जन्म 1 जनवरी 1949 को गोरखपुर के गांव खोराबार में। साहित्य सृजन की शुरुआत किशोर जीवन से। हिन्दी और उर्दू की विभिन्न पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशन 1970 से अब तक। गजलों का संकलन ‘‘राख की जो पर्त अंगारों प' है'' सन् 2000 में प्रकाशित।
-----------------------------------------------
गुप्त हिन्दी में गजल का एक भरोसेमन्द नाम है। उनके शेर, भाषा के स्तर पर, यानी अपने बिम्ब-सरोकार और प्रतीक-निर्वाह आदि के लेहाज से सहज और जाने-पहचाने लगते हैं, फिर भी अर्थ की सतह पर, ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उनमें घुमाव या फिसलन नहीं है। 'मीर' याद आते हैं।
लाख मज्मू और उसका इक ठिठोल,
सौ तकल्लुफ़ और उसकी सीधी बात।"
सकते जो या विद्वज्जन, प्रायः एकमत हैं कि अच्छा शेर या अच्छी कविता उसी को कह सकते हैं, जिसमें अर्थ की तहें हों, संदर्भ-सम्पन्नता हो, भाव-सघनता हो और जो अपनी बहु-पाठीयता के लिए पढ़ने-सुनने वाले को उकसाती हो। पाठीयता या बहु-पाठीयता-एक तरफ जहाँ रचनाकार के लिए परीक्षा की घड़ी के समान है, वहीं दूसरी तरफ पाठक या श्रोता की काव्य-सुरूचि को भी वह कम चुनौती में नहीं डालती। नतीजे के तौर पर काव्य-विषय, अन्तर्वस्तु का आभ्यांतरिकसौंदर्य और समय-बोध आदि अपने संसर्गों-संदर्भो के साथ अपेक्षाकृत अधिक गहरे और व्यापक-अर्थ में खुलते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में- अर्थात् शेर या कविता के होने और उनके खुलने या खोले जाने के प्रकार्य में- भाषा की भूमिका को इस सीमा तक महत्व प्राप्त है कि कई काव्य-विवेचन-पद्धतियाँ, कविता या शेर को एक, भाषिक-निर्मित के बतौर स्वीकार करती हैं इस प्रकार, कविता या शेर भाषिक-कमाई की उस स्थिति का आकार ग्रहण है जहाँ पहुँच कर भाषा वह नहीं रह जाती, जो वह शेर या कविता के संसर्ग-सम्पर्क में आने और काव्य-प्रक्रिया का हिस्सा बनने के पूर्व, अमूमन हुआ करती है। शायरी में, खास कर गजल की शायरी में, रोजमर्रा या लोक-भाषा से शब्द लेकर अर्थवान इस्तेमाल को बड़ी इज्जत की निगाह से देखा जाता है मगर यहाँ भी वास्तविकता यही है कि रोजमर्रा या लोकभाषा से भी हम अपनी काव्यभिव्यक्ति के लिए, भाषा के स्तर पर जो कुछ लेते हैं, उसे भी कविता या शेर में काम आने लायक हमें (जाने-अनजाने) बनाना पड़ता है। परिणामत: शेर या कविता की भाषा दैनन्दिनि की बोली-भाषा की तरह, न तो एक-आयामी रह जाती है, और न ही अपना प्रयोजन पूरा करके बीच से अनुपस्थित या अदृश्य होती है। हिन्दी
सूर्यभानु गुप्त घनिष्ठ मित्र जावेद अख्तर के साथ
हिन्दी गजल का यह शेर (जो सूर्यभानु जी का नहीं है) इसी नुक्ते की तरफ इशारा करता है -
* अपनी बातों में हम भी होते हैं,
काम लफ्जों से ही, नहीं चलता।"
सूर्यभानु गुप्त के यहाँ हमें ऐसा ही भाषिक रख-रखाव और उसके इस्तेमाल का ऐसा ही शऊर दिखाई पड़ता है, उनकी शेर-भाषा अपने मन्तव्य के साथ हममें ठहरती है, घुलती है और आकार लेती है।
उनके शेरों से मेरा परिचय १९७०-७२ में धर्मयुग, ब्लिट्ज और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के जमाने में हुआ। माहेश्वर तिवारी तब गोरखपुर में ही थे और अपने नाम के साथ ‘शलभ' लिखना-सुनना पसंद करते थे। नीचे दर्ज सूर्यभानु जी का शेर उस जमाने में उन्होंने ही मुझे सुनाया था। शेर इस प्रकार है-
*हम तो सूरज है सर्द मुल्कों के,
मूड आता है तब निकलते हैं।"
‘एक हाथ की ताली' नाम से उनका संग्रह १९९७ में वाणी प्रकाशन के जरीए सामने आ सका, बाद में इसके कई संस्करण भी निकले। ध्यान देने की बात यह है कि शीर्षक में आया शब्द ‘ताली', 'ताले' के संदर्भ से नहीं लाया गया है, बल्कि यह पूरा का पूरा शीर्षक जापानी बौद्ध-मत की जेन चिंतन-धारा का वह मुहावरा है, जिसके अनुसार, सभी तरह का सीखना-पढ़ना, जानना-जनाना, ज्ञान-ध्यान, तर्कणा और शास्त्रार्थ आदि नि:सार ठहरते हैं और आँखों के आगे रह जाती है, चांद की तरफ प्रश्नाकुल-मुद्रा में उठी जिज्ञासु तर्जनी, कि - ‘आखिर, वह है क्या?'
इसके पहले कि 'एक हाथ की ताली' से कुछ शेर लिए जाए और उनके मंतव्य तक उन्हीं में दिए गए संकेतों, बिम्बों, प्रतीकों और कथन-भंगिमाओं के सहारे पहुँचने की कोशिश की जाए, उस शेर को लेते हैं, जो गालिब का नामोल्लेख करते हुए मौजूदा-दौर में लेखन-संबंधी कठिनाइयों की तरफ संकेत करता है। संग्रह में शेर इस प्रकार है-
"जो गालिब आज होते तो समझते,
ग़ज़ल-कहने में क्या कठिनाइयाँ है।"
इस शेर को दो तरह से पढ़ सकते हैं। एक के अनुसार शेर यह कहता प्रतीत होता है कि-
“गालिब हमारे दौर में अगर होते, तो उनकी समझ में आता कि गजल-लेखन कितना कठिनाई भरा काम है।''
ऐसा कहने से ध्वनित होता है कि गालिब के समय में यह काम जैसे बहुत आसान था, या अगर कुछ कठिनाइयाँ रहीं भी हों, तो वो उतना अधिक नहीं थी, जितनी हमारे समय में हैं। लेकिन गालिब का रचनात्मक-संघर्ष जगजाहिर है, और हम जानते हैं कि वे अपने समय में गज़ल-लेखन के ढर्रे-बाज रवैये को किस हद तक ना पसंद कर रहे थे। आखिर उन्होंने, गजल-लेखन के ऐसे ही रवैये के खिलाफ रास्ता निकालने की कोशिश में ही तो कहा था कि, 'कुछ और चाहिए वुस्अत मेरे बयाँ के लिए ?' इसलिए कोई भी छूटते ही, कह सकता है कि इस शेर का यह पाठ ‘सच्चाई से मेल नहीं खाता, और एकदम बकवास है।
शेर को एक और तरह से पढ़े, तो पता चलता है। कि बात किसी और जमाने की नहीं, बल्कि हमारे दौर में गजल-लेखन से जुड़ी कठिनाइयों-चुनौतियों की ही है, जिनकी व्यापकता-गंभीरता पर जोर देते हुए शेर कह रहा है कि ऐसे में, गालिब जैसा रचनात्मक-व्यक्तित्व हो, तभी काम कुछ बन सकता है। अर्थात् इन कठिनाइयों से ढीला ढाला रवैया अपना कर नहीं निबट सकते । शेर का यही पाठ मुनासिक और लाभप्रद है। अब नीचे दर्ज शेरों को लेते हैं-
अपने घर में ही अजनबी की तरह,
मैं सुराही में इक नदी की तरह।
"उसकी सोचों में मैं उतरता हूँ,
चाँद पर पहले आदमी की तरह।"
हम तो सूरज हैं सर्द-मुल्कों के,
मूड आता है तब निकलते हैं।"
पहला शेर अपना मंतव्य जाहिर करने के लिए नदी, सुराही और पानी के बीच संबंधों और उनकी परस्पर निर्भरता को संकेत रूप में इस्तेमाल करता हैं अर्थ की सतह पर शेर की मूल-समस्या ‘घर' और 'अजनबीयत' के कारणों का निर्धारण है, जिसके सूत्र-उक्त तीनों के बीच संबंधों और उनकी परस्पर निर्भरता के बीच से ही निकलते हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं-
1. शेर में 'मैं' शब्द, पानी के लिए आया है।
2. पानी, नदी और सुराही दोनों में रहता है, इसलिए उन्हें पानी का घर है। यहाँ महत्वपूर्ण यह देखना है सुराही और नदी दोनों में है, और घर है, तो पानी उनमें रह कर अजनबी किस वजह से महसूस कर रहा है?
यहाँ हमें, अपनी सहज बुद्धि से यह नुक्ता सूझता है कि पानी जब नदी में है तो उसे नदी का सुराही में हो तो ‘सुराही का पानी' पुकारा जाता है, जबकि ‘नदी’ और ‘सुराही' दोनों के होने की सार्थकता पानी पर निर्भर हैं इस प्रकार तीनों में पानी का होना प्राथमिक है, लेकिन जिस तरह उसे पुकारा जा रहा है, उसमें महत्व नदी' या ‘सुराही' को मिल रहा है, पानी को यही बात खटकती है, और उसे लगता है कि उसकी उपादेयता के प्रति, उसे पुकारने वालों में, अनभिज्ञता है, बेगानगी है, नतीजे के तौर पर वह अपने आप को अपने ही घर में अनजबी महसूस कर रहा है।
खास बात यह है कि इस प्रकार यह शेर ‘पहचान के संकट' को अपना विषय बना लेता है, जो हमारे समय में मनोवैज्ञानिक कारणों से ही नहीं, अन्य वजहों से भी एक बड़ा और उलझा हुआ मसला है।
दूसरा शेर (उसकी सोचो में मैं...) अपने कथनोपकरणों के माध्यम से जो वातावरण रच रहा है, उसे देखते हुए कहना पड़ता है कि यह शेर रूमानी सतह पर हमसे मुखातिब है, और चाँद पर आदमी के उतरने के मिशन को पैटर्न के रूप में इस्तेमाल करते हुए अपनी बात रखता है।
शेर में दो पक्ष है- एक, जो ‘सोचों में उतरता है, वह अपने मिशन में योजनाबद्ध है। दूसरा, जिसकी सीचों में, योजनाबद्ध पक्ष उतरता है, वह इस मिशन से सर्वथा अनभिज्ञ है। यह संयोजन, योजनाबद्ध पक्ष के कार्य-व्यवहार को, प्रेम या इश्क की मान्य परिपाटी से हट कर अंग्रेजी की उस कहावत की सादृश्यता में ला खड़ा करता है, जिसके अनुसार ‘युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है।'' यह सब कुछ जायज' क्या है? गालिब इसे खोलते हैं, शेर देखिए-
"आशिक हूं प’ माशूक-फरेबी है मेरा काम,
मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे।''
यानी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए, अगर मक्कारी और फरेब करना भी जरूरी हो, तो चलगा। सूर्यभानु गुप्त के इस शेर में बयान का लहजा और कथनोपकरणों की ताजगी से जो कैफीयत पैदा हो रही है, वह महत्वपूर्ण है।
गालिब के 'माशूक-फरेबी' वाले शेर में एक दिलचस्प नुक्ता है, जिसे उनहोंने ‘आशिक हूँ' कहकर पैदा कर दिया है, इससे शेर में न सिर्फ इश्क का पूरा ‘शेरी-कन्वेंशन' सिमट आया है, बल्कि ‘माशूक-फरेबी' का औचित्य भी उपस्थित हो गया है कि हमारे समय की जरूरत में यह भी अब शामिल है। औचित्य की यही उपस्थिति शेर में गालिब का 'समय'बोध' बन जाता है। इस प्रकार शेर में सूर्यभानु गुप्त जी का समय-बोध, योजनाबद्धता ठहरती है।
अब तीसरे शेर (यानी, हम तो सूरज हैं..) को लेते हैं। इस शेर की बिम्बात्मकता का कमाल यह है कि 'सर्द मुल्कों' कहने से जो चित्र उभरता है, वह धीरे-धीरे उन हालात में बदलता जाता है जिनमें हम अपने समय में साँस ले रहे हैं, ऐसे में सूरज का यह कहना ‘मूड आता है तब निकलते हैं हम पर तमाचे की तरह पड़ता है, और म में सूरज के रवैये के प्रति आक्रोश पैदा करता है और यही शायद कविता का, अपने समय में, जिंदगी के पक्ष में हस्तक्षेप या प्रतिरोध है, जो इस शेर में बड़ी सहजता से, बिना कोई हो-हलला किए होता जाता है।
शेर में सर्द मुल्कों ' कहने से जो दृश्य उभरता हैउसमें जीवन की स्वाभाविक गतिविधियों के लिए स्पेस कम से कम है, क्योंकि वहां न तो पर्याप्त प्रकाश है, न ताप है और न ही जीवन-क्षम ऊर्जा, यानी जो कुछ है वह बर्फ की मोटी-मोटी तहों के नीचे दबा हुआ है और इसके । लिए एक मात्र जिम्मेदार सूरज ठहरता है, क्योंकि वह अगर अपना दायित्व अपेक्षा के अनुरूप निभाए तो बर्फ पिघले और उस क्षेत्र में जीवन के प्रतिकूल कोई स्थिति रह ही न जाए और स्वभाविक ढंग से जिन्दगी जीने की हालात बन जाए।
इस प्रकार ‘सर्द-मुल्कों' कहकर जिस तरह आमजीवन की तरफ यह शेर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, वह एक ऐसे समाज में बदल जाता है जो जीवन को सीमित करने की कोशिशों के खिलाफ संघटित और निर्णायक आवाज उठाने के स्थान पर, थोपी हुई समस्त प्रतिकूलताओं को भाग्यवादी ढंग से स्वीकार करते हुए हाथ पर हाथ धरे बैठ गया है। यहाँ तक आते-आते सूरज, सत्ता और उसकी व्यवस्था के गैर-जिम्मेदार और आत्मकेन्द्रित चरित्र । का प्रतीक बन जाता है, और जो कुछ कहता-करता है, वह जिन्दगी या जीवन-मूल्यों के पक्ष में, विचलित और आंदोलित करने वाला हो जाता है।
यहां, हो सकता है कि, सुरज का सत्ता के चरित्र के प्रतीक के बतौर स्वीकार करने में थोड़ी झिझक-सी महसूस हो, लेकिन ऐसा कोई संकोच होना नहीं चाहिए क्योंकि, राजाओं के ध्वजों पर, खास कर सूर्यवंशी राजाओं के ध्वज पर सूरज को राज-चिन्ह के रूप में उकेरा जाता रहा है, इसकी पुष्टि हिन्दी-गजल का यह शेर इस रूप में करता है
सदियों उगता रहा है सूरज राजचिह्न बनकर,
हम से अब तक धूप वही अधिकार मांगती है।''
‘एक हाथ की ताली' की कुल बाइस गज़लों में ऐसे अभी कई शेर हैं जो रचनात्मक-विमर्श आमंत्रित करते हैं। दूर क्यों जाइए ‘मूड आता है...' वाला शेर जिस गजल से लिया गया है, उसका मतला भी ऐसा ही बन पड़ा है
जिनके भीतर चिराग जलते हैं,
घर से बाहर वही निकलते हैं।"
इसमें, विमर्श के लिए प्रस्थान-बिन्दु भीतर चिराग जलने' और 'घर से बाहर निकलने' का डी-कोड कर के पाया जा सकता है, लेकिन ऐसे सभी शेरों को एक आलेख में समेट पाना (कम से कम मेरे लिए) सम्भव नहीं है। वैसे भी रचनात्मक-विमर्श तब आगे बढ़ता और लाभप्रद साबित होता है, जब उसे एक और विमर्श के जरिए आगे बढ़ाया जाए। हिन्दी-गजल आज जिस मोड़ पर और जिस स्थिति में है, उसे देखते हुए रचना को लेकर स्वस्थ-विमर्श पैदा करना और बनाए रखना कुछ मुश्किल भी नजर नहीं आता, लेकिन इसके लिए रचनाकार की छवि से ग्रस्तता और उससे फायदा-नुकसान का विचार त्याग कर प्राथमिकता रचना को देनी होगी और उसे खोलने-समझने के सूत्र को उसी के भीतर से प्राप्त करते हुए आगे बढ़ना और किसी निष्कर्ष तक पहुँचना होगा।
अंतिम बात यह कि, सूर्यभानु जी के जिन शेरों से भी बहस की गई है, और जो भी बहस की गई है, वह किसी आलोचक की हैसियत से नहीं, बल्कि गजल के एक सामान्य-पाठक के रूप में की गई है, इस बहस के तौरतरीके वह है, जिनको इन पंक्तियों का लेखक किसी शेर को समझने के लिए काम में लाता है। इसलिए अनुरोध है कि इस बहस से काम के जो नतीजे बरामद होते हों उन्हें लिया से ओझल रह गया हो तो उसे अपने तौर पर पकड़ और व्याख्यायित कर संबंधित शेर की समझ को ‘भरपूर- करने की कोशिश की जाए।