आलोचना - आश्वस्ति भी, उम्मीद भी - डॉ. अनिल राय

दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग में प्रोफेसर


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       अपने कविता संग्रह ‘एक सुन्दर लड़की चाहती है' में कविता में अपनी भागीदारी के बारे में आत्म-वक्तव्य रखते हुए कवि वेद प्रकाश का कहना है‘कविता करना अपने समय को समझना है। मैं यह समझते हुए जिन्दगी को कविता में जीने का प्रयास कर रहा हूँ।' वह पुनः कहते है- 'मैं एक मनुष्य की तरह रहना चाहता हूँ। इस मनुष्य को कविता में खोजने का एक छोटा सा प्रयास है। मैं चाहता हूँ कि कविता और मनुष्य एक हो जाए। ‘कवि की दृष्टि में समय, जीवन और मनुष्य के साथ कविता का सम्बन्ध अविभाज्य है और वह अपने काव्यात्मक उपक्रमों में इसी सम्बन्ध के सत्य को उपलब्ध कराने का यत्न करता है। कवि ही अपनी स्वीकारोक्ति में यह नहीं कह रहा, बल्कि उसकी कविताएँ भी अपनी समकालीनता में अवस्थित व्यापक मानवीय जीवन के साथ अपने रिश्ते को इसी रूप में परिभाषित करती नजर आती हैं।


      इस संग्रह की कविताओं का अन्व॑स्तुजगत काफी विविधता से भरा हुआ है। हमारा अपना समय अपनी समूची विडम्बनाओं के साथ इनमें मूर्त होता दिखता है। मनुष्य और जीवन की बहुरूपात्मक छवियाँ और उनकी गति-क्रियाएँ आज के यथार्थ का एक व्यापक दृश्यालेख रचती हुई, यहाँ मौजूद हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि इन कविताओं का रचनाकार अपने समग्र परिवेश की जिन सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मितियों के बीच रह रहा है, जिस आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितिक के बीच साँसें ले रहा है, विचाराधरात्मक आधारों पर उसकी पहचान और चरित्र-निरूपण के वस्तुगत विवेक के बावजूद वह अनुभूतियों तथा संवेदनाओं की रचनात्मक भाषा में संवाद करना अधिक पसंद करता है। कवि की इस पसन्द का सम्बन्ध कविता की स्वाभाविक प्रकृति की समझ से है। कविता की सामाजिक भूमिका और जनपक्षीय चरित्र की समझ एक बात है और उसकी स्वनिष्ठ प्रकृति अथवा खुद के स्वभाव की समझ बिल्कुल दूसरी बात। अनेक रचनाकारों के यहाँ यह द्वैत अथवा अद्वैत के संवेदनशील सत्य के प्रति कई तरह की बेपरवाहियाँ दिखती रहती है। जाहिर है, कि एक प्रभावशाली कला-रूप के प्रसंग में ऐसी शिथिलताओं की परिणतियाँ अक्षम्य होती हैं और सृजनशीलता की दुनिया में इन्हें महत्व और सम्मान नहीं प्राप्त हो पाता।


वेद प्रकाश काव्य-कला के इस संवेदनशील पक्ष के प्रति एक अत्यन्त सचेत रचनाकार के रूप में व्यवहार करते देखे जा सकते हैं। इनकी सजगता के कारण ही ज्ञान और विचार की प्रक्रिया में भी कविता को अपरिहार्य कलात्मक तत्व प्रायः सुरक्षित बचे रह सके हैं और उनकी काव्यात्मकता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ सका है। इस संग्रह की अनेक कविताओं का इस संदर्भ में उल्लेख किया जा सकता है। शीर्षक कविता ‘एक सुन्दर लड़की चाहती है, से लेकर ‘एक निवेदन', 'औरतें', 'एक फूल । मुझे भी दो', 'माँ', 'जब पहली बार मैंने देखा', 'समय आ गया है', 'दीया मिर्जा’, ‘स्कूल से घर जाती हुई' आदि कविताओं में वस्तु और कला के इस संश्लिष्ट स्थापत्य को गहराई से अनुभव किया जा सकता है। वेद प्रकाश की दृष्टि में उनकी उस सुन्दर लड़की की आकांक्षाओं का बिम्ब कुछ इस रूप में आकार ग्रहण करता दिखता है- ‘एक सुन्दर लड़की चाहती है/आदमी में बचा रहे आदमी/ पेड़ों पर हरे पत्ते आकाश का नीलापन/धरती में उर्वरा/ ....... / एक सुन्दर लड़की / अपने को मिटा कर/ बीजों की आँख से / धरती फोड़ कर/झांक रही है। हाँ! यही उसकी दुनिया है। ‘यह पूरी कविता एक सुन्दर रचना का उदाहरण बन पड़ी है। यह कविता की संवेदना और अभिव्यक्ति के कौशल के आन्तरिक सन्तुलन से बनने वाली समग्र संरचना का साक्ष्य है। चरित्र-केन्द्रित कविता होने के कारण विचार और संवेदना के कलात्मक संयम की अपेक्षाएँ यहाँ कुछ अध्कि ही थी, पर कवि ने पूरी कुशलता के साथ अपनी प्रकृति में इस विशिष्ट और असाधारण व्यक्तित्व की रचना सम्भव की है। वस्तु-संवेदना की अपरिमित सम्भावनाओं को इस कविता जैसी एक सीमित संरचना के भीतर उपलब्ध कर लेना कवि के सर्जनात्मक कौशल की ही फलश्रुति है। इस कविता को क्या लड़की के सन्दर्भ में ‘सुन्दरता' के प्रचलित मानदण्डों के नए विकल्पों के प्रस्ताव के रूप में देखा जा सकता है? इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।


         इस आलेख की आरम्भिक पंक्तियों में कविता औरसमय के अन्त:सम्बन्धों के बारे में कवि के विचारों की चर्चा की गई थी। प्रत्येक सचेत रचनाशीलता अपनी समकालीनता से एक आलोचनात्मक रिश्ता बनाती है। समय का सच अपरिहार्यतः कहीं-न-कहीं, किसी-नकिसी रूप में रचना को प्रेरित-प्रभावित करता है। इस संग्रह की कविताओं में अनेक रूपों-छवियों के साथ यह समय प्रतिबिम्बित होता हुआ दिख सकता हैं कहीं बहुत मूर्त-मुखर रूप में, तो कहीं अत्यन्त प्रच्छन्न रूप में। पर, है वह हर जगह मौजूद। यदि कोई कविता 'समय आ गया है' जैसे बहुत मूर्त और स्पष्ट शीर्षक के साथ रची गई हो, तो अपेक्षा की जा सकती है कि यहाँ कविता में समय का कोई महत्वपूर्ण और जरूरी सन्दर्भ जाना-समझा जा सकता है। कवि वेद प्रकाश के सामने उनके समय का दुर्निवार-सा प्रतीत होता भयावह रूप खड़ा है।


        यह कविता समय की क्रूरताओं का बर्बर अमानवीय भीषण रूपों का आख्यान नहीं रचती, यह वर्चस्वी शक्तिसंरचनाओं के निष्करूण चारित्रिक अभिवक्षणों का डरावना दृश्यावलेख नहीं निर्मित करती। यह सब न करते हुए भी यह अपने समय का एक जरूरी बयान बनकर, समय में एक सार्थक हस्तक्षेप का आह्वान करती दिखती है। समय की आतंककारी विद्रूपताएँ पृष्ठभूमि में हैं, जिन्हें कविता के शब्द-विधान में प्रत्यक्ष मौजूद नहीं देखा जा सकता, पर पंक्तियों के अन्तराल में, अथवा उनकी पृष्ठभूमि में उनकी उपस्थिति अनुभव की जा सकती है। इस अनुभव के बरक्स वह आह्वान अधिक महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक होता जाता है, जो कविता के पाठक से एक हस्तक्षेपकारी क्रियाशीलता की मांग करता हैं ऐसे डरावने समय में कवि के पास प्रतिरोध वह आह्वान अधिक महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक होता जाता है, जो कविता के पाठक से एक हस्तक्षेपकारी क्रियाशीलता की मांग करता है। ऐसे डरावने समय में कवि के पास प्रतिरोध की आकांक्षा और साहस बचा रह गया है, यह अर्थपूर्ण है। यह परिवर्तन और सृजन की नई सम्भावनाओं की पूर्व शर्त है- ‘समय आ गया है। तीखा और तेज बोलने का/कलम की धर तेज करने का/शब्दों को पैनापन/मुहावरों से दूर/साफ-साफ/बिना लाग-लपेट के/मुंह पर ही कह देने का/समय जब चला जाता है।आदमी वहीं रह जाता है। उसके सामने एक खुला आकाश/दूर तक फैली वीरान धरती/हवाओं की सांय-सांय/लोगों को डराती रहती है।....../ समय आ गया है।सोच लो/समझ लो लिख लो/मुंह मत देखोमुंहतोड़ जवाब दो यही समय तुम्हारी हिफाजत करेगा। ‘ऐसी निश्चयात्मक भाषिक संरचना प्रतिरोध-मूल्य के प्रति गहरे विश्वास से पैदा होती है। इस संग्रह की अनेक कविताओं में सकर्मक प्रतिरोध की ऐसी अनुगूंजे स्पष्ट सुनी जा सकती है- “तुम कैसे भाग सकते हो किरणों की सवारी/बादलों की आर्द्रता/पक्षियों का गुंजन/ तुम जंगल का शोर/तुम सबकी आवाज/नाभिनालब्द्ध है। तुम हिंसा के विरोध में/निर्भय खड़े हो कर/ प्रतिरोध की आवाज में/एक नए स्वर में/चिघ्घाड़ सकते होलोग डरे हुए हैं/तुम्हारी आवाज/उन्हें हिम्मत देगी।' विरूद्धताओं के चेहरे अनेक हैं, तो उनके निषेध के लिए किए जाने वाले उद्यमों के भी विविध रूप है। जीवन और समाज के ऐसे सभी क्षेत्रों पर कवि की सतर्क दृष्टि है, जहां से संघर्ष और परिवर्तन के लिए कुछ किए जाने की सार्थकता सम्भव है। 'तुम कब तक भागोगे' शीर्षक इस कविता की प्रश्नवाचकताकविता के प्रस्थान-बिन्दु पर ही उत्तर-निर्देश में तब्दील होजाती है। अनेक सामाजिक भूमिकाओं में मानवीय सामर्थ्य के विभिन्न रूप तलाशती यह कविता एक उत्कट जीवन संशक्ति और प्रतिबद्धता की प्रतिष्ठा करती है। इस संग्रह में ऐसी कविताएं भी मौजूद हैं, जहां कवि निराश-हताश मनोदशाओं में आता जाता दिख सकता है। ‘एक शायर की कथा' शीर्षक कविता सामाजार्थिक-राजनीतिक परिवर्तन के क्रान्तिकारी सपने देखने वाले एक कवि के शब्दों के अकेले पड़ते जाने की मार्मिक कथा का काव्यात्मक वाचन है। इस कविता में भूत और वर्तमान के दो समय-संदर्भो के बीच की शक्ति और सौन्दर्य की ध्रुवान्तक अवस्थितियों का निरूपण हुआ है। इस कविता को शायर की त्रासदी सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगों में लगी हुई परिवर्तनकामी शक्तियों की त्रासदी बनती हुई नजर आती हैं। एक समय था कि जब वह एक मुक्कमल शायर था/वह दुनियादार नहीं था। वह पहचानता था लोगों को वह पक रहे खाने में/चूल्हे की लकड़ी होना जानता था। उसकी दुनिया किताबों से भरी थी। वह नंगी आंखों से भाषा पहचान लेता।' परन्तु आज का समय यह है कि जब ‘शायर टूटी चप्पलों से नापना चाहता है।दुनिया/शायर थक गया है,वह चाहता है। बोलना/ उसके हाथ हवा में लहरा रहे हैं।लोग चुप हैं।लोगों की चुप्पी कूटनीति से भरी/राजनीति का हिस्सा है।शायर तो सबका है।लोग शायर के नहीं/अभी लोगों ने अपने घर से बाहर/झांकना ही नहीं सीखा।' समय और इतिहास का यह विपर्यय कवि की दृष्टि में बेहद त्रासदी भरा है और यही कारण है कि उसने अपनी कई कविताओं में अलग-अलग तरह से इसकी उपस्थिति दर्ज की है। जड़ता और यथास्थिति के ये सन्दर्भ काल्पनिक नहीं हैं। समाज में, परिवेश में-ये सन्दर्भ मौजूद हैं और कविता में इन्हीं के सहज विश्वसनीय प्रतिरूपण के प्रयत्न हैं। इस विपर्ययों के दबाव में भी कवि में स्वप्न और संघर्ष के प्रति एक आवेगपूर्ण उदग्रता अनुभव की जा सकती हैं। यही कवि का अपना हस्तक्षेप है, उसका अपना रचना-केन्दित प्रतिरोध है।


           इस संग्रह की कविताओं में एक स्पष्ट राजनीतिक विचार-प्रक्रिया की मौजूदगी ध्यान खींचती है। यह कविदृष्टि में ही विन्यस्त है। इसकी अभिव्यक्ति राजनीति विषयक प्रकट यथार्थ में ही नहीं, जीवन की सम्पूर्ण निर्मिति और उसकी व्यापक सामाजिकता में सांस और धड़कन की तरह देखी-अनुभव की जा सकती है। वेद प्रकाश की कविताओं में इसकी अभिव्यक्ति का एक रूप वहां है, जहां वह यह प्रश्न करते दिखते हैं कि- 'यह कैसी तुम्हारी राजनीति/ समाज का एक हिस्सा जो तुम्हारा दाहिना या बायां हाथ था/हाथ तो हाथ है/कोई अपना हाथ काटता है क्या?' कवि की यह राजनीतिक चेतना विषय के रूप में हर जगह इतनी प्रकट नहीं है। कवि की कला-चेतना उसकी राजनीतिक चेतना के सर्जनान्तरण का कौशल भी जानती है। यह कौशल वहां साफ-साफ देखा जा सकता है, जहां कवि कहता है- 'आइए, हम/मिल-जुल कर एक साथ/एक पौध लगाएं जिस दिन यह पेड हो जाएगा/हम इस पेड़ की छाया में होंगे/टहनियों में होंगे/पंछी कलरव करेंगे/धरती की छाती/नीली-नीली हो जाएगी/एक ऐसी/किताब चाहिए/जो किसी धर्म के समर्थन या/खिलाफ में न लिखी गयी हो। किसी ऐसे आदमी का जिक्र हो जो दिनभर लकड़ी काटता होरिक्शा चलाता हो, कपड़ा धोता हो। सफाई करता हो, रोटियाँ पकाता हो/अपनी मां के लिए दवा खोजता हो। प्रेमिका के आंचल के लिए/अपनी पगड़ी उतार चुका होदे दो न! एक किताब ऐसी/यदि तुम्हारे पास है। मैं भी तुम्हारे साथ/देर तक चलना चाहता हूँ।' बताने की जरूरत नहीं कि मिल-जुल कर पौध लगाने के प्रस्ताव के साथ एक-दूसरे के संग दूर तक चलने की आकांक्षा के सांस्कृतिक पदविन्यास में एक निभ्रान्त राजनीतिक प्रतिज्ञा मौजूद है। राजनीतिक आशयों के कलात्मक रूपान्तरण की यही वे जोखिमभरी जगहें हैं, जहां वेद प्रकाश की काव्य-निपुणता । के प्रति पाठक का मन कुछ अधिक आश्वस्त नजर आता है।


             वेद प्रकाश की कविताओं में उनकी वयस्क रचनाशीलता के पर्याप्त साक्ष्यों के बावजूद उनसे और बेहतर रचे जाने की अपेक्षा है। इस संग्रह की कविताओं में उनकी सृजनशीलता अनेक जगहों पर हमें आकर्षित करती है, बांधती है और विचार-बोध-संवेदना के गहरे संस्तरों तक ले जाती है। पर, ऐसी कविताएँ भी हैं, उनमें ऐसी अनेक जगहें भी हैं, जहाँ कवि की अनुभूतियां, उसकी चिंताएं बहुत मूर्त और प्रकट हैं। उनके लिए किसी रचनात्मक पाठ-प्रक्रिया की, किसी अन्वेषण-उद्यम की जरूरत नहीं पड़ती।


            कई रचनात्मक विच्युतियों के बावजूद इस संग्रह की कविताओं में कवि वेद प्रकाश ने अनुभव, ज्ञान और भाषा के एक वैविध्यपूर्ण संसार की अन्तर्यात्रा में अनेक मूल्यवान उपादान अर्जित किए हैं, जिनसे कविता का एक मुकम्मल रसायन तैयार होता है। वेद प्रकाश की यह यात्रा एक अच्छी और सुन्दर कविता का अपना वांछित गन्तव्य उपलध करती देखी जा सकती है। इस कवि की रचना यात्रा की उपलब्धियां आश्वस्त करती हैं और उम्मीद भी। पैदा करती है।


                                                                                            गोरखनाथ मन्दिर, राजेन्द्र नगर-पश्चिम, भॉटी विहार,                                                                                                           गोरखपुर-203015, मो. नं.: 9936837945