अरविंद कुमार सिंह - हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार। जनसत्ता से अपना कैरियर आरम्भ कर अमर उजाला और हरिभूमि जैसे कई प्रतिष्ठित अखबारों से जुड़े रहे। सम्प्रति : राज्य सभा टीवी में वे संसदीय और कृषि संबंधी विषयों के प्रभारी। हिन्दी अकादमी, इफको हिन्दी सेवी सम्मान और भारत सरकार के शिक्षा पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित एवं कई पुस्तकों के लेखक।
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गुवाहाटी हवाई अड्डे पर उतरने के बाद दो बजे दोपहर नगालैंड की राजधानी कोहिमा के लिए हम रवाना हुए तो मन में कई आशंकाएं और पहले से बनी धारणाओं ने मन में अजीव सी हलचल मचा रखी थी। गुवाहाटी से नगालैंड जाने के लिए ड्राइवर भी ऐसा मिला, जिसके किस्से कहानियों ने हमारी चिंताओं को और बढ़ा दिया। गुवाहाटी से करीब २० किमी दूर पहुंच कर हमारी गाड़ी चाय पानी के लिए रुकी। बांस के झुरमुटों के बीच बने एक बेहतरीन ढाबे में काफी यात्री थे। कुछ काजीरंगा जा रहे थे तो कुछ नगालैंड। हमारे पड़ोस की कुरसियों पर जमा गुजराती यात्रियों का एक दल इस चिंता में डूबा था कि उनके खाने-पीने का क्या होगा? नगालैंड में तो कुत्ते का मांस तक खाया जाता है और वहां के लोग तो राह चलते सब कुछ छीन लेते हैं। ऐसी बहुत सी बातों ने उनकी चिंताओं को काफी बढ़ा दिया था 1
इस ढाबे से अपनी रवानगी उसी सड़क के मार्फत हुई जो दशकों से अशांति और उग्रवाद से जूझ रही करबी- आंगलांग से गुजरते हुए नगालैंड और मणिपुर की तरफ जाती है। लेकिन हरे-भरे सुंदर जंगलों और चाय बागानों से गुजरती हुई यह सड़क दुनिया के सबसे सुंदर रास्तों से भी सुंदर लगती है। हम थोड़ा आगे चले तो यह समझते देर नहीं लगी कि हमारा ड्राइवर अच्छा-खासा किस्सागो है। छोटी-छोटी कहानियां सुनाते हुए उसने हम पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना शुरू कर दिया था। उसकी कई कहानियों के पात्र नगालैंड जाने के बाद वापस नहीं आए थे। एक पात्र ईसाई बन कर कोहिमा के पास एक गांव में रहने लगा था, जबकि दूसरे का सिर काट कर नगा आदिवासियों ने गांव के गेट पर टांग दिया था। एक आदमी को जादू से गायब कर दिया गया था। खाने-पीने की समस्या पर तो उसकी जानाकारियां काफी रोचक थीं। उसने यह जानकारी भी अजीव ढंग से दी थी कि पांच जाकर बजे के बाद लोग सड़क पर निकलते नहीं और सब कुछ बंद हो जाता है। लोग घरों में कैद हो जाते हैं।
नगा हेरिटेज कॉम्प्लेक्स जहाँ धनेश उत्सव मनाया जाता है
ड्राइवर ने बताया कि वह पहले नगालैंड कई बार गया था लेकिन पिछले आठ-नौ सालों में एक बार भी गया क्योंकि जाने लायक नहीं है वहां। जो लौट कर आए, उन्होंने ऐसे किस्से सुनाए कि जाने का मन ही नहीं हुआ। ड्राइवर की बातों का सार यह था कि नगालैंड जाना बेकार है। जब असम में ही इतना कुछ देखने लायक हैं तो नगालैंड जाकर और पैसा खर्च कर खतरा लेना कोई समझदारी नहीं है। वहां पर कब बंदूकें गरजने लगें और कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। सडक की बुरी दशा पर भी उसकी टिप्पणी दिलचस्प थी, हालांकि हम जहाँ-जहाँ गए सड़क आम तौर पर ठीक-ठाक थीनगाओं के बारे में तो उसने जाने कितनी कहानियां सुना कर हमें एक तिलस्मी दुनिया की सैर करा दी और एक आखिरी सलाह दे डाली कि अगर बहुत जाने का मन है तो दीमापुर पहुंच कर वहां से वापस हो लें।
थोड़ा और आगे जाने पर ड्राइवर ने कहा कि ४०० किमी लंबा जंगलों से घिरा यह पहाड़ी रास्ता एक दिन में पूरा करना मुमकिन नहीं। बेहतर होगा कि हम काजीरंगा में रात्रि विश्राम करें। वैसे गवाहाटी से कोहिमा की दरी ३४६ किमी है। पहाड़ दीमापुर के बाद शुरू होते हैं, जहाँ से कोहिमा केवल ७४ किमी दूर है। लेकिन ड्राइवर हमें मालदार पर्यटक समझ कर किस्सागोई में उलझा रहा था और इसका असर हमारे साथी दुष्मंता बेहरा और प्रणव गोस्वामी के साथ मुझ पर भी पड़ रहा था। मैं हमेशा से ऐसे कई अनुभवों से गुजरा हूं और मानता हूं कि सफर में ऐसा कोई ऐसा मिल जाए तो रास्ता आसानी से कटता है। अब मुंबइया फिल्मों सी उसकी कहानियां नगाओं के रहस्य और रोमांच की ओर घूम रही थीं। बाकी सब ठीक था लेकिन ड्राइवर को इस बात का अंदाज नहीं था कि उसकी सवारियां पत्रकार और लेखक हैं, जिनके संपर्को के दायरे में नगालैंड के लोग भी हैं। हमने उसे आखिरी फैसला सुनाया कि हम नगालैंड के कई इलाकों में जाएंगे, कोहिमा या दीमापुर तक नहीं। उसकी एक बात हमने मान ली कि रात्रि विश्राम काजीरंगा में प्रकृति की गोद में जंगली जानवरों की आवाजों के बीच करेंगे। अगर उसे नगालैंड जाने में परेशानी हो तो हम यहां दूसरी गाड़ी का इंतजाम कर लेंगे।
एक नगा राजा के साथ लेखक खोनोमा किला
वास्तव में जो इलाका दशकों से अशांत रहा हो और लगातार सेना और अर्द्धसैन्य बलों के बूटों की आवाज से गूंजता रहा हो और जहां से खवर के नाम पर केवल बंदूक की गोलियां और वम के धमाके निकलते हों तो वहां से तमाम किस्से कहानियां पैदा होना स्वाभाविक है। फिर भी विदेशी सैलानी इसे पूरब का स्विटजरलैंड कहते हैं। कश्मीर यानि धरती का स्वर्ग आतंकवाद से तबाह हो गया। श्रीलंका का जाफना इलाका इतना सुंदर है लेकिन ऐसा कुख्यात हुआ कि पर्यटक वहां नहीं जाते। पूर्वोत्तर के सबसे सुंदर इलाके भी इसी दशा को प्राप्त हैं। असम से ही इन सबके तार जुड़ते हैं। असम में ही कब आग लग जाए, पता नहीं।
काजीरंगा के एक होटल में रात्रि विश्राम अच्छा रहा। जंगली जानवरों की आवाजें पास से आ रही थीं। सुबह नाश्ता करके हम सात बजे कोहिमा के लिए रवाना हए। थोड़ी देर के बाद सन्नाटा भरे और चारों तरफ घने जंगलों से घिरे इलाके में पहुंचे जहां सड़क सांय-सांय कर रही थी। हम अशांत कहे जाने वाले कारबी-आंगलांग में पहुंच गए थे। यहां के बडे उग्रवादी समूह हथियार डाल चुके हैं, लेकिन कई छोटे-बड़े बनने की फिराक में खड़े हैं। हम बीच में कहीं ठहरे विना लगातार चलते रहे और तीन घंटे में दीमापुर पहुंच गए। एक पहाड़ी नाला और उस पर बना पुल नगालैंड और असम के बीच का विभाजक है। पुल के इस पार बोर्ड लगा है नगालैंड-लैंड आफ फेस्टिवल्स। और असम की ओर पीठ करने पर कारबीआंगलांग आपका स्वागत करता है, यह बोर्ड लगा है।
हमारा स्वागत नगालैंड की पुलिस ने कुछ बेरुखी से किया। ज्यादा ही सख्त चेकिंग हुई। पता चला कि कुछ देर पहले ही दीमापुर में एक बम धमाका हुआ था जिसमें एक आदमी की मौत हो गई थी। इस नाते चौकसी बढ़ गई थी। तो भी हमें नगालैंड पहुंचने का संतोष था। चेकिंग के बाद इनर लाइन परमिट दिखाया। फिर आगे वढे और चार-पांच दिनों के भ्रमण और कई नगा अधिकारियों, विद्वानों, राजनेताओं और पत्रकारों आदि से मिल जुल
कर यहां के बारे में काफी कुछ जाना समझा। बिना सुरक्षा के हम तमाम जगहों पर गए और कई धारणाएं टूटीं। हालांकि असम रायफल्स के एक बड़े अधिकारी ने मुझे काफी आतंकित करते हुए सुझाव दिया था कि हम सुरक्षा ले लें। लेकिन उसकी जरूरत पड़ी नहीं।
नगालैंड को लेकर जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन सच यह है कि यह भारत का अनूठा और जीवंत पहाड़ी राज्य है। साल भर चलने वाले उत्सवों और नगा बहादुरों की भूमि। यहां की संस्कृति में अनगिनत रंग समाए हैं। पहाड़ियों के बीच-बीच में आबाद नगा गांवों में आम तौर पर लोग सीधे, सरल, सच्चे और मेहमाननवाज तो हैं ही, उद्यमी और परिश्रमी भी हैंलेकिन हम इनको जानते कितना हैं। और जो जानते भी हैं, वह कुछ दूसरा ही रूप है।
अरसे तक परिवहन साधनों के अभाव और अशांति के नाते नगालैंड मुख्यधारा से कटा रहा। तमाम फौजी और कारोबारी यहां से लौट कर जाने कितनी कहानियां गढ़ कर नगाओं को रहस्य भूमि बनाते रहे। आजादी के इतने सालों बाद भी यहां जो पर्यटक आते हैं वे पहले से बनी धारणाओं से ग्रस्त होकर हद से हद दीमापुर और कोहिमा के आसपास से ही जाकर लौट आते हैंअसली नगालैंड को देखने और समझने का मौका कम ही लोगों को मिल पाता है।
कोहिमा का विहंगम दृश्य
नगालैंड अब पहले जैसा नहीं है और वहां के हालात सामान्य होते जा रहे हैं। आम नगाओं को भी यह समझ में आ गया है कि वे अब नहीं चेते तो देश-दुनिया से कटे रह जाएंगे। इसी नाते यहां तमाम क्षेत्रों के साथ आर्थिक गतिविधियों का विस्तार हो रहा है। आम लोगों के साथ प्रांतीय सत्ता की भी सोच बदली है। लेकिन यहां के बौद्धिक लोगों में इस बात का मलाल है कि देश के बाकी हिस्सों के लोग नगालैंड और पूर्वोत्तर भारत के बारे में बहुत कम जानते हैं। वे भी भारत का हिस्सा हैं, हमारे बहुत से लोग भूल गए हैं। यहां का बुनियादी ढांचा कमजोर है, अर्थव्यवस्था कमजोर है, राजनीतिक अस्थिरता रही है और केंद्र सरकार ने भी तमाम राजनीतिक मुद्दों की अनदेखी की।
नगालैंड प्रमुख तथ्य
नगालैंड पहली दिसंबर, १९६३ को भारत का १६ वां राज्य बना था। इसके पूरब में म्यांमार की सीमा है। इससे अरुणाचल प्रदेश, असम और मणिपुर की सीमाएं भी लगती हैं। करीव १६,५७९ वर्ग किमी इलाके में फैला नगालैंड पहाडी राज्य है और यहां पर केवल असम घाटी की सीमा से लगे कुछ इलाकों तक ही मैदान सीमित है। यहां की आबादी देश की आबादी का महज ०.१६ फीसदी है। करीब २० लाख लोगों वाला नगालैंड देश का पांचवां सबसे कम आबादी वाला प्रांत है। आबादी घनत्व है ११० व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर। आदिवासी बहुल इस राज्य में साक्षरता दर ऊंची है। यहां की प्रशासनिक इकाई में १४५० गांव, ११४ उपजिले, ११ जिले आते हैं। शहरीकरण के बाद भी नगालैंड मुख्यतया गांवों का ही प्रदेश है। यहां २६ कस्बे हैं, लेकिन अधिकतर बहुत छोटे। नगालैंड में यहां लोकसभा की एक और विधानसभा की ६० सीटें हैं। यह दिलचस्प तथ्य है कि इसकी ५९ सीटें जनजातियों के लिए आरक्षित है और सामान्य सीट महज एक है। यहां सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी है।
नगाओं का इतिहास पुराना होने के बावजूद अल्पज्ञात है। वे अरसे तक दुनिया से कटे और अपने में मस्त रहे। १२ व १३ वीं सदी में हालांकि वे अहोमों के संपर्क में आ चुके थे लेकिन इसका नगाओं के जीवन पर कोई फर्क पड़ा हो इसकी जानकारी नहीं मिलती। अंग्रेजी राज में भी वे अलग-थलग रहे। अंग्रेज उन पर काबिज होने की कोशिश में लगे तो उनको नगाओं की बहादुरी का अंदाजा हुआ। नगा पूरी ताकत से लड़े और अंग्रेजों को उन पर काबिज होने में एक सदी लग गई१८६६ में नगालैंड को सीमांत जिला बनाया गयाआजादी के बाद १९५७ में इसे केंद्र शासित प्रदेश बना कर नगा हिल्स तुएनसांग नाम देकर प्रशासन असम के राज्यपाल को सौंप दिया गया। लेकिन इससे असंतोष के ऐसे बीज पैदा हुए कि १९६३ में राज्य बनाने के बाद भी शांत नहीं हुए और तब तक यहां उग्रवाद ने जडे जमा ली थीं।
प्रकृति नगालैंड पर खास मेहरबान रही। यहां की हरी-भरी घाटियां, साफ-सुथरी नदियां, ऊची पहाड़ियां और हरीतिमा ले लेकर एक से एक वनस्पतियां चुंबक सीखीचती हैंनगालैंड के क्रिफिरे जिले में सबसे ऊंची चोटी माउंट सारामती है जो ३,८४० मीटर ऊंची है। कोहिमा की मानसूनी जलवायु हैऔसत बारिश २,५०० मिमी होती है। नगालैंड में वनाच्छादित क्षेत्र ८५ फीसदी से अधिक और १४.२२१ वर्ग किमी में है।
नगालैंड के जंगलों में इमारती लकड़ियों के साथ एक से एक दुर्लभ वृक्ष संपदा है। १३० फीट ऊंचा और ११ फीट से अधिक चौड़ा गिनीज बुक में शामिल रोडोडेन्ड्रान का पेड़ भी यहीं है। निचली पहाड़ियों के जंगलों में एक से एक वन्य जीव हैं। यहां के लोग विशाल भारतीय धनेश पक्षी की दुम के लंबे परों को पारंपरिक वेशभूषा में उपयोग में लाते हैं और जानवरों की खोपड़ियां तक सजावट के काम लाते हैं। नगालैंड में खनिज संपदा भी काफी है। लेकिन केवल निम्न श्रेणी के कोयला भंडारों का ही खनन होता है। यहां अनेक दुर्लभ पशु-पक्षी प्रजातियां और वनस्पतियां हैं
आदिवासी जीवन के रंग
नगालैंड में १६ प्रमुख जनजातियां निवास करती हैं। हरेक की अपनी परंपराएं बोली और अलग पहनावा है लेकिन इनमें आपस में एकता के तार भी जुड़े हैं। संगीत आदिवासी जीवन का अहम हिस्सा है। यहां की मुख्य जनजातियों में आंगामी, आओ, चेखीसांग, चेंग, कोन्याक, लोथास, फोम, रेंगमा, सेमा, जिलियेंग हैंइनका ताल्लक मंगोल वर्ग से माना जाता है। इनकी बोली- भाषा अलग-अलग है। लेकिन हिंदी को ये आसानी से समझ लेते हैं और संकोच के साथ बोलते भी हैं।
वैसे तो सदियों से प्रचलित नगा शब्द बाहरी लोगों की देन है। इसका प्रचलन कब शुरू हुआ, ठीक पता नहीं। जनजातियां कब और कैसे आकर बसीं, इस पर भी खास रोशनी नहीं पड़ती। फिर भी प्रमुख आदिवासी समुदायों की लोक कथाओं से संकेत मिलता है कि अलग-अलग काल खंड में वे अपने दलों के साथ चीन से म्यांमार और मणिपुर होते हुए नगालैंड पहुंचे थे।
नगालैंड का संबंध महाभारत काल से भी जुड़ता है। यहां के कछारी वंश की राजकुमारी हिडिम्बा के साथ भीम का विवाह हुआ था। महान योद्धा घटोत्कच उनकी ही संतान थे, जिन्होंने महाभारत के युद्ध में भाग लिया था। कछारी प्राचीन जनजाति है जिसकी सभ्यता के अंश दीमापुर के पास टीलों में नजर आते हैं। कछारी साम्राज्य की नींव १०वीं शताब्दी में धनसिरी नदी के तट पर पड़ी थी। नगाओं की एक बड़ी आबादी पड़ोसी राज्यों मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश और पड़ोसी देश म्यांमार में रहती है। यहां का आदिवासी समाज पश्चिमी दुनिया के प्रभाव में काफी पहले आ चुका था और इसे आज पूरव का फैशन केंद्र तक कहा जाता है। आधुनिकता की बयार के बाद भी परंपराएं अपनी जगह कायम हैं।
नगाओं में अरसे तक नरबलि का रिवाज भी रहा हैऔर इसके समर्थन में बाहर का तमाम साहित्य भरा पड़ा है। यह भी कहा जाता रहा है कि कि नगा नरमुंडों के प्रेमी हैं और बाहरी लोगों का गला काट लेते हैं। यह धारणा भी रही है कि तमाम इलाकों में नंगे ही घूमते हैंयहां एक खास इलाके में खून की नदी बहती है जहां पहुंचने पर आदमी का गला खुद कट जाता है। जादू-टोना से लेकर भूत-प्रेत तक जितने मुंह उतनी बातें और कपोल कल्पित कहानियां हैं। ये बातें दरअसल नगाओं को काफी खतरनाक रूप में पेश करती थीं और आज भी उनको लेकर हमारे मन में बहुत सी धारणाएं बनी हुई हैं।
नगाओं पर कभी राजाओं की सत्ता नहीं रही। उनकी दुनिया आम तौर पर गांव के मुखिया के आसपास ही घूमती रही है। केवल कोन्याकों में कई गांवों को मिलाकर एक आंग या राजा बनाने का रिवाज थालेकिन वह राजा मैदानी राजाओं सा नहीं होता था। ईसाई बनने के पहले नगा तीन देवताओं और आत्माओं की पूजा करते थे और उनमें तंत्र-मंत्र का भी प्रचलन था। तीन देवताओं की पूजा आज भी वे अपने त्यौहारों पर करते हैं और उनको प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि दी जाती है। नगा सच्चे दिल और गजब के लड़ाकू हैं। दुश्मनों के दुश्मन और दोस्तों के दोस्त तो ये हैं ही लेकिन अगर दुश्मन दोस्ती का हाथ बढ़ा ले तो शत्रुता भुलाने में भी उनको अधिक समय नहीं लगता है। उनमें कई लड़ाका या मार्शल जातियां हैं।
नगा गावों में प्रवेशद्वार बेहद कलात्मक और सुंदर होते हैं। आप किसी भी गांव में प्रवेश करें तो वहां लकड़ी के बने एक से एक शानदार प्रवेशद्वार आपका स्वागत करते मिलेंगे। ये इन गांवों की हैसियत ही नहीं कला प्रतिभा भी दर्शाते हैं। यहां के जनजीवन में चर्च की भी खास अहमियत है। विधानसभा चुनावों में वापिस्ट चर्च की भूमिका की सराहना चुनाव आयोग भी कर चुका है। नगालैंड में ईसाइयों में ७५ फीसदी बापिस्ट है, जबकि हिंदू यहां आठ फीसदी और मुसलमान दो फीसदी हैं। लेकिन यहां आपस में सांप्रदायिक द्वेष या तनाव नहीं रहता। नगाओं में व्यापक एकता है और आदिवासी गांवों के प्रतिनिधि ही उनकी स्थानीय विकास योजनाओं पर आखिरी मुहर लगाते हैं।
शिमोगा फोर्ट
नगा अपनी पहचान के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। इस पर उनको गर्व भी है। सर्दियों से बचने के लिए वे जो शाल ओढते हैं वे भी उनके समुदायों का बोध कराता है। अलग-अलग जनजातियों के अलग- अलग प्रतीक हैं। जनजातीय समाज की कई विशिष्ट परंपराएं आज भी कायम हैं। मोरंग यानि सामुदायिक भवन अविवाहित युवाओं का शयनागार होता है। पहले यहां खोपड़ियों के साथ तमाम वीरता और विजय चिह्न टांगे जाते थे, लेकिन समय बदला तो भी धनेश, वाघ और तमाम आकृतियों को बना कर इनको जीवित रखा गया है। जनजातियों में कोन्याक बड़े कलाकार और सिद्ध हस्तशिल्पी हैं।
उत्सवों की भूमि
नगालैंड में जनजातियों में उत्सवों और त्योहारों की ऐसी भरमार है कि इसने नगालैंड को उत्सवों की भूमि बना दिया है। उत्सवों में नगा नृत्य-संगीत और लोकगीतों के साथ बहुत सी परंपराओं की झलक मिलती है। इनके लोकगीत और लोककथाएं नगाओं की वीरता, सुंदरता, प्रेम और उदारता का गुणगान करती आ रही हैं। उनके अधिकतर उत्सव खेती बाड़ी से जड़े हैं। अनाज बआई से पहले या बाद में अच्छी फसल होने के लिए प्रार्थना हो या फिर फसल होने के बाद भगवान को धन्यवाद देने की बात हो, वे उत्सव का कोई मौका नहीं गंवाते हैं। उग्रवाद की सालों पुरानी समस्या के बाद भी यहां का आम वातावरण तनाव मुक्त दिखता हैआप नगालैंड के किसी कोने में चले जाएं आपको लोग हंसते-मुस्कराते और तनावमुक्त ही दिखेंगे।
दिसम्बर माह नगाओं के लिए खास होता है और वे क्रिसमस अलग ही अंदाज में मनाते हैं। जनजातियों के अपने-अपने कई त्योहार हैं। उनमें कुछ रस्मों में समानता है। दिमापुर के आसपास की कछारी जनजातियां जनवरी के आखिरी हफ्ते में आठ दिनों का वुशू उत्सव बहुत उल्लास से मनाती हैं, जिसमें बुजुर्गों को खास सम्मान दिया जाता है। कुकी जनजाति जनवरी में मिमकुट उत्सव मनाती है जो दो सफेद मुर्गों की बलि देने से आरंभ होती है। इस खास मौके पर खेत-खलिहान और गांव-गिरांव से लेकर तालाबों तक की साफ-सफाई का अभियान चलता है। इसी तरह कोन्याक छह दिन का आओलेंग उत्सव मार्च-अप्रैल में फसल बुवाई के बाद मनाते हैं। जेलियांग भी फसल बुवाई के बाद मार्च और अक्तूबर में मेलिंगी नचेगानखिया उत्सव मनाते हैं जिसमें जंगली जानवरों से महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना के साथ अच्छी फसल के लिए निवेदन होता है। यिंमचुंगरु पांच दिनों का मेटमनियो उत्सव मनाते है। मई और अगस्त में आओ जनजाति के इलाकों में उत्सवों की धूम होती है।
खेती बाड़ी
देश के बाकी हिस्सों की तरह नगा किसान भी संकट में हैं। हालांकि नगालैंड में अनाज उत्पादन १०वीं योजना के ४.३० लाख टन से बढ़ कर अब ५.११ लाख टन के आसपास पहुंच गया है लेकिन खाद्य जरूरतों में आत्मनिर्भरता आना अभी शेष है। पशपालन व मछली पालन के क्षेत्र में जरूर काफी तस्वीर बदली है और औषधीय पौधों के साथ शहद उत्पादन और जैविक खेती में भी छलांग लगी है। शहद उत्पादन बीते पांच सालों में ७० टन से ३५० टन हो गया है।
नगालैंड में खेती लायक जमीन ७२१९२४ हेक्टेयर है जिसमें से ७० फीसदी २५०० मीटर से ऊंचाई के पहाड़ियों पर है। यहां की९० फीसदी भूमि निजी स्वामित्व में है जबकि करीब एक लाख हेक्टेयर में परंपरागत झूम खेती होती है जिसका चक्र ६ से १० साल होता हैनगा किसान धान, मका, ज्वार, बाजरा, गेहूं, जौ, दलहनी और तिलहनी फसलों के साथ गन्ना कपास जूट, आलू, चाय और बहुत कुछ पैदा कर लेते हैं। लेकिन ७० फीसदी क्षेत्र में धान होता है।
खेती के लिहाज से राज्य के ११ में से छह जिले तुएनसांग, वोखा, मोन, मोकोकचुंग, फेक और जुन्हेवोटो अति संवेदनशील से मामूली संवेदनशील हैं। अधिकतर नगा पारंपरिक प्रजातियों की खेती कर रहे है जो कम उपज देती है। संस्थागत ऋण २० फीसदी से अधिक नगाओं को सुलभ नहीं है। महिलाएं ही यहां खेती-बाड़ी की रीढ़ हैं। चावल ही अधिकतर नगाओं का प्रिय भोजन है सो ७० फीसदी इलाके में धान की खेती होती है। परंपरागत बीजों और प्रजातियों से ७० फीसदी चावल उत्पादन होता है। खेती और सहायक कार्यकलापों पर ही यहां की अधिकतर आवादी निर्भर है। लेकिन खेती उनके लिए घाटे का सौदा बन रही है जिस कारण युवाओं का खेती से मोहभंग हो रहा है।
हस्तशिल्प
हस्तशिल्प में नगाओं का जोड़ नहीं है। सत्तर के दशक तक नगालैंड में सिर्फ बुनाई, लकड़ी का काम, टोकरी और मिट्टी के बर्तन बनाने समेत कई कुटीर उद्योगों का वर्चस्व था। यहां कच्चे माल, वित्तीय संसाधन और बिजली की दिक्कतों के साथ परिवहन तंत्र की खस्ताहाली ने औद्योगीकरण की राह में तमाम रुकावटें पैदा कींआज भी कुछ गिने चुने उद्योग दीमापुर के आसपास हैं। नगा शानदार बुनकर हैं और बांस का भी अनूठा काम करते हैंइससे ये शानदार गहने तक बना देते हैं। इसी तरह लकड़ी के कामों का तो इनका सैकड़ों साल पुराना इतिहास हैनगा औरतें हस्तशिल्प में बहुत पारंगत हैंऔर वे अपनी जरूरत के सारे सामान वे खुद तैयार कर लेती हैं।
शिक्षा के प्रति बढ़ता रुझान
शिक्षा के प्रति यहां लोगों का रुझान बढ़ रहा है और इस क्षेत्र में लड़कियां सबसे आगे हैं। यहां अमेरिकी ईसाई मिशनरियों के आगमन के पहले औपचारिक शिक्षा का प्रचलन नहीं था और सब कुछ मौखिक चलता था। वे लिखित पुस्तकों से अनजान थे। १८८४ के बाद शिक्षा ने गति पकड़ी। नगाओं में बच्चों को सरकारी नौकरी दिलाने का खासा क्रेज है। नगा कबीलों में कई अलग- अलग बोली बोलते हैं। लेकिन अगर एक नगा को दूसरे नगा कवीले से बात करनी होती है तो वे अंग्रेजी या नागामीज में करते हैं जो स्थानीय बोलियों और हिंदी, बंगला और असमिया का मिश्रण है। हालांकि इसकी कोई लिपि और व्याकरण नहीं है। प्रमुख नगा जनजातियों की बोलियां इनकी जाति के नाम से ही जानी जाती है। इसकी अपनी कोई लिपि या व्याकरण नहीं हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ नगा समाज जाग रहा है। उसे समझ में आ गया है कि २१वीं सदी में हम दुनिया के दूसरे हिस्सों से नहीं जुड़े तो बहुत पीछे चले जाएंगे।
खानपान
नगा अतिथि सत्कार में आगे हैं लेकिन उनका खानपान देश के और हिस्सों से अलग हैवे आमतौर पर मांसाहारी हैं और चंद जानवरों को छोड़कर किसी का भी मांस खा सकते हैं। उनके भोजन में बांस की भी कुछ प्रजातियां शामिल हैं। उनका खानपान म्यांमार के लोगों जैसा है। वे खाने में चावल और मांस-मछली जरूर लेते हैं। नगालैंड में आप किसी भी बाजार का चक्कर लगा लें, हरे साग-सब्जियों के साथ रंग-बिरंगे कीड़े-मकोड़े, मेढक और घोंघे तक बिकते नजर आते हैंपानी से भरे पॉलिथिन में एक साथ कई मेढकों को उनका पैर बांधकर ग्राहकों के लिए रखा जाता है। नगाओं के प्रिय भोजन में कुत्ते का मांस है। फिर नंबर आता है सुअर, गाय, मुर्गा, बकरा और मछली का। लेकिन नगाओं में बदलते माहौल और कृषि विविधीकरण के चलते साग-सब्जियों को खाने का रिवाज तेजी से बढ़ रहा है। यहां काफी सब्जियां मिलने लगी हैं। लेकिन सबसे अधिक मांग प्याज की रहती है। प्याज का दाम अधिक बढ़ता है तो राजनीति यहां भी गरमाती है। अव फलों की भी काफी खपत हो रही है।
नगालैंड में राइस होटलों की संख्या काफी है, जिसमें मांस मिलता है। लेकिन कई रेस्तराओं में आसानी से शाकाहारी खाना भी मिल जाता है। नगाओं के भोजन के बारे में यह जानना भी जरूरी है कि सीमित कृषि उपज होने के नाते कंदमूल फल और मांस से अपनी जरूरतों को पूरा करते रहे हैं जो उनके जीभ के स्वाद के साथ फिट हो गया। नगालैंड में पान की दुकानों की भरमार हैऔर वे पान खाने के बहुत शौकीन हैं। पान वे जर्दे वाला खाते हैं, साथ में कच्ची सुपारी या तामुल भी लेते हैं। तामुल सरदी में भी पसीने ला देता है।
नगा औरतों की आधी-अधूरी दुनिया
नगा समाज बहुत तेजी से बदल रहा है और यहां की महिलाओं ने अपने बलबूते पर काफी अहम मुकाम हासिल किया है। वे खेती-बाड़ी, प्रशासन और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण स्थान पर हैंलेकिन ४९ फीसदी वोट और तमाम खूबियां रखने के बाद भी जनजातीय समितियों समेत राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में उनकी दशा बहुत दयनीय है। राजनेता कहते हैं कि वे खुद ही राजनीति में आने से बचती हैं। लेकिन सच कुछ और है और वह यह है कि पुरुष सारे अधिकार अपने पास ही रखना चाहते हैं। हालांकि आजादी की जंग में यहीं की रानी गाइदिनल्यू ने नगा कबीलों में एकता स्थापित करके अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा खड़ा किया थावे सोलह साल की बालिका थीं तो चार हजार सशस्त्र नगा सिपाहियों की नायिका बन चुकी थीं। अंग्रेजों ने उनको पकड़ने के लिए भारी जाल बिछाया। बाद में वे गिरफ्तार हुई और जीवन के १४ खूबसूरत साल उन्होंने अंग्रेजी राज की जेलों में बिताया।
हुमा इशरतरतों ने कुछ साल पहले स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की कानूनी लड़ाई जीती तो इसे स्वीकारा नहीं गया। जनजातियों ने इसे सिरे से ठुकरा दिया। इस पर भारी राजनीति हुई। हालांकि जनजातियों में स्त्री-पुरुष का भेद कम ही देखा जाता है। फिर भी उनका
दर्जा पुरुषों से नीचे ही है। जाता है। फिर भी उनका दर्जा पुरुषों से नीचे ही है। नगा उग्रवाद के दौरान अंगामी पुरूष जब सशस्त्र संघर्ष के नाम पर भूमिगत हो गए थे तो उनका घर संसार इन औरतों ने ही संभाला था। तभी बड़ी संख्या में औरतों ने शिक्षा हासिल कर तमाम स्कूल खोले। फलतः औरतें ज्यादा पढ़ी-लिखी हो गई और आदमी कम। दो तिहाई नगा औरतें स्नातक हैं जिनमें बड़ी संख्या उनकी है जो सरकारी नौकरी कर रही हैं। फिर भी उनकी दशा ठीक नहीं होना कई सवाल खड़े करता है।
कोहिमा-नगालैंड का दिल
पूर्वोत्तर भारत के सबसे सुंदरों नगरों में एक कोहिमा नगालैंड की आधुनिकता का प्रतीक है। इसे नगालैंड का ह्रदय कहते हैं। कोहिमा का अर्थ है पहाड़ के वासी। करीव १४९५ मीटर ऊंचाई पर वसा कोहिमा शानदार हिल स्टेशन है और यहां आदिवासी संस्कृति के सारे रंग देखे जा सकते हैंकोहिमा और उसके आसपास राज्य संग्रहालय, नगा हेरिटेज कॉम्पलेक्स, कोहिमा गांव, दजुकोउघाटी, जप्फुचोटी, खोनोमा गांव, दज्युलेकी समेत कई देखने लायक जगहें हैं। कोहिमा का ही अंग कोहिमा गांव या बड़ी बस्ती एशिया के सबसे घनी आबादी वाले गांवों में माना जाता है। इसकी स्थापना व्हिनओ ने की थी। तब यहां सात झीलें और सात द्वार थे लेकिन समय के साथ सब खत्म हो गया और केवल एक शानदार द्वार बचा हैनगाओं के जीवन में व्यापारिक नगरी दीमापुर भी खास है जो नगालैंड का प्रवेशद्वार है। यहीं हवाई अड्डा है और राष्ट्रीय राजमार्ग भी यहीं से गुजरता है और रेल भी यहीं तक आती है।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कोहिमा और इंफाल की लड़ाई बर्मा अभियान का सबसे अहम पड़ाव था।१९४४ में जापानियों को यहीं पहली बार पराजय का स्वाद चखना पड़ा। कोहिमा तक जापानी भारत में प्रवेश कर गए थे और कुछ समय तक कब्जा भी रहा। कोहिमा युद्ध स्मारक दूसरे विश्व युद्ध में जापानी सेना से लड़ते हुए शहीद अफसरों और जवानों की याद में बना है।४ अप्रैल से २२ जून १९४४ के दौरान चार हजार भारतीय और ब्रिटिश सैनिक मारे गए थे, जबकि सात हजार से ज्यादा जापानियों की जानें गई थीं। युद्ध के तत्काल बाद लार्ड माउंटबेटन और हस्तियां पहुंचीं। १ मई २०१२ को ड्यूक आफ यार्क प्रिंस एंड्रयू भी आए और सवने नगाओं की वीरता का खूब वखान किया। कोहिमा के आसपास भी तमाम सुंदर जगहें हैं। यहां से करीब २० किमी की दूरी पर बसे खोनोमा हरित गांव में पहुंचते ही सबसे पहले सीढ़ीदार खेत आपका स्वागत करते हैं। इस गांव ने कई बार अंग्रेजों से टक्कर ली। इन युद्धों का इतिहास यहां के उस किले में दर्ज है जो कई बार गिरा और बना। इस किले पर नगाओं को गर्व है। खोनोमा के अंगामी योद्धाओं ने १८७८ में अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध करते हुए उनको भगाकर दम लिया था। इससे खफा अंग्रेजों ने खोनोमा से १०० किमी दूरी पर अपना कैप बनाया। यह नगालैंड के सबसे मशहूर गांवों में है और नगा स्वाभिमान के प्रतीक ए.जेड. फिजो का जन्म स्थान भी है। यहां से वापस लौटते हुए एक शिलालेख देख कर ठिठकता हूं- लिखा है नगा भारतीय नहीं हैं।
गांव में कई स्मारक भी हैं जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित हैं। खोनोमा के आसपास की पहाड़ियों पर सदियों पुराने एल्डर वृक्ष हैं जिनकी रक्षा आदिवासी लगातार करते आ रहे हैं। झूम खेती करने वाले किसान भी इसे नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। दरअसल ये पेड़ नमी बनाए रखते हुए मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ा देते हैं और पैदावार अच्छी होती है।
दूसरे विश्वयुद्ध के समय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कोहिमा से ३० किमी दूरी पर वसे चेजसेजू गांव में अपना सैनिक शिविर बना कर रहे थे। तमाम आदिवासी गांवों के लोग उनको रसद और सुरक्षा प्रदान कर रहे थे। कुछ नौजवान अंग्रेजी सेना की तैयारियों की खुफिया खबरें भी उन तक पहुंचा रहे थे।
लेकिन बहुत कुछ होने के बाद भी पर्यटन बहुत अविकसित हालत में है। उग्रवाद के चलते आम तौर पर देसी विदेशी पर्यटक इधर आने से कतराते रहे हैं। पर हाल के सालों में किए जा रहे प्रयास कुछ रंग ला रहे हैं। राजनीतिक स्थिरता और उग्रवाद का दौर थमने से तमाम विकास योजनाएं साकार हो रही हैं। राज्य सरकार सांस्कृतिक, जनजातीय, साहसिक और प्रकृति पर्यटन पर खास जोर दे रही है और नगालैंड ग्राम पर्यटन बोर्ड की स्थापना के साथ कई कदम उठे हैंगांवों में जानेवाले पर्यटकों की सुरक्षा और उनके आतिथ्य पर खास ध्यान दिया जाता हैलेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पर्यटक दीमापुर और कोहिमा के आसपास से ही लौट आते है। हालांकि यहां मोकोकचुंग फैशन और संगीत की भूमि है तो लोग्नेंग हस्तशिल्प की भूमि, पेरेन हरीतिमा और फेक परंपराओं की भूमि है जबकि किफिरे खनिज संपदा, तुएनसंग सांस्कृतिक संपन्नता, वोखा खुशहाली और जेनहेबोटा नगा योद्धाओं की भूमि है।
नगालैंड सरकार की एक खास पहल ने दुनिया भर के तमाम पर्यटकों को यहां खींचना आरंभ किया है। काफी आधारभूत ढांचा खड़ा हुआ है। वह है कोहिमा से १३ किमी दूर किसमा गांव में २००३ में नगा हेरिटेज कांपलेक्स बनाया गया जहां विख्यात हार्नबिल यानि धनेश उत्सव होता है। पहले यह अनियतकालिक था लेकिन बीते डेढ़ दशक से समयबद्ध है। नगालैंड की स्थापना दिवस यानि १ दिसंबर से यह एक सप्ताह के लिए चलता है। यहां उत्सव में नगालैंड की संस्कृति, नृत्य कला, संगीत, पंरपरागत खेल, फैशन शो, फूल प्रदर्शनी, सौंदय प्रतियोगिता, पारंपरिक तीरंदाजी, पहलवानी, आदिम खेल, तेल चुपड़े वांस के खंवों पर चढ़ने से लेकर देसी जड़ी बूटियों की प्रतियोगिताएं होती हैं। इसे अंतराष्ट्रीय ख्याति मिली है।
खोनोमा का किला जहाँ अंग्रेजों और नगाओं के बीच १८५०-७९ में युद्ध हुआ था
सरकार भी अब मानने लगी है कि पर्यटन उद्योग से नगालैंड की अर्थव्यवस्था सुधर सकती है। यहां अभी बहुत सी ऐसी अछूती जगहें हैं, जहां आधारभूत सुविधाओं का विस्तार करके पर्यटकों में लोकप्रिय बनाया जा सकता है। राज्य सरकार धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ करने को रोकने की कोशिश कर रही है। पेइंग गेस्ट और हेरीटेज होटल के लिए निजी क्षेत्र को आगे लाने में भी जुटी है।
उग्रवाद की जड़ें
नगालैंड में बीते काफी समय से उग्रवाद लगातार उतार पर है और उसे मिलने वाला जनसमर्थन बहुत कमजोर हो चला है। फिर भी बाहर लोगों को यही लगता है कि नगालैंड और उग्रवाद एक सिक्के के दो पहलु हों। नगालैंड हिंसाग्रस्त बवालिया प्रदेश के रूप में कुख्यात है। यह सही है कि पूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद की शुरुआत यहीं हुई। लेकिन तमाम बदलाव इस छाप को धो नहीं पा रहे हैं। काफी समय से नगालैंड में शांति है। लेकिन फौजी चौकसी और जगह-जगह सुरक्षा बलों की तैनाती बाहर से आनेवालों के दिलो दिमाग में मनोवैज्ञानिक दवाव बनाते हैं। उनको लगता है कि कभी भी कुछ हो सकता है।
नगालैण्ड ने उग्रवाद का सबसे अधिक खामियाजा भुगता। पर्यटन की व्यापक संभावनाओं पर उग्रवाद ने ग्रहण लगा दिया। उग्रवाद के दिनों की तरह ही आज भी कोहिमा में सांझ ढलते ही दुकानें बंद हो जाती हैं। एक तरह से लोगों ने आदत बना ली है कि सायंकाल तक सब कुछ बंद करके घर पहुंच जाना है। वैसे भी इनकी सुबह बहुत जल्दी शुरू होती है। लेकिन व्यापारिक केंद्र दीमापुर में जरूर रौनक रहती है जबकि यह भूमिगत संगठनों का केंद्र कहा जाता है।
दक्षिण एशिया के करीव सभी इलाकों और भारत के तमाम हिस्सों का सफर मैंने किया है। नगालैंड पहले भी एक दो बार वीवीआईपी के साथ गया। लेकिन इस बार दूर दराज के जिस नगालैंड को बिना सुरक्षा के देखा वह जिंदगी भर नहीं भूलेगा। सबसे ज्यादा याद रहेंगे, हंसते खिलखिलाते और प्रेम से मिलते वे नगा भाई जिनको न जाने किस रूप में पेश किया जाता है। लेकिन यह सव नगालैंड की एक छोटी सी झलक भर है। बहुत कुछ हैइस सुंदर राज्य में।