा आपका मंगेतर ..? मैं मुस्कुराया और वह जोर से हँसी फिर बोली। काश ..ऐसा होता ..? क्या पता ऐसा हो ही जाए
काश ..ऐसा होता ..? क्या पता ऐसा हो ही जाए ...और क्या पता वह पुरुष आपकी तरह मराठी हो....और फिर मुझे भी उपवस्त्र का ताना सुनना पड़े... वो रोमांचक ..उसने इस अदा और बेबाकी से ये सब कहा कि मैं उसे ठगा सा देखने लगा। मेरी चुप्पी पर वह जोर से हँसी और बोली।
डरिए मत मोशाय! यह केवल एक संभावना है सत्य नहीं ...या एक उदाहरण समझ लीजिए। फिर भी जिंदगी इत्तेफाक है, और इत्तेफाक जिंदगी ...मान लीजिए मेरे साथ उपवस्त्र वाला इत्तेफ़ाक हो ही गया तो..वह आगे भी कुछ। बोलना चाह रही थी कि, टी.टी.आई आ धमका।।
मैडम! २६ नम्बर की बर्थ आपके लिए अलाट है, अब आराम से सफर तय कीजिए ... हैप्पी जर्नी... टी.टी. मुस्करा कर आगे बढ़ गया और सुगंधा मेरे प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने जूते पहनने के लिए झुकी..मैं एक बार फिर उसकी पुष्ट छातियों को निहारने का लोभ संवरण नहीं कर सका .. हालाँकि पहली बार अनायास था। इस बार धृष्टता...वह जूते पहन कर खड़ी हो गई। मैंने जल्दी से नजरें चुराई ..वह बोली।।
“चलिए मिस्टर मधुर! अब आप आराम कीजिए ....मैंने तो आपकी सीट पर हक ही जमा लिया था..वेल.. मिलते है सुबह। शुभयामिनी।''
वह जाने के लिए मुड़ी ही थी कि, अचानक मेरे हाथ आगे बढ़े और उसकी कोमल कलाई पर चिपक से गए, वह चौंक कर पलटी.. मुझे हैरान नजरों से देखा..मैंने घबरा कर उसकी कलाई छोड़ दी। सॉरी मिस... बट आई रिक्वेस्ट यू.. प्लीज स्टे हेयर...। उसके होंटो पर अजीब सी मुस्कान थिरकने लगी..वैसे भी वह अब तक जितनी बार मुस्कराई थी हर बार कुछ नया था उसकी मुस्कान में। उसने बैग सीट के नीचे डाला और दुबारा बैठते हुए बोली... ४० इज माई लक्की नम्बर... थेंक्स।
उसने यह सब क्यूँ कहा, मैं समझ न सका, हाँ, उसका दुबारा मुझे ज्वाइन करना बेहद अच्छा लगा। और शायद उसे भी अच्छा लगा था, तभी तो उसने ४० और बैंक्स .... वरना उसके जैसी बेबाक और आत्मविश्वासी लड़की मुझे आराम से मना कर सकती थी।
‘‘हाँ तो उपवस्त्र पर फिर से चर्चा की जाए?''
“जी जरूर।''
“जी जरूर।'' ‘‘दूसरी पत्नी या प्रेमिका उपवस्त्र ...तो पहली पत्नी अर्धांगिनी क्यूँ ? उसे वस्त्र की संज्ञा क्यूँ नहीं? क्या केवल पहली पत्नी ही पति के साथ सोती है..दूसरी यह दायित्व नहीं निभाती? वह पति या प्रेमी के आधे अंग को अपने अंग में लेकर उसे पूर्ण नहीं करती? फिर वह वस्त्र क्यूँ? अंग क्यूं नहीं? ये तो न्याय नही? यदि एक वस्त्र है तो फिर दूसरी भी वस्त्र ..एक अंग है तो दूसरी भी अंग .... ये पक्षपात क्यूँ? क्या किसी का दूसरी होना ही उसका सबसे बड़ा अपराध है? दूसरी औरत कितनी भी सच्चरित हो, वह उपवस्त्र ..पहली में हजार बुराइयाँ क्यूँ न हो, वो अर्धांगिनी ...यदि दूसरी उपवस्त्र .. तो पहली अन्त:वस्त्र ...मेरा विवेक तो यही कहता है।
अन्त:वस्त्र...मैं उसके इस अनोखे सम्बोधन पर हैरान भी हुआ और प्रभावित भी। अन्त:वस्त्र..यानि अण्डरगार्मेन्ट ..हाहाहा ...। मैं फिर हँसा जी हाँ ... अण्डरगार्मेन्ट ...इस बार वह तनिक भी मुस्कुराई नहीं थी, बल्कि एक अलग सी खिन्नता थी उसके भोले मुखड़े पर। जब आप दोनों के साथ अपना शरीर बांटते हैं, दोनों के अंग को अपने अंग पर धारण करते है तो, दोनों वस्त्र ....फर्क केवल इतना है। कि ..एक उपवस्त्र ..एक अन्त:वस्त्र...जब दोनों वस्त्र हैं तो ...यह भेद भाव क्यूँ? अब दूसरी बात ...अन्त:वस्त्र यदि ब्रांडेड हुआ तो शायद कम, ब्रांडेड न हुआ तो ज्यादा, पर चुभन तो देता ही है..।।
मैं समझा नही?
वो जोर से हँसी, उसकी आँखों के मैगनेट और दांतों की दामिनी, फिर मेरे मन को बेचैन कर गई, यह बेचैनी कैसी थी...क्यूँ थी..मैं समझ न सका। पर थी, इतना जरूर समझ गया था।
आप नहीं समझे तो मैं समझती हूँ न। अण्डरगार्मेन्ट शरीर से इस प्रकार चिपका रहता है कि इसे धारण करने के बाद भी एक बेचैनी सी बनी रहती है...फिर भी इसे हर रोज धारण करना ही पड़ता है, मजबूरीवश या परम्परावश ..इसीलिए आई हेट अण्डरगार्मेन्ट ..मैं कभी यूज नहीं करती उसने अपने कुरते के खुले बटन को दिखाते हुए कहा। उसके कुरते में वाकई उसका स्तन आवरण रहित था, यहाँ तक की निप्पल का शेप भी स्पष्ट था..और वह सीना ताने बड़े गर्व से उसे दिखाते हुए कह रही थी ... आई हेट अण्डरगार्मेन्ट ..वह काफी बोल्ड थी ...यह तो मैं समझ चुका था, पर इतनी बोल्ड होगी? न न ..मैं हैरान था। मुझे अपने जज्बात को काबू करने में कुछ सेकेण्ड लगे फिर सूखे गले को थूक से तर करते हुए कहा।।
मिस सुगंधा! यू आर बोल्ड...पर क्या यह एक नारी को शोभा देता है?
वह फिर जोर से हँसी ...मुझे पता था कि अगला प्रश्न यही होगा।
यह कहते हुए उसने जिस शोखी और शरारत से मुझे देखा था ..वो भी मेरे लिए एक नया पर रोमांचक अनुभव था। उस समय मुझे खुद पर शक होने लगा ...कहीं मैंने यह प्रश्न जानबूझ कर तो नहीं पूछा? वास्तव में मुझे यकीन नहीं था कि, वह इतनी खुली हुई होगी? यह प्रश्न तो मैंने मात्र इसलिए पूछा था कि, वह कहीं मुझे सड़क छाप या दिलफेंक टाइप का न समझ बैठे जबकि मैं उसके सफ़ेद कुरते को और देखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था ...मैं उसे देखना ही नही सुनना भी चाह रहा था।
यही तो विडम्बना है मधुर जी! कि, समाज स्त्री को अपने चश्मे से देखना चाहता है ...दो हाथ लम्बे घूघट में वेश्या भी सती ...और मेरे जैसी बोल्ड मेनका ....हम चाँद छु आए पर चाँद पर दाग हमें मंजूर नहीं। बड़ी विरोधाभास वाली स्थिति है स्त्री की मानव समाज में। हमसे अच्छे तो जानवर, जहाँ मादा उसी के साथ सम्भोग पर राजी होती है। जो अन्य नरों से लड़कर मादा को खुश करता है ...और हम मानव रूपी मादा खुल कर अपने विचार भी नही रख सकतीं उफ्..... खैर यह एक अलग विषय है। हम बात कर रहे थे उपवस्त्र और अन्त:वस्त्र पर ..। उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। प्लीज कैरी ऑन..। क्यूंकि मैं उसे और सुनना चाहता
प्लीज कैरी ऑन..। क्यूंकि मैं उसे और सुनना चाहता था।
अन्त:वस्त्र जो इंसान के उन अंगो पर चिपका रहता है। जिसे कोई सार्वजनिक नहीं कर सकता, वो छुपा रहकर और धारण करने वाले को चुभन देकर भी..इस गलतफहमी में रहता है कि, मर्द के अंगविशेष पर अधिकार तो उसका है। .. लाइक अ हाउस वाइफ... पहली पत्नी ...जो घर के अन्दरूनी हिस्से में या फिर महल के रनिवास में ..मर्द के बिस्तर तक तो जाती हैं, पर उसके दिल तक ...यह वो पूरी जिंदगी नही समझ पाती ...उनसे लगता है कि पति संग सहवास ही उनकी पूर्णता है जबकि लगभग ... १० परसेंट महिलाएं रतिक्रिया के सुख से अपरिचित ही रहती हैं....और ८० परसेंट मर्द भी केवल अपना दायित्व निभाते हैं, वे मानसिक रूप से सहवासिक सुख का अनुभव नहीं करते और ऐसे ही असंतुष्ट मर्द यदि किसी और की ओर आकर्षित होकर उससे मानसिक शांति और आनन्ददायक सहवास को पा लेते है तो..इस आनन्ददायनी को उपवस्त्र की संज्ञा क्यूँ?
मैं तो अपने १२ वर्ष के वैवाहिक जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हूँ...मुझे तो मेरे पार्टनर ...आपके शब्दों में अण्डरगार्मेन्ट ...से कोई प्रोबलम नहीं, खुश भी हूँ मैं।
खुशी और आनन्द में बड़ा बारीक मगर कटीला अंतर । होता है मधुर जी! आप खुश हो सकते हैं, पर आनन्द में नहीं। यह बात में एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते दावे से कह सकती हूँ। और रही बात आपकी संतुष्टि की तो
इसमें दो बातें हो सकती हैं। पहली... आपकी पत्नी आपको वाकई हर पहलू पर संतुष्ट रखती हैं, दूसरी.... आप भी संतुष्टि के भ्रम में जी रहे है। सोचिएगा कभी समय निकाल कर, तब शायद आपको इस सवाल का जवाब मिल जाए।
स्त्री होकर भी आपके ये स्त्री विरोधी विचार ..?
रॉन्ग... मैं तो स्त्री के हक की बात कर रही हूँ...मेरा मुद्दा बस इतना सा है कि जिस सम्बन्ध से, स्त्री-पुरुष दोनों को मानसिक, आत्मिक और शारीरक सख और आनन्द प्राप्त हो वही सम्बन्ध सम्बन्ध की श्रेणी में आते हैं, ऐसे सम्बन्धों का क्या जो ढोया जाए ...यदि इंसान पहली पत्नी से संतुष्ट है तो कोई समस्या ही नहीं, पर यदि वह दूसरी स्त्री तो..क्या गलत है? क्या प्रेम पाप है? यदि हाँ..तो आपने प्रेम कि परिभाषा ही नहीं जानी, यदि नहीं तो प्रेमिका या दूसरी पत्नी उपवस्त्र क्यूं? जबकि उपवस्त्र से ही इंसान की पहचान होती है, क्यूंकि समाज में दर्शनीय और निंदनीय तो वही होता है। अन्त:वस्त्र वस्त्र तो छुपा ही रहता है। चाहे वह कपड़ा हो या स्त्री। उपवस्त्र ..यानि जो ऊपर धारण किया जाए...यदि इस सेन्स में यह नामकरण है तो सर्वथा उचित है। क्यंकि प्रेम सबसे उपर होता है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं, 'राधा'.... कृष्ण के साथ वही पूजी जाती हैं। परन्तु यदि उपवस्त्र को रखैल के सेन्स में लेकर यहनामकरण हुआ है तो, मेरे जैसी विद्रोही लड़की इससे कदापि सहमत नहीं होगी। यदि कोई मुझे प्रेमिका या दूसरी पत्नी के रूप में उपवस्त्र कहे तो मुझे कोई प्रोब्लम नहीं होगी, क्योंकि, उपवस्त्र अपने धारणकर्ता के आनन्द में ही परम आनन्द महसूस करता है। आप उसे सर की पगड़ी भी बना सकते है और लंगोट भी ...यह देखिए, उसने पहले अपने दुपट्टे को सर पर पगड़ी की तरह बांध और फिर खड़ी होकर दोनों टांगों के बीच लंगोट सा बांध लिया। मैं हैरानी से उसे देख रहा था, वो तो शुक्र था कि सारे यात्री निन्द्रावन में विचार रहे थे नहीं तो इस लड़की कि बोल्डनेस पर तो हंगामा ही हो जाता। मैं अभी अपनी हैरानी से बाहर भी नहीं आया था कि उसने फिर एक झटका दिया।
क्या आप ब्रा और पैंटी को सर पर सजा सकते है? नहीं न? क्यूंकि वो अन्त:वस्त्र है...जबकि उपवस्त्र..आप देख ही चुके है, अभी अभी। वह फिर जोर से हँसी, फिर बोली ... चलिए छोड़िए ..मानसिक खुराक तो काफी हो गई, अब मुझे शारीरिक खुराक की जरूरत है।
क्या ...? मैं सच में अब उससे डरने लगा था। ट्रेन का सन्नाटा और उसके यह शब्द ...कौन शरीफ आदमी नहीं डरेगा भला?
उफ्फ...ये मर्द भी न ..मोशाय! शारीरिक खुराक मीन्स भोजन, अरे भई भूख लगी है मुझे। वह फिर खिलखिलाई।
ओह ....मैंने रुकी हुई सांसों को छोड़ा और झुक कर बैग से वो टिफिन निकलने लगा जो घर से चलते समय पत्नी ने साथ कर दिया था। जब तक मैंने टिफिन खोला वह भी अपने साथ लाई पैकेट खोल चुकी थी। मैंने गोभी और मटर के पराठे उसकी ओर बढाए, उसने नजाकत से एक टुकड़ा तोड़ कर अपने मुंह में रखा और चबाते हुए बोली-अन्त:वस्त्र?
जी। मैं उसके कटाक्ष पर मुस्कुराया। उसने अपनी पैकेट मेरी ओर बढ़ाई। फिश फ्राई देखकर मेरे मुंह में पानी आ गया। मैंने एक बड़ा सा टुकड़ा उठा कर मुंह में रखा और मेरे मुंह से अनयास ही निकला ...वो... डिलिसियस
उपवस्त्र ..वह जोर से हँसी। मैं भी हँस पड़ा...डरिए मत ..उपवस्त्र यानि दूसरी औरत ...मैं आपके लिए दूसरी यानि पराई ही तो हूँ...यहाँ कोई और सेन्स मत निकालिएगा ... आई एम जोकिंग...।।
खाना खत्म करके उसने फिर पैर पसारे इस बार उसका पैर मेरे कुल्हे से टच हुआ। उसने शालीनता का प्रदर्शन करते हुए सॉरी कह दिया पर मेरा रोम रोम थरथरा उठा ...एक अनजाना सा भाव मुझ पर हाबी होता जा रहा था। मैं सोच रहा था। काश, इस बार भी उसका पैर सुन्न हो गया होता? फिर डरा कि कहीं वह फिर मेरे मन की पढ़ न ले इसलिए मैंने बात का रुख मोड़ना ही बेहतर समझा।
मिस! आपने कहा कि आपकी शादी तय है पर आप प्रेम में नहीं है ..इसे क्या समझें ?
मिस्टर मधुर ! मुझे उपवस्त्र बनना है, इसलिए मैंने उससे कह रखा है कि, मुझसे पहले वह अन्त:वस्त्र ले आए।
मतलब किसी को पत्नी बना ले?
या, यू आर राइट...। वह इतने आराम से बोली-जैसे इस शब्द में कोई अनोखापन हो ही नहीं।
मैं उसे अचम्भित होकर देख रहा था और सोच रहा था। कैसी सनकी लड़की है यह? अपने ही प्रेमी का विवाह कराना चाहती है .. ताकि वह दूसरी पत्नी बन सके। सौत शब्द औरत के लिए कैंसर जैसे भयानक रोग से भी बढ़ कर होता है और यह ..सुगंधा घोषाल...अजूबा नही, संसार का पहला अजूबा है। यह मनोविज्ञान की शोधार्थी नही, मनोरोगी है ...पर जो भी है अद्भुत है, अनोखी है।
आप मुझे मनोरोगी समझ रहे हैं न?
ओह तो यह टेलीपैथी भी जानती है? कितनी आसानी से पढ़ गई मेरी सोच।
मधुर जी! अब जो भी हूँ मैं ऐसी ही हूँ। वो क्या कहते न ...उर्दू में ? लुत्फ़...हाँ तो मुझे लुत्फ़ आता है, एक मर्द के साथ दो औरतें देख कर ..जब कोई स्त्री अपनी सौत को गालियाँ देती है न मुझे रोमांच आता है। उस समय मैं सोचती हूँ- इसे क्या कहेंगे ..प्रेम या अधिकार ? या वही अन्त:वस्त्र...यानि मर्द के नग्न अंग से लिपटने की लालसा? मेरी नज़र में न तो यह प्रेम है, न अधिकार ..क्योंकि प्रेम देने और अधिकार जताने की चीज़ है.इसमें छीनने की प्रवृत्ति शामिल ही नहीं, पर सौतिया डाह?.. यह तो किसी कि खुशी छीनने का ही एक रूप है। हम जिसके प्रेम में होते हैं, उस पर अपना सब कुछ उत्सर्ग कर देते हैं, उसी की खुशी में जीवन कि सार्थकता समझते हैं, पति एक हजार वस्त्र ले आए कुछ नहीं, एक उपवस्त्र ले आए तो हो हल्ला? क्यूँ नहीं एक स्त्री पति का अंग बाँट सकती, क्या यह पति के बिस्तर और चुम्बन आलिंगन या फिर खुल कर कहूँ कि जंघामर्दन की लड़ाई है? स्त्री घर बार बाँट सकती है पर पति या प्रेमी नहीं.क्यूँ ?
क्योंकि वह उससे प्रेम करती है। मैंने उसकी बात काटते हुए कहा।
नहीं ...यह प्रेम नही अंग विशेष का मसला है ..घर बार के पास पुरुष जनित अंग नहीं होते, ..ऐसा नही है कि स्त्री वासना को ही सबसे उपर समझती है, मगर यह झगड़ा है तो रतिशय्या का ही ..एक ओर वासना का झगड़ा दूसरी ओर वासना से घृणा का ढोंग ..यह दोहरा मापदंड मेरी समझ से परे है।
उफ्फ...सुगंधा जी! कहना बहुत आसन है, पर सहना बहुत मुश्किल ...आपके विचार अनोखे हैं, आप अपने ही होने वाले पति का विवाह करा कर दूसरी पत्नी बनना चाहती है इसे हमारा समाज पागलपन या सनक के सिवा और क्या कहेगा? पर आज जो बातें आप इतनी सहजता से कह रहीं हैं उसे जब व्यवहार में लाना पड़ेगा तब आपका यह उपवस्त्र का आकर्षण ...बहुत भारी पड़ेगा आपको।
कभी नही...मेरा पति अगर मेरे बाद भी तीसरी स्त्री लाता है तो मैं उसका भव्य स्वागत करूंगी, क्यूंकि उपवस्त्र में ही वो सहनशक्ति होती है कि वो अपने उपर भी किसी को सहन कर लेता है ...अन्त:वस्त्र तो शरीर से चिपका रहता हैं वो क्या भार सहन करेगा? वह अचानक उत्तेजित सी हो गई।
आपकी सोच को हमारा मानव समाज कभी पचा नही पाएगा।
मैं कहाँ हाजमे की गोलियां बाँटती फिर रही हूँ?
उसकी इस बात पर मेरी हँसी खुल कर बिखरी, मैं काफी देर हंसता रहा, वह भी मुस्कुराती रही, फिर मैंने कहा।
आप पर बहुपत्नी विवाह के समर्थन का आरोप लग सकता है।
जो पहले से है, उसे प्रोत्साहित क्या करना मधुर जी!
आपके विचारों में विद्रोह है और हमारा समाज ऐसे विचारों को मान्यता नहीं देता ...हमारे मानव समाज में । पहली पत्नी को ही देवी का स्थान दिया जाता रहा है।
हुह..चाहे उसका आचरण डायन जैसा क्यूं न हो? अधिकतर पत्नियाँ पति के विवाहेत्तर सम्बन्ध को पति की चरित्रहीनता क्यूँ समझती हैं, पति की भावना क्यूँ नही? क्या विवाहित पुरुष को प्रेम करने का अधिकार नहीं? केवल इसलिए कि ..उसके बिस्तर पर पहले से एक स्त्री मौजूद है .. एक स्त्री अपने भाई को किसी के साथ रति क्रिया में लिप्त देख सकती है। देवर, जेठ, सबको देख सकती है तो पति को क्यूँ नहीं ..क्या पति के सीने में धड़कता हुआ दिल नहीं, क्या उसमें प्रेमोचित भावनाए नहीं, या फिर वो पुरुष योनि से खारिज हो गया? विवाह बंधन में बंधते ही?
बड़े उलझे तर्क थे सुगंधा नाम की इस लड़की के ...जो अच्छे भी लग रहे थे और डरा भी रहे थे...इतनी बेबाक सोच, इतना अनोखा नजरिया..पता नहीं इस लड़की के लिए कब मुसीबत बन जाए। मैं सोचने लगा था।
क्या हुआ? मधुर जी!
उसके मुंह से मधुर जी यूँ अदा हुआ कि मुझे मेरा नाम सार्थक लगा जीवन में पहली बार। मुझे अपने नाम की मधुरता पर खुद प्यार सा आ गया। ‘‘यही कि यदि आपके प्रेमी ने आपकी बात नहीं मानी तो ...?''
तो हम दोनों के रस्ते अलग।
तब तो आप भी स्वार्थी स्त्री हो गई जो अपने सुख के लिए पुरुष के सुख को नकार देती है। इस बार मुझे पूरा विश्वास था कि वह निरुत्तर हो जाएगी पर मैं गलत था, सुगंधा अपने विषय की इनसाएक्लोपीडिया थी।
मैं छोडूंगी ..जकडूगी नहीं ...किसी को उसके हित के लिए छोड़ देना त्याग है, जकड़े रहना स्वार्थ ..और स्वार्थ में मेरा विश्वास नहीं। वह मेरे माता-पिता की पसंद है और मेरी पसंद तभी बनेगा जब वह मेरी भावनाओं कासम्मान करेगा...लोग मुझे सायको कहें या सनकी ...पर मुझे दूसरी पत्नी ही बनना है उपवस्त्र ही बनना है, मगर तब जब अन्त:वस्त्र होने के बाद भी किसी को उपवस्त्र की लालसा बेचैन कर दे ....वह भले ही अन्त:वस्त्र की उपेक्षा न करे पर उपवस्त्र के बिना भी जी न सके ....जिसके लिए उसका पुरुष साथी बेताब हो, बेचैन हो, वही एक विजेता स्त्री है ..न कि वह जिसके साथ पुरुष मात्र संभोग का रिश्ता रखता हो।
मैं उसके अनोखे तर्कों के आगे टिक तो नहीं पाया परन्तु एक प्रश्न फिर कर डाला, डरते-डरते। क्या पहली पत्नी...आपकी भाषा में अण्डरगार्मेन्ट या अन्त:वस्त्र पर्याप्त नही एक पुरुष के लिए?
यदि आप इस सम्बन्ध में पुरुषों का वर्जन लें...इस शर्त पर कि नाम गुप्त रखेंगे तो ...८० परसेंट पुरुष अण्डरगार्मेन्ट से त्रस्त ही नजर आएंगे ....सुहागरात का प्रथम शारीरिक मिलन और हनीमून के कुछ दिनों को छोड़ दिया जाए तो कौन सा दिन यादगार होता है वैवाहिक पुरुष के जीवन में? सारा दिन आफिस में माथापच्ची, शाम को घर पहुंचे नहीं की समस्याओं की लम्बी लिस्ट, ..गैस खत्म है, बेबी का डायपर नहीं है, तुम्हारे पापा कि खांसी ने तंग कर रखा है। तुम्हारी माँ को तो मेरे हर काम में मीन मेख निकलने कि आदत है। देवरानी को अपने माएके पर बड़ा नाज है। मैं तो बस नौकरानी हूँ। तुम्हे तो मेरी कोई परवाह ही नहीं मरू या जीउँ। तुम तो सारा दिन आफिस में मौज करो, रात-रात भर पराई औरतों से चैट करो, बस मरने खटने के लिए एक में ही बची हूँ। उफ्फ..दो शब्द बेचारे पति के लिए भी बोल दिया होता ...पर नहीं ....पता कैसे चलेगा कि यह अर्धांगिनी है? हक..अधिकार लेकर ..... सात फेरों या निकाह के तीन बोल के साथ इनके साथ ही आए हैं उफ्फ्फ ।
उसका उफ्फ भी उसकी तरह मैग्नेटिक था ....मैं सोचने लगा। एक लड़की वो भी कंवारी उसने पुरुषों के वैवाहिक जीवन की इतनी सूक्ष्म व्याख्या कैसे कर दी? फिर ख्याल आया 'गौरी' यानि अपनी पत्नी का ..लगा सुगंधा कि जिह्वा पर गौरी आ बैठी हो..हर दिन यही सब तो सुनना पड़ता है मुझे, पर आज तक मैंने इन सब पर गौर क्यूँ नहीं किया? शायद इसलिए कि, मैं भी इसे एक पत्नी का अधिकार ही समझ रहा था ..पर सुगंधा ने अधिकार, कर्तव्य और समर्पण की जो परिभाषा मेरे सामने प्रस्तुत कि थी, उसने मेरे कथित सुखी जीवन की सारी बखिया उधेड दी थी ....मुझे गौरी के एक-एक शब्द स्मरण हो आए ....पिछले १२ साल की छोडो, घर से निकलते समय ...देखो जी! बाहर जा रहे हो इसका मतलब यह नही की वहां मनमानी करो.. ठीक ११ बजे सो जाना, मोबाइल पर लगे मत रहना, लड़कियों से फ्लर्ट मत करना। मेरे लिए गिफ्ट लाना मत भूलना और हाँ अपनी माँ को बोलते जाओ मेरी लाइफ में इंटरफेयर न करें, नहीं तो तुम्हारे लौटने तक मैं मम्मी के पास चली जाती हूँ।......उफ्फ्फ ।
अचानक मेरे मुंह से निकले उफ्फ्फ पर सुगंधा जोर से हँसी। वह आगे कुछ कहना चाहती थी कि उसका मोबाइल चीखने लगा। मुस्कुरा कर हेलो कहा..पर अचानक उसकी मुस्कान गायब और सलोने चेहरे पर अजीब से भाव ...मैं समझ गया, उसके भावी पति की कॉल थी।
मनोज! आई एम नॉट ऍग्री विथ यू .....
क्या समझें मनोज !......सनक ही सही पर यही मेरा आनन्द है ...और मैं समझौते के सहारे इतनी खूबसूरत । जिंदगी को भी अपाहिज नहीं बना सकती।
उधर से शायद उसे पागल कहा गया था तभी तो उसने उत्तेजित होते हुए कहा।
मैं पागल नही मनोविज्ञान की शोधार्थी हूँ...जिसे तुममैं पागल नही मनोविज्ञान की शोधार्थी हूँ...जिसे तुम जैसा बनिया नहीं समझ सकता ..तुम बिजनेस के प्राफिट और लॉस ही देखते, जिंदगी के भी देखते हो ....पर तुम जो भी कहो मैं उपवस्त्र ही बनूंगी। मनोज ! मैंने तुमसे कभी अण्डरगार्मेन्ट लाने को कहा? नहीं न ..क्यूंकि आई हेट अण्डरगार्मेन्ट ...जबकि तुम्हारा इसी का बिजनेस है। ........समाज की बात करके तुम मुझे डरा नहीं सकते, क्यूंकि मैं विद्रोहिणी जो ठहरी....इतिहास पुराण जो चाहे खंगाल लो हर जगह उपवस्त्र जगमगाता ही मिलेगा ...मैं पहली पत्नी के विरूद्ध नहीं बोल रही, बस मुझे पहली पत्नी नहीं बनना। दैटस इट .....कोई मुझे मन से प्रेम करे यह मेरे लिए ज्यादा जरूरी है ...न कि पत्नी बना कर उपेक्षा की अलगनी पर सूखने के लिए डाल दे ......ऐसा नहीं है कि पत्नी ही पति की उपेक्षा करती है, पति भी करता है, पुरुष की प्रबल काम वासना और स्त्री का मातृत्व जूनून ..दोनों को हर रात सम्भोग के लिए उकसाता है। इसमें प्रेम कहाँ है ...मैं केवल पुरुष के साथ सोना नहीं चाहती, उसे पाना चाहती हूँ.......जीवन में हर पुरुष को कभी न कभी उपवस्त्र का लोभ होता जरूर है। कोई उसे हर कीमत पर हासिल कर लेता है, कोई समाज के भय से इस रोमांचक प्रयोग को ललचाई दृष्टि से देखता रहा जाता है ......पर ऐसे लोग अपनी मानसिक शांति जरूर खो देते हैं और फिर पत्नी अण्डरगार्मेन्ट से झाड़न बन कर रह जाती है..मनोज ! मुझे इन दोनों में से कोई नहीं बनना, मुझे ओढनी या उत्तरीय बनना है जो शोभनीय और दर्शनीय होने के साथ-साथ धारक का प्रिय भी होता है। दैट्स ऑल ...... उसने फोन कट कर मेरी ओर देखा ..उसके लबों पर अब भी मुस्कान थी..पर उत्तेजना के कारण उसका सलोना चेहरा दमक रहा था। सांसों के उतार चढ़ाव के साथ उसके सीने का उभार भी हौले हौले कांप रहा था..मैंने जल्दी से नजरें हटाई और उसने कलाई घडी देखते हुए कहा। अरे सुबह हो गई, बातों का सिरा हमें आधी मंजिल तक ले आया और हमें पता भी नही चला?
हाँ जिंदगी में कभी-कभी ऐसे पल भी आने चाहिए कि भावनाओं की सरिता में बहती नौका किनारे लग जाए और किसी को पता भी न चले।
मैं हँसना चाहता था तभी चाय वाला आ गया। मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा, उसने स्वीकृति में सर हिला दिया। चाय की चुस्की के दौरान हम दोनों अपनेअपने विचारों में गुम रहे..वैसे भी अब बोगी में हलचल शुरू हो गई थी, लोग नींद से जाग चुके थे। फिर हमने काफी लम्बा रास्ता खामोशी से काट दिया। बीच-बीच में बस इधर-उधर कि ही बातें हुई ...पत्नी की कॉल शिकायतों के बंडल के रूप में आई। इस बीच में सुगंधा की सारी रात की बातचीत पर भी मंथन करता रहा, उसकी कुछ बातें सही लगती, कुछ बचकानी। कभी सारी सही, कभी सारी गलत ..पर उसकी हँसी..वो तो चम्पा के फूलों जैसी झर कर मेरे मन रूपी दमन से लिपट सी गई थी ....उसके बोलने का अंदाज ...उफ्फ..वह बोलती तो लगता माँ सरस्वती कि वीणा झंकृत हो उठी हो। जीवन का यह सफर जो आधी सीट बाँट कर शुरू हुआ था वह यादों कि अँगनाई में तुलसी का बिरवा मन कर महक उठा था। उसकी हर अदा, हर तर्क में कमाल का चुम्बकीय आकर्षण था।और उसका 'उफ्फ...वो तो जानलेवा। मैं सोच की महकी फुलवारी में विचर रहा था और वह किसी किताब के पन्ने पलट कर रही थी। तभी टी.टी.आई आया और उसे देख कर हैरानी से बोला।
मैडम! आपको सीट मिल गई थी न फिर भी आप यहाँ?
हाँ वो सीट मुझे पसंद नहीं आई। न जाने क्यूँ पूरी पर कब्जा करना मुझे अच्छा नहीं लगा, ये आधी सीट और। ये ४० नम्बर मेरे लिए बड़ा कम्फर्ट है। वह मुस्कुराई। टी. टी. उसकी उलझी बातों पर सर झटक कर आगे बढ़ गया।
दिन के ३ बजे हम मुम्बई स्टेशन पर उतरे। सारी रात जागने से उसका नाजुक शरीर बोझिल सा हो गया था। वह ट्रेन से उतरते हुए लड़खड़ाई मैंने लपक कर उसे थाम लिया। उसका बैग तो मैंने पहले ही उठा रखा था, वह मेरे सीने से लगी लम्बी लम्बी सांसे ले रही थी...अचानक उसे स्थिति की गम्भीरता का एहसास हुआ। वह मुझसे अलग होते हुए बोली, उफ्फ्फ ..और मैंने भीड़ की परवाह न करते हुए उसके चन्द्रभाल पर चुम्बन लिया और उसी की नकल करते हुए बोला। उफ्फ
नहीं उपवस्त्र ...आधी सीट पूरा सफर ...और ४० नम्बर ....फिर वह कमसिन कामिनी मुझसे लिपटती चली गई।
सम्पर्क : 602/1909 ग्रीन कॉटेज, अवध इनक्लेव दुबग्गा, लखनऊ