रंगमंच - हिन्दी रंगमंच - अस्तित्व की तलाश

अभिनेता, निर्देशक, लेखक।। प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में जन्म, भारतेन्दु नाट्य अकदमी, लखनऊ से नाट्य कला में डिप्लोमा, श्री राम सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स, दिल्ली के रंगमंडल प्रमुख रहे। देश के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशकों के साथ कार्य किया। अनगिनत नाटक लिखे जिनमें मुख्य - महारथी, बाबूजी, गुंडा, मंथन, कहो तो बोलू, ए सोल सागा, ठुमरी। इन दिनों मुंबई में।


वर्तमान हिन्दी रंगमंच अपने अस्तित्व की तलाश में भटक रहा है। परम्परा और प्रयोग में उलझ कर एक शून्य की स्थिति पैदा हो गई है। जड़हीन, दिशाहीन, पिछले कई दशक से हिन्दी रंगमंच की कोई उपलब्धि नहीं। हिन्दी का अपना कोई जातीय रंगमंच नहीं। उसका कोई उल्लेखनीय भूगोल, इतिहास नहीं, कोई जनाधार नहीं, कुल मिलाकर कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा नजर आता है। यह एक सामान्य धारणा सी बन गई है कि हिन्दी रंगमंच की कोई पहचान नहीं। सारी प्रयोगधर्मिता के बाद भी कहीं कोई चमत्कारिक स्थिति नहीं बनी है। निर्देशक नई शैली की तलाश में भटके हुए हैं, पाश्चात्य शैली के चकाचौंध में विक्षिप्त हैं लेकिन मंच पर कछ सार्थक कहने को कथ्य नहीं रह गया है। न जाने अपनी-अपनी बोतल से रंगमंच का कौन सा जिन्न निकालने में लगे है।


हिन्दी में मौलिक नाटक नहीं हैं, यह वक्तव्य सदियों से दुहराया जा रहा है। लेकिन इसका सार्थक जवाब किसी के पास नहीं है कि ये स्थिति क्यों बनी हुई है? अवसर, आवश्यकता और सुविधा के होते हुए भी मौलिक अच्छे नाटक क्यों नही लिखे जा रहे हैं..? दूसरी भारतीय भाषाओं में जैसे गुजराती, मराठी, बंगला में जो नाटक लिखे गए हैं या लिखे जा रहे हैं, वैसी हमारी पहचान क्यों नहीं बन पा रही है..? १९५९ से राष्ट्रीय नाटय विद्यालय, (एनएसडी), दिल्ली में स्थापित है, उसके अलावा न जाने कितनी अकादमियां, केन्द्र में संगीत नाटक अकादमी, राज्यों की अलग अकादमियां और न जाने कितने संस्थान खुले हैं, फिर भी ये अनबुझ पहेली है। आज शौकिया और व्यावसायिक नाट्य संस्थाओं की गिनती करने जाएंगे तो वे अनगिनत है, वैसे ही नाटककार भी हैं, निर्देशक भी हैं, फिर भी अकाल पड़ा हुआ है। आज भी वही आधे-अधूरे, वही अंधायुग। माना कि यह मिथक बन गए हैं. अपवाद बन गए हैं, लेकिन कब तक यही दुहराए जाएंगे? फिर दर्शक का रोना शुरू हो जाता है। एक ही नाटक को दर्शक कब तक देखता रहेगा? पीढ़ियां बूढी हो गई इन नाटकों के तमाम मंचन देखकर। लेकिन इनका मंचन आज भी हो रहा है, इन्हीं नाटकों में तमाम ज्ञान और शिल्प को खोजने में लगे हैं स्थापित हिन्दी जगत के नाट्य निर्देशक।



नाटक लिखे भी जा रहे हैं, मंचित भी हो रहे हैं लेकिन अब भी लोगों को रंगमंच का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। आज दुनिया कहां-से-कहां पहुंच गई है, हर तरफ बदलाव का दौर है लेकिन हिन्दी रंगमंच जस- का-तस। स्थापित नाट्य निर्देशक यह साबित करने में लगे हैं कि मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, शंकर शेष, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भीष्म साहनी, लक्ष्मी नारायण लाल के बाद कोई जीवित नाटककार बचा ही नही है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब हिन्दी रंगमंच के पास तमाम नामवर लोग हैं जिन्हें अनुभव है, नाट्य कला में निपुण, स्नातक हैं, तमाम पुरस्कारों से नवाजे गए हैं, वे लोग कोई पहल क्यों नहीं करते। वे इन विद्यालयों, अकादमियों में पदासीन हैं वे क्यों नही लेखकों के साथ अपना कोई तादात्म्य स्थापित करते? ये लोग चाहे तो अपना रंग निर्देश देकर कोई उल्लेखनीय कार्य करा सकते हैं, लेकिन ये पीड़ा आखिर लेगा कौन..? जब बिना कुछ किए ही सांस्कृतिक मंत्रालय अनुदान लुटाने में लगा है। और लोग लूट रहे हैं तो किसे इस बात की चिन्ता है कि हिन्दी रंगमंच की दिशा और दशा क्या होगी..? मराठी में ऐसे तमाम नाटक - लेखन शिविर लगाए गए और ऐसी योजना का परिणाम शुभ रहा। जी.पी. देशपाण्डे-मराठी नाटककार का कहना है कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के साथ काम करने वाले निर्देशक किसी भारतीय नाटक या हिन्दी नाटक को खेलने के बजाय किसी अंग्रेजी नाटक या जर्मन नाटक का अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। आप अनुदित नाटक के आधार पर रंगमंच के दर्शक नहीं पैदा कर सकते । हिन्दी रंगमंच खासतौर पर दिल्ली में जो पाया जाता है वह सिर्फ चमक-दमक से भरपूर तमाशा होता है, इसके सिवा कुछ नहीं। हिन्दी आलोचक-सत्येन्द्र कुमार तनेजा का मानना है कि - विदेशी नाट्य रूपान्तर किसी भाषा के गौरव स्तम्भ नहीं हो सकते। ऐसा थियेटर मिथ्या यथार्थ और मिथ्या जागृति को बढ़ावा देता है जो केवल कलावाद है।


मृणाल पाण्डे का कहना है कि - हमारे यहां नाटककार और निर्देशक के बीच जो सहज मैत्री होनी चाहिए वह नहीं है। इसकी जगह एक शंकालु सन्देह है, जिसके कारण रचनाकार और प्रस्तुतीकरण के बीच गहरी दरार बनी हुई है।


सच्चाई यह है कि हिन्दी रंगमंच सामूहिकता से हटकर वैयक्तिक हो गया है। हिन्दी नाट्य संस्थाओं में जो संस्था का मालिक, प्रोपराइटर है. वही नाटककार बन जाता है, इधर-उधर से साहित्यिक चोरी करके वह खुद को नाटककार साबित करता है, वही निर्देशक भी होता है और नाटक में मुख्य भूमिका भी वही निभाता है। चाहे वह चरित्र उसकी उम्र के अनुरूप न हो, वह चरित्र में फिट न हो लेकिन मुख्य भूमिका वही करेगा, क्योंकि संस्था उसकी है। इसके तमाम उदाहरण हैं, मुम्बई में खासकर। जब तक दिनेश ठाकुर जीवित थे, उन्होंने अपनी संस्था अंक में यही किया। यात्री संस्था के ओम कटारे आज भी यही कर रहे हैं। दिल्ली में और तमाम छोटे-बड़े शहरों में ज्यादातर यही हाल है। ऐसे में ये लोग किसी की सुनते नही, किसी की परवाह नहीं करते, सब कुछ स्वांतः सुखाय हो जाता है। हमें नीकी लगी सो करी मैंने। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे किसी दादागीरी का साम्राज्य बन गया है, जो एनएसडी से पढ़कर निकला है, भारतेन्दु नाट्य अकादमी या एमपी ड्रामा स्कूल का पढ़ा है, उसे लगता है कि और किसी को नाटक की कोई जानकारी ही नहीं है। वह अपने पांडित्य का प्रदर्शन करता घूमता है। लेकिन जो प्रदर्शन मंच पर सफलतापूर्वक होना चाहिए, उससे दूर होता चला जाता है। सबकी अपनी निजी कवायद है, हर कोई अपनी भावनात्मक उल्टी, कै करता दिखाई दे रहा है। लेकिन किसी के पास कोई सामाजिक सरोकार नहीं। इसीलिए हिन्दी नाटकों का दर्शक वर्ग अब तक तैयार नहीं हो सका। हम आज तक अपने दर्शक ही नहीं बना पाए। यदि अच्छे नाटक हों, बेहतरीन प्रस्तुति हो तब ना दर्शक आएंगे, आप सदियों से वही परोसते जाएंगे तो दर्शक क्यों आएगा? हमें जनता की आवश्यकताओं के सन्दर्भ में अपनी कला की स्थिति के बारे में सोचना पड़ेगा।


हिन्दी रंगमंच में अपने कलाकारों को रोक पाने की क्षमता भी नही है। यही कारण है कि आज कोई मनोहर सिंह जैसा अभिनेता या उत्तरा बावकर जैसी अभिनेत्री देखने को नहीं मिलती। नाटक के ये सारे शिक्षण संस्थान फिल्मों और टेलीविजन में जाने की सीढ़ी बन गए है। एनएसडी के पास अपना रंगमंडल है लेकिन टेनिंग पूरी होते ही कोई अभिनेता नाटकों में काम नहीं करना चाहता। यही हर जगह का हाल है, हिन्दी प्रदेश लखनऊ में भारतेन्दु नाट्य अकादमी की स्थापना राज बिसारिया जी ने की लेकिन आज वहाँ की भी स्थिति यही है। ना तो रंगमंच के अच्छे शिक्षक हैं और न छात्रों में रंगमंच को लेकर कोई सरोकार। हमारे पास इतिहास दुहराने के लिए बहुत कुछ है वह चाहे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, धर्मवार भारती, शंकर शेष, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मी नारायण लाल, मणि मधुकर, भीष्म साहनी, रामेश्वर प्रेम, त्रिपुरारी शर्मा, असगर वजाहत जैसे नाटककार हो या गिनती के कुछ चर्चित नाटक-अंधेर नगरी, आधे-अधूरे, आषाढ़ का एक दिन, अंधायुग, बकरी, कविरा खड़ा बाजार में, हानुश, चारपाई, रसगंधर्व, ऐसे ही कुछ नाटक और कुछ ख्याति प्राप्त निर्देशक जैसे - इब्राहिम अल्काजी, बी.वी. कारन्त, एम. के. रैना, बंसी कौल, प्रसन्ना, राजिन्दरनाथ, राजबिसारिया, हबीबतनवीर, रंजीत कपूर, भानु भारती, मोहन महर्षि, बस इन्हीं नामों में हिन्दी रंगमंच सिमट कर रह गया।



एक अजीव तरह का असमंजस है, दुविधा है? आज जो नाटककार बेचारे नाटक लिखने की जहमत उठा भी रहे हैं, उनके साथ अलग ही बर्ताव किया जा रहा है। कई बड़े नाट्य समारोहों में निर्देशक और नाटक का नाम पोस्टर पर छपा होता है लेकिन नाटककार का नाम नदारद होता है। नाटककार उनकी नजर में कुछ है ही नहीं। परम्परा, संस्कृति ऐसे नहीं बनती, मराठी नाटकों में नाटक की प्रस्तुति से पहले नाटककार का नाम लिया जाता है। किसी नाटक को मंचित करने से पहले उस नाटककार से अनुमति न लेना भी हिन्दी रंगमंच की एक अवैध परम्परा बन गई है। मेरे अपने नाटकों के साथ अक्सर यही होता आया है। कई बार मुझे जाकर मंचन को रोकना पड़ा है। रंजीत कपूर के नाटकों के साथ भी यही होता है, लोग तो उनके नाटकों का नाम बदल कर अपने नाम से कर लेते है।


कुल मिलाकर मौजूदा स्थिति यह है कि आज का हिन्दी रंगमंच अनुदान का रंगमंच हो चुका है। अनुदान मिलता है और उस अनुदान की राशि पाने के लिए नाटक किए जाते है और यह खेल संस्कृति मंत्रालय के साथ मिलकर एनएसडी कर रही है। शौकिया रंगमंच की जो थोड़ी बहुत प्रतिबद्धता थी, इस अनुदान की बंदरबांट ने वह भी खत्म कर दिया। हिन्दी रंगमंच का अपना कोई व्याकरण ही नहीं है। किसी स्वनामधन्य मठाधीश ने किसी ऐसी परम्परा की शुरूआत नही की जिससे हिन्दी रंगमंच का भला हो पाता। सरकार के पास भी कोई अपनी नजर नही है, वह भी एनएसडी के चश्मे से पूरे रंगजगत को देख रही है। पहले भारत उत्सव के नाम पर पैसे बहाए गए थे, अब नाटकों के फेस्टीवल के नाम पर और इन सारे रंग उत्सवों का चयन बड़े खुफिया तरीके से किया जाता है। सबकुछ अंधा बांटे रेवड़ी समान होता है।


अन्ततः यह भी एक सच है कि हिन्दी रंगमंच में जो सम्भावनाएं हैं वह अन्य किसी भाषा में नहीं। हिन्दी रंगमंच में पर्याप्त विविधता है। एक तरफ हमारा मिथक है, प्राचीन इतिहास है, आजादी और उसके बाद के प्रसंग हैं। दूसरी तरफ आधुनिक मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बना है। लोक कथा के आधार हैं। इन तमाम कथ्य को लेकर वर्तमान के नाटककारों को सामने आना चाहिए और नाटक लिखने से पहले रंगकर्म का व्यवहारिक ज्ञान अर्जित करना चाहिए। बेहतर होगा कि लेखक, निर्देशक मिलकर काम करें जो साहित्यिक और रंगमंचीयता दोनों दृष्टियों से सफल हो। हमें अपनी पारम्परिक जड़ों से जुडकर ही हिन्दी रंगमंच के अस्तित्व की तलाश करनी होगी। नाट्य लेखन और मंचन में पारम्परिक रंग भाषा की तलाश करनी होगी।