गजल - महेश अश्क

रेत को, खून को रवानी को


प्यास ही जानती है पानी को


कितने मौसम बिगड़ते-बनते हैं


इक हरापन की तर्जुमानी की


पढ़ती रहती है जिंदगी हमको


हम उसी की किसी कहानी को,


कुछ तो मैं भी न छोड़ पाऊँगा


जैसे अम्मा की धूप-दानी को


लिखनी होती है इक जुवान हमें


पढ़ना होता है बे-जुबानी को


हुक्मरानी तो खैर है ही बुरी


पर, सहे जाना हुक्मरानी को?


खुद कहानी-सी होती जाती थी


मां सुनाती थी जब कहानी को


सूखा-सूखा है दूर तक मौसम


आंख-भर ही बचा ले पानी को


अश्क जी, कितने खाली-खाली हो


छोड़कर अपनी बोली-बानी को