अधिवक्ता के रूप में कार्यरत रचनाशीलता से गंभीर जुड़ाव। पत्र-पत्रिकाओं में कई कहानियां प्रकाशित।
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मुन्ना छटपटा रहा था। बार-बार अंदर बाहर होता, लेकिन उसकी समस्या का समाधान न तो मां कर रही थी और न ही बाबू। वह छोटकी को पकड़कर झिझोड़ देता। फिर पूछता -
“तू बता न, गप्पू कहां गया है? क्या सचमुच उसे भेड़िया उठा ले गया है?''
छोटकी उससे मात्र डेढ़ साल छोटी थी। वह साढे आठ साल की थी। गप्पू दस का हो गया था। उसे भी नहीं पता था कि गप्पू अचानक कहां गायब हो गया। वह तो अभी मात्र डेढ़ साल का ही था। ठीक से चल ही नहीं पाता था। अपने से तो कहीं जाएगा नहीं। यहां तो भेड़िया कभी आता नहीं है। जंगल तो यहां से सात कोस दूर हैं फिर बाबू कैसे कह रहे हैं कि गप्पू को भेड़िया उठा ले गया। गप्पू को तो सूखा रोग हो गया था। वह तो छोटकी और मुन्ना के बिना रह ही नहीं पाता था। जब भी मुन्ना को पाता तो उसका मुंह नोच डालता। रात में कई बार उसके नाखून मां ने काटे थे।
देवरतिया और साधु की आंखें भरी हुई थी। उसके बाद भी देवरतिया रसोई में मछली रांध रही थी। मछली और मसाले की सुगंध से पूरा घर भरा हुआ था। साधु के मुंह में पानी आ रहा था। वह बार-बार मन में बोल रहा था। जल्दी बनाओ मुन्ना की महतारी। आज वर्षों बाद छक कर मछली और रोटी खाएंगे। फैक्ट्री को बंद हुए तीन साल हुए थे। तब से आज तक मछली नहीं खाया था। पहले तो रोज एक गिलास दारू के साथ मछली और रोटी खाया करता था। वह सब सपना हो गया था। उसे ठारे पेट की डकार सालों से नहीं आई थी। देवरतिया और बच्चे भी खाएंगे। मुन्ना को मछली बहुत ही पसंद है। आज तो देवतरिया ने चाय भी बनाई थी। चाय तो सभी ने एक साथ पी थी, लेकिन मुन्ना के अटपटे प्रश्नों ने सबकी भूख गायब कर दी थी।
“गप्पू को भेड़िया उठा ले गया और तू मछली पका रही है। कैसे खाएगी मछली। चलो हम रात में उसका पता लगाते हैं।'' मुन्ना को भूख का अहसास नहीं हो पाया था। समय-समय पर उसे रोटी मिल ही जाती। सुबह कलेवा कर के छोटकी को लेकर स्कूल चला जाता। देवरतिया और साधु कभी इस ठेकेदार के ठीहे पर काम करते तो कभी उस ठेकेदार के पास। मुन्ना लौटकर आता तो छोटकी उसे रसोई से रोटी सब्जी निकालकर खिला ही देती। किसी दिन खिचडी ही मिल जाती। फिर वह बसोर काका के बैंड पार्टी में चला जाता। बसोरिन काकी उसे जी भरकर खिलाती। बसोरिन काकी के घर पर कोई छोटा बच्चा नहीं था। वहां मुन्ना ही बच्चे जैसा था। घर के बाहर नया ठेला देखकर भी मुन्ना परेशान था। उसने साधु से कई बार पूछ चुका था।
“बाबू यह ठेला किसका है?''
“बाबू यह ठेला किसका है?'' “मेरे घर के सामने खड़ा है तो मेरा ही होगा। आज बैंक से उधार लेकर खरीदा है। कल से इसमें सब्जी रखकर बेचूंगा।'' साधु की बात सुनकर वह खुश हो गया था। साधु ने आगे पूछा था।'' तुम मेरे साथ सब्जी बेचने चलोगे न?''
“हां चलूंगा।'' लेकिन साधु ने तत्काल विरोध कर । दया था। ‘‘तुम नहीं जाओगे। तुम्हारी पढ़ाई के लिए ही तो मैंने बैंक से यह ठेला उधार लिया है। तुम सकूल जाओ। मैं धंधा करूंगा। तुम पढ़ लिखकर साहब बनोगे तो हम ट्रक खरीदेंगे। हमारा होगा।''
साधु भी अपनी आंखों को मुन्ना से चुरा रहा था। वह नहीं चाहता था कि मुन्ना उसके आंसू देखे। वह सच निगल गया था। वह नहीं चाहता था कि, मुन्ना और छोटकी उस सच को जानें। पति और पत्नी दोनों का संयुक्त निर्णय था। दोनों के सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं था। गप्पू तो मुन्ना से भी सुंदर था। पहली बार में किसी का मन मोह लेता। सूखा रोग हो जाने से उसका पेट बाहर निकल आया था। हाथ पांव पतले हो गए थे, लेकिन चेहरा अभी भी मनमोहक था। उसके मोतियों जैसे दांत बाहर निकल आए थे। जब हंसता तो लगता कि दुनिया की खुशी उसके चेहरे पर उतर । आई हो। साधु के पास उसका इलाज कराने का पैसा नहीं था। दो जून की रोटी जुगाड़ने में लगा रहता। कभी काम न मिलता तो किसी होटल में जाकर बर्तन मल आया करता था। मजदूरी भी इतनी कम मिलती कि कभी-कभी पति और पत्नी को भूखे ही लेटना पड़ता।
शहर से लगे वीरभूमि गांव में एक छोटी सी सीमेंट फैक्ट्री में मजदूर था। वह वहां पल्लेदारी करता। उसकी नौकरी पक्की थी। सारी सुविधाएं मिलती थी। देवरतिया तब भी कई घरों में बर्तन मला करती थी। तब बूढे मां-बाप की जिम्मेवारी थी। मुन्ना के जन्मते ही साधु ने उसका काम बंद करा दिया था। कोई दिक्कत भी नहीं थी। उसी साल सात महीने के अंतराल में माता, पिता स्वर्गवासी हो गए थे। शहर के अंतिम छोर में बसी बसोर बस्ती में उसका पुस्तैनी घर था। तब बसोर बस्ती एक गांव था। अब शहर ने अपने पांव उससे भी आगे फैला लिए हैं। मुन्ना का रूझान शुरू से पढ़ने और संगीत से था। चार साल की उम्र से उसे गाने गुनगुनाने का शौक था। बसोर काका का देहाती बैंड बाजा था। मुन्ना उस उम्र से ही वहां जाकर धूम मचाता। बसोर काका ने उसके लिए एक छोटी सी ढपली ला दी थी। मुन्ना उसे बजाकर कर नाच-नाच कर टूटी पंक्तियां गाया करता। जो रेडियो और टी.वी. में सुनता उसे ही दुहराता। उसकी तोतली बोली से सभी प्रभावित होते ।
“काका, मुन्ना का मन पढ़ाई से ज्यादा तुम्हारे पास रमता है।'' एक दिन साधु ने बसोर काका से कहा।
“अरे साधु, तू देखना, एक दिन वह इस जगह का बहुत बड़ा गवैया बनेगा। पढेगा भी। किशोर कुमार की हू-ब-हू कापी करता है।'' बसोर काका ने बड़े उत्साह के साथ कहा।
"काका, वह तो रात में भी रेडियो लगाकर सुना करता है। पढ़ता कम है। उसे देखकर छोटकी भी नाचने कूदने लगती है।''
तब केवल बसोर काका के यहां ही टी.वी. हुआ करती थी। बसोर काका का तो मूल धंधा बांस के बर्तन बनाना था, लेकिन उन्होंने देशी बैंड पार्टी भी बना रखी थी। शादी ब्याह और त्योहारों में उनकी बैन्ड पार्टी पूरे शहर में धूम मचा देती। कई गवैया और नचैया थे। कठपुतली का नाच तो बहुत ही प्रसिद्ध हो चुका था। साधु बेटे की तारीफ सुनकर बहुत ही प्रसन्न होता। जिसे काका ने सराह दिया उसे किसी की सराहना की जरूरत नहीं थी। काका जब बैंड की धुन में नाचते तो लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते। फिर बढ़ती उम्र के साथ मुन्ना कई गाने सीख गया था। रफी और किशोर कुमार के गाने ऐसा गाता जैसे कोई सिद्ध गवैया हो। बसोर काका उसे पैसे भी देते। उसकी पोशाक से लेकर खाने-पीने तक का ध्यान काका देते। साधु की फैक्ट्री बंद हो गई तो साधु के सामने सबसे बड़ा संकट इन बच्चों की पढ़ाई का ही था। क्योंकि मुन्ना कुछ तो कमाने लगा था, लेकिन उसकी कमाई से साधु खुश नहीं था। वह तो चाहता था कि मुन्ना और छोटकी पढ़े और सरकारी नौकरी करे। क्योंकि प्राइवेट नौकरी का कोई भरोसा नहीं होता।
देवरतिया कभी अपनी गरीबी का अहसास किसी को न होने देती। घर पर अनाज नहीं है तो चूल्हे में धुंआ कर देती, ताकि लोगों को पता चले कि साधु के घर पर रसोई बन रही है। लेकिन साधु को अचानक पीलिया क्या हुआ, पूरा घर तबाह हो गया। पूरे छ: महीने तक बिस्तर पर पड़ा रहा। ऊपर से गप्पू को सूखा रोग हो गया। देवरतिया अकेले । कमाने वाली। दस घर बर्तन मलती और फिर समय मिलते ने। छोटकी तो मुन्ना के साथ बसोर काका के यहां भाग जाती। उसे भी खाना मिल ही जाता। बसोरिन काकी उससे कुछ न कुछ काम करवा ही लेती। कुछ नहीं तो चार बर्तन मलवा लेती। फिर भी मानती थी।
गप्पू के हाथ-पांव सूख अवश्य गए थे, लेकिन उसके गप्पू के हाथ-पांव सूख अवश्य गए थे, लेकिन उसके चेहरे की बनावट देखकर कोई भी उसकी ओर खिंचा आता। देवरतिया और साधु पूरी कोशिश करते कि उसकी दवाई के साथ कम-से-कम एक कटोरी दूध उसे पीने को मिल ही जाए। लेकिन कप्पू कभी उनका साथ छोड़ सकता था। साधु और देवरतिया का एक ही मकसद था कि किसी तरह गप्पू को बचाया जा सके। डॉक्टर भनोत के घर में वह दोनों समय झाडू पोंछा करती, ताकि गप्पू के लिए दवा का बंदोबस्त हो सके। लेकिन डॉक्टर भनोत का अचानक स्थानान्तरण हो जाने से वह भी उम्मीद जाती रही।
नगरपालिका का सफाई कर्मचारी राम सुमन समुद्रे उसी की बिरादरी का था। उसकी पत्नी सुरतिया भी नगर पालिका में ही सफाई कर्मचारी थी। दोनों को किसी चीज की कमी नहीं थी। यदि किसी चीज की कमी थी तो वह थी संतान का न होना। इस बात को लेकर बहुत दुखी रहते। दोनों ने बच्चा गोद लेने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन सफल नहीं हुए थे। शहर दूसरे छोर पर एक मंडी लगती, जिसमें चोरी का हर सामान मिल जाया करता। यहां तक कि लोग चोरी के बच्चे भी बेचने आया करते। कुछ तो गरीबी की वजह से अपने बच्चे भी बेंच आते थे। राम सुमन उस मंडी के रोज चक्कर लगाता। गप्पू की दिन प्रतिदिन तबियल बिगड़ते देखकर एक दिन साधु और देवरतिया ने मन ही बना लिया कि गप्पू को बेच दिया जाए। लेकिन उन्हें शंका थी कि इस बीमार बालक को कौन खरीदेगा। फिर एक दिन दोनों गप्पू को लेकर उस मंडी में जाकर एक किनारे बैठ गए। राम सुमन आदत के अनुसार कई सौदे कर चुका था, लेकिन पुलिस के डर से आगे नहीं बढ़ता था। साधु को वह पहचानता था। दोनों एक ही मोहल्ले के थे, लेकिन राम सुमन ने दूर जाकर अपना मकान अलग से बना लिया था। अचानक देवरतिया और साधु के साथ गप्पू पर उसकी नजर पड़ी तो वह अचंभित रह गया था।
“साधु तुम लोग इस दलालों की मंडी में ?'' राम सुमन ने पूछा और उसकी नजर गप्पू पर गड़ गई थी।
“हां भाई राम सुमन । बच्चा बेंचने आया हूं। कोई हो तो बताओ।'' साधु ने हिम्मत बांधकर कहा।
‘‘क्यों? ऐसी क्या आफत आ गई।'' राम सुमन ने पूछा और ललचाई आंखों से गप्पू को देखने लगा।
“भाई साहब, मेरा गप्पू मर जाए, इससे अच्छा है। किसी के काम आ जाए। इसकी बीमारी अब नहीं झेली जाती।'' सीधी सादी देवरतिया ने सीधी बात कर दी थी।
जिस वक्त देवरतिया ने गप्पू को बेचने का निर्णय लिया था, उसी वक्त देवरतिया को चक्कर भी आ गया था। अभी भी उसकी आंखें भरी हुई थी। गप्पू मां के सीने से लगा उसके गाल में थप्पड़ मार रहा था। राम सुमन को लगा कि यही मौका अच्छा है। वह तड़ से पीछे मुड़ा और पीछे जाकर समोसा, मीटा और गप्पू को एक गिलास दूध ले आया। दोनों को सांत्वना देते हुए पहले गप्पू को अपने हाथ दूध पिलाया। गप्पू पूरा दूध एक ही सांस में पी गया। फिर दोनों को प्यार से समोसा और मीठा खिलाकर चाय बोलने चला गया। छोटकी और मुन्ना बसोर काका के साथ किसी के यहां बैंड पार्टी में चला गया था। वही उपयुक्त समय उसे लगा था। राम सुमन उसी वक्त दोनों को आटो बुलाकर बैठाया और अपने घर लिवा गया। राम सुमन की गोदी में बच्चा देखकर उसकी पत्नी सुरतिया भौचक्क रह गई थी। उसने उन दोनों को नहीं देखा था। इसलिए तड़ से पूछ बैठी थी।
‘‘किसका बच्चा उठा लाए हो।''
“पचास हजार का है। अपनी ही बिरादरी का है। बीमार है। अपने श्रीवास्तव साहब का हाथ लगेगा तो दो दिन में चलने लगेगा।'' राम सुमन की की बात पूरी हुई थी, तभी देवरतिया और साधु अंदर आ गए थे। राम सुमन आगे बोल उठा था।'' ये हमारे भाई और भावज हैं। बसोर काका के पड़ोसी हैं। साधु नाम है इनका। यह देवरतिया भौजी है।''
अचानक गप्पू की नजर सामने खड़ी घोड़ा गाड़ी पर गई तो गप्पू उसकी गोदी से उतरकर लड़खड़ाता घोडागाड़ी के पास गया। दोनों हाथों से पकड़ने की कोशिश की तो दोनों एक-दूसरे के ऊपर गिर पड़े। देवरतिया कुर्सी से उठी और गप्पू को उस गाड़ी पर बैठा दी थी। राम सुमन और सुरतिया दोनों अंदर गए और आपस में चर्चा करके बाहर आ गए। सुरतिया ने हंसते और प्रसन्न मुद्रा में कहा।
"दीदी, हमें बच्चा चाहिए। आप पैसे की चिंता मत करिएगा। पचास से ज्यादा ही दूंगी। मगर लिखा पढ़ी हो जाएगी तो हम लाग गप्पू के मां-बाप हो जाएंगे।
'' “सरतिया बह, राम सुमना हमरा छोटा भाई लागत है। कुकरा का बच्चा भी जहां रोटी का टुकड़ा पाता है, वहां से जाता नहीं है। यह तो आदमी का बच्चा हैं एक दिन आपके अलावा हमें पहचानेगा ही नहीं।'' साधु ने जवाब दिया।
“साधु ठीक कहता है सुरतिया। लिखा पढ़ी में पुलिस बीच में घुस आएगी। अभी तो हम कह सकते हैं कि हमारा भतीजा है। जब स्कूल पढने जाएगा तो बाप के नाम में तो हमरा ही नाम जाएगा।''
आखिर एक लम्बी बातचीत के बाद बात पचास हजार में तय हो गई थी। इसी के साथ कई शर्ते भी हुई थीं। पहली शर्त तो यह थी कि यदि पुलिस का कोई लफड़ा होगा तो दोनों जन आकर यही कहेंगे कि मैंने ही उसे रामसुमन के पास छोड़ा था। दूसरी यह कि देवरतिया और साधु किसी भी सूरत में गप्पू से एक साल तक नहीं मिलेंगे। उसके एवज में राम सुमन पूरे साल भर अनाज गल्ला का बंदोबस्त करेगा और पूरे पचास हजार रुपए साधु के खाते में लाकर । जमा करेगा। यह बात साधु और देवरतिया ने मुन्ना से छिपा ले गए थे।
सामने रखी थाली में मछली और भात दोनों ठंडे हो रहे थे। देवरतिया घरी में रोटी उलट-पलट रही थी। साधु पूरे दिन से भूखा था। इसलिए देवरतिया गुस्से से बोल उठी था।
“चुप कर, बाबू सुगह से भूखा है। तू तो नाच गाकर । खा आता है, उसे पेट भर रोटी तो खा लेने दे।
'' साधु की तंद्रा अचानक टूट गई थी। फिर बिना देरी साधु की तंद्रा अचानक टूट गई थी। फिर बिना देरी किए खबर-खबर खाने लगा था। मुन्ना ने व्यंग्य भी किया था कि, बाबू मछली में कांटे भी होते हैं, लेकिन साधु को कहां सुध थी। वह तो सोरबे के साथ पूरा भात चट कर गया। फिर मछली के कांटे निकालकर रोटी के साथ खाने लगा था। अचानक साधु को देवरतिया का ध्यान आया तो वह बोल उठा था।
“मुन्ना और छोटकी नहीं खाते तो न खाए। तू भी सुबह से भूखी है। पहले खा ले, फिर इन लोगों को थाली लगा देना।''
' मुन्ना हंस दिया था। फिर छोटकी का हाथ पकड़ कर बोला-चल छोटकी हम लोग रोटी बनाते हैं। अम्मा को खा लेने दे। हम बाद में खाएंगे। देवरतिया हंस दी थी। हालांकि उसकी आंखें नम थीं। उसने मुन्ना और छोटकी को खाना खिलाने के बाद ही खाना खाया था। देवरतिया जब मछली खा रही थी, तो उसे बार-बार लग रहा था कि वह गप्पू की अंगुलियों को चबा रही थी। उसे किसी इंसान के गोश्त की गंध आ रही थी। फिर भी भूख थी कि कुछ सोचने ही नहीं दे रही थी। साधु तो मछली खाने के पहले ही दो गिलास दारू चना के साथ पी गया था। देवरतिया उसे दारू कभी पीने नहीं देती थी। उस दिन उसने भी नहीं रोका था। देवरतिया भी एक गिलास पी गई थी। कच्ची दारू चढती जल्दी है। लेकिन दोनों सामान्य थे। खाना खाते वक्त उन्हें किसी चीज का ध्यान नहीं था। मुन्ना जरूरी समझ रहा था कि बाबू ने आज चढ़ा रखी है। जब दोनों दारू पी रहे थे, तब मुन्ना और छोटकी दोनों बसोर काका के यहां थे। साधु ने कहा था।
“देवरतिया, गम भुलाने के लिए भगवान ने दो चीजें न बनाई होती तो आदमी पागल हो जाता है।''
“का, का, .....।''
“एक तू और एक यह बाटली।'' साधु ने उसके सूखे ओठों के ऊपर अपने पपड़ाए ओंठ रखते हुए कहा था।
तू मुरख है साधु। औरत तो कभी गम भुलाती ही नहीं। और यह दारू.... यह तो पूरे गम को और बढ़ा देती है। आज तो पी ले। कल से हाथ नहीं लगाना। मुन्ना की बीड़ी कितनी मुश्किल से छूटी हैं। यदि उसे पता लग गया तो वह भी....।''।
पेट में रोटी, भात और मछली जाते ही साधु की आंखों में नींद झूलने लगी थी। खटिया पर पड़ते ही खर्राटे भरने लगा था। मुन्ना और छोटकी भी नीचे बिछी कथरी में एक-दूसरे से सट कर सो गए थे। देवरतिया देर रात तक चौका बर्तन साफ करती रही थी। गप्पू के कई टूटेफूटे खिलौने थे। उसने सभी को समेटा और एक पोटली में बांधकर एक किनारे रख दी थी। फिर बीड़ी का कट्टा उठाकर घर के पिछवाड़े चली गई थी। दो बीड़ी एक साथ जलाकर सुटुआ मारने लगी थी। बाहर काफी अंधेरा था।जलाकर जब बीड़ी का कश लेती तो अंधेरे में वह एक छोटे दिए की तरह जल उठता। वह खुटिया में लेट गई थी। उसे बार- बार गप्पू याद आ रहा था। पास में होता तो उसकी छाती में चिपका होता। उसे भय सता रहा था कि, कल मुन्ना पूरी बस्ती में कह आएगा कि मेरे गप्पू को भेड़िया उठा ले गया। चारो तरफ यह खबर आग की तरह फैल जाएगी। अचानक उसकी छाती में उतरा दूध गप्पू की याद में वृद्धि कर दिया। था। वह बार-बार गप्पू से कह रही थी।
“गप्पू, तू अपनी नई अम्मा की गोदी में जा। मैं काम पर जा रही हूं। शाम को आऊंगी। तेरे लिए जलेबी ले आऊंगी।'' गप्पू देवरतिया की गोदी से उतर ही नहीं रहा था। राम सुमन को तत्काल ही गप्पू को श्रीवास्तव साहब के पास दिखाने ले जाना था। बड़ी मुश्किल से गप्पू राम सुमन की गोदी में गया था। तभी देवरतिया को लगा कि जैसे उसके बगल से कोई खड़ा है। उसने पलट कर देखा तो उसे मुन्ना के होने का अहसास हुआ। उसने उसे छूकर । पुकारा-मुन्ना, तुम। मुन्ना काफी देर से खड़ा देवरतिया को बीड़ी पीते देख रहा था।
“हां अम्मा। एक बात बताओ अम्मा? तुम लोगों ने गप्पू को बेच दिया है?'' मुन्ना की बात सुनकर देवरतिया चौंक गई थी। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मुन्ना सीधे ऐसा प्रश्न कर देगा। उसने उसे अपनी गोदी में उठाकर बोली‘‘तुमसे यह बात किसने कही -
‘‘तुमसे यह बात किसने कही।''
‘‘किसी ने नहीं अम्मा। वैसे लोग कहते हैं कि गरीब लोग अपने बच्चों को मंडी में जाकर बेंच आते हैं। बसोर काका भी बता चुके हैं कि जो उनके बैंड बजाता है, उसे बसोर काका ने ही खरीदा था।''
देवरतिया खामोश हो गई थी। उसे लगा कि मुन्ना को सच बता देना चाहिए। यह भी बता देना चाहिए कि गप्पू को इलाज समय से न होता तो जल्दी ही वह मर जाता। इसलिए उसे बेंच आई। उसकी दवा हो जाएगी। वह बच जाएगा। कुछ दिनों बाद तुम मिल आना। बेंचने के अलावा उसके पास कोई तरीका भी नहीं था। उसके लिए एक चुल्लू दूध का बंदोबस्त भी नहीं हो रहा था। दवा महीनों से नहीं आई थी। वह तो मौत के अंधेरे कुएं में गोते लगा रहा था। किसी के काम आ जाएगा। कहलाएगा तो मेरा ही बेटा। देवरतिया ने सच को छुपा ली थी। फिर मुन्ना को किसी तरह समझा बुझाकर अंदर ले जाकर सुला दी थी। उसके बावजूद उसे नींद नहीं आई थी। रात के तीसरे पहर में उसे साधु का स्पर्ष मिला तो धीरे से बोली थी।
“का तुम्हें भी नींद नहीं आ रही है?''
“पहले आई थी। फिर उचट गई। मुन्ना को जब सुला रही थी, तभी से जग रहा हूं।'' फिर दोनों ने अंधेरे में एक लिहाफ के अंदर घुस गए थे। रात में कौन देखता है कि लिहाफ में कितने टोंके हैं। बच्चों को तो गहरी नींद आ गई थी।
सुबह-सुबह साधु उठकर सब्जी मंडी चला गया था। उसके लौटने के पहले ही देवरतिया ने नहा धोकर पहले भगवान की पूजा की। फिर एक कटोरी में हल्दी और चावल लेकर आई और ठेले की पूजा की और उसके चारो तरफ हल्दी का पंजा लगाया। किसी ने कहा था कि धंधा करने के पहले ठेले को हल्दी से टीकना चाहिए। उससे बरक्कत होती है। उसने टीक टाक कर फिर स्वास्तिक का चिन्ह बनाई और धूपबत्ती से आरती उतारी। तब तक साधु रिक्शे में सब्जी लेकर आ गया था। साधु दसवीं पास था और देवरतिया पांचवी तक पढ़ी थी। इसके बावजूद रोज राम चरित मानस पढ़ा करती। साधु अक्सर उस पर तंज कसता। “चार अच्छर और पढ़ लेती तो किसी स्कूल में मास्टरिन हो जाती। सब्जी भाजी के लिए पैसे भी मिल जाते।'' साधु ठेले की टीका टाकी देखकर हंस दिया था। अंदर से राम चरित मानस का पाठ सुनाई पड़ रहा था। उसने मन ही मन कहा कि पुजारिन ने लीप पोत दिया है। उसे देवरतिया की बात याद आ गई थी। ‘‘तुमने दस पास कर कौन सा तीर मार दिया। करते तो पल्लेदारी ही हो। हां मेरे बेटे, बेटी जरूर पढ़कर साहब बनेंगे।''
मुन्ना और जब छोटकी की नींद खुली, तब तक साधु ठेले में सब्जी सजाकर रोटी खाया और सब्जी बेचने निकल गया था। देवरतिया भी सुबह-सुबह चार घरों में बर्तन मलने जाया करती थी। उसने मुन्ना को अपने करीब बुलाया और बोली- “सुनो, आलू का भुर्ता और रोटी बनाकर रख दी हैं। तुम दोनों खा पीकर स्कूल चले जाना। मैं बर्तन मलकर सीधे सेठ नानक राम के गोदाम में चली जाऊंगी। दोपहर में लौटेंगी।'' इतना बोलकर वह जल्दी-जल्दी रोटी और भुर्ता खाई, उसके बाद आंचल कमर में खोंसकर निकल गई। देवतिया को जाते देखकर छोटकी रूआसी हो गई थी। आज पहली बार अम्मा ने जाते हुए बात नहीं की थी। देवतिया, बच्चों की मानसिकता समझती थी। इसलिए चुपचाप चली गई थी। हजार जवाब के बदले चुप रहना ही उसे सबसे अच्छा औजार लगा था। वह बोल उठी थी।
“भैया, गप्पू कहां होगा?''
“छोटकी, गप्पू बीमार था। मुझे पूरा विश्वास है कि बाबू और अम्मा ने उसे बेच दिया।''
“क्यों बेच दिया गप्पू को।'' छोटकी ने मासूमियत भरे लहजे में पूछा। “उसकी दबा नहीं हो पा रही थी। हम लोग गरीब हैं न।'' फिर मुन्ना का मूड अचानक पलट गया।'' छोटकी बसीर काका, बैंड से बहुत कमाते हैं। चलो हम लोग ढपली लेकर किसी चौराहे पर बैठकर गाना गाएंगे। और हां तू नाचना। खूब पैसा मिलेगा।''
"भैया, स्कूल का क्या होगा?''
पढ़कर पैसा ही तो कमाना है। पैसा कमाकर गप्पू को हम फिर खरीद लेंगे।'' मुन्ना ने बड़े उत्साह से कहा।
मुन्ना की एक खासियत थी। जो कहता था, वही करता था। दोनों ने खाना खाया और सुबह के दस बजे के करीब ढपली लेकर निकले। छोटकी ने अपने साथ एक फटा और मटमैला चादर भी रख ली थी। धीरे-धीरे दोनों सड़क पार करते गांधी चौराहे पर जा पहुंचे। चारो तरफ नजर दौड़ाई तो चौरसिया पान भंडार के बगल से भरपूर खाली जगह दिखी। मुन्ना ने वहीं पर जाकर चादर बिछा दिया था। पहले मुन्ना संकोच करता रहा। एक पुलिस वाला आया और बोला कि यहां भीख मांगने के लिए बैठा है तो मुन्ना भड़क उठा- नहीं साहब, हम यहां गाना सुनाकर पैसे कमाएंगे। आपको इनाम देंगे। पुलिस वाला उस छोटे से बच्चे के मुंह से यह सुनकर थोड़ा संकोच में पड़ गया था। कोई पड़ोसी न सुन ले, इसलिए वहां से दूर चला गया था। तभी मुन्ना ने एक हाथ में ढपली लेकर पहला गाना शुरू कर दिया था। छोटकी तो वहीं पर बैठी रही थी। वह शोले, मुकद्दर का सिकंदर, से लेकर कई फिल्मों का गाना ऊंची आवाज में गाने लगा था। देखते ही देखते वहां पर मजमा इकट्ठा होने लगा था। कोई चवन्नी तो कोई अठन्नी तो कोई एक का सिक्का भी उछाल देता। छोटकी सारे सिक्के बिनकर एक जगह कर देती। जब उसने लता की आवाज में कहीं दीप जले कहीं गम ... गाना शुरू किया तो एक महिला आगे बढ़कर पचास का नोट उसकी ओर फेंकी। छोटकी ने हवा में उड़ते नोट को दोनों हाथ से पकड़ लिया था। उसके बाद तो दस पांच के नोट भी गिरने लगे थे। दो घंटे तक मुन्ना लगातार गाता रहा था। कई गाने तो उसने भीड़ के मांग पर भी गाया था। दो घंटे बाद वह थक गया था। तभी सामने राम सुमन को खड़ा देखकर मुन्ना पहचान गया था। छोटकी ने पूरे पैसे उसी पोटली में समेट ली थी। मुन्ना ने धीरे से कहा था- “पैसे झोला में भर ले। उसके ऊपर चादर डाल ले। अब चल बहुत थक गया हूं। अम्मां भी आती होगी।''
राम सुमन तो बदहवास मोटर साइकिल चलाकर आया था। उसकी नजर ही पड़ गई थी। दोनों एक-दूसरे को पहचानते थे। बसोर काका के यहां तो वह जाता ही रहता था। मुन्ना से वहीं मिला था। उसे याद हो आया था कि यह साधु का लड़का हैं। दरअसल वह पूरी रात सी ही नहीं पाया था। गप्पू पूरी रात रोता ही रहा था। बार-बार अम्मां, अम्मां कह रहा था। सुबह तक वह बेहोश हो गया था। उसे उसी हालात में अस्पताल में भर्ती कराया था। राम सुमन के घर में बच्चे को रोता देखकर मोहल्ले के कई लोग आ गए थे। सभी को उसने यही कहा था कि एक रिश्तेदार का बच्चा है। उसके मां बाप दोनों खत्म हो गए हैं। उसके बाबा पालने के लिए छोड़ गए हैं। सभी ने यकीन भी कर लिया था। सुरतिया तो रात में कह रही थी कि जाकर देवरतिया को लिवा लाओ। राम सुमन ही पीछे रह जाता। उसे पता था कि मोहल्ले में गया तो पोल खुल जाएगी। लेकिन जब गप्पू को अस्पताल में भर्ती करा दिया तो उसे मजबूरन साधु और देवरतिया को ढूंढने आना पड़ा था। घर पर ताला जड़ा देखकर उसने पड़ोस में पूछा तो किसी ने कोई जवाब नहीं दिया था। सभी ने यही कहा था कि दोनों काम पर जाते हैं, तो गए होंगे। उसने साधु को कई मोहल्ले में ढूंढ आया था। चौरसिया पान भेडान में पान के बहाने खड़ा हुआ तो सामने मुन्ना दिख गया। उसने आगे बढ़कर पूछा।
“बहुत अच्छा गाते हो मुन्ना। चलो तुम्हे घर तक छोड़ देते हैं। ‘‘राम सुमन ने सहज बनते हुए कहा।
"पालागी काका, आप यहां कहां?''
तुम्हारे घर गया था। साधु और देवरतिया कोई नहीं मिले। उन्हें राशन कार्ड देना था। कहां गए ये लोग।''
‘‘बाबू तो सब्जी बेचने गए हैं। देर से आएंगे। अम्मा तो आ गई होगी। कार्ड हमें दे दीजिए, मैं बाबू को बता दूंगा।'' मुन्ना ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा।।
“तुम लोगों को छोड़ देता हूं। कार्ड तो बसोर काका के यहां दे आया हूं।''
“नहीं काका, हम लोग रिक्शा कर चले आएंगे। आज स्कूल नहीं गए तो अम्मा मारेगी। इसलिए अकेले ही जाएंगे।''
राम सुमन को भी लगा कि समय जाया करने से अच्छा है कि सीधे इसके घर ही चले जाएं। देवरतिया तो आ ही गई होगी। उसने ना तो मुन्ना का इंतजार किया और न ही उसे दोबारा अपने साथ चलने को बोला। मोटरसाइकिल में किक मारा और बसोर बस्ती की ओर चल दिया। मुन्ना ने मोहल्ले के ही एक रिक्शेवाले को बुलाया और गंभीरता से बोला- ''काका, घर तक छोड़ दो।'' रिक्शावाला तड से बोला- ‘‘छोड़ तो दूंगा, लेकिन बीस रुपये लूंगा।'' मुन्ना ने एक बार छोटकी की ओर देखा और छोटकी का इशारा पाते ही बोल उठा। ''चलेगा।'' दोनों तड से रिक्शा पर जा बैठे। छोटकी ने धीरे से कहा- “भैया, बहुत पैसे मिल गए। हैं।'' मुन्ना ने उसे डांट दिया था। रिक्शावाला समझ नहीं पाया था। उसने पोटली अपने पास रख ली थी। रिक्शा जब बीच सड़क पर भागने लगा था, तब उसने पोटली से पांचपांच के सिक्के निकालकर पोटली बांधकर छोटकी के हाथ में थमा दिया था। फिर धीरे से बोला था।
‘कल गल्ला मंडी के सामने मजमा लगाएंगे। पता करेंगे कि गप्पू को बाबू ने कहां पर बेंचा है। बाबू यही पर पल्लेदारी करने आते हैं।''
फिर रिक्शावाले ने अपनी बात छेड़ दी थी। वह बताने लगा था कि भीड़ किस तरह उसका गाना सुन रही थी। उसने बीच में यह भी कहा कि मुन्ना तुमने आज सौ, डेढ. सौ तो कमा ही लिया होगा। मुन्ना ने भी हां में हां मिलाया और उसकी बात का समर्थन करते हुए बोला था- "काका, भीख मांगने से अच्छा है कि लोगों का मनोरंजन करके कमाया जाए।'' रिक्शावाला उसी की बिरादरी का था। उसने समर्थन किया। उसे पता था कि मुन्ना बसीर काका के बैंड का गायक है लेकिन उसने पूछ ही लिया था। 'मुन्ना, काका तो अपनी पार्टी के लोगों को बाहर परोग्राम देने की मनाही करते हैं। मुन्ना इस बात को जानता था, लेकिन उसके सामने उसके भाई के जीवन का सवाल था। इसलिए उसने बसोर काका की हिदायत को महत्व नहीं दिया था। उसके शंका हो गई थी कि रिक्शावाला जरूर इस बात का जिकर काका से करेगा। उसका उत्तर भी उसने ढूंढ लिया था। कह देगा कि घर पर अनाज नहीं था। बाबू और अम्मा को काम नहीं मिल रहा था, इसलिए रोजी-रोटी कमाने के लिए मुझे यह करना जरूरी था।
मुन्ना के दिमाग में सिर्फ गप्पू था। रिक्शा जैसे ही उसकी गली में मुड़ा था, तभी उसकी नजर राम सुमन के ऊपर पड़ी थी। राम सुमन उसकी मां देवरतिया को मोटरसाइकिल में पीछे बैठाए लिए जा रहा था। मुन्ना उसी वक्त जेब से सिक्के निकाले और रिक्शावाले को देते हुए बोली- “काका, ये पैसे लो। छोटकी को घर तक पहुंचा देना। मैं यही उतर रहा हूँ। छोटकी तु घर जा। मैं अभी आता हूं।''
कोई कुछ पूछे उसने रिक्शे से छलांग लगाकर कूदगया था। फिर पीछे दौड़ लगा दी थी। राम सुमन की मोटर साइकिल भीड़ में फंस गई थी, लेकिन मुन्ना के आते-आते वह आगे बढ़ गया था। मुन्ना भी ताबड़तोड़ दौड़ रहा था। वह भी एक पुलिस वाले की मोटरसाइकिल से जा टकरायाथा। पुलिस वाला उसे पहचानता था। बसोर काका के बैंड ने उसे कइयों से परिचित करा दिया था। पुलिस वाले ने सहानुभूति पूर्वक उससे पूछा था।
“लगा तो नहीं मुन्ना। तू दौड़ क्यों रहा है?''
“भैया, मेरी मां को राम सुमन काका मोटरसाइकिल में बैठाए लिए जा रहे हैं। लगता है कि बाबू का एक्सीडेंट हो गया हैं। आप मुझे उनसे मिलवा दीजिए।''
"कहां है।'' पुलिस वाले ने पूछा।
“वो सामने जा रहे हैं। ले चलिए भैया। आपका जिंदगी भर एहसान मानूंगा।'' मुन्ना गिड़गिड़ाते हुए कहा तो पुलिस वाले ने कहा कि चल बैठ, अभी उसे पकड़ते हैं। मुन्ना उसी क्षण कूदकर मोटरसाइकिल में जा बैठा था। पुलिसवाले ने पूरी स्पीड से मोटरसाइकिल दौड़ा दिया था। आगे जाकर रामसुमन दूसरी ओर मुड़ा तो पुलिसवाले को थोड़ा भ्रम हुआ। फिर भी उसने भी गाड़ी उधर की ओर मोड़ दी थी। सामने एक कार से टकराते-टकराते हुए बचा था। पुलिसवाले को तो सारी गलियां पता थी। राम सुमन भी बहुत तेजी से मोटरसाइकिल चला रहा था। अचानक राम सुमन की मोटरसाइकिल जब जिला अस्पताल के अंदर घुसी तो पुलिसवाला समझ गया कि बात तो गंभीर है। अस्पताल की भीड़ में राम सुमन खो गया था। देवरतिया भी कहीं नहीं दिख रही थी। मुन्ना भी परेशान हो गया था। पुलिसवाला मुन्ना को लिए-लिए कभी इस वार्ड में घुसता तो कभी उस वार्ड में। उसने सर्जरी और आर्थोपेडिक्स के दोनों वार्ड भी देख लिया था। साधु और देवरतिया कहीं नहीं दिखे थे। तभी मुन्ना की नजर साधु के ऊपर पड़ी थी। वह चौंका था। साधु बच्चा वार्ड के अंदर घुसा था। उसने पुलिसवाले से कहा था।
“भैया जी, मेरे बाबू तो बच्चा वार्ड के अंदर घुसे हैं।''
फिर दोनों उसी ओर बढ़ गए थे। अंदर पहुंचते ही मुन्ना का सामना दूसरे सच से हो गया था। देवरतिया गप्पू की लाश अपनी गोदी में लिए बिलख रही थी। पास ही खड़ी सुरतिया उसे सांत्वना दे रही थी। राम सुमन और साधु दोनों को सांत्वना दे रहे थे। तभी एक नर्स आई और हुंकार भरते हुए बोली। “
तुम लोग यहां रोना धोना मत करो। दूसरे लोगों पर बुरा असर पड़ेगा।'' फिर उसकी आवाज और भी कर्कश हो गई थी- “घर में बच्चे को सुखा देते हो, उसके बाद अस्पताल आते हो। घर पर मारकर उसे यहां जिंदा कराने लाते हो। ले जाओ उसे यहां से। सिस्टर इसे कागज दे दिया।''
“आधा घंटा हुआ कागज दिए मेम। ये लोग यहां से जा ही नहीं रहे।'' छोटी सिस्टर ने कहा तो राम सुमन बोल उठा।
‘नाराज मत होइए बहन जी। हम लोग जा रहे हैं।''
मुन्ना की नजर देवरतिया से मिली। फिर साधु से टकराई। सभी ने नजरें झुका ली थी। मुन्ना की आंखें न नम थीं और न कहीं घूम रही थीं। उसे तो जैसे लकवा लग गया हो। गप्पू के चेहरे पर जा टिकी थीं साधु बार-बार मुन्ना-मुन्ना कर रहा था। फिर उसे अपने सीने से लगाते हुए झिझोड़ने लगा था। मुन्ना काठ की तरह वहीं पर खड़ा गप्पू को देख रहा था। उसके शरीर में किसी भी प्रकार की कोई हलचल नहीं हो रही थी। अचानक फर्श में गिर गया था। पुलिसवाले ने उसे तत्काल गोदी में उठाया था। नर्स-नर्स चिल्लाते हुए बोला था। देखिए इसे क्या हो गया। तभी मुन्ना की तंद्रा जैसे टूटी हो। उसने धीरे से कहा था।
“भैया, मुझे वहीं पर छोड़ दीजिए।'' पुलिसवाले ने उसे गोदी से उतारते हुए उसका हाथ पकड़ लिया था। फिर खुद बोला था- “मुन्ना को पानी पिलाओ। अभी वह होश में पूरी तरह से नहीं है।'' राम सुमन ने झोले से पानी की बोतल निकाली और पुलिस वाले की ओर बढ़ा दिया था। पुलिसवाला मुन्ना की बोतल से पानी पिलाने लगा था। ।
‘रामेश्वरम'', राजीव-मार्ग, निराला नगर, रीवा, मध्य प्रदेश, मो.नं. 9424770266