गजल - महेश अश्क

जन्म १ जनवरी १९४९ को गोरखपुर के गांव खोराबार में। साहित्य सृजन की शुरुआत किशोर जीवन से। हिन्दी और उर्दू की विभिन्न पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशन १९७० से अब तक। गजलों का संकलन ‘राख की जो पर्त अंगारों प' हैसन् २००० में प्रकाशित।


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सुबह को मां ने कहा था चाय थोड़ी और दे


शाम तक चौके में बर्तन झनझनाते रह गए


तब जो अपना-पन था सूरज में, वो अब है ही नहीं


तू किसी दिन धूप को बाहों में भर के देख लें


भीड़ उनकी ही है सब, चाहे इधर चाहे उधर


और तुम्हें लगता है, तुम करते हो सारे फैसले


आप का तो झूठ ही कुछ इस कदर भारी पड़ा


वाकई जो सच थे, सब किस्सा-कहानी हो गए


जब तुम्हारे हाथ कश्ती, मौज, तूफ़ां कुछ नहीं


फिर तो दरिया पर है, जब चाहे किनारा तोड़ दे


वो अहिल्या थी सो उसकी बात ही कुछ और थी


वर्ना पत्थर, खा के ठोकर, आदमी-सा जी उठे?


पोंछ कर आंसू वो फिर से फूल जैसा खिल गई


पढ़ के बच्चे आ गए घर, जैसे ही स्कूल से


प्यास जैसी प्यास तो शायद नहीं लगती है अब


हां मगर, दरिया को तो ये चाहिए दरिया लगे


क्या भरा-पूरा समय था, जो बुजुर्गों ने जिया


शहर छोटा ही था लेकिन लोग थे कितने बड़े..