शिक्षा : एम.ए., पी.एच-डी., बी. एड जन्म : 20 मई 1971 नवादा-805110 (बिहार) क्षेत्र : लेखन, अध्यापन, चित्रकर्म एवं रंगकर्म कृति : जयनंदन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (आलोचना)
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खेती करना अब फायदे का सौदा नहीं रह गया था। यह बात सुखी अच्छी तरह से जानता था। कभी दो-दो बीघा का जोतदार रह चुका था वह। लेकिन, कभी बीज के नाम पर, कभी सिंचाई के नाम पर, कभी खाद के नाम पर तो कभी घर-खर्च के नाम पर उसके धूर और कट्टे बिकते रहे। नतीजा यह हो गया कि आज उसके हाथ में मात्र एक बीघा जमीन रह गई थी।
आज उसके मात्र एक बीघे जमीन पर भी साहूकारों और गाँव के बड़ेबड़े जोतदारों की बुरी नजर गड़ी हुई थी। गाँव का जमींदार रामकिसुन सिंह कई बार मुंह खोल कर उससे उसकी बची हुई जमीन की भी माँग कर चुका था। एक बार तो वह इस रूप में भी कह चुका था किए ‘‘काहे सुखी, अरे वो बीघा-भर जमीन से तुम्हें कौन-सा सुख मिल रहा है, जो तुम उसको पोसे हुए हो। हमरे हाथ में बेच दो, दाम भी अच्छा देंगे और ऊपर से तेरे बीवी-बच्चा सहित तुमरे (तुम्हारे) लिए भी भर-गात (पूरे शरीर) का कपड़ा सिलवा देंगे... और जब तोरे (तुम्हारे) खेत के चऊबगली (चारों तरफ) हमरा ही खेत है, तउ (तो) तुम उसकी जुताई-सिंचाई के लिए ट्रैक्टर और पानी आदि किधर से ले जाओगे? अब तक ले जाने दिए, उसको छोडो... अब से, हम तो अपनी तरफ से ले जाने देंगे नहीं।''
इस पर उससे उस दिन निरर्थक तर्क करके रह गया था सुखी, “आप तो हमरे भर-गात के कपड़े के सौगात की बात करते हैं मालिक, फिर हमरे खेत के लिए ट्रैक्टर और पानी काहे रोक रहे हैं?''
“देखो सुखी, ई दुनिया सौदेबाजी पर टिकी हुई है। यहाँ आदमी अपना बेटा पर भी ई सोच के खर्च करता है कि कल हो के ऊ हमरी भी परवरिश करेगा। एही (इसी) तरह से हम तुमको ई खातिर सौगात देने की बात कर रहे हैं कि तुम अपनी जमीन जैसे पहले भी हमरे हाथ में बेचते रहे होए ओही (उसी तरह से ई बची हुई जमीन भी हमको ही बेच दोगे। इससे हमरा पलौट (प्लॉट) भी पुरा चौकोर हो जाएगा और तुमरा (तुम्हारा) घर-खुर्ची भी मजे से चल जाएगा।'' रामकिसुन ने उसे फुसलाते हुए कहा।
इस बार सुखी से गलती हो गई। उसने रामकिसुन सिंह पर पलटवार कर दिया, “मालिक, हमरे बाप-दादा से हमको दू बीघा जमीन मिली थी। हम सपूत होते, तो उसको चार बीघा करके अपना बेटा को देते लेकिन कल तक हम गलती पर गलती करते रहे और हर बार अपने खेत के आकार को छोटा पर छोटा करते रहे। अब हम अपने बेटा को बीघा भर जमीन भी नहीं देंगे, तो हमरा जीना आऊ बाप कहलाना दुन्नी (दोनों) बेकार है। और, आपको अगर ई लगता है कि ई दुनिया सौदेबाजी पर ही टिकी हुई है, तो हमरे खेत के दक्खिन पट्टी (दक्षिण तरफ) वाला पलौट हमको वापिस कर दीजिए ओहे (उसी) दाम पर, जे (जिस) दाम पर हमसे लिए थे...ऊपर से हजार-दू-हजार हम भी दे देंगे आपको।''
इतना करारा प्रत्युत्तर सुन कर तिलमिला कर रह गया था रामकिसुन सिंह। उसे लगा कि ई बेहुदा छोटा मुँह और बड़ी बात कर गया। जी में आया कि उसकी इस उदंडता के कारण अपने बराहिलों से उसे जम कर ठुकवा दें और उसकी चमड़ी उधेड़वा लें लेकिन जो अपने अंतर्मन के भावों को इतनी जल्दी प्रकट कर दे, उसका नाम रामकिसुन सिंह थोड़े ही था। उसने अपनी आवाज में थोड़ी नरमी लाते हुए बड़े प्यार से सुखी से पूछा, “हाँ-हाँ काहे नहीं, लेकिन सूखी...तू तो हर-हमेशा कर्ज में ही डूबा रहता है, फिर एतना पैसा कहाँ से लाया रे?''
सुखी ने मन-ही-मन सोचा कि मैंने तो इससे इसके पैसे के स्रोत के बारे में कभी नहीं पूछा, फिर इसे मुझसे इसके बारे में पूछने का क्या हक है...लेकिन, उसे रहना। था इन्हीं दबंगों के बीच में और जब कभी इसी से मदद की भीख भी माँगनी थी, इसलिए उसने अपनी बातों से उसे बहला देना ही उचित समझा। हालाँकि, दिल के सच्चे आदमी को छल-कपट करना और किसी से बहाना बनाना भी कहाँ आता है। यही कारण है कि नहीं चाहते हुए भी सुखी के मुँह से सच्ची बात निकल ही गई, “वो मालिक...अपनी जोरू के कुछ गहने पड़े हुए हैं। अपने किसी बुरे दिन के लिए उसे बचा कर रखे हुए थे...।''
“तो क्या तेरे बुरे दिन आ गए?'' रामकिसुन सिंह ने कटाक्ष किया।
इस पर थोड़ा तिलमिला कर रह गया सुखी। लगाकि उसे कोई करारा जवाब दे दे, लेकिन वह एक किसान था और इसीलिए जाड़े की ठिठुरन, गर्मी की लु-लहर और बरसात की मूसलाधार के साथ-साथ किसी की डाँट, धौंस, कटाक्ष आदि सह लेने की उसके पास अच्छी शक्ति थी। ।
यही कारण है कि एक बार फिर से उसने अपने अंतर्मन के कड़वे भाव को पचा लेने के बाद भी अपनी जुबान में मिठास लाते हुए यही जवाब दिया कि, “गहनेपैसे आदि बुरे दिन के लिए ही नहीं, भले दिन के लिए भी रखे जाते हैं मालिक। आप चाहें, तो मेरा भला दिन आ सकता है।''
“अरे, हम काहे नहीं चाहेंगे सुखी...जरूर चाहेंगे। साथ चलना, अगले हफ्ते रजिस्ट्री ऑफिस। दक्खिन पट्टी वाला प्लौट लिख देंगे, ओहे दाम पर तुमरे नाम।'' कहते हुए अजीब ढंग से मुस्कुराया रामकिसुन सिंह।
सुखी तो उसकी मुस्कान पर सहम करके रह गया, लेकिन करता भी क्या...बस, उससे विदा लेकर घर लौट घर आकर आया ।'
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घर आकर वह वह ढीले ओधमान वाले खटोले पर पसर गया और ऊपर शून्य में निहारने लगा। जोरू ने जो उसकी भावशून्यता देखी, तो उसके मन की बेचैनी को ताड़ गई और ताड़ का पंखा लेकर उसे झलने लगी।
सुखी उठ कर बैठ गया। उसने उसके हाथ से पंखा लेकर किनारे रख दिया और रामकिसुन सिंह से हुई सारी बातों को उससे अक्षरशः साझा करना शुरु कर दिया।
सारी बातों को सुन लेने के बाद उसकी जोरू ने अपना माथा पीट लिया। वह सुखी को अपने से परे धकेलते हुए गुस्से से फुसफुसाई, “फंस गया न उसकी बातों के जाल में... और, उसे बता दिया न कि अपने घर में गहने पड़े हैं? लिख ले तू...आज नहीं तो कल, घर में जरूर डाका पड़ेगा।''
सुखी भयभीत हो गया और अपनी जोरू से गिड़गिड़ाता हुआ इसका समाधान पूछने लगा।
उसकी जोरू ने इधर-उधर देखा और उसके कान में अपनी योजना बताने लगी।
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सुबह-सुबह पूरे गाँव में हल्ला हो गया कि सुखी के घर में डाका पड़ गया है। लगभग पूरा गाँव उसके दरवाजे पर आकर जमा हो गया था।
सुखी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसका आठ साल का लड़का उसके पाँव से लिपट कर खड़ा था... लेकिन, उसकी जोरू जोर-जोर से शोर कर रही थी। वह हँस रही थी और लोगों से चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, हाँ, डाका पड़ा है लेकिन जिस चीज के लिए डाका पड़ा, वह चीज डाकू को मिली ही नहीं क्योंकि डाकुओं की मंशा का पता हमलोगों को पहले ही चल गया था और हम उस चीज को लेकर बगल के किसी घर में चले गए थे। रातभर हमने उन डाकुओं का ड्रामा देखा।''
उस भीड़ में रामकिसुन सिंह के भी कुछ आदमी खड़े थे। उनमें से एक ने उसे टटोलते हुए उससे पूछा, किसी को पहचानती हो...कौन थे वे लोग?''।
इस सवाल का जवाब सुखीवाली ने और इतनी जोर से चिल्ला-चिल्ला कर दिया कि बात रामकिसुन सिंह तक। चली जाए। उसने कहा, “अरे हमसे का पूछते हो कि ऊ । डाकू कौन था? अरे, कोई पर-गाँव का थोड़े ही न था... हमरे आउ तुमरे ही बीच का डाकू था। लेकिन, बड़का डाकू था...बड़का। सब लोग जानता है कि ई गाँव में बड़का डाकू कौन ह? नाम बड्का ...आउ काम छोटका...छी: थू...।''।
गाँव के अधिकांश लोग उसके बड़का' शब्द पर दिए गए जोर को ताड़ गए और एक-एक कर वहाँ से खिसक लिए। कोई नहीं चाहता था रामकिसुन सिंह से दुश्मनी लेना क्योंकि उसके साथ किसी-न-किसी प्रकार का लेना-देना सभी के साथ था। और इस भीड़ में खड़ा होना एक तरह से उसके खिलाफ दुश्मनी ही मोल लेना था।
लेकिन, एक बात थी कि इस घटना से सभी चौकन्ने हो गए थे।
भीड़ लगभग चॅट चुकी थी। इसके बाद भी सुखीवाली का चीखना जारी रहा। वह रामकिसुन की हवेली की तरफ अपना मुँह करके चिल्लाती रही, ‘‘गाँववाले भाई लोग अब तो आप लोगों को पता चल ही गया होगा कि इस गाँव में छोटा काम करने वाला बड्का डाकू रहता है...और, बड़का डाकू को भी ई पता चल गया होगा कि हमको भी उसके इरादे का पता चल गया है...तो, सुन लो बड्का डाकू, हम इस गाँव में आज तक शान और इज्जत से रहते रहे और आगे भी उसी गुमान से रहके दिखाते रहेंगे...और जैसे तुम आज भोरे तक हमरा कुछ नहीं बिगाड़ सके, वैसे ही कभी भी नहीं बिगाड़ सकोगे और फलती-फूलती रहेगी हमरी बीघा-भर जमीन...।
‘चटाक्'
...और सारी बात पर तो सुखी एकदम चुप रहा, जैसे रामकिसुन सिंह के प्रति उसके जोरू के प्रतिकार पर उसकी मौन सहमति हो लेकिन उसके आखिरी वाक्य गाँव के दबंग जमींदार के प्रति एक खुली चुनौती थी...और, वह ऐसी चुनौती के लिए अभी तैयार नहीं था। इसी कारण, उसकी जोरू आगे कोई और शब्द अपने मुँह से न निकाले, उसने उसके मुंह पर एक जोरदान तमाचा जड़ दिया।
उसकी जोरू भी जैसे अपने मरद के इसी संकेत का इंतजार कर रही थी, वह भी अचानक से चुप हो गई।
उसके तमाचे का सम्मान करते हुए उसकी जोरू अचानक से चुप हो गई थी, इस कारण, सुखी अपनी करनी पर बहुत दुखी हो गया और उसे अपने सीने से लगाते हुए उसकी पीठ सहलाने लगा।
उसने अपनी पत्नी से कहा, “इस आततायी से लोहा लेने के लिए अभी हम तैयार नहीं हैं रे...और, हम उससे उलझेंगे तो अपनी उलझी हुई किस्मत को कब सुलझा पाएँगे। अपने दीपू के भविष्य को भी तो सँवारना है।''
अचानक से जैसे सुखीवाली को अपने पति की बात समझ में आ गई। वह भी अपने पति से और जोर से लिपट गई और अपने दीपू के सिर पर हाथ फेरने लगी...।
उसने अपने-आपको ये कहते हुए समझा लिया कि “अभी धैर्य धरना है...एक दिन टल ही जाएँगे ये-बुरे दिन... ।
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