कहानी - दोनों - परमानंद श्रीवास्तव

जन्म १० फरवरी १९३५, बाँसगाँव, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश। कविता संग्रह : उजली हँसी के छोर पर, अगली शताब्दी के बारे में, चौथा शब्द, एक अनायक का वृत्तांत कहानी संग्रह : रुका हुआ समय, नींद में मृत्यु, इस बार सपने में तथा अन्य कहानियाँ आलोचना की लगभग एक दर्जन पुस्तकें। कई पत्रिकाओं का संपादन सम्मान, व्यास सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, भारत भारती सम्मान निधन : ५ नवम्बर २०१३, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश 1


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      बड़ी ने चाय का प्याला छोटी के सामने रख दिया। छोटी को लगा, उससे कुछ गलती हो गई है.. उससे यह न हुआ कि खुद किचेन तक जाती और अपने लिए चाय का प्याला बनाकर ले आती ...जबकि और कोई तो इस वक्त चाय पीता नहीं। गलती पहली बार नहीं हुई थी और पछतावा भी पहली बार नहीं हो रहा था। माना कि इम्तहान के दिन हैं और कल भी पेपर हैही, पर यह भी तो कुछ ठीक नहीं कि सारा बोझ अकेले बड़ी पर ही पड़े। उसने बड़ी की ओर सहानुभूति से देखा, जो खिड़की की ओर रुख किए चुप खड़ी थी।


       आँखों के नीचे की लकीरें कुछ और गहरी हो गई थीं। आँखें उसी अनुपात में छोटी लगने लगी थीं-माथा पहले की अपेक्षा ढीला और शायद चौड़ा दिखाई देने लगा था-रंग पहले ही दबा हुआ था, अब उस पर एक गहरी उदासी की पर्त जमा हो गई थी। माँ के न होने के बाद यह सब तेजी से घटित हुआ। बड़ी की उम्र ड्योढी लगने लगी और उसके पूरे चेहरे पर एक माँ सरीखा चेहरा उभर आया।


      घर की हालत यों ही सी थी। पिता रिटायर हो चुके थे और कमरे में पड़े रहते थे। जब तक माँ थी, अपने दफ्तर के चलते वे जगह-जगह भटकते भी रहे पर यह उनके लिए शगल ही था-उनमें हमेशा एक चतुराई भरी चुस्ती बनी हुई थी।


      वे बहुतों के भाग्य-विधाता थे इसलिए अपने भाग्य को अलग से पढ़ने का अवसर ही न था। फिर वे तेजी केसाथ बुढ़ापे की ओर बढ़े और आज जिस कोठरीनुमा कमरे में लगभग पस्त पड़े थे, उसकी ओर देखना मुश्किल रहा था।


     कुछ चेहरे ऐसे होते हैं (या हो जाते हैं), जिन्हें आप देख नहीं पाते । जिन्हें सह पाना मुश्किल हो जाता हैएक वीरान बूढा चेहरा, एक भयानक रूप से अशक्त, असहाय लगने वाला चेहरा, एक हास्यास्पद रूप से भावहीन चेहरा। घर के दोनों लड़के बरसों से बाहर अलग-अलग शहरों में नौकरी पर थे-दोनों बैंक में लगे हुए-ठाठ का रहना-चुस्त फैशनपरस्त बीवियाँ-जमाने की हवा-मकान-फिज-स्कूटर-टी.वी. यानी सब कुछ। उनमें एक, बड़ा दो बच्चों का पिता था-बच्चे कान्वेंट में पढ़ रहे थे-साफ-सुथरे, चमक से भरे, गर्दगुबार से परे। हफ्ते में, कोई खास अड़चन न हो तो एक फिल्म जरूर देख ली जाती। दूसरे महीने में एक नया एल.पी. भी आ जाता था। (हालांकि दाम बढ़ने लगे थे चीजों के इन दिनों) वड़े का खास शौक था तेज संगीत। तेजी जिंदगी में जो थी-फटाफट प्रमोशन मिल गए थे।


    छोटा कुछ ज्यादा ही सलीके से रहता। उसके रहने के ढंग में एक महीन किस्म की व्यावहारिकता थी, जो सीमित गृहस्थी के गणित को हमेशा ठीक रखती। जिंदगी की चमक को भी। अभी संतान न थी और इस बारे में पति-पत्नी दोनों अतिरिक्त सोचते थे। कभी धोखा भी हो गया तो उन्होंने उसका इंतजाम करा लिया। फिर क्या! सब कुछ ठीक दुरुस्त। संतान न होने तक जो चमक बनी रहती है उस पर पत्नी का भरोसा कुछ ज्यादा ही था। यात्रा-पिकनिक पर वे जाते ही रहते। पर अपने को पूरी तरह सहेजकर, बचाकर। कभी-कभी उन्हें साथ चलते देखकर कॉलेज के लड़की-लड़के जैसा एहसास जगता।


    वड़े और छोटे-दोनों का अव घर से इतना ही संबंध बचा रह गया था कि कभी दूसरे-तीसरे महीने बड़ी या छोटी का खत आया तो पिता का हालचाल मिल गया। इस हालचाल में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। दोनों को ताज्जुब था कि पिता बेवजह घिसट क्यों रहे हैं ... आदमी को तो इस हालत में जल्द-से-जल्द दुनिया से विदा हो जाना चाहिए-जैसे यह आदमी के लिए इतना आसान हो।


     बहनों के बारे में तो वे जैसे भूल ही गए थे कि उन्हें इस घर से जाना भी हो सकता है और इस जाने में उनकी कोई भूमिका भी हो सकती है। छोटी के बारे में वह यही सोचकर निश्चित थे कि वह फिलहाल पढ़ ही रही थी और इस तरह बहुत छोटी जान पड़ती थी-समस्या रहित। बड़ी के बारे में सोचते हुए उन्हें लगता था-खुद ही जिम्मेदार है, पढ़ा भी चुकी है, उल्टा-सीधा सब समझती है, जो भी फैसला करेगी, ठीक ही करेगी। जैसे फैसला उसी को करना था। अगर उसी को करना था तो बेशक वह कर भी चुकी थी।


     वह पिता के इस हवेलीनुमा घर की दुनिया में व्याप्त धूल और जालों में पूरी तरह डूबी हुई थी। एक ठहरी हुई जिंदगी में चीजें होती ही कितनी हैं। पर वड़ी को उनके बीच फुर्सत ही न थीचावल विन रही है तो चावल ही बिन रही है। कपडे धुले जा रहे हैं तो बस कपडे धुले जा रहे हैं। वही-वही काम थे और उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहना था। ऊव और सन्नाटे को मिली-जुली परछाई बड़ी की व्यस्तता के ऊपर मंडराती रहती। ऐसे घरों के कुछ अपने खास दुख होते हैं और अपने ही ढंग के अभाव भी-पर उनके बारे में अक्सर कोई जिक्र नहीं होता। सारे दु:ख चुपचाप जी लिए जाते। सभी तरह के अभाव स्मृतियों में भर जाते हैं .. पिता को पेंशन के पैसे मिलते थे, यह एक नियम था।


    वाहर से वे दोनों भी कभी-कभार कुछ भेज सकते थे, पर वह कोई नियम न था।


    छोटी को पता नहीं चला, वह चाय पीते, न पीते, क्या कुछ सोच गई। अव उसने सिर उठाकर खिड़की की तरफ देखा-बड़ी जा चुकी थी। उसका मन सहानुभूति से देखने लगा-जी हुआ कि उस खाली जगह को अपने में भरे जो बड़ी के कमरे में जाने के बाद खाली हुई थी। छोटी ने अंदर जाकर चाय का प्याला धोया और उसे ठीक अपनी जगह पर रखकर किताबों के बीच वापस आ गई। बड़ी अब अंगीठी सुलगा रही थी-इसका मतलब चाय उस बिगड़े हुए स्टोव पर ही बन गई-अभी बड़ी जलतेजलते बची थी उस दिन। जब तक वह चीख सुनकर पहुँची खतरा टल गया था और धुआँ ही धुआँ हवा में राँगा रह गया थामाँ रही होगी उस जन्म में तभी तो इतना ख्याल रख पाती है। माँ की याद छोटी को अक्सर आती है।


      अक्सर उसे लगता है वह माँ के सिरहाने खड़ी है। न्ब की तरह तेज चमकता है फिर यकायक फ्यूज हो जाता है। शाम होते ही अक्सर माँ का चेहरा छोटी के जेहन में उतर आता है।


     ऐसी ही शाम थी वह, जव छोटी को कुछ पता न चला-कब पिताजी कमरे से निकले और दालान में गिर गए। दोनों दौड़कर उठाना चाहती थीं, पर एक शिथिल भारी शरीर सम्हाल में नहीं आ रहा था। छोटी ने घबराकर पड़ोस में किसी को आवाज दी-फिर कई लोग आ गए। पिता हिदायतों के साथ कमरे में लिटा दिए गए। शरीर तप रहा था। बड़ी ने उनका माथा छुआ। इन्हें आराम करने दीजिए,'' कहकर पड़ोसी चले गए। किसी को यह न सूझा कि इन्हें डॉक्टर की जरूरत भी हो सकती है। जरूरत थी भी नहीं। धीरे-धीरे हालत सुधर गई। दोनों ने अनथक सेवा की। पिता बच गए। कुछ चीजें बिना कहे किए भी ठीक हो जाती है। पिता भी ठीक हो गए थे पर वही अपंग, पस्त पड़े रहने के लिए। व्यक्तित्व के नाम पर वही चेहरा शेष रह गया था, जिसे सह पाना कठिन होता है।


    छोटी को मन पढ़ने में नहीं लग रहा था। वेचैनी-सी हो रही थी। पेपर देना है-दे देंगे। देकर ही क्या होगा। कुछ फर्क पड़ जाएगा। इस पढाई से कुछ निकलने वाला है? सबके सब रास्ते तो बंद हैं जैसे। वह भी धीरे- धीरे बड़ी का ही रास्ता पकड़ लेगी-उसी के मानिंद सूख जाएगी-हो सकता है पढ़ाने लग जाए। इससे तो उम्र का खिसकना और तेजी पकड़ता है। पहले वह भ्रम में थी। सोचती स्कूल की मास्टरनी सुखी जीव होती है-तबीयत की आजाद-सुविधा सम्पन्न-चाहतों से भरी-रख-रखाव में अनोखी और दरुस्त। पर जब बडी ने दो साल उस जिंदगी की रगड़ खा ली तो यह गलतफहमी दूर हो गई।


      बड़ी पढाई निकलती थी तो कुछ उम्मीदें बँधतीथीं, पढ़ाकर लौटती थी तो थकी चाल और बुझा चेहरा देखकर सारी उम्मीदें खत्म हो जाती थीं।


       छोटी को सोचने की आदत पड़ गई थी। सोचने का रोग लग गया था। जैसे किताबें रखी हैं, सोचना नहीं रुकता था। कोई सामने बैठा हो, अपनी सनक में बतियाता जा रहा हो, छोटी के दिमाग में सोचने का सिलसिला बना रहता था। सोचती वह सबके बारे में।


     उन दोनों के बारे में भी जो शहरों में अपने-अपने काम के बहाने बस गए थे और भूल गए थे कि उनका अतीत भी इस भुतहे मकान के पुराने-धुराने कपड़ों में जैसे तह करके रखा हुआ था। उस दिन सफाई करते हुए क्या-क्या चीजें निकली थीं भला–दोनों कपड़ों के जूते-सचमुच कपड़े के-जो उनके नन्हें-नन्हें पाँवों के लिए माँ ने कभी सिले होंगे-मखमल पर जरी के काम के कुरते-टोपियाँ-किसी एक की कुंडली भी उन्हीं कपड़ों में निकल आई थी-पर उन्हें अब अतीत से कोई मतलव न था। नौकरियाँ उनके लिए घर से बचने का बहाना थीं मानो। होली दशहरे पर वे आते भी तो अपनेअपने कमरों में बंद। अपने-अपने परिवार में लीन। छोटे को अकेले पत्नी ही उलझाए रखने के लिए काफी थी। कितना समय निकल आया।


     छोटे की पढ़ाई जव तक चल रही थी, इन्हीं बहनों के बीच हमेशा बना रहना था-हर काम में हाथ बँटाताभविष्य के सपने देता। पर कहाँ। अब तो वह बड़े से भी ज्यादा बेलगाव उदासीन दिखता।


     छोटी ने देखा, बडी अँगीठी पर रोटियाँ सेंक रही है। सिक नहीं रही हैं रोटियाँ-इस परेशानी की आहट कभीकभी उस तक पहुँचती है। बस आहट-कोई शिकायत नहीं। छोटी को लगा जिंदगी में कुछ करना होगा, वरना वह भी सूख जाएगी। इँठ हो जाएगी बड़ी की तरह। सव थिर हो गए हैं, जम गए हैं, दुनिया से लगकर या दुनिया से अलग होकर। वह बहत इंतजार नहीं करेगी-कछ करेगीइतनी जल्दी करेगी कि वे देखते रह जाएंगे। वे दोनों-जो उन शहरों में जाकर बैठे हैं-अपनी-अपनी सफलताओं पर भरमे हुए-बेखबर।


      वह खबर होकर रहेगी उनके लिए ... वह चुपचाप खत्म नहीं होगी।


    खत्म नहीं होगी। छोटी के दिमाग में कुछ मथने लगा। कुछ करेगी वह जरूर। पर क्या करेगी आखिर ! भाग लेगी घर से। चुपचाप। किसी अजनबी का हाथ पकड़कर एक ओर हो लेगी। धमाका तो तभी होगा। कुछ अनैतिक करने के लिए एक प्रलोभन उसे व्यग्र बना रहा था। वह सुलग रही थी।


     वह उन लड़कों के चेहरे याद करने लगी, जो उसमें वक्त-बेवक्त दिलचस्पी दिखाते रहते थे। उनमें एक तो वह पत्रकार था मलिक-बात-बात पर लड़कियों के इंटरव्यू लेता फिरता। दूसरा एम.आर. नक्शेवाला... अपने को काफ़ी खूबसूरत समझता था जो, तीसरा पोलिटिकल था ... तीसरी दुनिया के नीचे की बात न करता। उसकी तो दिलचस्पी उनमें थी जो कुछ ज्यादा उमर वाले थे ... एक वह बीमा कंपनी वाला ... दूसरा ... खैर बहुतेरे थे....।


     वह सबके विस्तार में नहीं जाना चाहती थी। वह जल्दी चुनना चाहती थी। जल्दी तोड़ना चाहती थी इस भ्रम को कि वे दोनों उम्र भर इन्हीं-इन्हीं दीवारों में खपती चली जाएगी। ‘बताऊँगी तुम्हें एक दिन' ... उसके भीतर डायलॉग फूट रहा था। वह बड़ी की तरह प्रेम-वेम का चक्कर नहीं चलाना चाहती थी। वह जानती थी कि प्रेम किस बदहवासी में शुरू और किन बेवकूफियों में खत्म होता है। वह सीधे करना चाहती थी। वह अपने तरीके से सब तहस-नहस करना चाहती थी। सुखी जीवन को लेकर कोई वहम उसमें नहीं था। इस स्वार्थी दुनिया को बस वह बताना चाहती थी मैं होश में हूँ- मैं खत्म नहीं हो गई हूँ।


     अगले दिन वह इम्तहान के लिए निकली तो जल्दी में न थी। लगभग गुनगुनाती हुई बस स्टॉप पर जा खड़ी हुई। हवा जरूरत से ज्यादा तेज चल रही थी। मौसम हर तरह से खुशनुमा लगा रहा था। आसपास वाले सबके सब जैसे उसी की ओर देख रहे थे। उसे लगा कि सामने की कतार वाला लड़का उसे 'हलो' कह रहा था-सीटी मारने जैसे अंदाज में वह कुछ कह तो जरूर ही रहा था। उसने बस उसी अंदाज में ‘हलो' कर दिया। इशारा उतना ही उत्तेजक जितना ही बेफिक्री लिए हुए था। लगा कि पहली बार जो भी मिलेगा वह उस पर झपटकर ही चैन लेगीबहुत देर नहीं हुई है, जैसे वह अपने से ही कहना चाहती थीं। वह जैसे नींद की दुनिया में थी और उड़ रही थी।


     तभी अचानक बस आ गई। सभी उधर ही लपके। वह भी अचानक हताश बस में दाखिल हुई और कोने वाली परिचित जगह में जाकर जम गई। वह किसी से आँख नहीं मिला पा रही थीउसकी आँखों के आगे किताब का वह पन्ना खुला था, जिसमें इम्तहान के मतलब के नक्शे और चार्ट बने थे। वह उसी में सिर झुकाए अपनी दुनिया की थाह ले रही थी। वह कुछ नहीं कर सकेंगी शायद।


     वही करेगी, जो कर रही हैं, वे दोनों इस घर को किसके सहारे छोड़ेगी-पिता का क्या होगा। वही-वही चेहरे उसके सामने उभरे लगे थे।


     इधर की ओर वे दोनों तो अब शायद रुख भी न करें। कितने महीने निकल गए। कोई खबर है! हो सकता है, दोनों अपना-अपना तबादला और दूर जगहों पर करा लें-दूर ही दूर होते चले जाएं। छोटे ने पिछली बार कहा भी था कि वह कुछ दिनों के लिए बाहर जाना चाहता है। बाहर से खास मतलब था उसका। “अगर बैंक वालों ने भेज दिया तो ठीक है, नहीं तो हम लोग ही कुछ करेंगे।'' उसकी पत्नी इस बात पर किलक रही थी, ‘‘हाय बाहर ! कितना अच्छा होगा सब कुछ! यहाँ तो भई तंग आ गए। वही-वही शहर देखकर। हमारे दद्दा तो एक वार स्टेट्स गए तो फिर लौटे ही नहीं।'' ‘‘क्यों लौटेंगे'' - बड़ा समर्थन कर रहा था, ‘‘हिन्दुस्तान में रखा ही क्या है! पूरी उम्र खपा दो। एक शानदार जिंदगी गैर-मुमकिन ही बनी रहेगी।''


    छोटी बस में चलते-चलते उनकी शानदार जिंदगी का धक्का महसूस कर रही थी। उसे लगा कि वह बस में नहीं है, उस कोठरी में पड़ी है, जिसमें पिता पड़े हैं-अपंग, पस्त, उसी घर में दफ़न हैं, जिसमें बड़ी रोटियाँ सेंक रही है-बिना जाने हुए कि क्यों?