जन्म शताब्दी पर विशेष - ध्वनि ग्राहक कवि - त्रिलोचन

श्री प्रकाश शुक्ल प्रतिष्ठित कवि एवं आलोचक हैं। वे काशी हिन्दू विश्वविधालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं। 'परिचय' नाम की एक अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते हैं। उन्हें हिन्दी संस्थान का सम्मान भी मिल चुका है।


त्रिलोचन खुद को हिंदी का ध्वनिग्राहक कवि कहते हैं जो अपनी काव्य मेधा से समाज में उठने वाली ध्वनियों को पकड़ लेते हैं। यह ध्वनि-गुण उन्हें संघर्षशील समाज को नई अभिलाषाओं से जोड़ता है। यह ही कुछ बात कहने को व्याकुल करता है जो उनकी इस कविता से ध्वनित होता है


बांह गहे कोई


अपरिचय के सागर में


दृष्टि को पकड़कर


कुछ बात कहे कोई


लहरें ये लहरें वे


इनमें ठहराव कहाँ


पल दो पल लहरों में


साथ रहे कोई !


(लहरों में साथ रहे कोई-ताप के ताये हुए दिन)


अभी हिंदी के सारस्वत कवि त्रिलोचन का शताब्दी वर्ष सम्पन्न हो रहा है (२० अगस्त २०१७ से) तब उनकी याद स्वाभाविक है। धरती (१९४५), दिगंत (१९५७), ताप के ताये हुए दिन (१९८०), शब्द (१९८०) उस जनपद का कवि हूँ, (१९८१), अरघान (१९८३) अनकहनी भी कुछ कहनी है (१९८५), फूल नाम हैं एक (१९८५) उनके चर्चित कविता संग्रह हैं। इस क्रम में जो पहली बात जेहन में उठती है वह यह है कि त्रिलोचन हिंदी के छांदिक कवि हैं जिसका आशय एक तरफ तो उनकी भाषाई प्रयोगधर्मी विविधता से है तो दूसरी तरफ संवेदना के उस अर्थबहुल धरातल से जहाँ छंद वंधन नहीं, नियमन हुआ करते हैं। इस नियमन के कारण उनके टूटते रहने की सम्भावना विकसित होती रहती है और दूसरी तरफ कवि का भीतरी औदात्य भी खुलकर प्रकट होता रहता है। यह एक प्रकार से जड़ के खिलाफ गति का प्रकटीकरण भी है जहाँ से जातीयता के अंकुर फूटते हैं।


त्रिलोचन को पढ़ते हुए मुझे हमेशा महसूस होता है कि सभी प्रगतिशील कवियों में त्रिलोचन हिंदी की जातीय परंपरा के बहुत करीव हैं जिनमें प्रयोगधर्मिता के साथ साथ परंपरा से जुड़े रहने का गहरा कृतज्ञता बोध भी है। इनके यहाँ परंपरा मूल्य व स्थानीयता दोनों रूपों में मौजूद है। अपनी छांदिकता के कारण ही इनमें जीवन एक ऊर्ध्वमुखी गति में मौजूद है। यहाँ निराशा में आशा है. तम में प्रकाश है, कठिनाइयों में समाधान है। अपनी जातीयता का आशय भी यही है जहाँ संघर्ष में ही सृजन है और दुर्गम में ही सुगम है। तभी वे अपनी एक कविता में कहते हैं-‘भाव उन्ही का सबका है जो थे अभावमय/पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय'। (दिगंत)


जाहिर बात है स्वभावमय में मनुष्य के संघर्ष की स्वाभाविक आकांक्षा है और अभाव से न दबने में उसकी जिजीविषा। प्रगतिशील कविता में यह पा उसकी धमनियों में रक्त की तरह है जहाँ से सृजन संभव होता है। यह वही हो सकता है जहाँ कवि अपने भूगोल से गहरे से जुड़ा हो। त्रिलोचन इस आत्यंतिक भूगोल को पहचानने वाले कवियों में रहे हैं जो पृथ्वी से दूब की कलाओं के लेने की बात के साथ आकाश तक बढ़ते जाने की बात करते हैं कह सकते हैं कि त्रिलोचन दूब की कलाओं के कवि है जो न केवल धरती को तोड़ती है बल्कि आकाश को चुनौती भी देती है। इसीलिए अपनी एक कविता ललक में कहते हैं


हाथ मैंने उचाये हैं।


उन फलों के लिए


जिनको बड़े हाथों की प्रतीक्षा है।


(तुम्हें सौपता हूँ)


जाहिर बात है, हाथ के इस उचाने में कवि की अपनी ऊंचाई के साथ कविता की अर्थवत्ता भी है जहाँ से जीवन में नवाचार आता है।


त्रिलोचन की कविताओं में यह नवाचार भव्यता नहीं, औचित्य के साथ उपस्थित है जिसके बारे में क्षेमेन्द्र ने लिखा है कि -‘औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं'। अर्थात रस भी बगैर औचित्य के मूल्यवान नहीं हो सकता। असल में रस का यह पूरा विधान रस की तत्व मीमांसीय व्याख्या का निषेध करता हुआ उसकी अर्थमीमांसा पर जोर देता है जिसका आशय रचनात्मक विकास की नवाचारी संभावनाओं से है। इस नवाचारी सम्भावना का मतलब है- शब्द को युगीन सामाजिक मान्यताओं के रूप में ढालना और उसका अर्थ मीमांसीया वस्तुपरक विश्लेषण करना। इससे स्पष्ट है कि व्याख्या के स्तर पर कविता की संरचना होगी और सौन्दर्यानुभूति और विचार के स्तर पर उसकी सामाजिक प्रासंगिकता। इस दष्टि से देखा जाए तो त्रिलोचन अपनी कविताओं में संपूर्ण औचित्य के साथ उपस्थित है। एक कविता देखें


आने दो यदि महाकुम्भ में जन आता है।


कुछ तो अपने मन का परिवर्तन पाता है।


(पर्वत की दुहिता-अरघान)


इस अर्थ में त्रिलोचन शब्द सजग कवि हैं। अपनी आलोचना पुस्तक ‘काव्य और अर्थबोध' (१९९५) में वे लिखते भी हैं कि शब्दों की शक्तियों का जितना ही अधिक बोध होगा, अर्थबोध उतना ही सुगम्य होगा। इसके लिए पुरातन साहित्य का अनुशीलन तो करना ही चाहिए, समाज का व्यापक अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए। इस रूप में शब्द उनके यहाँ स्थूल नहीं बल्कि गति रूप में मौजूद रहते हैं। वे जड़ शब्दों को कविता के लिए वैसे ही खतरनाक मानते हैं जैसे जड़ मूल्य जीवन के लिए खतरनाक होते हैं। वे शब्द की गरिमा के साथ उसकी आकांक्षा, योग्यता और आसक्ति को समझते हैं जिनसे पूरा पद बनता है। इसमें भी योग्यता पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध से जुड़ती है और जितना ही घना यह सम्बन्ध, उतनी ही अच्छी कविता। त्रिलोचन जब तुलसी को लेकर लिखते हैं-‘तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो' (तुलसी बाबा-दिगंत) अथवा जब गालिब पर लिखते कहते हैं- 'गालिब होकर रहे जीत कर दुनिया छोडी/कवि थे अक्षर में अक्षर की महिमा जोड़ी', तब वे इसी पारस्परिक भाषाई सम्बन्ध की बात करते हैं जिसमें अक्षर में अक्षर की महिमा जोड़ने का मतलब ही पद की आंतरिक योग्यता को समझना था। उनकी एक कविता 'भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा' की अंतिम पंक्ति है


जीवन जीवन है प्रताप से


स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था।


यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था।


अब यहाँ ‘जीवन प्रताप' का ‘ज्योतिष्क लोचनों' से जो अर्थ दीप्ति होती है उसको नहीं मारा' से गौरव मिलता है। इसे ही कविता की भाषा में ‘योग्यता' कहते हैं। जो अनुभव की संश्लिष्टता को ही ध्वनित करती है। इसे । ही मुक्तिबोध अनुभव का कसकते हुए दुखों से अलग हो । जाना कहते हैं जहाँ भाषा जन्म लेती है। जितना ही बड़ा अलगाव, उतनी ही बड़ी रचना! त्रिलोचन इस अलगाव को समझने व रचने वाले विलक्षण कवि हैं। एक कविता देखें जिसमें स्वयं को स्वयं से अलग कर देखते हैं और पूरी सर्जनात्मक ताकत के साथ देखते हैं


वही त्रिलोचन है जिसके तन पर गंदे कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे फटे लटे हैं। यह भी फैशन है, फैशन से कटे कटे हैं। कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे पर अवलंबित है। चलना तो देखो इसका उठा हुआ सर, चौड़ी छाती, लंबी बाहें सधे कदम, तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किसका ध्यान इस समय खींच रही हैं


(वही त्रिलोचन है-उस जनपद का कवि हूँ)


इस रूप में अपनी भाषा के प्रभाव से एक कवि अलक्षित को लक्षित करता है जो याचना नहीं, स्वाभिमान के दायरे में घटित होता है। भाषा यहाँ कवि के जनपद को भी बतलाती है और उसके इतिहास बोध को भी। त्रिलोचन जब खुद को कहते हैं-उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा है दूखा है।नंगा है, अंजान है, कला नहीं जानता'-तब वे एक तरफ कविता के भाषाई स्रोत का उत्खनन कर रहे होते हैं और दूसरी तरफ इतिहास के भीतर सपनों के बनने की प्रक्रिया का संकेत भी कर रहे होते हैं। त्रिलोचन को पता होता है कि शब्द व्यर्थ नहीं जाते क्योंकि इनके माध्यम से जो भी भाषा बनती है उसमें जीवन की हलचल होती है। उन्होंने स्वयं भाषा के अगम समुद्र का अवगाहन किया था जिसमें ‘धाया-धूपा' था, जहाँ सब कुछ ‘ध्वनि रूप' हो गया। इस ध्वनि रूप का त्रिलोचन के यहाँ विशेष महत्व है क्योंकि ध्वनि रूप में सहृदय की प्रतिभागिता होती है जिससे पाठक सीधे जुड़ जाता है। यह एक प्रकार से सामाजिक सहभागिता का अन्यतम रूप है जहाँ त्रिलोचन खड़े हैं। इसी कारण वे जीवन की हलचलों के कवि हैं जहाँ क्रियाएं पलती हैं। एक सानेट में लिखा है


भाषा की अंगुलि से मानव ह्रदय टो गया


कवि मानव का जगा गया नूतन अभिलाषा।


भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है।


ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।


( भाषा की लहरें-दिगंत)


अपनी इसी भाषाई क्षमता के कारण त्रिलोचन कवि की सामाजिक उपस्थिति को रेखांकित करते हैं और आप देखेंगे कि इसी आधार पर एक कविता ‘पश्यन्ति' में जो ‘दिगंत' नामक संग्रह में संकलित है, कवि को मनुष्य के विजय गान से जुड़ने की बात करते हैं


कवि हूँ, नया मनुष्य मुझे यदि अपनायेगा


उन गानों में अपना विजय गान पायेगा।


इसी के साथ त्रिलोचन संभव मनुष्य की अप्रतिम उपस्थिति के कवि रूप में भी हमारे सामने आते हैं। यहाँ हर अपरिचित चेहरे का हाथ थाम जीवन देने का संकल्प दिखाई देता है। ‘ताप के ताये हुए दिन' नामक संग्रह की कविता ‘अपना ही घर में वे इस बात को बहुत ही मासूमियत लेकिन आत्म विश्वास के साथ दर्ज करते हैं। जिसमें सबकी बोली ठोली भाव, आचरण, भोली भाली इच्छाएं, आवारा गृही, की शिनाख्त करते हैं और सभी के साथ रहने की बात करते हैं। वे संभव मनुष्यता की समस्त शहराती या देहाती उपस्थिति को स्वीकार करते कहते हैं-‘सबके लिए निमंत्रण है अपना जन जाने/और पधारें इसको अपना ही घर मानें। त्रिलोचन इस निमंत्रण के साथ निरंतर चलने वाले कवियों में हैं जो कई बार अपनी चरण ध्वनि से लोगों को चलने का पता देता है। यहाँ ध्वनि का यह ‘गत स्वन' रूप बहुत मूल्यवान हैजहाँ एक गूंज उठती है। कुछ-कुछ जल के हिल जाने पर मन के हिलने की प्रक्रिया संपन्न होने लगती है। कई बार यह हिलना एक गहरा संकेत भी छोड़ जाता है, जिसकी निष्पति जीवन के सहज क्रिया व्यापारों में होती है।


तब यह याद करना महत्वपूर्ण है कि सहजता त्रिलोचन के कवि की स्वाभाविक परिणति है जिसमें एक निरीहता नहीं, गहरा आत्मविश्वास है। यहाँ एक तरफ जीवन के सहज क्रिया व्यापार हैं तो दूसरी तरफ सामूहिकता का उत्सव है। शायद इसीलिए शमशेर जी ने सामान्य के असामान्य का दर्शक कवि माना (मेरे कुछ प्रिय आधुनिक हिंदी कवि-सन्दर्भ:त्रिलोचन के बारे में:संपादक-गोविन्द प्रसाद) तो नामवर सिंह ने साधारण का असाधारण कवि (सन्दर्भ:गोविन्द प्रसाद की सम्पादित पुस्तक:त्रिलोचन के बारे में) माना। इसी सहजता के कारण एक दौर में उनके लिए नामवर सिंह ने एक नए काव्य शास्त्र की बात रखी जिससे उनकी कविताओं के अन्तर्निहित अर्थ को खोला जा सके। उनकी एक कविता है-'दिन सहज ढले'। यहाँ संझा बेला में चुन-चुन कर चिंताओं के तिनके तोड़ने की बात आती है। इसी को समय का फलना कहते हैं


आओ इस आम के तले


यहाँ घास पर बैठे हम


जी चाही बात कुछ चले


कोई भी और कहीं से


बातों के टुकड़े जोड़े


संझा की बेला है यह


चुन चुन कर तिनके तोड़े


चिंताओं के


समय फले।


आधा आकाश सामने


क्षितिज से यहाँ तक आभा


नारंगी की। सभी बने।


(ताप के ताये हुए दिन)


जाहिर बात है, इस सहजता में एक सजगता भी है, ठीक निराला की तरह। यहाँ वे नारंगी की आधी आभा को संपूर्णता में देखना चाहते हैं। सभी वने' पर जोर है। जो उनकी सामूहिकता का संकेत देता है। इसी के भीतर से वे ‘नगई महरा’ और ‘भोरई केवट' जैसे लोक चरित्र खड़ा करते हैं जिनके माध्यम से वे राष्ट्रों की चाल व पूंजीपतियों के खाल को समझते हैं।


कहना न होगा कि त्रिलोचन का काव्य लोक उनकी विराट् सांस्कृतिक चेतना के कारण मुग्ध करता है। अपने विशद भाषाई ज्ञान, अद्भुत स्मरण शक्ति और कठोर छेदिक अनुशासन के बावजूद लोक जीवन की अंतरंगता से वे विमुख नहीं हुए और अपने सम्पूर्ण रचनात्मक जीवन में उन साँसों से जुड़े रहे जिनको आराम नही था। एक कवि के रूप में अपने आरंभिक जीवन में ही वे किंवदंती पुरुष बन गए और कई लेखकों के शिक्षा गुरु कहलाते हुए भी खुद को उपेक्षितों व वंचितों के संघर्ष के साथ जोड़े रखे। आज त्रिलोचन की रचनाएं बाजारवाद के बरअक्स लोक सौंदर्य की संघर्ष भूमि और उसकी गत्यात्मक चेतना के लिए अनुकरणीय हैं। इनके यहां प्रकृति व मनुष्य का अनूठा संगम मिलता है।


सम्पर्क : प्रोफेसर, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्व विद्यालय मो. ९४१५८९०५१३