गजल - महेश अश्क

जन्म १ जनवरी १९४९ को गोरखपुर के गांव खोराबार में। साहित्य सृजन की शुरुआत किशोर जीवन से। हिन्दी और उर्दू की विभिन्न पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशन १९७० से अब तक। गजलों का संकलन ‘राख की जो पर्त अंगारों प' हैसन् २००० में प्रकाशित।


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हरेक न होने में, होना कुछ ऐसे डोलता है


दरख़्त पत्ते की नस-नस में जैसे बोलता है


में धूप सेकें तो सूरज से हो जवाब-तलब


में सांस लें तो एकेक झोंका खुद को तोलता है


ये आंख-भर का अंधेरा और इसकी ये हिम्मत


कि घर में घुस के चिरागों की लौ टटोलता है?


जमाने भर के हरापन का है उसे जिम्मा


जो आइने-सी नदी पर भी काई रोलता है।


मिजाज लफ्ज का शेरों ने वो बिगाड़ा है


कि जितना है नहीं, उससे जियादा बोलता है


तू रंगो-बू है, तू लफ्जो में हर्फ-हर्फ न हो


कोई बदन भी किताबों की तर्ह खोलता है?


जमीन कदमों में आंखों में आसमान लिये


कोई तो है, जो परिन्दों के पर को खोलता है..