आत्मकथ्य - मेरा लेखन - दूधनाथ सिंह

मेरे लेखन की शरूआत किसी वाह्य प्रेरणा से नहीं हुई, एक अन्तः प्रेरणा थी जिसने मुझे लेखन की और मोड़ा। आजादी के बाद धीरे-धीरे परिवारों का टूटना, युवा वर्ग का शहरों की और पलायन और स्त्री-पुरूष संबंधों में खटास, ये सब मेरे लेखन की प्रारंभिक चिंताएं थीं। इसे मैं उस वक्त के सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक वातावरण से एक मोहभंग की भावना कहता हूँ। यह एक तरह से राजनीतिक विरोध भी है, सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध एक प्रोटेस्ट भी है।


       मैं उन दिनों इलाहाबाद में विद्यार्थी था। यहाँ के माहौल में साहित्य रचा-बसा था। धर्मवीर भारती मेरे गुरू थे। इन सारी स्थितियों ने एक माहौल दिया और प्रेरणा भी। मैंने पहली कहानी ‘चौकोर छायाचित्र' लिखी १९५७५८ में। वह कौमुदी पत्रिका में भारती जी ने प्रकाशित की। १९५९ में ‘सपाट चहरे वाला आदमी' लिखी जो ‘लहर' पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके बाद मेरे कथा-लेखन का सिलसिला चल पड़ा। एम.ए. करने के बाद मैं कलकत्ता चला गया। वहाँ मैंने एक कहानी लिखी ‘बिस्तर'। वह सारिका में भेज दी। उस समय उसके सम्पादक मोहन राकेश थे। सारिका में वह कहानी पुरस्कृत हो कर छपी। इसके बाद मैं वापस इलाहाबाद चला आया। बाकायदा कथा लेखन की यह मेरी शुरूआत थी।


       कथा लेखन में मैंने बहुत सारी स्मृतियाँ अपने घर, परिवार, गाँव, समाज से ली हैं, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग है। ‘चौकोर छायाचित्र' के बाद ‘सपाट चेहरे वाला आदमी' मेरी पहली कहानी थी जिसने मुझे प्रसिद्धि और यश प्रदान किया। बचपन से जुड़ी गाँव की स्मृति और शहरी रेड लाईट एरिया के रसायन के घोल से मैंने यह कहानी तैयार की। इसे मैंने तब लिखा जब मैं कथा-लेखक नहीं हुआ था और मुझे कहानी नहीं आती थी। मेरा पहला संग्रह ‘सपाट चेहरे वाला आदमी' नाम से ही आया। ‘माई का शोकगीत' कहानी मेरे दूसरे दौर के लेखक की कहानी है। १९८५ से १९९० तक मैं उसे लिखा। वह मेरे पहले की कथा अवधारणा से भिन्न धरातल की कहानी है।


         मैंने लिखना किसी से सीखा नहीं। इसलिए हमेशा वैसा ही लिखा, जैसा लिख सकता था। मेरे ऊपर किसी लेखक या शैली का प्रभाव नहीं है। मैं उर्दू का छात्र था लेकिन किसी कारण से मुझे एम.ए. में प्रवेश नहीं मिल पाया। इसलिए मैंने हिन्दी में एम.ए. किया। मुझे शुरू में हिन्दी पढ़ने में बहुत कठिनाई हुई, उस समय मैं हिन्दी कथा लेखन से बहुत परिचित नहीं था। मैंने लिखने के लिएअपनी शैली ईजाद की।


         कथा लेखन में वास्तविक जिंदगी की एक भीतरी छाया रहती है, जिसको अपनी कल्पनाओं से एक लेखक रचता है। मैं भी रचता हूँ। वास्तविक जिंदगी के पात्र कहानी में बदल जाते हैं। लेकिन एक लेखक को वास्तविक जिंदगी के चरित्रों का पीछा नहीं करना चाहिए। ऐसे में आप अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग नहीं कर पाते। रचे हुए चरित्र और जीवन की वास्तविकता में बहुत फर्क होता है और होना भी चाहिए। इसलिए मैं जीवन के चरित्रों का कभी पीछा नहीं करता। मेरे पात्र जीवन की प्रतिच्छाया हैं, पाठक " को जो अपने बीच के लगते हैं। यही लेखक की सफलता है।


        लेखन में अलग-अलग विधा की बात करें तो कहानी एक झलक देती है। उपन्यास एक एक पूरा परिदृश्य उपस्थित करता है। संस्मरण मुझे गद्य का अवकाश लगते हैं। जहां गद्य की सभी विधाएं टूट जाती हैं वहाँ संस्मरण होता है। इसमें कहानी, उपन्यास, आलोचना सब थोड़ा- थोड़ा शामिल होते हैं। बहुत सारी विधाओं के मिलावट से संस्मरण तैयार होता है। यह एक प्रयोग भी है।


     अपनी सभी कहानियों में मेरी सबसे प्रिय कहानी ‘धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे' है। उपन्यास में यह जगह 'आखिरी कलाम' को दूंगा। यह उपन्यास जब आया तब इसकी ३१-३२ समीक्षाएं आईं। 'हंस' ने एक साथ इसकी तीन समीक्षाएं प्रकाशित की। इसके अलावा इसमें मैं उपन्यासिका ‘निष्कासन' का नाम भी शामिल करूंगा।


       ‘आखिरी कलाम' की संकल्पना ‘अयोध्या काण्ड' और उसके बाद फैली साम्प्रदायिकता ही रही। तत्सत पाण्डेय का किरदार एक प्रतिरोध है साम्प्रदायिकता के खिलाफ। उसका कोई रूप नहीं है। हालाँकि तत्सत पाण्डेय के किरदार की प्रेरणा मुझे सीपीआई के वरिष्ठ नेता होमी दाजी से मिली। उनके व्यक्तित्व से मैं बहुत प्रभावित था। वे इंदौर में रहते थे और मैं उनसे मिलने जाता रहता था। होमी दाजी की एक छवि रह गई थी मेरे दिमाग में, जिसे मैंने रचा। वे सीपीआई के बहुत बड़े लीडर थे। साम्प्रदायिकता के हमेशा खिलाफ रहे। 'आखिरी कलाम' के किरदार तत्सत पाण्डेय में उनके जीवन व्यक्तित्व और आकर्षक कद-काठी की छाया है। मैंने जब लिखना शुरू किया तो मुझे लगा कि मैं होमी दाजी को एक प्रतिरोध की शक्ति के रूप में दर्ज कर रहा हूँ। लेकिन वह सिर्फ एक प्रतिरोध है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ। इसे लिखने से पहले मैं ऐसे ही बिना पूर्व योजना के अयोध्या चला गया था। वहाँ कारसेवकों के टेंट लगे हुए थे। एक तरह से प्रथम दृष्टि में यह मेरा देखा हुआ था सब कुछ।


        मैं कविताएँ अधिक पढ़ता हूँ, लेकिन मेरा मन कथा - लेखन में ज्यादा लगता है। यह एक विचित्र तरह का विरोधाभास एवं है। लिखने के लिए मैं कम्प्यूटर का प्रयोग नहीं करता। हाथ से ही लिखता हूँ। अभी मेरे हाथ अच्छे से साथ दे रहे हैं। मैं जब कुछ लिखता हूँ तो लिखता ही जाता हैं। लेकिन जब वह चीज पूरी हो जाती है तो एक अजीब तरह का अवसाद मेरा इन्तजार कर रहा होता है। 'आखिरी कलाम' जब पूरा हुआ, तो मुझे इतने गहरे अवसाद ने घेर लिया कि मुश्किल से जिंदगी बची। अस्पताल में भरती होना पड़ा। लेकिन लिखते हुए अगर कोई चीज बीच में रुक गई तो वह मुझसे पूरी नहीं होती। तब चीजें छूट जाती हैं। तो उन्हें पकड़ना और आगे ले जाना मेरे लिए एक मुश्किल हो जाता है। बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में मैं बहुत जाता था। उस पर एक उपन्यास शुरू किया, लेकिन वह बीच में ही छूट गया। अब सोच रहा हूँ उसे पूरा करू पर हो नहीं पाता। तब से अब तक स्थितियां भी बहुत बदल गई हैं।


       मेरे साथ अधिकतर ऐसा होता है कि रचनाएँ शुरू तो होती हैं पर पूरी नहीं हो पातीं। मैंने बहुत सी रचनाओं को आधे में ही छोड़ दिया है। अधूरी कहानियों का एक जखीरा है मेरे पास। कई बार होता है कि लिखते-लिखते किसी रचना से ऊब जैसी होने लगती है और मैं उसे आगे नहीं लिख पाता। ऐसी कई कहानियां हैं जो आधे में छूट गई हैं, क्योंकि मैं नोट्स लेकर नहीं लिखता। हाँ आलोचना में नोट्स जरूर लेता हूँ। लेकिन कथा लेखन में नहीं।


       पहले मैं रात में ज्यादा काम करता था। अब अधिकतर दिन में लिखता हूँ। लेकिन लिखने का ऐसा कोई निश्चित । नियम तय नहीं। रात दो बजे भी कोई विचार दिमाग में आ गया तो उठकर लिखने लगता हूँ। मैं कथा लेखन के लिए कभी नोट्स नहीं लेता। चरित्र का पीछा नहीं करता। बस लिखने बैठ जाता हूँ। तब मुझे भी ये पता नहीं होता कि मेरी कहानी किस दिशा में जाएगी। मैं कभी भी, किसी भी वक्त, किसी भी मौसम में लिख सकता हूँ। लेकिन में किसी पहाड़ या पर्यटन स्थल पर जा कर नहीं लिख सकता। वहाँ। सिर्फ घूम-फिर सकता हूँ, उस जगह का आनंद ले सकता हूँ। तीन साल भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान' राष्ट्रपति निवास, शिमला में फेलो के रूप में रहा। उस दौरान मैंने वहाँ कुछ नहीं लिखा। वहाँ जिस काम के लिए गया था उसे भी इलाहाबाद आ कर ही पूरा किया। लेखन के लिहाज से मेरे लिए कोई जगह विशेष या मौसम अनिवार्य नहीं। दिमाग में जब कोई घटना, बिम्ब या चित्र कौंध जाए, बस वही मेरे लेखन की प्रेरणा बन जाता है। जैसे मैंने पिछले दिनों एक कहानी लिखी ‘इज्जत',जो ‘नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित हुई थी। उसमें एक महिला द्वारा अपनी इज्जत बचाने की कहानी है। मैं देहात के किसी इलाके में जा रहा था। वह औरत अपनी पीठ पर बच्चा बाँधे हुई थी। मेड़ पर बैठ कर उसने पीठ पर से बच्चे को खोला तो वह मृत था। इस दृश्य ने मुझे अन्दर तक हिला दिया। बाद में मैंने इस दृश्य के आधार पर अपनी कल्पना से यह कहानी लिखी।


       मैं इलाहाबाद में १९६५ से हूँ। निरालाजी जिस घर में रहते थे वह मेरी बुआ का था। मैं अक्सर बुआ के घर जाया करता था। वहीं उनसे परिचय हुआ। वे परिवार के सदस्य की तरह थे। सुमित्रानंदन पन्त ने मुझे विश्व विद्यालय में नौकरी दिलाई। जबकि मेरा उनसे कोई खास परिचय नहीं था। उन दिनों लोग भी बहुत सहृदय हुआ करते थे। महादेवी वर्मा भी इलाहाबाद में रहा करती थी। लेकिन उनसे भी बहुत ज्यादा परिचय नहीं था। इस बीच मैं बहुत बीमार हो गया। और अस्पताल में भरती होना  पड़ा। मेरी पत्नी अकेली थीं। तब उन्होंने सरकार को चिट्ठी लिख कर कि एक युवा लेखक गंभीर रूप से बीमार है। और उसकी मदद होनी चाहिए, मेरे लिए आर्थिक मदद माँगी। मेरा सौभाग्य है कि मैं हिंदी के इन तीनों महान कवियों के संपर्क में आया। मेरी ‘लौट आ ओ धार', “निराला आत्महंता आस्था' और 'महादेवी' किताबें इन तीनों पर केन्द्रित हैं। एक तरह से इनकी कर्ज अदायगी की कोशिश है। जैसे किसी चीज का स्पर्श लोहे को सोना बना देता है वैसे ही इनके स्पर्श से मेरी लेखकीय प्रतिभा का विकास हुआ लेकिन मैंने इनका तौर-तरीका नहीं अपनाया। ये तीनो कवि थे और मैंने कथा लेखन से शुरूआत की। पर यह कह सकते हैं कि सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी वर्मा और निराला के साथ इलाहाबाद शहर ने मुझे लेखक बनाया।


         अपने समकालीनों की दुनिया में ज्ञानरंजन मेरे पसंदीदा लेखक हैं। उनकी कहानी ‘घंटा' एक क्लासिक का दर्जा रखती है। मुक्तिबोध अच्छे लगते हैं, मुझे लगता है कि वे बड़े कहानीकार थे। उनकी कहानी ‘पक्षी और दीमक' एक क्लासिक रचना है। रवीन्द्र कालिया का ‘काला रजिस्टर' भी बेहतरीन रचना है जिसे लोगों को पढ़ना चाहिए। उदय प्रकाश की ‘छप्पन तोले का करधन' हिंदी की महान् कहानियों की एक कोटि है। विश्व साहित्य में टालस्टाय मेरे सबसे प्रिय लेखक हैं। मैं उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा लेखक मानता हूँ और उन्हें मैं बार-बार पढ़ता हूँ। ‘युद्ध और शांति', 'अन्ना कैरेनिना', 'पुनरुत्थान' उनकी श्रेष्ठतम कृतियाँ हैं। उनको पढता हूँ तो लगता है कि मैं कितना छोटा लेखक हूँ।


     एक लेखक का दायित्व है कि वह अपने समय की सामाजिक समस्याओं का चित्रण करे। उन समस्याओं के प्रति प्रतिबद्ध रहे। लेकिन कोई बदलने का अगर सपना देखता है तो वह पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि समाज एक लेखक की रचनाओं से नहीं बदलता, उसके बदलने के अपने तर्क होते हैं।


      मेरा घर इलाहाबाद के एक छोटे से रेलवे स्टेशन झूसी के पास है। मैं जब नहीं लिख रहा होता हूँ तो अक्सर वहाँ जाकर बैठा रहता है। वहाँ मेरा कोई परिचित नहीं, ऐसे ही चुपचाप बैठा रहता हूँ। या फिर सड़क पर चलता रहता हूँ। संगम भी मेरे घर के पास ही है, छत से दिखाई देता है। वहाँ भी कई बार अक्सर टहलते हुए चला जाता हूँ। जब लिखता नहीं, तो यही करता हूँ। ।