22 जुलाई 1951 को ग्राम जमुनिहाई जिला सतना मध्य प्रदेश में जन्म। 1972 से मध्य प्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक। अब अवकाश प्राप्त। दो वर्ष तक मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल में संचालक और संयुक्त संचालक के दायित्वों का निर्वहन। कविता और आलोचना की कई पुस्तके प्रकाशित
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रंगकर्म न तो आसान है न बहुत कठिन। वह सचमुच एक तरह का टीमवर्क है। वह कहाँ-कहाँ से खुलता है और उसकी अन्वितियाँ और उसका आन्तरिक संसार कहाँ-कहाँ पाया जाता है? वह कहाँ-कहाँ व्याप्त होता है। बिना जी जान से जुटे रंगमंच के व्यापक संसार को खोजा ही नहीं जा सकता। रंगकर्म में दुनिया की सभी कलाएं बिराजती हैं। रंगकर्म को आप कैसे देखते हैं, कैसे ग्राह्य करते हैं। जो नाट्य कृति केवल शब्दों में होती है उसे रंगमंच में कैसे सशरीर और आत्मा से उपलब्ध किया जाता है। यह मेरी दृष्टि में एक तरह का चमत्कार ही है। रंगमंच कर्म में समूची दुनिया सजती है। समूची कला विधाएं जीवन्त होती हैं। कोई कलाकार पूरे एक डेढ घण्टे अभिनय करता है और उसका बहुत व्यापक प्रभाव नहीं पड़ता। एक अभिनेता ढाई तीन मिनट में ऐसा प्रभाव छोड़ता है कि वह वर्णनातीत होता है। और वह लम्बे समय तक दर्शक में जीवन्त रहता है। यह है रंगकर्म की दुनिया। नाटक में क्या-क्या गुंजता है? नाटक में कितने तरह की ध्वनि तरंगे रूपायित होती हैं, इसका कोई ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगाया जा सकता। रंगमंच में निर्देशक उपस्थित न होते हुए भी उपस्थित रहता है। उसका निर्देशक खुलकर खेलता है। यदि समझ बूझ के साथ नाटक खेला जाता है तो उसका प्रभाव आश्चर्यचकित करता है। नाटक और रंगमंच की गतिकी (डायनमिक्स) को समझना हमेशा कठिन होता है। रंगकर्म में जो बाहर दिखाई पड़ता है, उसका नाभिकेन्द्र अन्दर ही अन्दर अंत:क्रिया करता है।
जयशंकर प्रसाद के नाटक रंगमंच की दृष्टि से बहुत प्रभावी नहीं कहे जा सकते । स्वयं प्रसाद जी अपने समय के नाटकों को बहुत उत्साहवर्धक नहीं मानते थे। हालांकि उनके नाटक स्वयं कामयाबी के सूत्रसृष्टा नहीं हैं। उनके नाटकों का एक पक्ष यानी उनका कवित्व ज़रूर प्रभावशाली है। लेकिन रंगमंच से टकराकर वह बार-बार बिखर जाता है। हालांकि उनके नाटक रंगमंच की दृष्टि से हमेशा चुनौतीपूर्ण रहे हैं। फिर भी उन्हें मंचित किया गया है। उसके ऋण धन जरूर हैं। बी.ए. में उनका नाटक ‘स्कन्दगप्त' पढता था और एम.ए. में ‘चन्द्रगम' । कालांतर में अध्यापक की हैसियत से इन्हें पढाया भी और बाद में स्नातक स्तर पर उनका प्रसिद्ध नाटक ध्रुवस्वामिनी मुझे कई दृष्टियों से आश्चर्यजनक और उत्साहवर्धक लगा। स्त्री के मान्य मूल्यों के सन्दर्भ में यह बेमिसाल है। स्त्री की पारम्परिक छवि के बरक्स यह उसकी हैसियत को उजागर करता है। ध्रुवस्वामिनी एवं अजातशत्रु महत्वपूर्ण हैं। ध्रुवस्वामिनी का पात्र रामगुप्त अपनी क्लीवता और नपुंसकता में और डर की चहारदीवारी में कैद है। ध्रुवस्वामिनी स्त्री स्वतंत्रता का । उद्घोष करने वाला भी है। नारी की आजादी पर बहस तो अब हो रही है। लेकिन उसकी शुरुआत ध्रुवस्वामिनी से मुखर हुई थी। कालांतर में उसका शनैः-शनैः विस्तार ही हुआ है। स्त्री का द्वन्द्व और अन्तर्द्वन्द्व ध्रुवस्वामिनी नाटक का । मूल स्वर है। ध्रुवस्वामिनी पारम्परिक शास्त्रवाद को चुनौती देती है। स्त्री के सन्दर्भ में बिखरी हुई मान्यताओं से टकराती है और स्त्री का एक नया दिनमान भी रचती है।
जयशंकर प्रसाद कवि, कथाकार, नाटककार एवं समीक्षक रहे हैं। उनकी प्रतिष्ठा मुख्यत: कवि एवं नाटककार के रूप में है लेकिन सभी विधाओं में उनकी आवाजाही रही है, इससे उनका लेखन समृद्ध हुआ है। छायावाद की समूची विशेषताएं उनकी रचनाशीलता में अंतर्भूत हैं। एक सामान्य व्यापारी के यहाँ जन्म लेकर उन्होंने भारतीय संस्कृति के मुख्य उपादानों और विशेषताओं को अपनी रचनाओं में वाणी दी है। 'कामायनी' छायावादी दौर का महत्वपूर्ण महाकाव्य है। उनकी रचनाशीलता में इतिहास और अतीत की महती भूमिका है। वे इतिहास के माध्यम से वर्तमान या अपने समय के सवालों से जूझते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों को अच्छी तरह से जाँच परख कर अपने तई उससे पूरी तरह आश्वस्त होकर उन्होंने रचनाएं लिखी हैं। संभवतः इसीलिए उनके यहाँ ऐतिहासिक तथ्य बहुत व्यवस्थित रूप से सामने आते हैं। हाँ, यह सही है कि कुछ चीजें वे अपनी तरफ़ से रखने के लिए छूट भी लेते हैं। उनके लिखित नाटकों में चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, ध्रुवस्वामिनी और जनमेजय का नागयज्ञ में इतिहास, पुराण, किवदंतियां, सभ्यता और संस्कृति का विभिन्न संदर्भो में नई तरह से किवदंतियों, जनश्रुतियों का प्रयोग भी हुआ है। इतिहास के अंदर प्रवाहित विचार और भाव को वे समकालीन संदर्भ में जांचते और परखते हैं। उनका समूचा वाड्मय इतिहास को अपने आगोश में ले लेता है। अपने छात्र जीवन में मैंने उनका स्कन्दगुप्त और चन्द्रगुप्त नाटक पढ़े थे और बाद में अध्यापक के रूप में ध्रुवस्वामिनी को पढ़ाया भी। जैसा प्रसाद जी तथ्यों के आधार पर सूचित करते हैं कि इतिहास में वास्तविक नाम तो ध्रुवदेवी है। उन्होंने उसे ध्रुवस्वामिनी के रूप में रचा है।।
जहाँ तक नाटक और रंगमंच का सवाल है, वे भारतीय नाट्यशास्त्र, साहित्य शास्त्र में रंगमंच और नाटक की अवधारणा को अपनाते हुए, पाश्चात्य रंगमंच, पारसी रंगमंच, भारतीय रंगपद्धतियों से भी गुजरे। वे अन्य नाट्य सिद्धान्तों का भी रचनात्मक इस्तेमाल करते हैं। इस दृष्टि से उनके नाटक जहाँ एक ओर शास्त्रीय हैं, वहीं दूसरी ओर आधुनिक भी हैं। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नाटक और रंगमंच के संदर्भ में जो विचार विमर्श किया था, प्रसाद का रंगमंचीय दृष्टिकोण उसके आगे का विकास है। प्रसाद जी के नाट्य सिद्धान्तों में जो नवीनता है, वह अपने समय, समाज और परिस्थितियों की नवीनता है, इसलिए उन्होंने अपने लिए जो रंगमंच सम्बंधी आधार चुना और उसकी जिस तरह व्याख्या की उनका यह चिंतन उनकी समीक्षात्मक पुस्तक ‘काव्यकला और अन्य निबंध में ज्यादातर संकलित है। रंगमंच में उनका यह प्रयोग अत्याधुनिक है। उनके नाटक सहज रूप में अभिनेय नहीं है। उसका मूल कारण है कि वे भारतीय प्रतिमानों को अपर्याप्त मानते हैं। वे पारसी रंगमंच और लोकनाट्यमंच की तरफ़ भी जाते हैं इसलिए उनके नाटकों के बारे में अक्सर कहा जाता है कि प्रसाद जी के नाटक न तो सुखांत है और न दुखांत बल्कि वे प्रसादांत हैं। हालांकि यह अवधारणा उन्हें अतिरिक्त किस्म की गरिमा देने के लिए प्रचारित की गई है। उनके नाटकों को मंचित करना आसान काम नहीं है। अनेक निर्देशकों को उनके नाटकों का मंचन करने में असुविधा हुई। उसके निर्देशक को अपनी कल्पनाशीलता भावप्रवणता, विचारशीलता एंव आधुनिक दृष्टि का प्रयोग भी करना पड़ता है। या यूं कहें कि उनके यहाँ कोई बनाबनाया फार्मूला काम नहीं आता। मंचन को सार्थक बनाने के लिए ब्रेख्त के रंगमंच के पास भी जाना पड़ता है। अलवत्ता प्रसाद जी ने अपने नाटकों में लोकरंगमंच को अलग-अलग रखा है। शास्त्रीयता का भरपूर तत्व होने के बावजूद उनके नाटक निर्देशक के लिए हमेशा चुनौती रहे हैं।
नन्ददुलारे वाजपेयी मानते हैं- 'ध्रवृस्वामिनी में उन्होंने यथार्थवादी संवाद, रंगमंच और प्रणाली अपनाई है। कथोकथन स्वाभाविकता के अधिक समीप है। इसमें पाश्चात्य रीति से चमत्कार प्रधान रचना का उपक्रम किया गया है।'' (जयशंकर प्रसाद-पृष्ठ १५८, १५९) वाजपेयी जी का यह कहना सही नहीं है कि यह समस्या प्रधान नाटक नहीं है। जबकि यह समस्याओं के केन्द्र में है। हिन्दी । साहित्यकोश में कहा गया है कि- “ध्रुवस्वामिनी की मुख्य समस्या नारी जीवन और विवाह से सम्बद्ध है। धर्म शास्त्रों का विरोध प्रसाद ने नहीं किया, पर उन्होंने इस प्रश्न पर आधुनिक दृष्टि डाली है।''
जहाँ तक ध्रुव-स्वामिनी का सवाल है, यह नाटक इतिहास को नए संदर्भ में और अपने समय की चुनौतियों के साथ नए प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में खड़ा करता है। ध्रुवस्वामिनी प्रसाद जी का ऐसा नाटक है जो विधिवत अभिनेय है। कुल तीन अंको का यह नाटक यथार्थवाद के पारम्परिक ढाँचे को तोड़ देता है। मेरे लिहाज से ध्रुवस्वामिनी प्रसाद जी की कथ्य संरचना और शिल्प प्रविधि के संदर्भ में भी बेजोड़ है। इस नाटक के केन्द्र में भारतीय नारी की समस्या है। वह भारतीय नारी जिसे शब्दों में भावमयता में तो बहुत मान्यता मिली है, किन्तु यथार्थ जीवन में हमेशा लाछना, प्रताड़ना, दुख, शोषण और अन्याय मिला है। ये स्त्रियाँ अनेक संदर्भो में आज भी स्त्री दलन के प्रसंगों में बरकरार हैं। ध्रुवस्वामिनी इस दृष्टि से उनके प्रतिरोध की आवाज है। हमारे देश में पुनर्जागरण और नवजागरण आया। था, उसी के परिप्रेक्ष्य में ध्रुवस्वामिनी को देखा जा सकता है। ध्रुव-स्वामिनी की कथा यूँ तो ऐतिहासिक है, किन्तु प्रसाद जी ने उसे परंपरा से बाहर निकालने का प्रयास किया है। भारतीय मनीषा में नारी के लिए जो अवरोध खड़े किये गये, ध्रुवस्वामिनी उसे स्वीकार नहीं करती। ध्रुवस्वामिनी का कथ्य मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। नशे की स्थिति में रामगुप्त उसकी क्लीवता, नपुंसकता और क्या महत्वपूर्ण नहीं है? ऐसे पति का ध्रुवस्वामिनी द्वारा अस्वीकार विचारोत्तेजक और विस्फोटकारी कार्यवाही भी है। ध्रुवस्वामिनी का पहला अंक एक तरह से समझौते का पहला प्रयास था कि किसी भी तरह भारतीय दाम्पत्य जीवन मूल्यों की रक्षा की जाए, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली और यहीं से ध्रुवस्वामिनी के व्यक्तित्व में भारतीय नारी की मर्यादा, उसकी संघर्षशीलता और किसी भी स्थिति में हार न मानने का जज्बा पैदा होता है। क्या यह त्रासद प्रसंग नहीं है कि एक पति अपनी पत्नी को अपने शत्रु शकराज के पास भेजने का गर्हित निर्णय लेता है। ध्रुवस्वामिनी का अनुरोध भी बेकार जाता है। तभी तो वह अपने प्रेमी चन्द्रगुप्त के साथ मिलकर परिस्थितियों के सन्नाटे को तोड़ती है और शकराज के विरुद्ध युद्ध करते हुए उस पर विजयश्री प्राप्त करती है। यह विजयश्री केवल शकराज के साथ ही नहीं वरन अपने पति रामगुप्त के खिलाफ भी है।
ध्रुवस्वामिनी के कथ्य के विकास में किसी प्रकार की हड़बड़ी नहीं है। प्राकृतिक वातावरण का निर्माण इसे अर्थवान बनाता है। जैसे- पेड़, पौधे, झीलें, झरने, किले, कलश, कंगूरे आदि को बहुत व्यवस्थित तरीके से चित्रित किया गया है। इनका बहुत वस्तुनिष्ठ उपयोग इसे गरिमा प्रदान करता है। प्रसाद जी की शिल्प संरचना में वस्तुसज्जा का प्रयोग संभावनाओं के कई द्वारा खोलता है। जैसेरस्सियाँ, डोरियाँ, स्तम्भ एवं सीढ़ियों से वे इसे अत्यधिक भव्यता देते हैं। ध्रुवस्वामिनी नाटक के पात्रों की वेशभूषा और समयविधि का प्रयोग इसकी सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति को तेजोदीप्त करता है। ध्रुवस्वामिनी की कथा का विकास शनैः-शनैः होता है। पहले अंक में ध्रुवस्वामिनी का प्रवेश इस बात को सूचित करता है कि इतने बड़े गुप्त साम्राज्य में महारानी होते हुए भी, उसकी कोई स्थिति और हैसियत नहीं है। उसकी दासी और अन्य लोग उसके साथ जैसा व्यवहार करते हैं, उससे अन्दर ही अन्दर वह अपने आपको अपमानित महसूस करती है। मैं जानती हूँ कि इस राजकुल के अन्तः कुल में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा, जो मुझे आते ही मिला। किन्तु क्या तुम जैसी दासियों से भी वही मिलेगा।'' (पृष्ठ ९) रामगुप्त और शिखरस्वामी जैसे बड़े लोग, गुप्त सामग्रज्य को युद्ध की आग से बचाने के लिए, ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास भेजना ही नहीं, वरन उपहार देने के लिए तैयार भी हो जाते हैं। ध्रुवस्वामिनी जो अब तक स्वाभिमाननी की हैसियत से थी, वह अपने पति रामगुप्त के सामने गिड़गिड़ाती भी है। लेकिन इसका कोई असर रामगुप्त पर नहीं होता। अंत में उसका निर्णय है कि यदि तुम मेरी प्राण रक्षा नहीं कर सकते, तो मुझे किसी दूसरे को सौंप भी नहीं सकते। ध्रुवस्वामिनी अपनी रक्षा के लिए वचनबद्ध होती है और आत्महत्या करना चाहती है, चन्द्रगुप्त उसे ऐसा करने से रोकता है। स्त्रियों के सन्दर्भ में मन्दाकिनी ने एक सवाल उठाया है- “स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्मल और अवलम्बन खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती है और वह सदैव ही इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है तब भी यह बावली मानती है?'' (पृष्ठ ४८) ।
अंक में कोमा और शकराज के प्रेम प्रसंग है। कोमा शकराज से कहती है कि अहंकार में आकर किसी नारी का अपमान करना भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के खिलाफ है लेकिन कोई उसकी बात नहीं सुनता। वह अपने आचार्य मिहिरदेव की बात भी नहीं सुनता। कोमा को मिहिरदेव इस वातावरण से दूर ले जाना चाहते हैं लेकिन कोमा आनाकानी करते हुए अंततोगत्वा जाती है। चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी स्त्रीवेश में शकराज के पास जाते हैं और है। तीसरे अंक में ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और पुरोहित के स्त्रियों की स्थिति के बहाने ध्रुवस्वामिनी के भाग्य का अंतिम परिणाम सामने आता है। इसी में कोमा ध्रुवस्वामिनी से शकराज के शव के लिए निवेदन करती है। अंततोगत्वा पुरोहित का निर्णय है कि ध्रुवस्वामिनी पर रामगुप्त का कोई अधिकार नहीं है। अंत में रामगुप्त का वध होता है और महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जय के साथ नाटक समाप्त होता है।
समूचा नाटक कई दृष्टियों से विचारणीय है। नाटक के सभी पात्र ध्रुवस्वामिनी, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त, शिखरस्वामी, शकराज, कोमा और मन्दाकिनी आदि अपनी सहजताओं और चारित्रिक रूप सज्जा में प्रभावित करते हैं। क्या राजपुरोहित हमें प्रभावित नहीं करता? यह नाटक अन्तर्द्वन्द्वों से युक्त है। इस नाटक में युद्ध के अनेक संदर्भ आए हैं लेकिन प्रसाद जी का कौशल यह है कि केवल शकराज की मुत्यु भर रंगमंच में होती है। बाकी सूचनाओं के माध्यम से समूचे संदर्भो को इंगित किया जाता है। प्रेम के त्रिकोण भी अलग-अलग रूपों में सामने आते हैं। नाटक की प्रभावशीलता का एक महत्वपूर्ण कोण यह भी है कि नाटक के प्रस्तुतीकरण के सिलसिले में बहसें हैं। परिचर्चाएं हैं और वाद विवाद के बहुत सार्थक प्रसंग नाटक की कथावस्तु को और शिल्प संरचना को गतिमान बनाते हैं।
प्रश्न यह है कि क्या स्त्री की कोई मर्यादा है? क्या स्त्री का कोई अधिकार है? ध्रुवस्वामिनी के बहाने समूची स्त्रियों की दशा पर विचार करते हुए पुरोहित का जो निर्णय है वह स्त्री के नए संसार का पुनर्सेजन करता है और हम देखते हैं कि लेखक ने इस बहस को केन्द्र में रखते हुए ध्रुवस्वामिनी के चरित्र पर और उसके पूरे परिवेश पर ध्यान केन्द्रित किया है। जो स्त्री के सम्मान, अधिकार और हमारे समकालीन समय में स्त्री के उत्तरोत्तर विकास की एक घोषणा है। ध्रुवस्वामिनी की वैचारिक, शिल्पगत और रंगमंचीय सफलता केवल उसे बेहतर नाटक के रूप में प्रस्तुत नहीं करती, बल्कि यह नाटक स्त्री के अधिकारों का घोषणा पत्र भी है और नए जमाने में स्त्री के बदलते स्वरूप की ओर भी संकेत करता है। भारत और दुनिया के अन्य देशों में स्त्री पर बातचीत बाद में शुरू हुई जैसे महादेवी वर्मा की पुस्तक 'श्रृंखला की कड़ियाँ', सिमोन द बीउआ की (स्त्री उपेक्षिता) । प्रसाद जी ने १९३३ में ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से स्त्री अधिकारों का प्रस्ताव सुनिश्चित ढंग से रखा था।
ध्रुवस्वामिनी में पुरोहित का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है।‘‘विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रान्तिपूर्ण बन्धन में बाँध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पद दलित नहीं किया जा सकता। माता और पिता के प्रमाण के कारण से धर्म-विवाह केवल परस्पर द्वेष से टूट नहीं सकते; परन्तु यह सम्बन्ध उन प्रमाणों से भी विहीन है। और भी (रामगुप्त को देखकर) यह रामगुप्त मृत और प्रवजित तो नहीं, पर गौरव से नष्ट, आचरण से पतित और कर्मों से राजकिल्विषी क्लीव है। ऐसी अवस्था में रामगुप्त का ध्रुवस्वामिनी पर कोई अधिकार नहीं।'' (पृष्ठ ५५) ध्रुव स्वामिनी के बारे में लगातार विचार विमर्श होता रहा है। रंगमंच विशेषज्ञ श्रीमती त्रिपुरारी शर्मा के शब्दों में चाहे संस्कृत के नाटक करें, चाहे प्रसाद के नाटक करें लेकिन जहाँ हम नाटक खेल रहे हैं, उस समय दर्शक के साथ एक जुड़ाव महत्वपूर्ण होता है। उसे वर्तमान में लाना पड़ता है। उसका जीवन ही वर्तमान है। प्रसाद के नाटक अपने समय में नहीं खेले गए लेकिन अपने समय में महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। कुछ इस तरह की रचनाएं हैं जिसमें एक बात है जो महत्वपूर्ण कही गई है। कुछ इस तरह की रचनाए ज्यादा मेहनत माँगतीं हैं।'' (आजकल, मई २०१६)
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