आलोचना - मलय - जहां भाषा टूटती है - डॉ. उमाशंकर सिंह परमार


                           इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अध्ययन, एम.ए, डी.फिल, आलोचना की कई पुस्तकें प्रकाशित, अनेक पत्रिकाओं में नियमित लेख प्रकाशित


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अमूमन माना जाता है कि मलय हिन्दी कविता में उस परम्परा के कवि हैं। जिस परम्परा का सूत्रपात मुक्तिबोध ने किया था। मलय के सम्बन्ध में यह धारणा आंशिक है। मलय मुक्तिबोध के नजदीकी रहे, उनके सानिध्य में रहे, प्रभावित भी रहे परन्तु मुक्तिबोध की काव्यात्मक और अभिव्यक्ति के ढाँचे को स्वीकार नहीं किया। वह मुक्तिबोध की काव्य संरचना को अपनाते हुए भी उसमें व्यापक तोड़-फोड़ करते हैं। पहला कविता संग्रह ‘‘हथेलियों में समुद्र'' प्रकाशित होने से पहले मलय अपनी छन्दबद्ध रचनाओं के लिए जाने जाते थे। प्रथम कविता संग्रह का स्वागत हुआ व्यापक स्वीकृति मिली। इस कविता संग्रह से ही मलय के रचनात्मक सरोकार व काव्य बुनावट की बानगी समझी जा सकती है। यह सच है मध्यमवर्गीय परिवेश का सच उघाड़ने वाले कवि हिन्दी में बहुत कम हुए हैं। जो भी हुए हैं वह मध्यमवर्गीय चेतना के कवि थे। जबकि जरूरत है लोकधमी चेतना की दृष्टि से मध्यमवर्गीय जीवन व जीवनमूल्यों की पडताल हो। मध्यमवर्गीय मनुष्य नितन्त वैयक्तिक होता है वह वैयक्तिक सुखदु:ख और अनुभूति से ही समाज और युग को विश्लेषित करता है। वैयक्तिकता जब सतर्क नही होती जब वह स्वार्थवादी और संकुचित हो जाती है तब वह व्यक्तिवाद में तब्दील हो जाती है। व्यक्तिवाद का स्थापत्य पूँजीवादी सामन्तवाद होता है। वह मानव की सामाजिक अवस्थिति व अनुभूति की सत्यता का सार्वजनिकीकरण नहीं कर पाता है। यह समस्या रघुबीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा में रही है कुछ हद तक मुक्तिबोध और छायावादी काव्य में भी वैयक्तिकता अपने अतिवादी अतिबोद्धिक स्वरूप में उपस्थित है। मलय की विशेषता है कि वह वैयक्तिक अनुभूति को काव्य का रचाव स्वीकार करते हुए भी व्यक्तिवादी नही होते हैं वह संघर्षों और द्वन्दों का जय-पराजय घात-प्रतिघात भोगते हुए भी युगबोध और इतिहासबोध को साध लेते हैं। यही वैयक्तिकता उन्हे मुक्तिबोध की परम्परा का कवि नही रहने देती। सार्वजनिक अभिव्यक्ति और जीवन धर्मिता का वैचारिक आवेष्ठन उन्हें पृथक पायदान पर खड़ा करके लोक धर्मी परम्परा का श्रेष्ठ कवि बना देता है। मलय आज अट्टासी वर्ष के ऊपर हो चुके हैं उनका उनका उनका  जन्म १९ नवम्बर १९२९ सहसन गांव, जबलपुर में में हुआ था। किसान परिवार के थे इसलिए गाँव, खेत, नदी, पठार, चिड़िया, प्रकृति आदि का अपनी कविताओं में उन्होंने खूब प्रयोग किया है। कविता, कहानी, लिखा सम्पादन, सब कुछ किया। उनकी रचनाओं में कविता संग्रह है हथेलियों का समुद्र, फैलती दरार में, शामिल होता हूं, अंधेरे दिन का सूर्य, निर्मुक्त अधूरा आख्यायन (लम्बी कविता), लिखने का नक्षत्र। और कहानी संग्रह में उनका एकमात्र कहानी संग्रह - खेत है और आलोचना में उन्होंने व्यंग्य पर बेहतरीन किताब लिखी है ‘‘व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्रं''। परसाई रचनावली के सम्पादक मंडल के सदस्य रहे और कुछ दिनो तक वसुधा पत्रिका के सम्पादक मण्डल से भी जुड़े रहे हैं। जीवन भर प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े रहे और प्रगतिशील विचारों के लिए प्रतिबद्ध रहे। विचारों के प्रति प्रतिबद्धता और कठिन जीवन की परिस्थितियाँ व ग्रामीण जीवन के सादे व अनगढ़ अनुभवों के पारस्परिक आमेलन ने उन्हें आवेग और भाषा का सघन और ठोस रचनात्मक हथियार दिया इस हथियार के कारण ही वह मुक्तिबोध की रीति से पृथक होकर विनिर्मित जीवन बिम्बों की बदौलत लोकधर्मी काव्य के गतिशील और जागरूक कवियों में गिने जाते हैं।    


              । माना जाता है कि इतिहास और परिवेश के सन्दर्भ में मनुष्य की असमर्थता का पहला अहसास नई कविता के कवियों ने किया। लेकिन नई कविता के अधिकांश तेवर रूमानी रहे। मनुष्य के मूलभूत सवालों से टकराने की प्रवृत्ति नई कविता में नहीं दिखाई देती है। लोकधर्मी परम्परा की बुनियाद ऐसे ही सवालों पर टिकी है। मगर नई कविता में बुनियादी सवालों के प्रति बेचैनी कशमकश और तड़प यदि दिखाई देती है तो वह मलय हैं। मलय पहले कवि हैं जो मुक्तिबोध की बेचैनी और आत्मसंघर्ष को लोक की बुनियाद से जोड़ते हैं और उसके जरिए आधुनिक समर्थ भाषा की प्राप्ति करते हुए अपने निजी संकट को सार्वजनिक संकट के रूप में ढालते हैं। मलय की कविताओं को पढ़ना और उनकी कविता की रचनात्मक गहराई तक उतरना साधारण काम नहीं है क्योंकि कविताओं की यह ऊपरी जटिलता उनकी रचना प्रक्रिया का अहम हिस्सा है। यदि हम थोड़ी सी सावधानी रखें तो अर्थ पकड़ में आ जाता है। और जब एक कविता अपना अर्थ खोल देती है तो बाकी कविताओं के अर्थ उस अर्थ से जुड़ते चले जाते हैं। तमाम कविताओं के तमाम अर्थ अर्थ और कथ्य का विस्तारित आयतन प्रस्तुत होकर मलय के जीवनानुभव और भाषा के परत दर परत टकरावों को अभिव्यक्त करने लगता है। लोक और प्रकृति ये दो वाह्य उपादान हैं जो मलय की कविता में जोरदार हस्तक्षेप करते हैं। मलय दोनो उपादानों का प्रयोग करते हैं मगर इन उपादानों की निजी सत्ता अपने जटिल अनुभवों से नियन्त्रित रखते हैं। उसे स्वच्छन्द या कल्पना और अमूर्तन के भरोसे नही छोड़ते हैं। प्रकृति का अमूर्तन करते हैं मगर वह अनुभव की परिधि से बाहर नही होती है। जैसे-जैसे बिम्ब टकराते हैं वैसे-वैसे कवि के विचार भी टकराते हैं इन टकरावों का तारतम्य जीवन की हस्तक्षेपकारी संगति का निर्माण करती है देखिए उनकी प्रकृति का एक बिम्ब जो जीवन के तर्क का विन्यास है। ‘ख्याल में रहता है / खंदक खाइयों का / एक बीहड / और थरथराती हवा सी / जलती लहर / एक उम्र का हिसाब किताब / अभी शेष है' (कवि ने कहा) यहाँ तनाव है। तनाव वही जो एलन टेट की सैद्धांतिकी में है। यहाँ तनाव ही इस जटिल बिम्ब का तर्क है और जीवन की संश्लिष्टता का कारण भी है। जीवन के खंदक आया है। न कि खंदक यहाँ स्वतन्त्र है। लहर आदि की सार्थकता जीवन के अभाव और छीजते ऊष्मा का बोधक है। मलय की रचना प्रक्रिया के प्रकृति सम्बन्धी उपादान जीवन के तर्क के साथ ही बिम्बविधायनी कल्पना में शरीक होते हैं। इन सभी उपादानों रंगों और ध्वनियों बहावों प्रतिरोधों को मिलाकर वह जीवन के वैयक्तिक संघर्षी फलक का विस्तार करते हैं, वह प्रकृति को प्रेरणा ही नही अन्तर्वस्तु बनाते हैं। वह साममाजिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में भी वर्गीय विभेदों की प्रकृति का आदत का मूल्य का विश्लेषण करते हैं। उनका एक बिम्ब देखिए जो कवि ने कहा है संकलन से उदधृत है ‘पानी / अपनी तरलता में गहरा है /अपनी सिधाई में जाता है /झुकता मुड़ता / नीचे की ओर / जाकर नीचे रह लेता है /अन्धे कुओं तक में / पर पानी / अपने ठंढे क्रोध में / सनाका हो जाता है। ठंढे आसमान में चढ़ जाता है । तो हिमालय के सिर पर बैठ / सूरज के लिए भी / चुनौती हो जाता है यहाँ सर्वहारा की वर्गीय अवस्थिति और उसकी पहचान का बिम्ब प्रकृति के माध्यम से रेखांकित किया गया है । मलय की कविताओं में उपस्थित प्रकृति किसी भी कविता में भाववादी या रौमैन्टिक प्रकृति नही है वह जीवन की जटिलतम , कठिनतम संरचनाओं और अनुभवों के संग भेदकता और खण्डित धारण किए हुए अस्मिता की चुनौतियों के रूप में उपस्थित हुई। अभिव्यक्ति के इसी तर्क को लोग जटिलता कहते हैं। दरअसल जब वो प्रकृति को स्वतन्त्र मानकर उसके आकर्षक लब्बी लुबाब के साथ अठखेलियाँ करते तो आलोचकों को ऐसे बिम्ब अधिक भाते। क्योंकि हम सब इसी छायावादी रचनाधर्मिता के आदी हैं।


             मलय की कविताएँ पाठक और आलोचक दोनो को बेचैन करती हैं वह चमकदार सुगढ़ और लोकप्रिय कविता के कवि नही है, न ही जीवन अनुभवों की असम्बद्धता बेतरतीबी के कवि है, वह आत्मचेतस आत्मविस्तार के कवि हैं। उनका आत्मविस्तार मुक्तिबोध से थोड़ा पृथक है। उनकी चेतना भटकती नही है, वह भयग्रस्त नही होती, मैदान छोड़कर भागती नही है। वह तमाम परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करती है। भटकती इसलिए नहीं है कि उन्हें कुछ खोजना नहीं है वह अन्वेषी कवि नही है उन्हें सब कुछ स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है इसलिए वह सीधे बात करते हैं। वह किसी अनजान और अपरिभाषित दौड का हिस्सा न होकर स्वयं में ही अर्थ का संधान कर लेते हैं, टकराते हैं, पीडित होते हैं, स्वप्नी को थकाते हैं पुनः उठते हैं और नए जोश के साथ दो-दो हाथ करने के लिए डट जाते हैं। मुक्तिबोध और मलय की चेतना में यही बड़ा अन्तर है। उनकी आत्म उपस्थिति उनका आत्म संघर्ष है। यही कविता की प्रक्रिया है। अधिकांश कविताओं को पढ़ते समय लगता है मानो सब कुछ कवि के साथ घटित हो रहा है यह बनावट उनकी कविताओं का सचेष्ट आत्मविस्तार है ‘याद के बढ़ते / गहराते ताप में / ढलकर / मिट जाने के सिवाय / हीरा हो जाता हूँ। तुम्हारी / चमक को समेटकर / किरणलीला कौधों से लबालब / भरा हुआ / क्या यह / आग पीकर / जीने का/ जलता हुआ/ समय है' देखने में यह प्रेम कविता है मगर इस कविता में कई तरह की अर्थच्छवियाँ गुम्फित हो गई है। और ये अर्थच्छबियाँ कवि की आत्म उपस्थिति को आत्मसंघर्ष की सार्वजनिक भंगिमा तक ले जाती है। समय और युग पर भीषण प्रहार करती यह कविता कवि के जीवन और बोध के साथ उसकी रचनात्मक विनिर्मिति को भी आलोचित कर देती है। जीवन और जगत् के विलक्षण और प्रयोगधर्मी बिम्ब मलय की कविताओं में सहज देखने को मिल जाते हैं। परिवेश की नाकारात्मक गतिविधियों से खुद को टकराते हुए उन सबसे पार निकल जाने की ईमानदार कोशिश मलय की कविताओं में देखने को मिलती है। यही ईमानदार 


                                                           


कोशिश उनकी लोकचेतना का महत्वपूर्ण बिन्दु है। मानवीयता से गहरा लगाव और लोकमानस में जुड़कर जीने की अदम्य इच्छा उन्हें बार-बार गाँव जवार के अभाव ग्रस्त समाजों और हासिए पर दमित पड़ी अस्मिताओं की सीमा में दाखिल कर देती है जहां पर वह उदारता के साथ विद्रूपता और बिडम्बना के चित्र तैयार करते हैं ‘इकलौते खेत में / फसल काटती / माँ ने / गले और कमर में । गमछे के छोरो से बाँधकर / बच्चे के लिए / झोली को / पालना बनाया / और पीठ पर लटका लिया' यह बिम्ब भी संश्लिष्ट है मलय भावों और यथार्थ के संश्लिष्ट बिम्ब गढने में माहिर हैं। यदि आपने खेत में काम करने वाली मजदूर स्त्री को देखा होगा तो यह बिम्ब अधिक अबूझ नही रहेगा। मजदूर माँ की बेबसी का भाव और वात्सल्य की पसीने और सहानभति से भीगी हुई अनभति इस कविता को करूणामूलक लोकधर्मिता से बरबस जोड़ देती है। यह वही करुणामूलकता है जो तुलसी और त्रिलोचन और भवानी प्रसाद मिश्र में हैं। मलय अपनी अलहदा और विवेकशील लोकदृष्टि के कारण स्वतः तुलसीदास, भवानी भाई, त्रिलोचन की परम्परा से जुड़ जाते है। उनकी लोकधर्मिता उनके युग और जीवनबोध की प्रतिध्वनि बनकर उपस्थित होती है वह लोक की उस संकल्पना से अलग हैं जिसमे मनोरम व्यापारों और रौमैन्टिक भावावेश का संघटन रहता है। मुक्तिबोध जिस संघर्ष को व्यक्त कर रहे थे मलय भी उसी शिल्प मे उसी आत्मसंघर्ष को व्यक्त कर रहे थे बस अन्तर यह था कि मुक्तिबोध जीवन से कटकर थे और मलय जीवन से सटकर थे। इस सम्बन्ध में मैं उनकी कविताओं में आए अन्धेरे की चर्चा करना उचित समझता हैं। अन्धेरा हिन्दी कविता में बहुत से कवियों की रचनात्मक शक्ति का स्रोत रहा है। मुक्तिबोध बिम्बों की जटिल लड़ियों के सहारे अन्धेरे का कलात्मक विस्तार करते हैं तो कुछ कवि मसलन निराला उसे युग की निरीहता, दुरूहता, संकट, भयावहता, से जोड़कर देखते हैं। तुलसीदास और राम की शक्तिपूजा में जो अन्धेरे का जिक्र आया है, वह युग का सांस्कृतिक संकट है। मलय अन्धेरे के सन्दर्भ में मुक्तिबोध की बजाय निराला की टेक्निक को ग्रहण करते है। यह अन्धेरा शुरुआती दौर से लेकर अब तक की कविताओं में है मलय का साथ अनवरत अन्धेरों से रहा। यह सच भी है मलय का समय संकट का समर था पहले औपनवेशिक शक्तियों की करतूतों का अन्धेरा उसके बाद साम्राज्यवादी पूँजी के हमले का अन्धेरा रहा फिर भी कवि अन्धेरे मे लोक की फर्स पर सिसकती हासिए की बहुसंख्यक आबादी पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और उनके जीवन से लेकर आँखों तक में पैठ बना चुके अन्धेरे से मुठभेड़ करता है । ‘उजेले में भी / अन्धेरा सर्प काटता है। आँखो के पार होकर / तबाह हो जाता है / घमंड की कुण्डलियों से घिर कर बैठा हुआ है' यह अन्धेरा चेतना विहीनता की स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपने वास्तविक यथार्थ को भूलकर आभाष के अहंकार में डूबा हुआ है। इसी अन्धकार ने तमाम परिवर्तनों और सक्रिय चिन्ताओं को खत्म कर दिया है। यही अन्धेरा है जिससे हर कवि मुठभेड़ करता है। बस लड़ता है टूटता है हारता है थकता है मगर फिर भी अन्धेरा खत्म नही होता है। मलय भाषा मे डूबकर बँधकर लिखने वाले कवि हैं अन्धेरे की यह फंतासी उनकी जीवन दृष्टि के साथ एकमेव होकर कवि व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति को अलग टोन प्रदत्त करती है। वह इस अन्धेरे से टकराने की भाषा अपने पास रखता है और अपनी भाषा के साथ ही वह अपनी पराजय और असमर्थता को भी जाहिर करता चलता है। यह असमर्थता कवि की नही है अपितु लोकतन्त्र की असमर्थता है- 'किरणों की गैतियों से / अँधेरे का पहाड़ / खोदता हूँ। तो वह गहराता है /गहराता ही जाता है। मलय युग की ओर अपनी असमर्थता का प्रबोध अन्धेरे से देते हैं, वह अन्धेरों के उजली गलियारों की ओर बढ़ते है। कई उनका अन्धकार पारदर्शी सघनता लिए हुए उपस्थित होता है तो कई बार जटिल और अभेद भावों की सघनता के साथ उपस्थित होता है ऐसा इसलिए होता है कि मलय के बिम्ब इतने गतिशील होते हैं कि कवि उनके साथ बड़ी दूर तक यात्रा करता चला जाता है और जब तक बिम्ब को परिदृष्य के साथ संगत नही कर देता तब तक वह नही कंपाऊ लौटता है। उनकी कविता ‘अकाल कुतरता नहीं इस सन्दर्भ में पढ़ी जा सकती है। अकाल का वर्णित परिदृष्य भीषण और कंपाऊ है इसमे भूख से बिलबिलाते लोग लोहे की सिल्ली चबाने की कल्पना से ही सुख अनुभव करते हैं। इस कविता के बिम्ब अकाल की भयावहता को ही नहीं व्यजित करते अपितु भूख से त्रस्त मानव को अमानवीय होने की प्रक्रिया को भी खोलते हैं ‘भूख और भाषा कितनी सगी है। / कि अकाल की आँखें मुझे घूर रही हैं' भूख आदमी को अमानवीय बनाती है और भाषा को असभ्य। इस परिस्थिति मे भाषा भी घृणा का वाहक होती है सब पशु होते हैं। मानव नही होते हैं। इस कविता में भूख से जूझ रहे लाखों लोगों की तड़प है, बेचैनी है, दुख और द्विविधा का दंश झेल रहे समुदायों की चित्कार है। कवि की लोकधर्मिता और उसकी गहन संवेदना का वास्तविक आधार इस लम्बी कविता से भली प्रकार समझ जा सकता है।


          लम्बी कविताओं के लिहाज से मलय एक सफल और बेहतरीन कवि हैं उनकी रचनाओं की बुनावट और संस्कार छोटी कविताओं के लिहाज से उपयुक्त नहीं हैं। लम्बी कविताएं कथात्मक या प्रगीतात्मक होती है। लम्बी कविता के अपने रचनात्मक जोखिम भी हैं। सबसे बड़ा जोखिम है रचनात्मक कसाव को लम्बे फलक पर साधकर अपने युग की बेचैनियों बिडम्बनाओं और समस्याओं को गॅथ देना। यदि कसाव पर कवि का मन टिकेगा तो युगबोध कमजोर होगा और यदि कथ्य को उपेक्षित किया गया तो कविता सार्थक वक्तव्य नही बन सकती है। मलय के पास लम्बी कविताओं का शिल्प है वह फंतासी बिम्बों विधानों के द्वारा अपनी बात नाटकीयता के साथ कह सकते हैं। मलय की लम्बी कविताओं का शिल्प इन्ही औजारों पर टिका है। बाकी वह सब की तरह बेचैनी और तनाव रखते है पर इन बेचैनियों को लोक के प्रति आत्मीयता से अच्छा खासा विस्तार देने में वह सफल होते हैं जैसे धूमिल सफल हुए है। मलय के सम्बन्ध में मैंने शुरुआत में ही कहा था कि उनकी कोई भी अनुभूति और बेचैनी वैयक्तिक नही होती है। वह सार्वजनिक होती है वह वैयक्तिक होते हुए भी सार्वजनिकीकरण करते चलते है। वह अकेलेपन और सन्त्रास के कवि हैं मगर इस सन्त्रास में भी एक सामूहिकता है एक विस्तार है और एक औदात्य है। जो किसी भी लम्बी कविता को महाकाव्यात्मक शिल्प से जोड़ सकता है। इस सन्दर्भ में उनके कविता संग्रह काल घूरता है कि कविताओं को परखा जा सकता है एक उदाहरण देखिए कविता है सूखी नदी ‘अब एक सफेद अन्धकार / रेत की किरकिराती काटती चुभन सा हो गया है । एक सूखी नदी / भखराई मैदानी माटी में । केवल सन्नाटा / हजारों मील दूर खोई पुकार की तरह जी पाने / और एक तीर की तरह भटकता हुआ छोड़ता / अन्धा अन्दाज सा है' मलय की प्रदीर्घ कविताएं आख्यानों से बँधी हैं, लयात्मक विधान तो है ही मगर कथातत्व का होना इन कविताओं को वृहद बना देता है। यह आख्यान परम्परा विशुद्ध भारतीय परम्परा है। एक तरफ तो यह पुरातन महाकाव्यों की रीति से जोड़ती है तो दूसरी तरफ लोकजीवन की विकट स्थितियों का आख्यानात्मक साक्षात्कार भी कराती है। इन आख्यानों में महानगरीय जीवन के बिम्बों के साथ ग्राम जीवन भी थिरक उठा है। काल घूरता है में केवल लम्बी कविताएं हैं और सभी का परिवेश ग्राम्य और आम जीवन है। लोकजीवन के अन्तर्विरोधों को लेकर ही कविताओं का आख्यानात्मक पहलू रचा गया है। अपनी शैली फन्तासी और अपने अनुभव स्रोत लोक का बेहतरीन ताल मेल कर देना मलय का सबसे बड़ा रचनात्मक जोखिम है उनकी लम्बी कविता खटिया झिलगू हो गई को देखिए ‘धार की भाषा / सिली पर चुपचाप / विचार के पानी में सिंचती है खींचती है। चाल की लहर के साथ /भविष्य की रेखाएँ खेलती है उसमे अभ्यास करती हैं धक्कों का अड्चन को चूरन में बदलने का / उड़ा देने परखच्चे पत्थर सी लकड़ी के / धार की भाषा जब खुलती है / धक्कों से खुलती है' मलय मूलतः आत्मचेतस लोकधर्मी कवि हैं आस-पास के परिवेश में छिपी असाधरण वस्तुओं और प्रकृति को वह अपनी वस्तुवादी चेतना के साथ ही समालोचित करते हैं। यही उनकी गतिशीलता है जो उनकी लम्बी कविताओं को युग की बेचैनी से लबालब भर देती है और समग्र कविता को एक ही अटूट बिम्ब में जकड़कर एक औपन्यासिक इकाई के रूप में तब्दील कर देती है। लोकधर्मी कविता के इतिहास में यदि मलय के टक्कर की लम्बी कविताओं को देखा जाए तो ऐसी कविताएं धूमिल विजेन्द्र, त्रिलोचन, सुधीर सक्सेना के पास ही दिखाई देती है। वह निरर्थक खोज से अलग हटकर आलोचना के लिए भी चुनौती पेश करते हैं। वह दृश्यों और बिम्बों के अबाध प्रवाह के द्वारा अपनी लम्बी कविताओं को मानव चेतना का मुक्ति राग बना देते हैं। इस सन्दर्भ में उनकी इंतजार करता, अकेला, नाम भूल जाते हैं, उठता हूँ, चेतावनी होता हुआ, सूखापन छेदता हूँ, आदि कविताएँ पढ़ी जा सकती हैं। मलय साहित्यिक राजनीति और कुचालों से दूर बेहद सरल और सीधे व्यक्ति हैं। स्वाभाविक था एक दूर दराज के कवि की लोकसमर्थ भाषा कुलीनों को पसंद नहीं आएगी। इसी नापसंदगी ने हिन्दी के एक बड़े कवि को लोकधर्मी कविता के बड़े कवि को तमाम चर्चाओं से दूर रखा। कविता सम्बन्ध में कहा जाता है कि जिस कविता को पढ़कर कवि की वास्तविक जमीन और उस जमीन की प्रभावी संस्कृति का पता न चले तो कविता किसी काम की नहीं होती है। कवि के अनुभव राग सम्वेदन में तब्दील होकर भाषा की विनिर्मिति करते हैं। इसी भाषा के सहारे कवि के लोक का पता चलता है। लोकधर्मी आलोचक कविता से इतर कवि के व्यक्तित्व को नही देखता। फूको का यह कथन कि ‘सत्ता जब तरल हो जाती है तो संरचना के पोर पोर में काबिज हो जाती है। इसका आशय यही है जो कवि अपनी वैयक्तिक सत्ता को सार्वजनिक सत्ता में डुबो देता है, उसकी रचना उसके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति बन जाती है। हो सकता है कलावादी फूको के इस तर्क को न स्वीकार करें मगर भाषा के संघर्ष में यह रचना प्रक्रिया सर्वथा नई भाषा की तलाश करती है। मलय की भाषा में यही प्रक्रिया प्रभावी है। फूको का यही कथन प्रभावी है। भाषा नई है, रियलटी के लिहाज से पूर्ण परिपक्व भी है। इस भाषा के लिए किसी भी तकनीकि व पड़ताल की जरूरत भी नहीं है। वह स्वतः तकनीकि है और कवि के अन्तर्ग्रथित व्यक्तित्व की पड़ताल है। उनकी भाषा का सबसे खास गुण है कि उसमे अनुभवों व संवेदन मिश्रित इमेज का भंडार है। वस्तुओं का उल्लेख वस्तुवादी अन्दाज में हैं लेकिन जब बिम्बविधायनी शक्ति अपना काम करने लगती है तो यही वस्तुपरकता यथार्थ की वास्तविकता सा दिखने लगता है। यह कला बहुत कम कवियों में पाई जाती है ‘भगवत रावत, सुधीर सक्सेना, विजेन्द्र, शम्भु बादल, हरीश भादानी नासिर अहमद सिकंदर में इस गुण को देखा जा सकता है जो वस्तुपरक वर्णन में रागात्मक बिम्ब सृजित करने की कुव्वत रखते हैं। मलय इस नजरिए लोकधर्मी कविता के श्रेष्ठ कवियों में शुमार करने योग्य हैं। उनकी एक कविता हैं। अक्षर। इस कविता को देखें, सामान्य वस्तुपरकता से बौद्धिक भाव बोध का बिम्ब कैसे बनकर तैयार होता है। ‘दिमाग पर / चलती हुई आरी के / क्रूर अहसास का समय है यह / रद्दी में छिपे / जीवन की तलाश का / समय है यह यह इमेज अकारण नहीं है। यह मुठभेड़ है अपने अर्थ के लिए इमेज पहले कवि की रचनात्मकता से मुठभेड़ करते हैं फिर अपने सुनिश्चित अर्थ दायरे को तोड़ते हुए एकाधिक अथ को व्यजित करने लगते हैं। इमेज के माध्यम से व्यंजना की धमक अपने आप में नया कलात्मक अवदान है जिसे क्लासिकल समीक्षा के दृष्टिकोण से अच्छा कहा जा सकता है। कविता में आए इस इमेज को देखिए ‘तुम बगीचे की सोंधी गन्ध हो / जमीन और पानी की जड़ों का विस्तार / तुम्हारे अंगों में गसा हुआ है। तुम्हारे होठों पर झरने रुके हुए हैं। इस कविता में कवि का वाच्यार्थ कहीं भी सक्रिय नहीं है वह हर इमेज के साथ अपने गूढ़ अर्थ की ओर बढ़ रहा है और अन्त होते-होते कविता को व्यंजना में तब्दील कर देता है। मलय की कविताओं को यदि आधुनिक समीक्षा मूल्यों के आधार पर परखा जाए तो अपने समकालीनों से अलग दिखाई पड़ते हैं। यह लक्षण उस भ्रम का खण्डन है जो कहते हैं कि लोकधर्मी कविता आधुनिकता को अभिव्यक्त करने में अक्षम है। दर असल कविता की रचना रचना नहीं होती, पुनर्रचना होती है। एक रचना तो उस समय होती है जब कवि अनुभव अर्जित करता है तो दूसरी रचना उस समय होती है जब वह अनुभव को इमेज की आकृति प्रदत्त करता है। यही कारण इमेज व्यापक सम्भावनाओं की ओर अपने आप मुड़ जाते हैं यदि अनुभव की गहराई व यथार्थ जन्य भाषा न होती तो सोनी की कविताएँ आधुनिक विचारधाराओं और सिद्धांतों की व्यंजना न कर पातीं। वास्तव में इन कविताओं के पीछे कवि के वर्गीय संस्कार और वर्गीय परिस्थितियाँ ही प्रभावी हैं, जहां किसी तरह का बनावटीपन नही है, जैसा कि आज की उच्चमध्यमवर्गीय कविताओं में देखा जा रहा है। देखिए। मलय की कविता का एक उदाहरण। इस कविता का रचनाकाल चाहे जो हो पर समस्या आज की है। यहाँ पहचान व्यक्ति की नहीं वर्ग की है। यदि कवि वैयक्तिक पहचान के लिए जूझ रहा होता तो कविता जनवादी न होती। जहाँ भी पहचान की बात होती है तो उस व्यक्तित्व की होती है जो व्यवस्था की दुराभि सन्धियों के बीच खण्डित हो जाता है यह कैसा आधा व्यक्तित्व / तुम्हारा या मेरा / अलग अलग साँझ या सवेरे का घेरा'। यह व्यक्तित्व का विस्तार भी है और उसकी नियति भी। कवि अपने निजी दायरे को तोड़कर विस्तार पा रहा है। यही विस्तार उसे कविता की उस मान्यता से जोड़ता है जिसे मुक्तिबोध कहते हैं ‘कोशिश करो / कोशिश करो / जीने की / जमीन में गड़कर भी'। कवि की सार्थकता उसी सामाजिक पहचान मे हैं और कविता की सार्थकता निजी से सार्वजनिक हो जाना हैं। यह आधुनिक विचार डिक्लास होने की प्रक्रिया भी हैं। और निजता का सार्वजनीकरण भी है। वैचारिकता और लोक के प्रति आग्रह मलय को भटकाता नही है। कभीकभी लोक की आसक्ति कवि को सामन्ती रीतियों के पक्ष में खड़ा कर देती है। वह अतीतवाद, रोमेन्टिसिज्म, आधुनिकता विरोध के पक्ष में खड़ा कर दिया जाता है। लोकधर्मी कवियों में इस अवगुण के दर्शन हो जाते हैं। न केवल लोकधर्मी अपितु अपने आपको जनवादी कहने वाले कवियों में भी इस अवगुण का अभाव नहीं है। मलय अपनी भाषा को नया संस्कार देते हैं। ऐसा करते हुए भी वह मौलिक अन्दाज को भंग नही करते है। उसी अन्दाज को साधन बनाते हैं इसलिए वह अपनी जिम्मेदार भाषा में अपनी वैचारिकता को सही सलामत बचा लेते है। उनकी एक कविता है दुख के आगे। इसका एक अंश देखिए इस रात में भी / सितारों जैसे / हजार लोगों से मिलता हूँ । हिलता हूँ अंन्दर तक / अपनी जमीन से जड़ों में छनता हूँ। यह मिस्टिसिज्म नही है। न उपमानों की भरमार है। सपाट भाषा है और उसी सपाटपन में गुंथी वाक्रोक्ति है जिसके तहत कवि अपनी वर्गीय अवस्थिति को बता दे रहा है। कवि किसानी संस्कारों का है। स्वाभाविक है उसका लगाव मिट्टी से है। जिस कवि का लगाव अपने लोक से होता है तो वह कविता के लिए मुहावरे और कला भी अपने लोक से निचोड़ लेता है। उनकी कविता है आत्मकथ्य। इस कविता में विधानों और मुहावरों का अनुपम प्रयोग देखिए ‘और ज्यादा हुआ / तो चट्टान की / तरह टूटा / टुकडा टुकड़ा / खपच्चियों में खटा बटा / सबके पावों के नीचे'। मलय की कविता में जितने भी उपमान आते हैं जितना कलात्मक विधान है वह विधान होकर उनकी अपनी संस्कृति है। विधानों में अपनी कार्य संस्कृति का यह अनुप्रयोग कम कवियों में प्राप्त होता है। शायद ही उनकी कविताओं में दूर की कौड़ी मिले। जो भी है उन्हीं के परिवेश में उपलब्ध है। यही कविता में सांस्कृतिक वर्चस्व। यही वर्चस्व अनुभूति को भाषा मे बसाकर रखता है। कहा जाता है कि कविता भावों का प्रवाह है। भाव का प्रवाह उसकी नियति है। मगर कुन्तक कहते हैं-काव्य की अवधारणा भाषिक होती है। भाषा बिम्बों से प्रकट होती है। जब काव्य भाषा मे गुम्फित बिम्ब संवेदना, संज्ञान, अनुभूति, कौशल सब समाहित होने लगते हैं तो कविता अपने आप जन की व्यापक सत्ता से अपना सम्बन्ध जोड़ने लगती है। मलय की अधिकांश कविताएं अनुभवों का जटिल संसार रचती हैं। इस जगत की रचना में आजकल बहुत से कवि असम्भव सा रैटारिक रचकर चमत्कृत होने और करने का अनुचित प्रयास करने लगते है। पर मलय अनुभव से ऊर्जस्वी भाषा के साथ विचारों को अमली जामा पहनाते हुए कविता की सामान्य मनोभूमि में पाठक को विचरण करने के लिए छोड़ देते हैं। इस सन्दर्भ में फन्तासी बद्ध अनुप्रयोगवाली कविताओं को पढ़ा जा सकता है। इन कविताओं में वैविध्यपूर्ण प्रयोगों की तालबद्धता देखी जा सकती है। उनकी कविताओं को देखकर मुझे लगा कि कविता लिखना उनकी प्राथमिकता नही है। न ही इमेज देना उनकी जरूरत है, न भाषा का नयापन उनका ध्येय है। वह कविता लिखने की हर बनावटी शर्त से रहित हैं। वह कविता में अपने युग की यातनाओं, विभ्रमों, असंगतियों, विसंगतियों, त्रासदियों व करतूतों को समेट लेना चाहते हैं। मतलब रचना से आधिक कहन प्रभावी है। कला के लिए। अतिरिक्त आयास नहीं है। वह उतना ही है जो उनकी मौलिक भाषा के साथ खुद बखुद चला आया है। न कला आयातित है न मुद्दे आयातित हैं बल्कि बार-बार अपने नागरिक समाज की ओर लौटने की जिद भरा आग्रह है जो साठोत्तरी कविता से अधिक चौकन्ना और आज की कविता से अधिक समझदार व नक्सलवादी कविता से अधिक क्रान्तिकारी है। कवि की संवेदना का मूल व्याकरण अपने समय के साथ होने के वावजूद भी समय के आगे है समय की सीमाओं को लाँघता है। अपने समय के आगे और पीछे दोनों जगहों पर वह कहीं भी फिट हो सकते हैं। फिर भी ऐसा कवि हिन्दी मे असमय ही समाप्त कर दिया जाता है। और उसकी इस हत्या पर कोई शोरगुल नहीं होता। हिन्दी कविता के इतिहास में जैसा व्यवहार इस कवि के साथ। हुआ। वैसा किसी के साथ नहीं हुआ, निश्चित तौर पर मलय लोकधर्मी कविता के बेहद जरूरी कवि है। वह आभिजात्य सौन्दर्यबोध की परम्परा ही खण्डित नही करते हैं। आभिजात्य भाषा के मानक व बुर्जुवा तत्व कलीनभाषा को भी नकारते है।                                                                                                सम्पर्क : बबेरू, बाँदा, मो. नं. : 9838610776