गजल - महेश अश्क

 


कोई हंस-बोल कर निकलता है


कोई छाती प’ मूंग दलता है।


देखकर कुछ पता नहीं चलता


किसके पैरों से कौन चलता है।


मोम है आदमी न बर्फ मगर


देखिए छू के, तो पिघलता है।


दुख की सूरत वही नहीं रहती


तुमको लगता है दिन बदलता है।


कम न समझो इसे भी आफ़त से


हममें-तुममें जो ये सरलता है


कौन है, जिससे बांधिए उम्मीद


हमको, यह वोट तक तो छलता है।


आदमी भी वही है उतना बड़ा


जिसकी जितनी बड़ी सफलता है..