जब तक संघर्ष है, मुद्राराक्षस रहेंगे - सुभाष राय

                                                                     


                          सुभाष राय का जन्म जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ के गांव बड़ागांव में हुआ। आगरा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध साहित्य संस्थान के.एम.आई. से हिंदी भाषा और साहित्य में स्नातकोत्तर पी-एच.डी.। अमृत प्रभात, आज, अमर उजाला, डीएलए, डीएनए जैसे प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत।


                                                                       - --------------------------------


               निरन्तर सचेत, कुछ कर गुजरने को सन्नद्ध। कहीं भी चल पड़ने को तत्पर। सुनते हुए, समझते हुए, बोलते हुए, ललकारते हुए। हर पल किसी भी युद्ध के लिए तैयार। मुट्ठिया भींचे हुए। मुद्राराक्षस की कई मुद्राएं हैं मेरी स्मृति में। अनवरत जागती हुई। इसी अर्थ में में उनकी यादों में जगा हुआ हैं, वे मेरे भीतर जगे हुए हैं, जगे रहेंगे, मेरी आंखें हमेशा के लिए बंद हो जाने तक। कौन नहीं जानता, वे कितने बड़े थे पर जब वे पास होते, आत्मीय होते तो कितने छोटे हो जाते, कल्पना करना मुश्किल हो जाता है। एक विरल कथाकार, नाटककार, अभिनेता, एक उदार किन्तु निर्मम विश्लेषक, एक तर्कशील चिन्तक। एक ही व्यक्तित्व में समाए हुए अनेक जीवंत शब्द रूप। सुनने वालों को अपने ज्ञान, अपनी स्मृति और समय की अकाट्य समझ से बांध लेने वाले वक्ता के रूप में वे किसी को भी अत्यंत प्रिय और सम्माननीय लगते थे। मामूली पृष्ठभूमि से उठकर अपनी प्रतिभा, अपने संघर्ष और अपनी अनहद तर्कशक्ति के सहारे खुद समाज और साहित्य में नए मानक गढ़ने वाले मुद्रा जी ने जो ऊंचाई छुई, जो शिखर रचे, वे बहुत आसान नहीं थे। जब कभी मैं उनके पास होता, महसूस ही नहीं होता कि मेरे सामने इस सदी का एक महान सामाजिक, दार्शनिक और राजनीतिक अध्येता है। कई बार मैं सवालों की झड़ी लगा देता, असहज कर देने वाली तीखी नजर से घूरता, असुविधाजनक तरीके से पेश आता और देखता कि मुद्रा जी बच्चे की तरह छोटे हो जाते, सिर्फ मुस्कराते रहते थे। ऐसे मौकों पर वे जितने छोटे हो जाते थे, उन्हें आंकना उतना ही मुश्किल हो जाता क्योंकि तब वे अपने कद से कई गुना ज्यादा बड़े होते थे।


                उनकी आँखे बोलती थीं। उनमें आवाज थी, उनके व्यक्तित्व की, समय की, समाज की। उनकी मुस्कान की जादुई चमक और उनकी आंखों की समर्थ दीप्ति उनके व्यक्तित्व की सबसे महत्वपूर्ण चीजें थीं। आप ध्यान से देखिए, उनकी यह चमक उनकी तस्वीरों में अब भी सुरक्षित है। जब वे बोलने थे तब इतिहास की गहरी समझ और समाज से उनकी अटूट सम्पृक्ति उनकी भाषा में झरती थी । परन्तु जब कभी वे भीतर से बहुत भरे होते थे, बहुत गदगद, बहुत संतुष्ट या बहुत आत्मीय, तब उनके होठ और उनकी आंखें बोलती थी। तब उनकी पलकें इस तरह उठती कि आँखें गोल होकर अपने कोटरों में उभर आतीं और कई बार सामने बैठे व्यक्ति के भीतर उतर जातीं, उसे चीरते हुए, काटते हुए, पिघलाते हुए, बहाते हुए। उनके होठ फैलते और सुबह के फूल की तरहनिश्छल मुस्कान पूरे वातावरण में छा जाती। जो कभी मुद्रा जी से मिला होगा, उनके इस व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बगैर नहीं लौटा होगा। और मुझ जैसे जो लोग उनसे बार-बार । मिलते रहे हैं, उनकी स्मृति में तो मुद्रा जी की यह छवि हमेशा के लिए एक जीती जागती तस्वीर की तरह एक फेम में लटकी हुई है। यह सुघड़ दीप्ति उनके विराट व्यक्तित्व की बाहरी झलक भर थी। इससे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि उनके भीतर एक बड़ा सूरज जल रहा है, अन्दर- बाहर के चुंधिया देने वाले अंधेरों पर झपटता हुआ।   


              मैं एक लेखक के रूप में मुद्रा जी से तब से परिचित था, जब से मैं साहित्य पढ़ने और समझने लगा था। यानी जब मैं किशोर था। उनके नाम को लेकर तब बड़ी जिज्ञासा होती थी। मुद्राराक्षस एक ध्वनि ही नहीं एक छवि के रूप में दिमाग में अंकित हो गया था। गंभीर लेकिन कुछ अटपटा। बाद में उनके नाम मुद्रा की अंतर्कथा का पता चला। यह जानकर हैरत होती है कि मशहूर दार्शनिक चिंतक और लेखक देवराज जी ने किस तरह एक युवा लेखक को अज्ञेय जैसे विराट व्यक्तित्व की प्रयोगवादी कविता को लेकर नवोन्मेषी सोच को अमेरिकी आंदोलन की नकल घोषित करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया। एक रचनाकार के रूप में अपने आरंभ से ही मुद्राराक्षस एक बड़ी मुद्रा के रूप में स्थापित हो गए थे। एक हलचल मच गई थी साहित्य की दुनिया में। साहित्य के बड़े-बड़े महंत भी मुद्राराक्षस के प्राकट्य से विचलित और परेशान दिखे थे। मुद्रा ने अपने गुरु को निराश नहीं किया और जिस वेग से, जिस त्वरा से, जिस ताकत से वे स्थापित हुए थे, उसी ताकत से उन्होंने अपनी यात्रा आगे भी जारी रखी। रचना और आलोचना, दोनों ही स्तरों पर उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण काम किया। धर्म ने भारतीय समाज में जिस तरह का पांखड कायम कर रखा था, मुद्रा को स्वीकार नहीं था। वे किसी भी अंधविश्वास के विरुद्ध तर्कशील वैज्ञानिक चेतना के हिमायती थे, इसलिए धार्मिक जडता पर उन्होंने जमकर प्रहार किए। सच तो यह था कि जड़ता उन्हें जहां भी दिखी, वे चुप नहीं रहे। एक दृष्टिसंपन्न रचनाकार की भूमिका में होंने हमेशा उन लोगों का साथ दिया, जो हाशिये पर थे,  जो प्रताड़ित थे, वंचित थे, दलित थे। दलित न होकर भी वे दलितों के दुख से, उनकी संवेदना से जितना एकाकार हो सके, स्वयं दलित लेखकों के लिए भी हैरत की बात थी। इसीलिए दलित समाज ने अपना अप्रतिम हितैषी मानकर उन्हें शूद्राचार्य और आंबेडकर रत्न के सम्मान से नवाजा।


               यह मेरा दुर्भाग्य था कि उन्हें पढ़ने और उनसे प्रभावित होने के बावजूद मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से २०११ में ही मिल सका। पहली मुलाकात किंचित डर, संकोच और उदासीनता के भाव के साथ हुई। मैं चाहता था कि मुद्रा जी जनसंदेश टाइम्स के लिए लिखें लेकिन मन में एक संकोच भी था कि क्या मैं उन्हें इतने कम पारिश्रमिक पर लिखने के लिए तैयार कर सकेंगा। तब जनसंदेश टाइम्स अपने लेखकों को प्रति लेख पांच सौ रुपया देता था। मैं उनसे पहली बार मिला तो निराश ही हुआ। मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी, इतना दो टूक, इतना साफ। लिखने के लिए मेरे आग्रह पर उन्होंने पूछा, 'कितना दोगे।' मैंने कहा, 'पांच सौ रुपया।' ‘एक शब्द का एक रुपया! नहीं लिखेंगा', मुद्रा जी ने मना कर दिया। मैं उदास, लौटने के लिए खड़ा हुआ और बोला, ‘जो बातचीत हुई है, वह छाप दें या उसका भी कुछ देना पड़ेगा।' उस मुलाकात में उनसे मीडिया, भ्रष्टाचार और साहित्य से लेकर अनेक विषयों पर बहुत सारी बातें हुई थीं। वे मुस्कराए, ‘नहीं वह छाप सकते हो।' और मुझे तब बहुत आश्चर्य हुआ जब दूसरे दिन साक्षात्कार छपने के बाद शाम को उनका फोन आया, ‘टेप रिकार्डर लेकर आए थे क्या?' मैंने कहा, 'नहीं तो, जितना याद रहा, छाप दिया।' वे खुश लग रहे थे, ‘यार तुम्हें एक बात बतानी है। मैं खामोश था। ‘मेरा नाम भी वही है जो तुम्हारा है, जानते हो? भाई मैं तुम्हारे लिए लिखूगा, हर हफ्ते लिखेंगा पर एक शर्त पर... ।' फिर हमारी बातें शुरू हुई तो शुरू हो गई। में उनका ऐसा स्नेह पाकर गदगद था। भला उनकी किसी भी शर्त को अस्वीकार कैसे कर सकता था। उन्होंने जो कहा मैंने किया। धीरे-धीरे मैं मुद्रा जी के करीब आता गया। वे अक्सर आदेश करते, क्या कर रहे हो, आ जाओ। और फिर मेरे पास चाहे जितना महत्वपूर्ण काम हो, मैं उसे उसी हालत में छोड़कर उनके पास पहुंच जाता। खूब बातें होतीं। कभी वे बाहर निकलते जो मेरे दफ्तर आ जाते। तब वे राष्ट्रीय सहारा और लोकमत के लिए भी स्तम्भ लिखते थे। जब भी उनकी टिप्पणी तैयार होती, वे सहारा के लिए निकलते और लौटते हुए मेरे पास आ जाते, कुछ चाय वाय मंगाओ यार ।' जब वे बैठ जाते तो मैं एक अज्ञानी बच्चे की तरह बस सवाल करता। बीच में टोकता नहीं, सिर्फ सुनता। उन्हें सुनना स्वयं काल के मुंह से काल कथा सुनने जैसा होता। इतनी सहजता, उतनी आत्मीयता। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है, कभी-कभी गर्व भी कि मैं इतने 



विराट् व्यक्तित्व से संपन्न साहित्यकार के इतना करीब था। एक वर्ष के भीतर मुझे उनकी इतनी कृपा मिल गई कि मैं जो भी कहता, जहां भी ले जाना चाहता, वे मना नहीं करते। बाराबंकी में जनसंदेश टाइम्स का शुभारम्भ उन्हीं के हाथों हुआ। जनसंदेश टाइम्स में उन्होंने लगातार विचारोत्तेजक टिप्पणियां लिखीं। कई बार विवादास्पद थी। ऐसी कि उन्हें और उनके साथ-साथ मुझे भी गालियां खानी पड़ी। उन्हें लिखने के लिए और मुझे छापने के लिए। इस तरह के विवाद की वे कभी चिंता नहीं करते। जडता और तर्कहीनता तो हमेशा ही प्रतिक्रियावाद को जन्म देती है। जो लोग पारम्परिक अंधास्थाओं के शिकार है, जो उनके प्रति आत्मरति की सीमा तक जुड़े हैं, उनके सामने सच बयान करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा ही है, यह जानते हुए भी मुद्रा जी सामाजिक बुराइयों, धार्मिक पाखंडों, जड़ रीति-रिवाजों पर बरसने से नहीं चूकते थे। वे जानते थे कि वे जो कर रहे हैं, उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी और इसके लिए हमेशा तैयार रहते थे। मुझे यह कहने में किंचित गर्व का अनुभव होता है कि मुद्रा जी के लेखों ने न केवल मेरी प्रतिष्ठा बढाई बल्कि जनसंदेश टाइम्स को हजारों पाठक भी दिए।


             कबीर की तरह ही काशी से ज्यादा मगहर उन्हें पसंद था। जड मान्यताएं उनके सामने कभी टिक नहीं पाती थीं।  परिवर्तन का लुकाठा उनके हाथ में रहता था। वे निरंतर एक युद्ध में रहते थे। लड़ते हुए, तोड़ते हुए, बदलते हुए। वे जानते थे कि इस युद्ध में उनके साथ वही आएंगे, जो अपना घर फेंक कर आगे बढ़ने की हिम्मत रखते हों। उनके साथ कोई आया या नहीं, इसकी चिंता किए बगैर, मुद्राराक्षस आजीवन इसी मुद्रा में खड़े रहे। उठा हुआ हाथ, तनी हुई मुट्ठियां, इंकलाब का स्वर, उन्होंने कभी सोचा तक नहीं कि कुछ पाना भी है। जिस रास्ते पर वे चले, वहां पाने को ज्यादा कुछ था भी नहीं। जनसम्मान के अलावा। अक्सर जिनकी आवाजें पहचानी जाने लगती हैं, जिनके शब्द अपनी सत्ता स्थापित करने लगते हैं, वे सम्मान, पुरस्कार के लुभावने बहकावे को ठुकरा नहीं पाते, यशाकांक्षा के लोभ से बच नहीं पाते और यहीं वे भटक जाते हैं, गलत रास्ते पर बढ़ जाते हैं। मुद्राराक्षस ने जीवन में मान-सम्मान, पुरस्कार, यशकीर्ति कामना को अपने भीतर आने ही नहीं दिया। उनका रास्ता प्रामाणिक था, उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध थी, इसलिए उनके लिए भटकाव की कोई संभावना ही नहीं थी। वे जीवन भर शब्दों में और व्यवहार में भी लाकतवर प्रतिपक्ष रचते रहे, शक्ति और व्यवस्था की सारी संरचनाओं से टकराते रहे, जूझते रहे। वे अपने समय के कबीर ही थे। अडिग, अविचल, ललकारते हुए, लड़ते हुए। शब्द ही दोस्त थे उनके, शब्द ही हथियार, शब्द ही रह गए उनके पास।


             आखिरी वर्षों में उनकी विकलता बढ़ गई थी। वेआखिरी वर्षों में उनकी विकलता बढ़ गई थी। वे बीमार पड़ने लगे थे, कमजोर हो गए थे, उनका बाहर निकलना कम हो गया था। एक कमरे में बंद होकर रह गया था वह योद्धा, जो हमेशा सड़क पर रहा, जनता के बीच रहा, शब्दों को तोलते हुए, जरूरत पड़ने पर उन्हें बम की तरह उछालते हुए, गोली की तरह दागते हुए। मैंने देखा था, हार नहीं मानने वाले मुद्रा को हार के व्यूह में सर मारते हुए। वे मानते ही नहीं थे कि वे बीमार हो सकते हैं। वे अस्पताल के बिस्तर से उतर कर अपने चाहने वालों के साथ नीचे बेंच पर बैठ जाते थे। निश्चेतन या अर्धचेतन की नहीं कहता लेकिन जब भी वे चैतन्य होते, बीमारी को भी दुत्कार कर निकल जाने को तैयार मिलते। कई बार तो अपने शरीर पर लगे उपकरणों को उखाड़ डालते और ऐसे भरोसे से नीचे चलकर चाय पीने का प्रस्ताव करते, जैसे उन्हें कुछ हुआ ही न हो। जब वे अस्वस्थ रहने लगे थे, उन दिनों वे बार-बार कहते, यार तुम रोज आया करो। मुझे याद है तब मैंने उनके यहां पहुंचने की आवृत्ति बढ़ा दी थी, हफ्ते में दो बार, तीन बार। स्मृति उनका साथ छोड़ने लगी थी, शब्द उनके पास से निकल जाने की मुद्रा में खड़े थे। उनके पास बतियाने को बहुत कुछ नहीं था फिर भी वे बतियाना चाहते थे। बार-बार दुहराते, तुम आते हो तो बहुत अच्छा लगता है, रोज आया। करो, यहीं बैठा करो, खाना भी खाया करो। कभी-कभी मैं सोचता, हफ्ते में एक बार मुद्रा जी के घर पर ही उनके चाहने वालों, बुद्धिजीवियों, लेखकों की बैठक हो जाए। वे सुनते तो खुश हो जाते, “हां, यार ये तो बहुत अच्छा होगा। तय करो कोई दिन । हाँ, कल ही रखो। हर सोमवार को यहां मेरे घर पर गोष्ठी होगी।' टुकड़े-टुकड़े में वे बिखरी-बिखरी सी बातें करते। एक बार मैंने अपने प्रिय मित्र प्रो. रविकांत को उनका इंटरव्यू करने को कहा। वे बैठे पर मुद्राजी ने या तो उन्हें टाल दिया या फिर वे ऐसी मनस्थिति में पहुंच गए थे कि गंभीर सवालों के जवाब नहीं दे पाते। उनकी विचार-श्रृंखला टूट चुकी थी, स्मृतिभ्रंश उन पर प्रभावी हो गया था, तर्क उन्हें छोड़कर चले गए थे। व्यावहारिक और सामान्य बातों के दौरान तो पता नहीं चलता, लेकिन जैसे ही परिवर्तन पर, साहित्य पर, समाज पर या इसी तरह के गंभीर विषयों पर उनसे कुछ जानने का प्रयास किया जाता तो वे एकाध वाक्य बोलकर चुप हो जाते । मजे की बात यह कि जब वे अपनी चेतना के अधिकांश चमकदार पक्षों से छूटते जा रहे थे तब भी उनकी आंखों की चमक, उनकी मुस्कान की मार पहले जैसी ही थी। अगर कहें कि तब वे अपनी शब्द-सत्ता के अर्थ मात्र रह गए थे, तो गलत नहीं होगा। शहर में उनके चाहने वाले कम नहीं थे लेकिन जब मुद्राजी को उन सबकी जरूरत थी, जब वे अपने भीतर जागते रहने का अथक प्रयास कर रहे थे, तब इस लखनऊ ने, हम सबने उनकी उतनी मदद नहीं कि जितनी वे चाहते थे। मैं भी चाह कर भी रोज उनके पास नहीं जा पाता था। यह अपराध मैंने किया तो मैं कैसे भूलूंगा। उनका शरीर क्षीण होता जा रहा था, उनकी चेतना उन्हें अकेला करती जा रही थी, उनका शहर उनके संघर्षों को उनकी आत्मीयता को, उनके जुझारूपन को उस तरह याद नहीं कर पा रहा था, जैसे मुद्रा ने अपने जीवन में जिया था। यह समाज का अपने लेखक के प्रति एक अपराध था, जो हम कभी भूल नहीं पाएंगे।


            मुद्रा जी नहीं हैं। मगर हैं। हमारी चेतना में, समाज की सामूहिक चेतना में, एक योद्धा की तरह जूझते हुए, जीतते हुए। उन्होंने जो प्राण शब्दों में निचोड़े हैं, वे जड़ता के विरुद्ध बदलाव के पक्ष में, शोषण के विरुद्ध वंचितों के पक्ष में, जुल्म के विरुद्ध न्याय के पक्ष में हमेशा जाग्रत और युद्धरत रहेंगे। उनके पात्र छायाओं की मानिंद हर अन्याय का पीछा करते रहेंगे, उसे ध्वस्त करने का प्रयास करते रहेंगे। उनकी रचनाएं जड़ता और अंधविश्वास की स्थापनाओं पर मिसाइलों की तरह बरसती रहेगी। जहां भी, जिस समाज में भी, जिस भूगोल में अधिकार और न्याय की लड़ाइयां छिडेंगी, मुद्राराक्षस वहां खड़े मिलेंगे, संघर्ष की समूहचेतना का नेतृत्व करते हुए। वे शरीर की सत्ता से ऊपर एक बड़े चेतना विस्तार का हिस्सा बन चुके हैं। वे शब्द से उतरकर अर्थ की व्यंजना में पसर चुके हैं, वे प्रतिपक्ष की जाग्रत प्रतिमूर्ति की तरह हर उस मोड़ पर मौजूद हैं, जहां निर्णायक संघर्ष की परिस्थितियां हैं। समाज में जब तक गैर बराबरी है, विषमता है, सामाजिक भेद-भाव है, तब तक मुद्राराक्षस मंच पर मुट्ठी ताने खड़े रहेंगे, पीढ़ियों को ललकारते हुए, आगे बढ़ते और टकराने की प्रेरणा देते हुए। मुद्राराक्षस रचना की, प्रतिरोध की ताकतों के लिए निरन्तर एक मार्गदर्शक ज्योति-स्तम्भ की तरह जीवित रहेंगे। उनकी रचनाओं ने जो आग रची है, वह जलती रहे, इस कामना के साथ दुष्यंत कुमार का एक शेर आप सबके के लिए - 


                                                                   लपट आने लगी है अब हवाओं से


                                                                   ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी 


                                                                                                                         सम्पर्क : डी-1/109, विराज खंड, गोमतीनगर , लखनऊ


                                                                                                                                                                    मो.नं. : 9455081894