कला - कितने समसामयिक हैं ‘वानगो’ और ‘निराला' के किसान - डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला

डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला सहायक प्रोफेसर वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान) । पुस्तकें वानगो और निराला चित्रकला एवं काव्य की अंतरंगता, किशनगढ़ की चित्रशैली, जलरंग चित्रण पद्धति । सोलह विभिन्न सम्मान, २७ अवार्ड्स।


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वानगो निराला की आन्तरिक वेदना किसानों की सम्वेदना से परचित थी, तभी अपने-अपने समय में वानगो ने लगभग १६० वर्षों पूर्व और निराला ने लगभग १२१ वर्षों पूर्व किसानों की स्थिति का सम्वेदनीय कथ्य रचा था। एक ने रंगों और रेखाओं से, दूसरे ने शब्दों से। इतने वर्षों पूर्व किसानों की जिस दयनीय और संवेदनीय दशा का विशद् चित्रण किया, उसका प्रमुख कारण यह था कि किसानों और श्रमिकों को समाज में वह स्थान मिले जिसके वे हकदार हैं। किन्तु आज उनकी स्थिति पहले से भी संवेदनीय हो गई है। वानगो और निराला अतिसंवेदनशील चितेरे थेउनकी तूलिका और कलम दोनों ही सशक्त थे। दोनों के प्रेरक बिन्दु किसान ही थे। वर्षों पहले वानगो ने अपने भाई थियो को पत्र में लिखा था-“ मजदूर का रूप-जुते हुए खेत की लकीरें-बालू का छोटा भू-खण्ड, समुद्र और आसमान सभी बहुत गम्भीर विषय हैं और कठिन भी हैं-साथ-ही-साथ इतने सुन्दर हैं कि इनके अन्दर छिपी हुई कविता कि अभिव्यक्ति के लिए सारा जीवन समर्पित किया जा सकता है। कितने सहज और सम्वेदनीय विचार थे शताब्दि पहले, कि एक चितेरा जो किसानों और श्रमिकों को अपनी तूलिका की प्रेरणा के लिए सारा जीवन समर्पित करने की बात कर रहा है। मेरा लेख उस सम्वेदनहीन समाज के लिए है जो किसानों और श्रमिकों को आज भी निम्न दरजे का मानते हैं क्योंकि उनका कोई धर्म नहीं उनकी कोई जाति नहीं होतीसमाज यह भूल जाता है कि वे ही हमारे धरती पुत्र हैं। ये हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि हम पूर्वजों के कर्म और श्रम को ही भूल बैठे हैं किन्तु अब सोचना होगा, उनके कर्म और श्रम को आत्मसात् करना होगा तभी समाज प्रगति कर सकेगा।


         वॉनगो और निराला ने उनकी वेदना को, उनके श्रमसाध्य जीवन को आत्मसात् कर अपनी तूलिका और कलम का आधार बनाया। जो उनकी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना और अद्भुत कृतियों का सृजन किया, जो आज भी समसामयिक हैं। यदि मैं यह कहूँ कि वॉनगो-निराला अपने-अपने क्षेत्र के स्थापित संवेदनिय आधारभूत सिद्धान्त थे तो आश्चर्य न होगा। ये दोनों ही श्रमिकों, मजदूरों के अन्तस की लीला को अनुभव कर अनवरत चित्रण करते रहे, उनकी वेदना में अपनी संवेदना को घोलते रहे और उसके अनुरूप ही उसी परिवेश और परिदृश्य में विचरण करते रहे, तब जाकर उनके चनिन्दा कथ्य को अपने अपने फलक पर चित्रित कर सके। विशेष बात यह रही कि निराला की तरह वानगो भी गृहनगर न्यूनेन के ग्रामीण जीवन से जुड़ गए थे। निराला को गाँव में रहकर ऊँच-नीच के भेदों की अमानवीय स्थितियों और आभिजात्य वर्ग की थोपी हुई मान्यताओं से उत्पन्न दयनीय स्थिति की तीव्र अनुभूति यहीं हुई। इसी प्रकार वॉनगो को भी ऊँच-नीच के भेद और छद्म कुलीनता आदि के प्रति विद्रोही स्वर ग्रामीण अंचल से ही मिले।


        वॉनगो ने प्राचीन आभिजात्य परम्पराओं और रूढियों को नकार कर आन्तरिक सौन्दर्य को मानवता में खोजा। जिस समय योरोप में भौतिक सौन्दर्य के चित्रण के लिए सुन्दर ‘मॉडलों से अभ्यास किया जा रहा था, उस समय वानगो देहात के श्रमिकों के वेडौल चेहरों में करुणा का सौन्दर्य तलाश रहे थे। किसानों और झाइयों वाले खुरदुरे और कठोर चेहरों में एक अद्भुत सौन्दर्यानुभूति होती थी क्योंकि उनकी करुण कहानी की कव्यानुभूति ही उन्हें एक कथ्य देती थी, साथ ही साथ प्रकृति के सौन्दर्य को भी वे इन पात्रों से मिलाकर देखते थे। उनकी इसी शाश्वत सौन्दर्य-दृष्टि ने उन्हें विश्व स्तर पर स्थापित किया। उन्होंने कला की शास्त्रीयता को इसी मानवीय सरोकार को समर्पित किया, उनके लिए न्यूनेन निराला का गढ़ाकोला था-वहाँ चतुरी और कुल्ली भाट थे तो यहाँ हथकरघे पर बैठा हुआ जुलाहा और कर्म योगी किसान था। जिस समर्पण, श्रद्धा और शक्ति से प्रेमचन्द्र, निराला और गोर्की ने इन कर्म योद्धाओं को देखा, उसी भाव और वेदना से वॉनगो ने भी इन्हें देखा और उसी करुणा से ओतप्रोत होकर इनका चित्रण किया यही इनके चित्रण का स्वरूप था।


हैड्स ऑफ पीजेंट


       इनकी मानवतावादी दृष्टि में ‘महामानव' और ‘लघुमानव' में अन्तर नहीं था। पर वॉनगो ने ‘लघुमानव' के चित्रण पर विशेष बल दिया है। इनकी चित्रण-श्रृंखला “ हेड्स ऑफ पीजेन्ट'' में किसान जीवन के सभी पक्षा देखे जा सकते हैं।


        उन्होंने उनके जीवन के साथ ऐसा तादात्म स्थापित किया, जिससे उनका सम्पूर्ण दुरूह जीवन उनके चेहरों पर उतर आया है। इन चित्रों में वॉनगो की रेखाओं की शक्ति को देखा जा सकता है। वे किसान-जीवन की त्रासदियों को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाना चाहते थे। अगर आज के सामाजिक संदर्भ में वॉनगो की इन संवेदनीय बातों के अर्थ खोजें तो निर्थक प्रतीत होंगी क्योंकि आज सम्पूर्ण मानवजाति में सम्वेदनशीलता अन्तिम पायेदान पर खड़ी है।


        वॉनगो और निराला अपनी कला साधना उसी स्तर पर करना चाहते थे, जिस स्तर पर किसान कर्म-साधना करता है। इसी संदर्भ से जुड़ा हुआ वॉनगो का १८८५ में थियो को लिखा पत्र है-मेरी कोई दूसरी इच्छा नहीं है जितनी प्रबल इच्छा ग्रामीण अंचल की गहराइयों में जाकर किसान जीवन के चित्रण की है। मेरा विचार है कि मैं अपने लिए एक कार्य क्षेत्र निर्धारित करके हल पर हाथ रखकर रेखाएँ खीचें।' जिसे उन्होंने अपने चित्रों में साकार भी किया है। इसीलिए वॉनगो की सबसे पहली चित्रशाला न्यूनेन गाँव की जमीन और निराला की गढ़ाकोला के गाँव की जमीन थी। इसीलिए उनके चित्र और काव्य से धरती और फसलों की सोंधी महक और धरती-पुत्रों का संगीत प्रसारित होता है। पाउस्तोवस्की ने वॉनगो के पैलेट को आल्स की मिट्टी के टुकडों से सना हुआ कहा है। यह वही आल्स है जिसको वॉनगो ने अपने रंग संयोजन से संवारकर अपनी कला का मुख्य आधार बनाया। चित्रकला में पाउस्तोवस्की के अनुसार 'वॉनगो ने धरती को कैनवास पर उतार कर चमत्कारिक कर्म-जल से प्रक्षालित करके रंगों से चमत्कृत कर दिया। यही निराला को अभिव्यक्ति का आधार रहा। डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला के लिए कहा है कि उनके साहित्य की जड़े देश की धरती और देश की साधारण जनता में गहरी चली गई हैं।'


      इस प्रकार यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि श्रमिक किसान का चरित्र कलाकारों, साहित्यकारों का प्रेरणास्रोत रहा है। वर्षों पहले वॉनगो-निराला ने जितने आवेग से उनकी वेदना को कृतियों में सजित किया, उतने ही आवेग से जनमानस ने उस वेदना का वरण कर श्रमिकों और किसानों के प्रति सहानुभूति दिखाई थी। किन्तु आज के संदर्भ यदि देखें तो सम्वेदनाओं के घाट ही सूखे पड़े हैं।


      वॉनगो और निराला का रचना संसार इन्हीं संवेदनाओं से भरा हुआ है। वॉनगो के चित्र एक ओर तीव्र संवेदना देते थे तो दूसरी ओर विचारोत्तेजना भी। ‘‘किसान का धरती के साथ संघर्ष वॉनगो के रंगों के साथ संघर्ष के समान था, इनके चित्र कर्म-योग के क्षेत्र में इस अर्थ में एक उदाहरण हैं कि संसार के बुद्धिजीवी कलाकारों और शारीरिक श्रम करने वालों के मध्य सहानुभूति और रुचियों की घनिष्ठता का सम्बन्ध श्रम-साधना से कायम रह सकता है। किन्हीं सन्दर्भो में ये दो वर्ग अलग-अलग हैं। परन्तु कर्म-साधना इन दोनों में एकता स्थापित कर देती है। इसलिए वॉनगो उतनी ही लम्बी और कठोर कला–साधना करते थे, जितनी एक किसान खेतों में।'' इसी प्रकार निराला भी अपने तीव्र रचनात्मक सम्वेग में खोकर चित्रण करते थे।


     हम देखते हैं कि दोनों कलाकारों ने अपनी इसी दृष्टि से प्रारम्भ में ही बंधी-बधाई सामाजिक और देशज सीमाओं को पार कर लिया था। आगे चलकर इसी मानवीय और प्रगतिवादी दृष्टिकोण ने इनको विश्व स्तर पर स्थापित कर दिया। दोनों की कलाओं का प्राण तत्व मानवीय करुणा है। इसीलिए दोनों को एक स्वर से सामाजिक चेतना और मानवीय करुणा का कलाकार कहा गया है। निराला जी की काव्य साधन का एक भाग ही जन सामान्य को समर्पित है -


                        '' जन-जन जीवन के सुन्दर


                                  हे चरणों पर


                              भाव-भरण भर


                     दें तन-मन-धन सौछावर कर ।''


    वॉनगो के न्यूनेन प्रवास की कला जनसामान्य को समर्पित है। यहाँ उनके कैनवास के प्रमुख पात्र आलू बोने वाले किसान, हथकरघे पर काम करने वाले किसान, खेत में काम करने वाले श्रमिक आदि थे। वॉनगो का साधन तूलिका थी परन्तु उसे वे लेखनी के स्तर पर प्रयोग करते थे जैसे ‘पोटैटो ईटर्स'।


       


                                                                       पोटैटो इंटर्स


        चित्र को उन्होंने एक कथ्य की तरह वर्णात्मक चित्रण किया हैं जिस प्रकार निराला की लेखनी तूलिका बन जाती थी- भिक्षुक, या अन्य रचनाएं। जिनमें एक -एक तूलिकाघात विषय को और भी बल प्रदान करता हैं। वॉनगो के विषय में जॉन ए वाकर' ने अपनी पुस्तक ‘वॉनगो स्टडीज' में लिखा है कि वॉनगो किस हद तक किसानों के लिए समर्पित थे ‘‘वॉनगो चित्रण और कषि- कर्म में लाक्षणिक व्यंजना का समीकरण स्थपित करते. थे-रिक्त कैनवास खेत बन जाता है, रंग रोगन के विविध प्रभाव धरती बन जाती है, तूलिका हल बन जाती है, तूलिकाघात खेतों की जुताई हो जाते हैं और सृजन का कार्य बीज बोने के समान हो जाता है। कलाकार ईश्वर के समान सृजक है। ईश्वर मिट्टी से मानव जाति की रचना करता है। कलाकार पृथ्वी के रंग-रोगन से मानव बिम्ब बनाता है।''


      वॉनगो और निराला अपने सृजन कार्य को धार्मिक श्रद्धा और कर्मयोग मानते थे। इसीलिए उनका सामाजिक यथार्थ का चित्रण मात्र यथार्थ न होकर अध्यात्म से जुड़ा है। वॉनगो और निराला ऐसे जनवादी चितेरे थे जिनका चित्रण राजनीति या जन-आन्दोलन से प्रेरित न होकर शुद्ध कलात्मक स्तर का ही था। निराला ने अपने गद्य, रेखाचित्र और काव्य में किसान-जीवन का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है‘जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,


                       '‘जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,


                        तुझे बुलाता कृषक अधीर,


                            ऐ विप्लव के वीर!


                        चूस लिया है उसका सार


                            हाड़ मात्र ही है आधार


                            ऐ जीवन के पारावार !''


       निराला ने किसानों की भूमिका के महत्व को समझ लिया था। वॉनगो की तरह निराला ने भी अपने काव्य में दलित, शोषित और कृषकों की विषम एवं वेदनामयी स्थितियों का विशद् चित्रण किया है। विषय के अनुरूप ही सहज भाषा शैली का प्रयोग किया गया है। यदि देखा जाए तो छायावादी काव्य की ‘तोड़ती पत्थर', ‘भिक्षुक', और ‘विधुवा'आदि कविताएँ प्रभाववादी-चित्रण का प्रतिनिधित्व करती हैं। वॉनगो के चित्रों में ‘ओल्डमैन इन सारो' (दुखी मानव)।


दुखी मानव


      ‘पीजेन्ट वूमेन डिगिंग' (जमीन गोड़ती हुई किसान महिला) ‘पीजेन्ट विद सिकिल' (हँसिया लिए हुए किसान) चित्रों के विवरण से वस्तु-प्रधान विम्व के अन्तर्गत निराला की कविता, ‘तोड़ती पत्थर' के सम्बन्ध में केदारनाथ सिंह की टिप्पणी जो वॉनगो के उक्त चित्रों की व्याख्या करती है


     “निराला की कविता 'वह तोड़ती पत्थर' चित्र की एक भी रेखा, एक भी रंग का उभार ऐसा नहीं है जो हमें विषय वस्तु से दूर ले जाता हो। जो जितना जहाँ है कवि ने उसी को गहरी मानविय संवेदना में डुबो कर पाठक के सामने ज्यों-का-त्यों रख दिया है। छायावादी कविता में इस तरह के उदाहरण वहुत नहीं मिलते।'' इसी प्रकार ‘ओल्ड मैन इन सारो' में अद्भुत रेखा-विन्यास से दु:खी मानव का मात्र एक चित्र है जो अपनी मुद्रा से ही अपनी पीड़ा और दुःखों को सम्प्रेषित करता है। चित्र में चेहरा भी नही दिखाई देता क्योंकि चेहरा हांथों से ढका हुआ है। पृष्ठभूमि में कुछ भी चित्रित नहीं है जिससे वह मनुष्य के एकाकीपन को भी उभारता है, जो चित्र के भाव को और भी गहन कर देता है। चित्र में कहीं भी अनावश्यक रेखांकन नहीं है।


पीजेंट वुमेन डिगिंग 


          में जमीन खोदती हुई एक महिला का ऐसा चित्रण है जिसमें उसके शरीर का कोई अंग चित्रित नहीं हुआ है, यहाँ तक कि उसका चेहरा भी नहीं। इसमें महिला का केवल ‘ऐक्शन' ही चित्रित होकर, फावड़ा और मजबूत हाथों के साथ जमीन से उसका संघर्ष व्यक्त होता है। इसी प्रकार ‘पीजेन्ट विद सिकिल' में हसिये के साथ किसान के चित्रण में वॉनगो ने इनी- गिनी रेखाओं से फसल से भरे खेत में कर्मरत किसान


                                                                   पीजेंट विद सिकिल


 को उसकी लय के साथ चित्रित किया है। इस चित्र में चेहरे की अपेक्षा उसके हाथों और पैरों के संयोजन से दृढ़ गतिमान रेखाओं का प्रयोग किया गया है, बाकी सारे हिस्सों को मात्र ‘सजेस्ट' किया गया हैइस प्रकार के चित्रण के लिए कल्पना से हटकर यथार्थ चित्रण ही इनका आधार है। निराला जी ने भी 'भिक्षुक', 'तोड़ती पत्थर' जैसी कविताओं कि रचना से पहले प्रत्यक्ष रूप से इन्हें देखा होगा और सूक्ष्म निरीक्षण करके एक कुशल चितेरे की भाँति गिने-चुने शब्दों के सजेशन' से उन्हें मूर्त कर दिया होगा। कितना मुश्किल होता है बिम्बों को उस रसानुभूति तक या उस आवेग तक व्यक्त करना जिस आवेग तक स्वयं कलाकार ने अनुभूत किया हो। इसीलिए वॉनगो-निराला के चित्र-काव्य अन्तस की सम्वेदना से जुड़े हैं तभी वे आज भी हमें झकझोर देते हैं। आज के संदर्भ में यदि बात करें तो हर सामाजिक अपनी सम्वेदनीय दृष्टि को वहाँ तक विस्तारित करे जहाँ श्रमिक, किसान असंख्य वेदनाओं से कराह रहे हैं, फिर आप को वहाँ ‘मिले', 'वॉनगो', 'निराला', ‘प्रेमचन्द्र' साथ ही और भी चित्रकारों, साहित्यकारों के चित्र स्पष्ट होते हुए नजर आएंगे।


      इसलिए समाज के लिए नहीं, देश के लिए नहीं, विश्व के लिए नहीं, सम्पूर्ण मानवजाति के लिए सभी की अनिवार्यता हैवॉनगो ने थियो को वर्षों पहले पत्र में लिखा था- “व्यक्तिगत रूप में एक व्यक्ति सम्पूर्ण मानवता की एक इकाई है।''


     वॉनगो और निराला के प्रतीकात्मक चित्र भी किसानों और श्रमिकों की अतिसम्वेदनशील जीवन गाथा से ही प्रभावित हैं। जहाँ इन्होंने प्रकृति के उपादानों को प्रतीक रूप में चुना है, वहाँ प्रकृति की व्यापकता को अपने भावनात्मक विस्तार के साथ जोड़ दिया है और सामाजिक सन्दर्भो में जिन प्रतीकों को चुना है, उनमें विचारोत्तेजना के साथ-साथ व्यंग्य भी है। निराला का ‘कुकुरमुत्ता' जहाँ एक ओर शोषित वर्ग का चर्चित प्रतीक है और अपनी प्राकृतिक अस्मिता से शोषक वर्ग पर तीखा प्रहार करता है वहीं वॉनगो के “ए पेयर ऑफ ओल्ड शूज'।


ओल्ड शूज


 श्रृंखला के चित्र किसानों के जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करा देते हैं। किसानों के पुराने जूतों से धरती की मौन पुकार ध्वनित होती है।'' दोनों कलाकारों ने इसी प्रकार के अनेक सशक्त प्रतीकों का अपनी कला में प्रयोग किया है। वॉनगो का न्यूनेन काल का एक चित्र ‘पिजेन्ट सेमिटरी'। जिसे १८८५ में बनाया था। इस पर स्वयं वॉनगो की टिप्पणी उनके भाव-विस्तार और तीव्र संवेदना को व्यक्त करती है- “मैं इसमें व्यक्त करना चाहता हूँ कि ये कब्रिस्तान ध्वंसावशेष प्रतिबिम्बित करते हैं कि युगों से किसान कैसे उन्हीं खेतों में चिरकालिक विश्राम के लिए दफन कर दिए जाते हैं जिनको वे जीवित रहते गोड़ा करते थे। में यह भी व्यक्त करना चाहता हूँ कि सामान्य मृत्यु और उनका दफनाना उसी तरह सामान्य- सा है, जैसे पतझड़ में पत्तियों का झड़ना-एक जमीन काखुदा हुआ टुकड़ा और क्रॉस लेकिन किसानों का जीवन और उनकी मृत्यु का सत्तक्रम उसी प्रकार चलता रहता हैजैस चर्चयार्ड में घास और फूलों का उगना-खिलना और मुरझा जाना।''


पिजेंट सेमिटरी


           इससे स्पष्ट होता है कि सदियों से किसानों और श्रमिकों की वेदना, कलाकारों के फलक का विषय रही किन्तु अतिसंवेदनशील वॉनगो और निराला की अभेददृष्टि ने उनकी वेदना की अतलगहराइयों में जा कर उस कथ्य को समेटा जो सुन्दरता से परे भावपूर्ण रूपाकारों से भरा पूरा था। इसलिए इनकी रचनाएं आज भी समसामयिक हैं।


                                                                         सम्पर्क : असिस्टेण्ट प्रोफेसर ६, रवीन्द्र निवास बनस्थली विद्यापीठ राजस्थान-३०४०२२