पिछले तीन दशक से हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से जीवनयापन। लेखन से अधिक पढने का शौक। कहानी विधा, इसलिए पसंद क्योंकि इसमें बात को भिन्न-भिन्न ढंग से रखने की अधिक गुंजाइश। संप्रतिः पीटीआई भाषा में कार्यरत।
चीफ रिपोर्टर का काम वड़ा किचाइन होता है। शहर में कुछ भी हो जाए,...मुसीबत चीफ रिपोर्टर की। हर बात का जवाब दो। यह साला सम्पादक भी.....दिनोंदिन सठियाता जा रहा है। कल मकरानपुर की सड़क धंस जाने की इतनी बड़ी खबर देर से देने के कारण भड़क गया। कह रहा था, आप की वजह से डेडलाइन मिस कर गए। आप जानते हैं कि शेड्यूल से दस मिनट भी पिछड़ने से कितना नुकसान होता है।
अब इस खब्ती को कौन समझाए कि कोई सड़क अखबार की डेडलाइन का ध्यान रखकर तो धसकेगी नहीं। इतनी बड़ी खबर यदि अखवार में नहीं जाती तो कल सारा पत्रकारिता इतिहास समझा दिया जाता। मझे ‘‘डेड वड'' घोषित कर दिया जाता। सुबह की मीटिंग में एक साथ कई रागों के जलतरंग बज उठते ।।
वैसे अपना क्राइम रिपोर्टर भी है गजब चीज! ।
थानेदारों से मिलने में जितनी तत्परता दिखाता है, उतनी ही फुर्ती वह खबरें लिखने में दिखाये तो मेरा आधा सिरदर्द खत्म हो जाए। बहुत दिनों से वह एक सहायक मांग रहा है। अब इसे कौन समझाये कि आए दिन संपादक धमकाता रहता है....“इतने बड़े लोकल ब्यूरो के साथ तो में चार अखबार निकाल सकता हूं।''
यहां लोकल ब्यूरो पर ही तलवार लटक रही है और इस पट्टे को एक सहायक चाहिए।
वेज बोर्ड क्या लागू हुआ, ऐसा लगता है कि प्रबंधन किसी अति पिछड़े देश की अर्थव्यवस्था का वित्त मंत्री हो गया हो। अब १५ साल में तिल-तिल कर बढ़ती तनख्वाह महंगाई से प्रतिस्पर्धा कर फेंचकुर फेंकने लगी थी। दमे के मरीज की तरह हांफने लगी थी। इस वेज बोर्ड के प्रकाश स्तंभ को दिखाकर घर में श्रीमतीजी एवं बच्चों की कितनी जायज-नाजायज मांगों को प्रशांत महासागर की गहराइयों में डुबोकर आगे वढे हैं। सुबह उठने के साथ ही समाचार की चिंता से ज्यादा इसकी फिक्र लगी रहती है कि कौन-सा नया खर्च मुंह बाएं खड़ा हो जाये। स्कूटर का पिस्टन बदलवाना है। मैकेनिक कह रहा था, “बाबूजी किसी दिन चलते-चलते बैठ जाएगा।'' पर हम है कि उसी स्कूटर को रगेदे जा रहे हैं। वेजबोर्ड आने के बावजूद नया स्कूटर खरीदने की तो नहीं, पर पुराने का पिस्टन बदलवाने की अवश्य सोच रहे हैं। पर दिमाग की बात प्रायः वास्तविकता तक आने में कई सीढ़ियां लुढक जाती हैं। जेव की कमजोरी प्रायः उमंगों के पैरों में पोलियों ला देती है। हर समय कदम साध-साध कर चलना संभव भी कहां?
अब लो! यह भैरू बाबा धमक गए...।।
उफ, इस भैरव प्रसाद का क्या करू? रोज-रोज कर्जा वसूलने वाले पठान की तरह धमक पड़ता है। पठान । है तो जाकर सूबे पर बैठे।।
भैरव प्रसाद आया तो औपचारिक अभिवादन के बाद में मेज पर पड़ी तमाम कॉपियों में लग गया। पत्रकार की आदत में होता है कि हर काम डेडलाइन पर ढुरका देता। है। डेडलाइन उसके लिए एक सुरक्षा कवच होती जाती है। कॉपियों में उभरे छोटे-बड़े काले बरसाती कीडेनुमा शब्द। कई बार डर लगता है कि इनकी कालिमा चश्मे के शीशे को भेदती हुई मेरी आंखों में धंस रही है। मेरी आंखों में काले मोतिया बिन्द की जमीन तो तैयार नहीं हो रही। कॉपियां पढ़ते समय में बीच-बीच में कनखियों से उसे भी देख लेता हूं। भैरव प्रसाद तसल्ली से बैठा हुआ था। मुझे लगा कि वह ठीक मेरे सामने बैठा है किन्तु प्रकाश उस तक पहुंचते पहुंचते फिसल रहा है। पीला होकर।
वह यूपी एजुकेशन बोर्ड में खलासी था। पक्की नौकरी। सरकारी नौकरी में जितना काम करना चाहिए, वह उतना कर लेता था। अब सेवानिवृत्त होने के बाद भले ही उसे पेंशन मिल रही हो, पर ‘‘मुफ्त हाथ लग जाए तो बुरा क्या है'' की अपनी आदत का क्या करे? कुन्दन कुमार की सिफारिश से मेरे पास आ गया है। इस बीच शाम की चाय आ गई। कैंटीन के लड़के ने विना कुछ कहे मेरे सामने चाय का गिलास रख दिया। मैंने इशारे में उससे भैरव को भी चाय देने के लिए कहा। वह हर बार चाय का गिलास मेज से उठाता। फिर चाय सुडकता। सुकने से पहले पूंछों से लदा उसका ऊपरी ओंठ गोलाकार होकर थोड़ा खुलता। चाय की मामूली सी गर्मी को बिसारते हुए वह पूंट भरता।
एकाएक मुझे कुछ सूझा। मैंने कॉपी को एक तरफ खिसकाते हुए भैरव से कहा, “आपके लिए एक काम है। तो.....पर थोड़ा संकोच है कि आप....''
उसने ठेठ आत्मविश्वास से कहा, “जी..काम तो काम है। उसमें कैसा संकोच?''
“हमारे अखबार में क्राइम की खबरें छपती हैं... समझे, क्राइम की। आप क्या जिला अस्पताल में किसी को जानते हैं?''
“जानता तो किसी को नहीं। पर अपना शहर है, अपने लोग हैं। आप तो बस काम बताइये?''
मैंने अपने बात कहने के ढंग को औपचारिक की जगह कुछ मुलायम बनाते हुए कहा, “भैरवजी, हमें कभी-कभी क्राइम की खबरों में पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यदि आप मोर्चरी में जाकर किसी से जान-पहचान बना तो यह काम आसान हो जाएगा। वैसे मोर्चरी में पोस्टमार्टम डॉक्टर नहीं करते हैं। यह तो मोर्चरी वाला ब्वॉय करता है। मुर्दा शरीर को फाड़ना कोई आसान है क्या? साले चिकने-चिकने नए डॉक्टरों की तो फट पड़ती है, उघडे हुए मुर्दे को देखकर। आला लटका कर मजबूरी में आते हैं। मुंह पर कपड़ा बांधकर। डरते रहते हैं कि वहां की किसी चीज से स्पर्श न हो जाए। और पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर बस चिड़िया बैठाकर भाग लेते हैं।''
अपने दिमाग के इस चंटपन से मैं बहुत अभिभूत था। उमस में पंखे के नीचे भी हो रही चिनमिनाहट के बावजूद में पता नहीं क्यों खुश था। पर मन के किसी कोने में यह बात भी अच्छी तरह बैठी थी कि यह प्रस्ताव कभी स्वीकार नहीं होगा।
भैरव ने मेरी उस चिनमिनाहट को एकाएक फिर बढ़ा दिया। सहज ढंग से हामी भर दी। मानो उससे बाजार से हरी धनिया लाने को कहा गया हो।
कुछ देर के मौन के बाद भैरव बोला-''सरजी! दिन कटता नहीं है। घर के सारे काम तो सूरज निकलने से पहले ही हो जाते हैं। अब इस उम्र में पैसा चिंता नहीं है। पिंशन से सब हो जाता है। असल दिक्कत है। समय काटना। कुछ दिन पीने-पाने का पिरोग्राम भी चला पर उसमें भी कोई मजा नहीं।''
मैं उमस से बहुत परेशान था। एक कूलर था। पर उसकी मोटर बनने गई है। मैंने मौन की कनात को ताने रखा। किन्तु भैरव, ने उसे परे करते हुए कहा सवाल किया, " वैसे सरजी!! इस काम में कुछ मिलेगा भी क्या?''
उसके इस सवाल ने मुझे थोड़ा कठिनाई में डाल दिया। क्योंकि वात के इतनी दूर तक पहुंचने के बारे में मैंने सोचा ही नहीं था। मैंने एक कॉपी को उठाया और अपने बाल पैन की टिप पर जमे स्याही के छोटे से थक्के को उसी कापी के हाशिये के कोने से थोड़ा मोड़कर साफ किया। इस थक्के की वजह से प्रायः लिखते समय अनावश्यक मात्राएं और बिन्दु कॉपी पर स्वतः उभर आते हैं। मैंने इसके बाद मैसेंजर को बुलाकर एक कॉपी थमाते हुए कहा कि इसे पहले पेज के प्रभारी को दे आओ और उनसे कहना कि पेज पर चिपकाने से पहले एक बार गेली मुझे दिखा लें।
फिर मेरी नजर भैरव से टकराई । पता नहीं क्यों भैरव को देखकर मुझे कुन्दन कुमार की याद आ गई। मुझे लगा इसे कुन्दन ने नहीं भेजा, बल्कि यह कुन्दन का ही विस्तार है। विस्तारवाद की घाटियों की धूप इतिहास ही नहीं वर्तमान में भी अपनी हरारत वनाए हुए है।...व्यष्टि स्तर पर भी। पर आखिर यह प्रवृत्ति पलती कहां हैं?
मेरी आंखें इतिहास में भटकने लगीं। कुन्दन और मैं एक ही गांव के थे। हमने साथ ही पढ़ाई की। साथ ही पत्रकारिता शुरू की थी। कुन्दन ने कुछ ही दिन में हम सब के बीच अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। ‘ट्रेनी' रहते ही उसने एक कार खरीद ली थी। सेकेंड हैण्ड स्टेण्डर्ड कार। जी हां, वही स्टेण्डर्ड कार जिसका अगला दरवाजा उल्टा खुलता था। यह कार पुरातात्विक महत्व कम बीच में रुकती ज्यादा थी। लेकिन कुन्दन की कार यह बता रही थी कि वह स्पीड में यकीन रखता है। उसे जल्दी जल्दी कहीं पहुंचना है, कुछहासिल करना है। क्या यह शायद वह भी नहीं जानता था। अक्सर इस स्टेण्डर्ड कार को धक्का देते कुन्दन मिल जाता था। प्रेस क्लब, अखबार की कैण्टीन, न्यूज रूम में कुन्दन की स्टेण्डर्ड कार हंसी-मजाक का एक विषय हुआ करती थी। लेकिन कुन्दन इस सबकी परवाह नहीं करता था। उसे तो बस तेज दउड़ना था। सबसे आगे निकलना था। लोग पहले कुन्दन के सामने इस पर बात नहीं करते थे। लेकिन बाद में कन्दन की उपस्थति कीमैकमोहन लाइन को भी पार कर लिया गया। उसके सामने ही स्टेण्डर्ड कार का मजाक उड़ने लगा।
एक दिन मैंने उपदेष्टा भूमिका अपनाते हुए कुन्दन को समझाया, “यार ! क्यों अपने को बिजूका बना रखा है। छोड़ यह सब। कोई स्कूटर खरीद ले।''
कुन्दन कुछ नहीं बोला। बस मुस्करा दिया। किन्तु उसकी आंखों में कुछ लाल डोरे थे। वह दूर देख रहा था। कहां स्कूटर अउर कहां गाड़ी। उसे शुरू से ही गाड़ी पसंद थी। यह उसकी जिद थी कि टू व्हिलर पर वह कभी सवार नहीं होगा। कार लेकर उसने अपनी यह जिद पूरी की थी।
वक्त बीता अउर बीतता रहा। कुन्दन कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर गया। करीब एक पखवाड़े बाद लौटा तो ई प्रीमियर कार थी। कुन्दन तेजी से आगे निकल रहा था। पीछे की दुनिया की वह परवाह नहीं करता था। नई प्रीमियर कार ने अटकलों का बाजार गर्म कर दिया। अटकलों का सनसेक्स रुका इस नतीजे पर कि कुन्दन की शादी एक पीसीएस की लड़की से होने जा रही है। शादी की बस एक ही शर्त थी कि पहले प्रीमियर कार चाहिए। प्रीमियर कार में वह बड़े उत्साह के साथ मुझे भी बैठाकर सिविल लाइंस तक ले गया। शेरवानी सिलने के लिए देनी थी। मैंने कार, बीच में मोडकर सुभाष नगर तक चलने को कहा। कुन्दन ने मेरी तरफ देखे बिना कहा, ''वहां नहीं जा सकते। टाइम कम है।'' टाइम कम था। अउर दूर जाना था।
हम सिविल लाइंस के उस मशहूर टेलर के यहां गए। कुन्दन कई कपड़े निकलवा कर देखता रहा। अउर में टेलर की दुकान के बाहर सिविल लाइंस में फुटपाथ आ जा रही भीड़ को देख रहा था। मुझे लगा कि उस भीड़ का हर आदमी चल नहीं रहा, बल्कि स्टेवल हो गया है। अधिक तेजी से चलने पर भी ऐसा ही लगता है। फिर मैंने सोचा कि यह भीड़ कुछ तलाश रही है। हर कोई अपने भीतर कुछ दवाए है। क्या पता नहीं। कुन्दन ने एक-दो बार किसी खास कपडे के बारे में मेरी राय ली। मैंने हर कपड़े को ‘‘उम्दा’ और ‘‘बेहतरीन'' बताकर उसकी उलझन को और बढ़ा दिया।
शेरवानी फाइनल कर हम वहां से बाहर तक आए। कार तक मैं कुन्दन के साथ गया। कन्दन जब कार खोलकर बैठ गया तो मैंने कहा कि मैं उसके साथ नहीं जाऊंगा। कुन्दन ने कुछ नहीं कहा। पहले उसने मेरी ओर कुछ देर देखा और फिर वह वह बैक मिरर में देखने लगा।
प्रीमियर कार आते ही कुन्दन की जिंदगी फर्राटे से दौड़ने लगी थी। हमारे बैच के सभी लोगों ने छह माह की ट्रेनिंग और छह माह की प्रोबेशनशिप की थी। कुन्दन छह माह में ही कन्फर्म रिपोर्टर बन गया। समय-समय पर कुन्दन कार बदलता रहा और नौकरी भी। आज वह खाडी के एक देश से निकलने वाले एक प्रसिद्ध अखबार में एशिया पैसेफिक एडीटर है।
इसी एशिया पैसेफिक क्षेत्र का एक देश है भारत । उसमें आबादी के लिहाज से सबसे बड़े राज्य में निकलने वाले एक हिन्दी के अखवार का मैं चीफ रिपोर्टर हूं। कुछ ही महीने पहले मैंने भी एक नया बजाज स्कूटर खरीद लिया है। स्कूटर चलाते समय कभी कभी मौज आने पर मैं फुटबोर्ड से अपना बायां पांव थोड़ा अधिक था। ही बाहर निकाल लेता हूं। साथ ही अपने दायें कंधे को थोड़ा तिरछा कर स्कूटर चलाता हूं। स्कूटर चलाते समय एक-दो बार जब कुन्दन की याद भी आ ही जाती है। मन को समझाने के लिए कहता हूं...भले ही वह एशिया पैसेफिक एडीटर हो, वड़ी सी लग्जरी कार में चलता हो (यह अनुमान से लिख रहा हू) पर उस अखबार का चीफ रिपोर्टर तो नहीं बन पाया जहां वह कभी ट्रेनी रिपोर्टर था। पता नहीं ये मेरा विजयघोष था या पराजयबोध। मैं इतिहास की इस दुविधाजनक मडि को छोड़ कर वर्तमान में लौट आया। भैरव उसी तरह बैठा था।
मैंने भैरव से पूछा, “क्या आपके पास कोई वाहन है?''
‘साइकिल।''।
यह सुनते ही मेरे मन में सवाल उठा कि क्या कोई साइकिल से एशिया पैसेफिक नाप सकता है ? भैरव; नहीं.... यह तो शायद उससे भी आगे जा सकता है शायद।।
मैंने अपने सवालों का गला घोंटते हुए और चेहरे । पर सराहना के कृत्रिम भावों को उगाते हुए कहा, “बहुत अच्छे।....... साइकिल से तो बहुत आसानी हो जाएगी। आप यहां रोज भले ही न आएं पर अस्पताल रोज जरूर जाया करिए। किसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जरूरत हुई तो मैं आपको खबर करवा दूंगा। आप शाम तक हमें दे दीजिएगा। हर रिपोर्ट पर आपको मैं दो रुपये दिया करूंगा।"
धन की बात आते ही भैरव की आंखों में कुछ पल चमक आई और फिर गायब हो गई। उसने थोड़ा आगे झुकते हुए धीमी आवाज में पूछा, “महीने में कितनी बार मेरी जरूरत पड़ सकती है?''।
मैंने कहा, “समझ लीजिए १०-१२ बार। कमी- वेशी हो सकती है।
उसने जवाब में बिना कुछ कहे सिर हिलाया। कुछ देर बाद वह अभिवादन करके चला गया।
भैरव अगले करीब १० दिन नहीं आया। मैंने राहत की सांस ली। मुझे लग रहा था कि यह काम इतना कर्रा था कि अब शायद ही आए। लेकिन मैं गलत था।
वह करीब एक पखवाडे बाद नमूदार हुआ। आते ही बिना किसी लागलपेट के बोला, “भाई साहव! कई दिन इसलिए लग गए कि सरहज की गर्मी में गांव जाना पड़ा। आप तो जानते ही हो रिश्तेदारी....।''
मैंने धीमे से अपनी बात कह दी, “अस्पताल का चक्कर लगा क्या, इस बीच?''
“अस्पताल की तो चिंता ही मत करिए। वहां जिस लड़के से काम है वह तो अपनी ही तरफ का ही निकल आया। सिरसागंज का। वह कह रहा था कि परवाह की जरूरत ही नहीं। पोस्टमार्टम तो क्या, जरूरत पड़ी तो पूरी लाश भिजवा देंगे।''
मैंने क्राइम रिपोर्टर को बुलवा कर भैरव से उसका परिचय करवा दिया। इसके बाद वहुत दिनों तक ऐसा कोई मौका ही नहीं आया कि भैरव का कोई उल्लेख आया हो।
इस बीच, शहर के एक ‘‘पेज थ्री'' व्यवसायी की एक बार में, बड़ी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। वह बार के एक छोटे से रूम में बैठकर अकेले ही ‘‘ठंडागरम'' कर रहा था। बाद में जब बार का बैरा उसके रूम में गया तो उसे जमीन पर मृत पड़ा पाया। हर समाचार की एक आयु होती है। समाचार का जीवनकाल उत्सुकुता की बैसाखी पर टिका रहता है। यह मौत तमाम कारणों से महत्वपूर्ण हो उठी। घटना रात में हुई थी। अगले दिन होली थी। ऐसे में पोस्टमार्टम लटक गया। अखबारों ही नहीं हर जगह व्यवसायी की मौत को लेकर तमाम तरह की अफवाहें-अटकलें थीं।।
मैंने क्राइम रिपोर्टर से बुलाकर इस मामले में बात की। साथ ही भैरव के बारे में भी पूछा।
क्राइम रिपोर्टर ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘भैरव, अब पहले वाला भैरव नहीं रह गया है। अब उसकी हमारे काम में कोई रुचि नहीं रही।''
हैरत जताते हुए मैंने पूछा, “आखिर ऐसा क्या हो गया?''
‘‘भैरव ने अब एक नया धंधा अपना लिया है। वह अब लाशों का धंधा करने लगा है।''
“यह मनोहर कहानी वाली शैली छोड़ो। सीधे सीधे बताओ कि क्या हुआ?''
क्राइम रिपोर्टर बोला, “सर, पोस्टमार्टम के लिए जो भी लाश आती है, उसके साथ आए हर रिश्तेदार- परिचितों को यह जल्दबाजी रहती है कि जल्द से जल्द यह काम पूरा हो ताकि अंतिम क्रियाकर्म किया जा सके। विशेषकर गांव से आने वाले लोग। वे चाहते हैं कि लाश को शाम से पहले गांव ले जाकर उसका क्रियाकर्म कर दें। समझ लीजिए कि भैरव अव पोस्टमार्टम करने वाले लडके का एजेंट बन गया है। वह पोस्टमार्टम जल्दी करवा देने का आश्वासन देकर लोगों विशेषकर गांव वालों से पैसा ऐंठता है। गांववाले भी बिना हील-हुज्जत किए पैसा दे देते हैं। बस समझ लीजिए, आपके भैरव का काम खूब फूल-फल रहा है।''
वह जब यह सब सुना रहा था तो मुझे न जाने क्यों मनको की याद आ गई।......अस्पताल में उस दिन भी तो कुन्दन मेरे साथ था।
मनको लड़कपन में हमारा लड़ थी। धरती पर पतली सी कीली के सहारे घूमती हुई। तेजी से धूमती तो लगता था कि यह किसी सीधे स्तंभ की तरह खड़ी है। । पर गति कम होते हुए वह चारों ओर झुकी-झुकी-सी नाचती थी। ठीक धुरी पर घूमती पृथ्वी की तरह। और हम राहु-केतु से उसके अक्ष पर ताली बजाते हुए उसे । देखा करते थे।
मनको का पूरा नाम मानवती था। छठवीं कक्षा तक आते-आते ही मनको की पढ़ाई छूट गई। पर मनको । भी गजब थी। बिल्कुल मधुमालती की लतर की तरह। उसका स्कूल छूटा था। स्कूल की ललक नहीं। कुछ साल बाद उसने अपने ही घर में एक स्कूल तो नहीं स्कूल के इरादे नुमा एक चीज खोल ली थी। पता नहीं किन-किन घरों से बच्चों को उठा लायी थी। किसी बच्चे की नाक बह रही थी। तो कोई धूल में सना। कुछ बच्चे नंगे पांव। गांव के गरीब अभिभावक। उनकी आंखों में टंगी फीस की चिंता। खुले-दबे स्वर में मनको से स्कूल की जब फीस पूछते तो मनको हंसते हुए हाथ हिला-हिलाकर कहती-“घर का बच्चा है, नन्द की भाभी। दो रुपया फीस है। जब मरजी हों दे दीजियो। महीने के शुरू या अंत में। न होए तो मांगने न आऊंगी कभी। बस एक गर्मागर्म चाय पिला दीजियो।''
स्कूल में मनको ने दो टीचर भी रख ली थी। बड़ी बहनजी...छोटी बहनजी।
जल्दी ही मनको का स्कूल मधु मालती की ऐसी वेल बन गया, जो सुबह-दोपहर छोटी-छोटी चिड़ियों से गुलजार हो जाता था। मधुमालती भी गजब होती है। इसमें । चिड़ियाएं बैठना तो पसंद करती हैं। पर एक भी चिड़िया इसमें घोंसला नहीं बनाती। शायद इस बेल की टहनियों में पारदर्शिता कुछ अधिक ही होती है। छोटी चिड़ियाएं जहां आती हैं, वहां धीरे से किसी दिन बाज भी आने लगता है।
“जो खिल सके न वो फूल हम हैं,तेरे चरणों की धूल हम हैं/प्रभु! दया की दृष्टि सदा ही रखना''... स्कूल की यह प्रार्थना बच्चों के साथ गाते गाते मनको के जीवन में एक दिन प्रभ की कपा ‘दष्टि हो गई। उसकी शादी की बात पक्की हो गई।
साथ ही कुन्दन ने उसे चिढ़ाना शुरू कर दिया था, “तेरा 'वो' तो कुल हाई स्कूल पास है। ऊपर से बैंक में चपरासी।''
मनको पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती, ‘‘देख लेना कुन्दन ! मैं उसे बीए पास करवाऊंगी और फिर वह बैंक में क्लर्क बन जाएगा...।''
कुन्दन ने फिर तो उसे ‘‘क्लर्क वाली'' कहना शुरू कर दिया। और एक दिन मनको अपने ‘‘उसे'' बीए पढ़ाने के लिए चली गई।
फिर हम भी अपने पढ़ाई में व्यस्त हो गए। मनको भी विवाह के बाद कई महीनों तक हमारी चर्चा से गायब रही। मेरे और कुन्दन के बीच मनको को लेकर कोई बातचीत नहीं होती थी। ‘‘बीए पास'' वाला मजाक भी नहीं।
दिनों की आपाधापी चलती रही। काफी समय बाद मनको घर लौटी। उसे जब मैंने देखा तो लगा कि यह वह मधुमालती की बेल नहीं हो सकती जिस पर कभी चिड़िया चहचहाया करती थी। मैंने कटाक्ष भरे अंदाज में ‘बीए पास'' के हालचाल भी पूछे। पर वह कुछ बोली नही। बस एक खीज भरी कृत्रिम मुस्कान उसने अपने चेहरे पर लाने का प्रयास भर किया। ऐसा लगा कि दीवारों पर कहीं कोई म्लानता की खाल उतर रही हो। बाद में कुन्दन ने बताया कि मनको भी दहेज उत्पीड़न के दंश को झेल रही है-ऐसा उसने गांव में उड़ते-उड़ते सुना।
फिर उमस भरी किसी एक रात में कुन्दन ने आकर मुझे जगाया। उसके शब्द मेरे सिर पर घन की तरह वजे- ‘यार ! मनको ने सुसाइड कर लिया।'' मैं नि:शब्द। मेरी आंखें न जाने क्यों बंद हो गईं। मैंने मनको की कई छवियों को स्मृति की झील से निकालने का प्रयास किया। किन्तु हथेली पर रखे पारे की तरह बहने लगी। कुन्दन ने हड़बड़ी दिखाते हुए कहा, “जल्दी चल।"
बदहवास से हम मनको के घर पहुंचे। मनको के पास से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला। दसर्वी फेल मनको! क्या लिखती सुसाइड नोट ? कुन्दन की उस छोटी-सी ‘‘पुर्जी'' का जवाब तक तो नहीं लिख पाई थी।
काफी रोना-पीटी मची। पुलिस आई। लाश कब्जे में लेकर पंचनामा बना। एक सिपाही मनको के शव को रेत ढोने वाले ट्रक में लादकर कर जिला अस्पताल लाया था, पोस्टमार्टम के लिए। उसके साथ मैं और कुन्दन तथा मनको के कुछ रिश्तेदार ट्रक के पीछे बैठकर अस्पताल आए।
अस्पताल का मुर्दाघर। आपने मोहल्लों के मकान देखे होंगे। आगे से नहीं पीछे से। उसमें एक छोटी सी हौदी होती है। घर का कचरा डालने के लिए। लोग उसका इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उस पर नजर डालनेसे बचते हैं। लोगों का प्रयास रहता है कि कचरा डालते समय भी उस पर नजर नहीं जाए। बस अभ्यास से उसमें कचरा डाल दिया जाता है। प्रायः इसीलिए कुछ इधरउधर बचता है। अस्पताल परिसर में भी मुर्दाघर प्रायः मुख्य इमारत के पीछे की तरफ ही होता है। जो लोग वहां से गुजरते हैं, वे भी इसी प्रयास में रहते हैं कि उधर नजर न पड़े।
मनको की लाश जव मुर्दाघर के अंदर गई तो हम में से किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया गया। पता नहीं पुलिस का सिपाही भी कहां गायब हो गया। मुझे याद आया कि मैटरनिटी होम के ऑपरेशन थिएटर में भी किसी को अंदर नहीं जाने दिया जाता। उघड़ा हुआ शरीर वहां भी है और यहां भी। पर एक जगह जीवन का क्रम प्रारम्भ होता है और दूसरी जगह उस यात्रा के थम जाने के कारणों का पता लगाया जाता है। पर क्या करें? जीवन ही जीवन का पता दे सकता है। मुर्दा केवल मौत के कारणों का पता-ठिकाना बता सकता है।
मुझे लगा कि तेज गति से भागने का कायल कुन्दन यह कभी नहीं समझ सकता। ठहराव के सापेक्ष ही गति को पहचान जा सकता है।
अस्पताल में प्रतीक्षा से ऊब कर मैंने कुन्दन से कहा, “चल चलकर चाय पीते हैं। अस्पताल के गेट वाली चाय की दुकान पर बहुत भीड़ है। उसी के यहां।''
अस्पताल में सारी कार्रवाई पूरे होते-होते करीब करीब आधी रात हो गई।
उसी ट्रक में हम वापस लौटे। बरसात के बाद की ठंडी-ठंडी हवा में हमें कव नींद लग गई, पता ही नहीं चला। पौ फटने से कुछ ही पहले ट्रक एक चाय की दुकान पर रुका। हम सब मनको के शव के बगल में सोए पड़े थे।
सिपाही ने हमें तेज आवाज में जगाते हुए कहा, “अरे उठ जाओ।....लाश के साथ तुम सब भी लाश बनकर सोए पडे हो।''
सम्पर्क : ए-८५ शालीमार गार्डन (मेन), साहिबाबाद, गाजियाबाद (उप्र), मोबाइल-०९९६८४४१२५८