कहानी - कादिर भाई - प्रो. एम.सी. सक्सेना

लखनऊ विश्वविद्यालय से चिकित्सा मनोविज्ञान में एम.ए., पी.एच.डी. कला में डिप्लोमा, राजकीय कला महाविद्यालय, नहान (हिमाचल प्रदेश) में प्रवक्ता। राजकीय कला महाविद्यालय, शिमला में विभागाध्यक्ष। सेवानिवृत्ति के बाद शिमला में निवास।


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            मयंक एक मोटर गैराज के सामने आकर खड़ा हो गया। उसकी गाड़ी खराब हो गई थी। गैराज के मैकेनिक ने बताया कि और सब ठीक है। एक नई बटरफ्लाई इंजन के कारबोरेटर में पड़ेगी तब गाड़ी चल पड़ेगी।              मयंक ने तुरन्त कहा तो फिर डाल दो, देरी किस बात की है? जो पैसे होंगे में दे दूंगा। मुझे शाम तक दिल्ली पहुँचना है।


            ' 'अरे .... साहब इतना आसान काम नहीं है, इस काम में सारा दिन लग जाएगा। आजकल गाड़ी के स्पेयर पार्ट असली कहाँ मिलते हैं...? डुपलीकेट हैं। कहिए तो मैं डाल देता हूँ।'


            मैकेनिक यह कहकर दूसरे काम में उलझ गया। मयंक बोला, “तो मैकेनिक साहब असली पार्ट्स किस दुकान से मिलेंगे। मैं खरीद लाऊँगा।'   


             मैकेनिक बोला-इस पूरे शहर में केवल एक आदमी है, जो उसे ओरिजनल बटरफ्लाई से भी ज्यादा अच्छी खुद बनाता है। उसका पता कर लिजिए, मैं आपका इन्तजार करूगा।


             मयंक बोला- ‘कौन है वह आदमी' ?


             मैकेनिक - ‘यहाँ किसी से पूछ लीजिए, मस्जिद के आगे एक छोटी तंग गली में कादिर भाई की वर्कशॉप ... वहीं वह गाड़ी देखकर बटरफ्लाई बना देगा- या तैयार हुई तो तुरन्त दे देगा। कादिर भाई को कौन नहीं जानता बड़ी दूर-दूर से लोग बटरफ्लाई बनवाने आते हैं। बड़े असूल के आदमी हैं, वाजिब पैसे लेते हैं। हेरा-फेरी का कोई सवाल ही नहीं है।'


             मयंक, “अच्छा तो मैं देखता हूँ, कि कादिर भाई की वर्कशॉप कहाँ है।'


            गाड़ी में धक्के लगवाकर मयंक मस्जिद वाली गली पूछता हुआ चल पड़ा-राह में जो भी मिलता सहानुभूतिपूर्वक कहता, अरे साहब क्या बात है.... आप कादिर भाई की वर्कशॉप पर क्यों नहीं चले जाते । वहाँ जो भी खराबी होगी उन्हें दिखा दीजिए, वह गाड़ियों के माहिर है और बटरफ्लाई के तो मास्टर हैं।


           एक कुशल डॉक्टर अथवा सिद्ध पुरुष के समान गाड़ी का हुलिया देखकर उसका मर्ज बता देते हैं।


            मयंक माथे का पसीना पोछता हुआ, एक श्रमिक की भाँति धक्के लगवाता हुआ चला जा रहा था। आखिर मस्जिद वाली गली आ ही गई। नुक्कड़ पार कर मोड़ पर एक वर्कशॉपनुमा गैराज दिखाई दिया। गाड़ी रोककर भीतर काम । में व्यस्त एक नौजवान से पूछा, कादिर भाई की वर्कशॉप कौन सी है...?


            ‘आइए, यही है साहब, आइए बैठ जाइए।' नौजवान बोला।।


             मयंक को लगा कि जैसे कि यह कोई और ही जगह है।, इतने प्रसिद्ध व्यक्ति का न कोई साइन बोर्ड न ही कहीं नाम, एक मामूली सी दुकान-शंका के बादल उसके मन पर उभर आए, बोला- ‘कादिर भाई बटरफ्लाई वाले की वर्कशॉप कहां है....?'


             'यही है साहब-अगर यकीन नहीं आता हो, तो आगे तलाश कर लीजिए फिर यहीं वापस आना पडेगा....।'


               मयंक ने ध्यान से अपनी शंका के समाधान के लिए गैराज देखा तो उसे अन्य गैराजों से यह भिन्न लगा। उस गैराज में सारे काम के औजार मेज व दीवार पर व्यवस्थित लगे .... उसे लगा कि वही कादिर भाई की गैराज होना। चाहिए।


               युवक बोला, ‘हाँ साहब बोलिए गाड़ी यहां दिखाना है, या और कहीं, हमारे पास समय नहीं है.... बताइये क्या करना है....?'


               मयंक के पास अब अधिक सोचने की गुंजाइश नहीं रही .... बोला देखिए कारबोरेटर की बटरफ्लाई खराब हो । गई हैं आज दिल्ली पहुंचना था। यदि यहाँ ठीक हो सकती हैतो ठीक कर दीजिए।


              युवक ने गाड़ी का इंजन खोलकर देखा और बोला इसकी बटरफ्लाई कट गई है, नई बनेगी। समय तो लगेगा ही किन्तु पूरा कोशिश करूंगा जितनी जल्दी हो सके ठीक कर दूंगा। हमारे रेट फिक्स हैं। वह सामने लिखे हैं।'


              मयंक ने कहा- ठीक है, काम करिए। किन्तु मैं आपके मालिक कादिर भाई से मिलना चाहता हूँ।' 


                  युवक बोला- ‘आइए पहले आपको उनसे मिलवा दें और एक पास के कमरे की ओर इशारा करते हुए बोला, वहाँ चले जाइए वह किसी से बातें कर रहे हैं।


                   मयंक ने कमरे में प्रवेश किया और बोला- कादिर भाई से मिलना था।


                   कादिर भाई उठकर बोले- ‘आइए साहब, तशरीफ लाइए, मैं ही हूँ नाचीज कादिर ......


                   ओह...! आप है, मयंक का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। एक दुबले-पतले शरीर वाला व्यक्ति कश्मीरी जैसी जिन्ना टोपी पहने, कुरता-पायजामा व शेरवानी में पास खड़ा हाथ मिलाकर बोला आप कहाँ से तशरीफ लाए हैं, लगता है कहीं बाहर से आए हैं।'


                   ‘जी हाँ, मयंक बोला- ‘शिमला से आया हूँ-गाड़ी खराब हो गई, तो आपके शहर में कुछ देर को रुक गया हूँ। सुना है आप कुछ विशेष प्रकार की बटरफ्लाई बनाते हैं।'


                     ‘नहीं, ऐसी तो कोई खास बात नहीं है, मगर हाँ खुदा की मेहरबानी है। चलिए ऊपर ऑफिस में बैठकर बात करें।' गैराज के अन्दर ही ऊपर एक शीशे के केबिन में मयंक को ले जाकर वह स्वयं अपनी ऑफिस वाली कुर्सी पर बैठ गया। हल्की सी आवाज में अपने किसी आदमी को दो चाय कहकर वह बोला- ‘हाँ अब सुनाइए तो शिमला के बारे में।' मयंक ने अपना ब्यौरा देकर कहा- 'मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि आपने इतना नाम कैसे कमाया। रास्ते में हर व्यक्ति बड़ी इज्जत से कहता था कि कादिर भाई के पास जाइए...। कादिर भाई अपनी प्रशंसा सुनकर अनसुनी का भाव दिखाते हुए अपने अतीत में खो गए और बीते दिनों के कुछ लम्हें बटोरते हुए बोले- ‘साहब, आप पहले आदमी हैं। जिन्होंने मेरी दुखती रग छू ली। एक अजीब दास्तां है' और आँखों में छलकते आँसू पोंछते हुए बोले, 'एक फरिश्ता एक रात को मेरे गैराज में आज से तीस वर्ष पहले आया था। तब यह गैराज खस्ता हाल में था- मुश्किल से दो वक्त का खाना नसीब बोता था। मैं किसी फैक्ट्री में नौकरी करता था, शाम को कुछ घण्टे मोटर साइकिलों की मरम्मत करता था' .... ‘लीजिए चाय आ गई।' एक प्याला मयंक की ओर बढ़ाते हुए बोला.....।' ‘बस फिर क्या हुआ.... मगर आप यह सब जानकर क्या करेंगे....?


                 मयंक बोला, 'मैं कहानी लिखता हूँ, मुझे आपके बारे में जानकर लगा कि आप मेरी कहानी के पात्र हैं। बस इच्छा हुई कि आपसे कुछ पूछु।


                  ' 'अच्छा तो सुनाता हूँ।' कादिर भाई फिर सुनाने लगे कि नौकरी छुट गई थी। एक शाम को मैं थका-हारा फैक्ट्री से आया और किसी की मोटर साइकिल ठीक कर रहा था।


                 एक रौबीला मेरठ शहर का थानेदार पास में आकर खड़ा हो गया, बड़ी देर तक खड़ा रहा। मैं काम में इतना खोया था कि उसकी ओर ध्यान न दे सका। जब मोटर साइकिल ठीक हो गई, तो नजर ऊपर उठी, देखा थानेदार साहब खड़े थे बोले, ‘मेरी मोटर साइकिल आती होगी- आज ठीक हो जाए क्योंकि मुझे कुछ देर बाद मेरठ जाना बहुत जरूरी है और सुनो कोई गड़बड़ी न हो।'


                  मैंने डरते हुए कहा, 'अच्छा साहब पूरी कोशिश करूंगा। अल्लाह ने चाहा तो ठीक हो जाएगी।' थानेदार चला गया। एक घंटे बाद लौटा तो गाड़ी ठीक देखकर खुश हो गया। बोला, 'क्या नाम है तुम्हारा'....? 


                 मैंने डरते हुए कहा, 'अच्छा साहब पूरी कोशिश करूंगा। अल्लाह ने चाहा तो ठीक हो जाएगी।' थानेदार चला गया। एक घंटे बाद लौटा तो गाड़ी ठीक देखकर खुश हो गया। बोला, 'क्या नाम है तुम्हारा'....? 


                   मैंने कहा, 'कादिर-लेकिन लोग कादिर भाई कहते  है।


                   अच्छा तो मैं भी कादिर भाई कहूँगा। कितने पैसे कमा लेते हो।' थानेदार ने कहा।


                   ‘बस साहब गुजारा हो जाता है। मरीज और ग्राहक का क्या पता आए या न आए।'


                   थानेदार बोला, “आप अच्छी वर्कशॉप क्यों नहीं खोल लेते ? मैंने कहा, 'अरे साहब सड़क पर पड़ा ख्वाब तो महल के देखता हूँ। मगर बिल्ली के भाग्य में छिछड़े ही लिखे हैं। मैं गरीब आदमी हूँ, क्या नहाऊँ क्या निचोड़ें।'


                  थानेदार बोला, “अच्छा कितने रुपए लगेंगे'...? मैंने कहा, 'मगर यह आप सब क्यों पूछ रहे हैं।' थानेदार बोला, 'बस यूँ ही, किन्तु बताओ तो सही, मुझे उसके कहने में कुछ अपनापन सा लगा। खुदा जाने क्यों मैंने सकुचाते हुए कह दिया, “यही कोई पांच हजार ।'  


                  थानेदार ने बड़ी लापरवाह नजर से मुझे ऊपर से नीचे तक देखा जैसे मेरा एक्स-रे कर रहा हो। वह कुछ परख रहा था।


                 मैं असमंजस में खड़ा अपने को कोस रहा था कि  एक अजनबी से क्यों यह सब कह दिया, पुलिस वाला है। पता नहीं क्यों पूछ रहा है....? ।


                 थानेदार बोला, 'मैं चलता हूँ। यह मेरा पता है, अगले रविवार मेरठ आ जाना।'


                मैं उस रात सो न सका। मन में एक अजीब बेचैनी थी। सोचता रहा-आखिर एक पुलिस वाला क्या चाहता था-? उसके घर जाऊं। वह कहीं किसी केस में फंसाना तो नहीं चाहता। सोचते-सोचते सुबह हो गई, फिर रोजाना की तरह काम पर गया, मन में आशा-निराशा की लहरें उठती रहीं.... कुछ तय नहीं कर पाया, कि क्या करना चाहिए। सप्ताह बीत गया- रविवार की सुबह नमाज पढ़कर अल्लाह से दुआ मांगी कि मेरठ जाना है, मुझे पता नहीं क्यों बुलाया हैं। कहीं गलत बात न हो जाए- अल्लाह पाक-मुझे मुसीबत से बचाना। थानेदार हिन्दू है और मैं मुसलमान उससे न कोई रिश्ता न लेन-देन....।


           अगले रविवार को मैं मेरठ पहुंचा। थानेदार साहब का घर तलाश किया- वह मेरा ही इन्तजार कर रहे थे। आलीशान हवेली के सामने खूबसूरत लॉन था। उन्होंने बढकर हाथ मिलाया और बोले- ‘आ गए हो कादिर भाई ए देर हो गई। मैं सोच रहा था कि जैसे इस बडी हवेली में कैद होने जा रहा हैं। न मालुम क्या माजरा है। ।


           थानेदार बोला- ‘आइए खाना तैयार है।''


            मैं एक अबोध बालक के समान पीछे-पीछे चल पड़ा-खाने के कमरे में दस्तर छान सजा था। मैं सोच रहा था कि जैसे में बहिश्त में हैं।.....


           मैं खाना खाकर बोला- ‘साहब बताइए क्या बात है... मुझे क्यों बुलाया है आपने'....।।


          थानेदार- ‘कुछ नहीं, बस यूं ही, उस दिन तुमसे मिला तो सोचा छुट्टी वाले दिन तुम्हारे साथ खाना खाऊँगा, सो खा लिया।


          मैं सोच रहा था कि यह थानेदार भी अजीब आदमी है। मैं इतनी दूर चलकर आया, खाने का क्या कहीं खा लेता- आज की मजदूरी भी डूबो दी। मैं खामोश था......। ।


          थानेदार मुझे घूर रहे थे। एक आदमी को बुलाया और बोले- ‘गाड़ी से इन्हें इनके ठिकाने पर छोड़ आओ।'


           गाड़ी आ गई। मैं गाड़ी में बैठा और सोचने लगा कि कब यहां से जान छुटे। थानेदार साहिब हवेली में यह कहते चले गए कि जरा ठहरो मैं अभी आता हूँ। जब वापिस लौटे तो कपड़े की एक पोटली मेरे हाथ में जबरन थमाते हुए बोले- ‘खबरदार जो इसे रास्ते में खोला' - पुलिस वाले के कहने में बड़ा रौब था- ड्राइवर से बोले, ‘जो मैंने कहा है, वही होना चाहिए.....।'


             मैं सच मे डर गया, सोचा कि आज कुछ दाल में काला है, लगता है कुछ हेरा-फेरी का माल इस पोटली में है। आगे कहीं यह पकड़वा कर जेल में डलवा देगा, किसी और का गुनाह मेरे सर मढ़ रहा हैं। गाड़ी चल पड़ी और मेरा मन दुविधा से बेचैन था। जिस्म की हालत यह थी कि काटो तो खून नहीं, सोच रहा था कि बाल-बच्चे कहेंगे कि पाक-साफ जिन्दगी में धब्बा लगा दिया- दुनिया वाले मुँह पर कालिख मलेंगे, या अल्लाह न जाने क्या गुल खिले....।


            घर वापस आकर गाड़ी रुकी और मैं मरा सा नीचे लड़खड़ाता हुआ उतरा, ड्राईवर बोला, 'साहब की बात का ख्याल रखना। पोटली घर पर जाकर ही खोलना।' और मेरे घर पहुंचने पर बीबी-बच्चे घबरा गए और पूछने लगे कि । ‘क्या बात है... यह चेहरा पीला क्यों पड़ गया.....?


             मैंने कहा, 'कुछ नहीं जरा ठण्डा पानी पिलाओ।' पानी पीकर पोटली आलमारी में बन्द कर दी और शाम की नमाज पढी। खुदा से मिन्नतें की, कि किसी तरह इस तोहमत से बचा ले। रात को जब सब घरवाले सो गए तो मैंने अकेले में पोटली खोली, देखा तो आँखों को यकीन नहीं हुआ। पाँच हजार के सिक्के पोटली में बँधे थे। मेरा सिर चकरा । गया।


             दूसरे दिन सुबह उठकर मेरठ जाकर फिर थानेदार को । तलाश किया, पता चला कि ऑफिस में हैं- ऑफिस गया तो थानेदार देखते ही बोले- 'अरे कादिर भाई आ गए कहो क्या बात है'....?


             मैंने पोटली सामने रख दी और बोला। हजूर यह किसलिए दिए। ।


             थानेदार साहब हंस पड़े, बोले- ‘दिए नहीं, यह तो तुम्हारी अमानत है। इससे अपना रोजगार आरम्भ करो। कम हों तो और ले जाओ।'


            मैंने कहा- नहीं साहब यह पैसे तो आपके हैं।'


           थानेदार बोले कि क्या तुम मेरे भाई नहीं हो कादिर' इसे ले जाओ कहकर गाड़ी से वापिस भेज दिया। मैंने अल्लाह का शुक्र अदा किया और यह छोटी सी वर्कशॉप उस पैसे से खोल दी। दिन दुगुनी-रात चौगुना तरक्की होने लगी। जब रुपये कुछ महीनों में इकट्टे होने लगे तो एक दिन वापिस देने मेरठ गया-पता चला कि थानेदार कोठी छोड़कर कहीं चले गए। काफी खोजबीन करने पर भी पता नहीं चला कि वे कहाँ हैं।


           मैं आज सोचता हूँ कि वह कौन सा फरिश्ता था। हिन्दू होकर मुझ नमाजी मुसलमान की मदद की-अब मेरी भी यही कोशिश रहती है कि जरूरतमंद की मदद  करुँ .।'


            मयंक यह सुनकर अवाक रह गया, सोच रहा था दिल जहाँ मिलते हैं, वहां धर्म, जात-पात, ऊँच-नीच की सब दीवारें टूट जाती हैं। आज यह एक सच्चे इन्सान की तरह बड़ी लगन से काम करता है और अपने फन का माहिर है।


            कादिर भाई बोले, 'आपकी गाड़ी ठीक हो गई। अब आप इससे दिल्ली पहुँच सकते हैं।' वह मुझे छोड़ने बाहर आए। मैं उनके नायाब काम की मजदूरी देने लगा तो कादिर भाई ने लेने से मना कर दिया और बोले- 'आप कहानी अवश्य लिखें।


              मैंने कहा, 'नहीं मैं इस युवक को रुपये दे रहा हूँ। आपको नहीं', तो वह बोले ‘यह मेरा बेटा है। इसे काम सिखा रहा हूँ।' फिर लपक कर इंग्लैंड तथा अन्य बड़ीबड़ी रेस में जीते प्रशंसा पत्र दिखाने लगा, बोले ‘यह सबसे पुरानी गाड़ी है। मैं इसी से जीता हूँ। स्वयं ही इसमें सारे पुर्जे डालता हूँ।


            मैं चल पड़ा कादिर भाई की याद दिल में लिए और आज कहानी लिखने बैठ गया। आशा है प्रकाशन के पश्चात् उसे अपनी कहानी भेजूंगा। कादिर भाई की यही ख्वाहिश थी कि वह अपनी कहानी छपी हुई देखें....।।


            मैं सोच रहा था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बटवारे में हजारों हिन्दू-मुसलमान बेगुनाह ही मारे गए। मैंने स्वयं घरों को, जिन्दा जलते इन्सानों को देखा है।


            रात-रात भर चीख पुकार की आवाजें आज भी कानों में गूंजती हैं। बेकसूर लाशें बिना कफन के सड़ती रहीं... धर्म और मजहब के नाम पर सूरज और चाँद पर खून के धब्बे लगे हैं.... महीनों तक इन्सानियत सहमी डरी मुंह छुपाए जिन्दगी भी दुआयें माँगती रही ....।


             किन्तु थानेदार और कादिर भाई फिर भी आग की दहकती लपटों से निकलकर अपनी इन्सानी फर्ज निभाते रहे.... एक अजीब अनोखी मिसाल उसी माहौल में जन्म लेती रही .... काश। भविष्य में भी ऐसा होता रहे और जीवन की जीवनदायनी ‘बटरफ्लाई' बनी रहे ..........।।


                                                                                              सम्पर्क : पुरवुड अपर कैथू, शिमला-3,                                                                                                                    मो.नं. : 9816085456