दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष। कई कहानी संग्रह, एकांकी एवं आलोचना पर कई पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पुस्तकों का सम्पादन।
-------------------
डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव की विशेष प्रतिष्ठा एवं ख्याति कवि और आलोचक के रूप में रही है, जबकि उन्होंने कहानी विधा में भी अपनी रचनात्मक प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है और ऐसी कहानियां लिखी हैं जो आकार में छोटी, हृदयस्पर्शी और संगीत-सी अन्तर्ध्वनि पैदा करती है। उनकी कहानियां विशेष रूप में सातवें और आठवें दशक में लिखी गई और समय-समय पर 'कहानी', ‘कल्पना', 'विकल्प', ‘सारिका' जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। इसके बावजूद कहानीकार के रूप में परमानंद श्रीवास्तव की विशेष चर्चा नहीं हुई। इसका एक कारण तो यह हैकि कहानी-संग्रह के प्रकाशित न होने के कारण आलोचकों का ध्यान उनकी ओर नहीं गया, दूसरा यह कि परमानंद जी ने भी उन्हें अपेक्षित महत्व नहीं दिया। बहुत बाद में उनकी चौदह कहानियों का एकमात्र संग्रह ‘रुका हुआ समय' सन् २००५ में ‘समीक्षा प्रकाशन' मुजफ्फरपुर से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में ‘उपसंहार', ‘पराजित', ‘दोनों', 'अंत', 'समझौता', ‘रुका हुआ समय', 'वहीं', ‘विजेता', ‘बाहर', ‘परिस्थिति', ‘क्रेन', ‘इच्छा-शक्ति', ‘रात का चन्द्रमा', ‘मृत्यु’, ‘कर्नल का डुएट', और 'श्रीधराणी में एक शाम' कहानियाँ संकलित हैं। सातवें दशक से अब तक हिन्दी कहानी-यात्रा के क्या रंग रूप रहे हैं और उनमें परमानंद जी की कहानियों की कहां स्थितिउपस्थिति है, फिलहाल इस पर न वात करके हम उनकी एक उल्लेखनीय कहानी ‘दोनों की विस्तृत चर्चा करना चाहते हैं जिससे परमानंद जी की कहानी कला दृष्टि और संचेतना के साथ-साथ उनकी रचनात्मक बेकली को समझा जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि परमानंद जी ने हिन्दी कहानी की रचना-प्रक्रिया' पर शोधकार्य किया था और प्राचीन एवं नई कहानी के अन्तर को बखूबी समझा और समझाया था। एक तरह से वे नई कहानी की तमाम विशेषताओं के पक्षधर थे और निर्मल वर्मा की कहानियों के अच्छे विश्लेषक और पाठक भी थे। हो सकता है कि इन सबसे उन्होंने कहानी-कला का प्रभाव ग्रहण करके अपनी कहानी-कला का स्वरूप तैयार किया हो। मुझे याद हैकि एक समय परमानंद जी 'लंदन की एक रात' और ‘परिन्दे' जैसी कहानियों की चर्चा करते हुए नई कहानी की विशेषताओं को उद्घाटित करने में बड़े उत्साह का अनुभव करते थे। इसके बावजूद यह कहना पड़ता है कि उन्होंने किसी एक कहानीकार से कोई ऐसी प्रेरणा नहीं ली जिसे उनकी कहानी में सीधे-सीधे पकड़ा जा सके। वे प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, निर्मल वर्मा और बाद में अपने समय के तमाम नए-पुराने कहानीकारों की कहानियों को पूरी दिलचस्पी के साथ पढ़ते-पढ़ाते रहे लेकिन जब उन्होंने खुद कोई कहानी लिखी तो उसे अपने ढंग से लिखा- अपनी निजता को पूरी तरह सुरक्षित रखते हुए लिखा, इसलिए यह कहना भी आसान नहीं है कि वे इस ढरे की कहानियां हैं या उस ढरें की। परमानंद जी किसी ढरें की कहानी लिखने के कायल नहीं हैं। वे शमशेर की तरह मूड्स के कहानीकार हैं, स्थितियों-परिस्थितियों के मार्मिक चितेरे हैं, मन की पर्तो को खोलने वाले, वहुत कम कहकर बहुत कुछ कहने वाले, और बहुत कुछ छिपा लेने वाले कहानीकार हैं। इसलिए उनकी कहानियों का समग्र पाठ बहुत जरूरी है। उनकी कहानियाँ जितना बोलती हैं, उतना ही सन्नाटा बुनती हैं, और जितना कहती हैं उससे ज्यादा इशारा या संकेत करती हैं। दोनों' कहानी में ये सभी विशेषताएँ मौजूद हैं।
‘दोनों' कहानी में मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी को झेलती हुई बड़ी और छोटी नामधारी दो बहनों की जिन्दगी की कशमकश चित्रित है। माँ की मृत्यु के बाद घर में तीन प्राणी रह रहे हैं- अपंग पिता और बड़ी और छोटी नामवाली दो बहनें। दो भाई भी हैं-बड़े और छोटे किन्तु वे दोनों नौकरी की वजह से अपने-अपने परिवार के साथ बाहर रहते हैं। घर से उनका बहुत कम रिश्ता है, लगभग न के बराबर। बड़ी बहन किसी छोटे स्कूल में टीचर है, छोटी पढ़ रही है। वड़ी के ही सहारे तीनों की जिन्दगी चल रही है। इन्हीं परिस्थितियों को केन्द्र में रखकर परमानंद जी इस कहानी का ताना-बाना बुनते हैं और ऐसी कहानी रचते हैं कि पाठक के भीतर दोनों बहनें, दोनों भाई और असहाय पिता झंकृति पैदा करने वाले किसी बाजे की तरह वजने लगते हैं। कहानी बहुत छोटी है केवल चार पृष्ठों की, पर वह जो जीवन-यथार्थ सामने लाती है, वह काफी व्यापक और सभ्यता, समय और समाज के बारे में बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देता है।
परमानंद जी मनोद्वेलन को चित्रित करने वाले कहानीकार हैं। कहानी में उन्होंने ‘छोटी' के मनोद्वन्द्व को सारगर्भित ढंग से चित्रित किया है। कहानी की शुरूआत ही छोटी के मनोद्वन्द्व से होती है। बड़ी जब उसके सामने चाय रखकर चली जाती है तब वह सोचती है कि वह बड़ी बहन के साथ कुछ ज्यादती कर रही है- ‘माना कि इम्तिहान के दिन हैं और कल भी पेपर ही है, पर यह भी तो कुछ ठीक नहीं कि सारा बोझ अकेले बड़ी ही पर पड़े।' उसके इस द्वन्द्व के साथ ही कहानी के उस यथार्थ पर रोशनी पड़ती है जो इस परिवार का दुखद सच है। माँ के न रहने पर बड़ी ने घर की सारी जिम्मेदारी ले ली और इसी के साथ वह असमय बूढ़ी हो गई-‘आँखों के नीचे लकीरें कुछ और गहरी हो गई थीं। आँखें उसी अनुपात में छोटी लगने लगी थीं - माथा पहले की अपेक्षा ढीला और शायद चौड़ा दिखाई देने लगा था - रंग पहले से ही दवा हुआ था, अब उस पर एक गहरी उदासी की पर्त जमा हो गई थी। माँ के न होने के बाद यह सब तेजी से घटित हुआ। बड़ी की उम्र ड्योढी लगने लगी और पूरे चेहरे पर एक माँ सरीखा चेहरा उभर आया।' कितना सशक्त और मार्मिक है बडी का यह विम्ब और कितना कुछ कहता है एक जिम्मेदार लड़की की संघर्ष कथा का सच। वड़े संक्षेप में किन्तु मार्मिक ढंग से उकेरी गई हैबड़ी की जीवन-त्रासदी, उस त्रासदी को और घना एवं करुण बनाते हैं दो गैर जिम्मेदार भाई और असहाय अपंग पिता। पिता असहाय और अपंग है, बीमारी के मारे हुए हैं लेकिन कहानीकार यह संकेत देता है कि जब घर- गृहस्थी को बनाना था, तब उन्होंने नहीं बनाया - ‘जब तक माँ थी, वे अपने दफ्तर की दुनिया में डूबे हुए थे - घर से दफ्तर। यही उनकी जिन्दगी थी - दफ्तर के चलते वे जगह-जगह भटकते भी रहे पर यह उनके लिए शगल ही था - उनमें हमेशा चतुराई भरी चुस्ती बनी हुई थी। वे बहुतों के भाग्य विधाता थे, इसलिए अपने भाग्य को अलग से पढ़ने का अवसर न था। जाहिर है कि ‘बहुतों के भाग्य-विधाता' ने अपनों के लिए कुछ नहीं किया लेकिन उनकी अपनी बेटियाँ तो अपनी जिम्मेदारी से नहीं मुकर सकतीं, वे उसे निभा रही हैं, पूरी निष्ठा और ताकत से निभा रही हैं और बगैर यह सोचे कि उनके दोनों भाई क्या कर रहे हैं या क्या नहीं कर रहे हैं। इसी विन्दु पर लेखक ने दोनों भाइयों की गैर जिम्मेदारी, स्वार्थीपन, कांईयापन और तथाकथित उनकी आधुनिकता को रेखांकित करके दोनों बहनों की असहाय दशा और उनकी संघर्ष-शक्ति को जिस तरह उभारा है, वह कहना कम, समझना ज्यादा' की उक्ति चरितार्थ करता है। एक- एक वाक्य तरह-तरह के जीवन-संदर्भ को कैमरे की तरह दृश्यांकित करता है और जमाने के सच को नई पीढ़ी के सच को - इस तरह दिखाता है कि मनुष्यता की रूह कांपने लगे। बड़ी, छोटी बहनें और अपंग पिता जिन्दगी की लड़ाई में हाँफ रहे हैं और दोनों लड़के बैंक में नौकरी करके फैशनपरस्त बीवियों के साथ बड़े ठाठ-बाट से रह रहे हैं। मकान, फ्रिज, स्कूटर, टी.वी. यानी सब कुछ का आनंद लूटने वाले इन बेटों को घर के हालचाल में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है बल्कि दोनों को ताज्जुब होता रहता है कि पिता बेवजह घिसट क्यों रहे हैं... आदमी को तो इस हालत में जल्द से जल्द दुनिया से विदा हो जाना चाहिए। उन्हें यह भी चिन्ता नहीं है कि दोनों वहनों की शादी होनी है और इसके लिए उनकी कोई जिम्मेदारी भी है। उन्होंने मान लिया है कि बड़ी जिम्मेदार है, जो फैसला करेगी, ठीक ही करेगी और छोटी तो अभी पढ़ रही है - छोटी है कोई चिन्ता नहींऐसे स्वार्थी, आत्म-सीमित, गैर जिम्मेदार भाइयों और अपंग पिता के बीच दोनों बहनें एक ठहरी हुई जिन्दगी जीने के लिए अभिशप्त हैं फिर भी ‘बड़ी जिन्दगी को जीने में अपने को व्यस्त रखकर दु:ख के पहाड़ को पीछे ठेलते रहने की अपने ढंग की कोशिश करती रहती हैलेखक संकेत देता है - ‘ऊव और सन्नाटे की मिली-जुली परछाई वड़ी की व्यस्तता के ऊपर मंडराती रहती। और यह टिप्पणी कर के स्थिति को काफी मार्मिक बना देता है - ‘ऐसे घरों के कुछ अपने खास दु:ख होते हैं और अपने ढंग के ही अभाव भी - पर उनके बारे में अक्सर कोई जिक्र नहीं होता। सारे दु:ख चुपचाप जी लिए जाते हैं। सभी तरह के अभाव स्मृतियों में भर लिए जाते हैं। यह कहानी भी इस परिवार के दु:खों की स्मृतियों के धागों से ही बुनी गई है। छोटी स्मृतियों में जीती है, सोच में डूबी रहती हैऔर वर्तमान में जीने का अर्थ भी तलाशती रहती है। उसे कभी माँ याद आती है, कभी बड़ी का चेहरा और जीवन-संघर्ष और कभी बाहर रह रहे भाइयों की उदासीनता जो शहरों में अपने-अपने काम के बहाने बस गए थे और भूल गए थे कि उनका अतीत भी इस भुतहे मकान के पुराने-धुराने कपड़ों में जैसे तह कर रखा हुआ है।
स्मृति और सोच के धागों में उलझी छोटी कभी- कभी उद्विग्न हो जाती है। उसे अँगीठी पर रोटियाँ सेंक रही बड़ी की परेशानी कभी-कभी बहुत व्यथित कर देती है और वह सोते-से जाग-सी जाती है। वह तय करती है - ‘दुनिया में कुछ करना होगा, वरना वह भी सूख जाएगी। ‘इँठ हो जाएगी, बड़ी की तरह। सब फिट हो गए हैं, जम गए हैं, दुनिया से लगकर या दुनिया से अलग होकर। वह बहुत इंतजार नहीं करेगी - कुछ करेगी, इतनी जल्दी करेगी कि वे देखते रह जाएंगे। और वह यह भी साफ-साफ सोचती है कि वे दोनों जो उन शहरों में जाकर बैठे हैं - अपनी-अपनी सफलताओं पर भरमे हुए......बेखबर' वे भी देखते रह जाएंगे। यह कहानी के भीतर से उभरता हुआ प्रतिरोध और विद्रोह का वह स्वर है जो आजादी के बाद की स्त्री को नई शक्ति और चेतना देता है। उसका विद्रोह उसके भीतर लावा की तरह फूटता है। वह बड़ी की तरह इस तरह की कशमकश में जीते हुए मरना नहीं चाहती, वह कुछ करना चाहती है, भले ही वह अनैतिक हो। जिस किसी से प्रेम करना चाहती है। वह जड़ता को तोड़कर नई जिन्दगी जीना चाहती है। वह तय करती है - ‘कुछ वह करेगी जरूर। भाग लेगी घर घर से चुपचाप। किसी अजनवी का हाथ पकड़कर एक ओर हो लेगी।' छोटी धमाका करना चाहती है। वह जानती है कि गूंगे-बहरे समाज की नींद को धमाके से ही तोड़ा जा सकता है। वह सीधी कार्रवाई में विश्वास करने लगती है कि अब उसके भीतर सुखी जीवन को लेकर कोई वहम' नहीं रह गया है। वह स्वार्थी दुनिया को बताना चाहती है कि वह होश में है और अभी खत्म नहीं हुई है। लेकिन उसके भीतर दहकता हुआ यह लावा परिस्थिति-वश उसे निढाल करके शान्त हो जाता है। वह थोड़ी देर बाद ही इस निष्कर्ष पर पहुँच जाती है कि ‘वह कुछ नहीं कर सकेगी शायद' और 'वह नहीं करेगी, जो कर रही है। कारण यह कि वे दोनों इस घर को किसके सहारे छोडेंगी-पिता का क्या होगा।' जिम्मेदार व्यक्ति की यही तो सबसे बड़ी मुश्किल होती है कि वह जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता और जिम्मेदारी ऐसी हैकि वह उसे तिल-तिल कर जीने और घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर किए रहती है। दोनों बहनों की जिन्दगी की इस घुटन, मजबूरी और व्यथा को अगर हम दोनों गैर जिम्मेदार बेटों को आमने-सामने रखकर देखें तो समझ सकते हैं कि समझदारी कब गैर जिम्मेदारी का पर्याय बन जाती है और मूल्यनिष्ठा कब सांसत और मुसीबत। जिन्होंने समझदारी से काम लिया वे शानदार जिन्दगी के मालिक होकर विदेश के सपने देखने लगे, उनकी दृष्टि में हिन्दुस्तान एक हीन देश लगने लगा लेकिन जो मल्यनिष्ठ थे, जिनमें कर्तव्यपरायणता थी, मनुष्यता का पवित्र रक्त था, वे घुटनकारी जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए और जब-तब शानदार जिन्दगी के धक्के भी खाने लगे। भाइयों की शानदार जिन्दगी के धक्के खाकर छोटी का जोश कपूर की तरह काफूर हो गया और उसे लगा कि वह बस में नहीं है, उस कोठरी में है जिसमें पिता पड़े हैं - अपंग, पस्त, उसी घर में दफन हैं जिसमें बड़ी रोटियाँ सेक रही है - बिना जाने हुए कि क्यों?
कहानी के इस अन्त के बावजूद यह सुकूनदेह बात है कि लेखक छोटी के जज्बात के साथ है अर्थात वह घुटनकारी जिन्दगी से मुक्ति की राह की तलाश में बेचैन है। मुक्ति की चाह भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना मुक्ति का संघर्ष, बल्कि वही उसका बीज है और यह वीज परमानंद श्रीवास्तव की अनेक कहानियों में है पर कहानी की सीमा के भीतर। उनकी कहानियाँ बड़बोलेपन से कोसों दूर हैं लेकिन किसी भी अमानवीय स्थिति के विरूद्ध तीव्र स्वर से परिपूर्ण हैं। उस स्वर को सुनने की जरूरत है।
दोनों' कहानी का शिल्प बहुत गठा हुआ है। इस कहानी की महतवपूर्ण विशेषता यह है कि यह घटनारहित है। परिस्थिति के बीच से मन:स्थिति को रेखांकित करती हुई यह कहानी पात्रों की जिन्दगी और सोच को जिस तरह रूपायित करती है, वह नई कहानी वाले दौर की सांकेतिकता और बिम्बात्मकता की याद ताजा कर देती है। नई कहानी में कथा का ह्रास हो गया था और सांकेतिकता उसका प्रमुख गुण बन गई थी। नामवर सिंह ने तो यह भी कहा कि नई कहानी संकेत ही नहीं करती है, बल्कि वह स्वयं एक संकेत हैं। परमानंद जी की ‘दोनों' नामक कहानी भी इसका एक उदाहरण है। दोनों बहनें मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी को झेलने वाले स्त्रियों की सच्ची दास्तान हैं। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के इस दौर में भी हमारे समाज के एक बड़े हिस्से में आज भी तमाम स्त्रियाँ माँ, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में ‘बड़ी' की तरह दुखों की आँच में तप रही हैंऔर ‘छोटी' के रूप में अपनी दशा से निजात पाने के लिए कशमशा रही हैंमिल गई होगी बहुतों को आजादी और शानदार जिन्दगी किन्तु अभी उनकी रात शेष है। परमानंद जी एक कविता है - ‘उम्र'।
इसमें वे लिखते हैं -
याद रखना चाहिए कि स्त्रियाँ
एक ही जिन्दगी में
जीती हैं कई-कई जिन्दगियाँ
एक-एक रात में
कई-कई रातें
एक ही जनम में
कई-कई जनम्।
उनकी ‘दोनों' कहानी तथा अन्य कई कहानियों में यह स्त्री-छवि बार-बार उभरती है। वे कविता में कहानी और कहानी में कविता को इस तरह अन्तर्मक्त करते हैं कि दोनों अपनी संवेदनीयता में मार्मिक हो जाती है। ‘आखिरी दिन' कविता में वे लिखते हैं
‘कब मैंने पहली कविता लिखी
जो दरअसल कहानी थी एक उदास लड़की की।
(यों भी कविताएँ कहानियां ही होती हैं
गिरफ्त में आयी, आधी, तीहा कोई दास्तान)
तो परमानंद जी की कहानियाँ एक तरह की कविताएँ ही हैं जिनमें कोई आधी, तीहा दास्तान गिरफ्त में आ गई है। थोड़ी-सी कोशिश से उनकी तमाम कविताएँ कहानियाँ बन सकती हैं और कई कहानियाँ कविताएँ। यह कलात्मक संयम ही है जो उन्हें कविता और कहानी के शिल्प में ढालकर भी इतना मुक्त रखता है कि वे कविता और कहानी का संयुक्त आनंद देती है। परमानंद जी प्रवाहवादी लेखक नहीं हैं, वे सोचते हुए लिखते हैं और लिखते हुए सोचते हैं इसीलिए उनके यहाँ अभिव्यक्ति में काफी कसाव और विचारों में मॅजाव भी दिखाई पड़ता है। वे अपनी कहानियों में जीवन के जटिल एवं संश्लिष्ट यथार्थ को एक काव्यात्मक अनुभव के रूप में प्रस्तत करते हैं जैसे -
पिता को पेंशन के पैसे मिलते
यह एक नियम था
बाहर से वे दोनों भी कभी-कभार कुछ भेज सकते हैं
पर वह कोई नियम न था।'
इस कहानी में दोनों का सम्बन्ध दोनों बहनों और दोनों भाइयों से है किन्तु अर्थ अलग-अलग हैदोनों बहनें संघर्षशील और जिम्मेदार हैं, दोनों भाई मौजमस्ती में और गैर जिम्मेदार हैं। बहनें मूल्यनिष्ठ और भाई मूल्य-विहीन हैं। इनके बीच पिता उस जिन्दगी की तरह हैं जिन्हें ढोना भी पड़ रहा है और जीना भी पड़ रहा है। सोचना होगा कि पिता क्या है? क्या किसी मुल्य-परम्परा के प्रतीक या कि कोई एक मुसीबत मात्र, दरअसल यह कहानी हमें पारिवारिक जिन्दगी और आधुनिकता, सभ्यता के कई पेचोखम के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। कहानी छोटी है पर अपरिमित अर्थ से भरी हुई । सितार के कसे हुए तारों की तरह इसकी हर पंक्ति बजती है, चेतना को झंकृत करती है। यह वासी होने वाली कहानी नहीं है। उपन्यासनुमा लम्बी कहानियों के इस दौर में यह कहानी अपनी कलात्मकता और संप्रेषणीयता के कारण छोटी होने के बावजूद मंत्र की तरह प्रभावकारी है। ।
संपर्क : डी-५५, सूरजकुण्ड कालोनी, गोरखपुर-२७३०१५
मो.-९४५१९५८७१५