अपनी बात - प्रेम के खिलाफ साजिश

एक व्यापक शब्द है जिसे वर्तमान समय में खलनायक बनाने की चेष्टा की जा रही है। लगता है नफरत और विघटन को स्थापित करने का दौर शुरू हो गया है। जहां देखो - एक दूसरे को खत्म करने की कोशिश, वैचारिक आधार पर लोगों को बांटने का दुष्चक्र। धर्म और राजनीति हमेशा से एक दूसरे के कंधे का सहारा लेकर चलती रही हैं। परन्तु आज तो इनका संबंध, लगता है, अटूट हो गया है। समाज पूरी तरह इसी गठबंधन से संचालित है। कहीं भी जाएं, कहीं भी बैठे, घुटन सी महसूस होती है। लगता है जैसे प्रदूषण रोज-ब-रोज बढ़ रहा है। दुष्प्रचार का प्रदूषण, नफरत का प्रदूषण, प्रतिहिंसा का प्रदूषण। आंखें लाल हैं। तेवर कड़े हैं। कहीं बच के न जाने पाए। वह कहीं प्रेम की बातें तो नहीं कर रहा? वह क्या लिख रहा है? वह क्या पढ़ना चाहता है? उसे खत्म कर दो, मिटा दो, । सोचने की ताकत का हरण कर लो। नई परिभाषाएं, नया व्याकरण रचा जा रहा है। विनाश का गणित हल किया जा रहा है। विकास सूचकांक से नामा से जाना जा रहा है। भूख से पिचके पेट की गहराई कोई नहीं नापता।


            प्रेम समाज कहां है साहित्य ? कोई पथ है। उसमें आदमी को रक्त शुद्व प्रेम समाज को संस्कार देता है, साहित्य का सृजन करता है परन्तु कहां है साहित्य ? जो परोसा जा रहा है क्या वह रचना है, निर्माण का कोई पथ है। उसमें तो महज रक्त पिपासा में वृद्वि करने वाले तत्व है। आदमी को रक्त शुद्व करने वाला ऑक्सीजन चाहिए और यह ऑक्सीजन मिलता है-प्रेम से, सोहार्द से। गांधी क्या चाहते थे? ईसा और बुद्व की तलाश क्या थी? क्या कृष्ण की लीला का निहितार्थ यही था। उन्होंने समस्याओं का पर्वत उठा लिया था क्यों? उनके मन में जो मनुष्य के लिए, शोषित, वंचित इंसान के लिए प्यार था, उसी ने उन्हें ईश्वर का दर्जा दिया। आज का ईश्वर तो रचता ही नहीं, ध्वंस करता है। लोगों को मजबूर किया जा रहा है, दीवार तक चले जाने के लिए। फिर क्या बचता है उनके लिए, आक्रमण। समझने की जरूरत है कि यह आक्रमण कैसा हो? क्या उसी सूरत में हो, वही हथियार हो, जिससे उस पर प्रहार हो रहा है? नहीं। होना तो यह नहीं चाहिए परन्तु हो यही रहा है और इसके लिए वह वातावरण जिम्मेदार है जिसमें लिखने बोलने को अपने व्याकरण में मापा जा रहा है। एक षड्यंत्र के तहत जीवन का विकृत रूप, हिंसा-प्रतिहिंसा और सोच को कुंद करने का वाला छद्म परोसा जा रहा है। पूरी तरह से मध्य युग में धकेल देने की साजिश। दिमाग को प्रभावित करने वाले ऐसे तंत्र विकसित किए जा रहे हैं जिनसे आम जन की दिशा ही बदल दी जाए। आम जन की प्राथमिकताएं अपने ढंग से तय की जा रही हैं और उसी दायरे में उसके विचार को कैद करने का छल हो रहा है जिसमें धर्म और राजनीति का गठजोड़ चाहता है। इस गठबंधन को पता है कि प्रेम रचता है और वह तभी उपजता है जब महसूस करने और विचार को पुष्ट करने की जमीन तैयार होती है। कोशिश यह हो रही है कि वह जमीन तैयार ही हो न पाए या उसे तैयार करने का पैमाना ही इतना गलत कर दिया जाए कि उसमें बीज अंकुरित ही न हो, मर जाए कोख में ही। असल में, इस जहरीले माहौल को उर्वरता मिल रही है और आम जन तय ही नहीं कर पा रहा है कि उसकी सोच की दिशा क्या हो? भ्रम का वातावरण अपनी पूरी गिरफ्त में ले चुका है। विमर्श के बाद एजेंडा तय नहीं हो रहा है बल्कि एजेंडा तय कर विर्मश, वह भी अपनी सहूलियत से, किया जा रहा है।


              सृजन सरोकार का जनवरी-मार्च, १८ अंक विमर्श के लिए उत्प्रेरक का काम करने की चेष्टा है। इसमें रचने की प्रक्रिया को और उत्प्रेरित करने की खुराक है। जहां अरविंद सिंह का लेख “आज कैसा है गांधी का चम्पारण'' सच्चाई से रूबरू कराने के साथ ही सवाल भी खड़ा करता है, वहीं अदम गोंडवी पर प्रो. कृष्ण चन्द्र लाल का लेख तंत्र का पूरा हुलिया खोल देता है। महेश अश्क का लेख, सूर्यभान गुप्त का शेरी, उमाशंकर सिंह परमार का मलय- जहां भाषा टूटती है और गणेश पांडेय का अच्छी कविता पर लेख विचारोत्तेजक हैं। प्रो. राम विरंजन और अन्नपूर्णा शुक्ल का कला पर विमर्श बेहद गंभीर बन पड़ा है। प्रो. सेवाराम त्रिपाठी का ध्रुवस्वामिनी पर निबंध प्रसाद के नाटकों के मंचन पर कई सवालों के जवाब देता है।


               कहानियां पुराने सवालों को नए सिरे से विश्लेषित करती हैं। रिफअत शाहीन की कहानी ‘उपवस्त्र' सामाजिक अंतर्संबंधों का सूक्ष्म विश्लेषण करती है। लगता है कि रिफअत संबंधों के मान्य मूल्यों पर प्रहार करती हैं। वस्तुत: वे उन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करतीं हैं जिन्हें छेड़ने से लोग प्रायः बचते है। विवेक द्विवेदी की कहानी 'मंडी' शोषण और सामंती जकड़न में कैद आम जन की त्रासदी का अवलोकन कराती है। प्रो. एम. सी. सक्सेना की कहानी, लगता है जैसे हवा का ताजा झोंका। संतोष श्रीवास्तव और सरिता सैल की कविताएं तथा आशा शैली और अनु नैयर की लघु कथाएं संबंधों की स्पष्ट व्याख्या करती हैं। सृजन सरोकार रचनात्मकता की ओर कुछ ठोस कदम उठाने की कोशिश है। पिछले अंक के जो उत्साहजनक परिणाम हमें मिले हैं उनसे आगे बढ़ने की ऊर्जा हासिल हुई हैं।


                                                                                                                               गोपाल रंजन