जन्म सन् १९६१ के सावन महीने की नाग पंचमी को इलाहाबाद (अब कौशाम्बी) जिले के इब्राहीमपुर गांव में बी.ए. की पढाई इलाहाबाद विश्वविधालय से। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से एम.ए., एम. फिल. और पी.एच.डी.। पांच पुस्तकें प्रकाशित । सम्प्रति : प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
स्त्री शरीर मोक्ष या मुक्ति के मार्ग में बाधक नहीं है। स्त्री को भी मोक्ष या मुक्ति मिल सकती है। बहिनाबाई की आत्मकथा में घरेलू हिंसा के अनेक प्रसंग मिल जाते हैं। स्त्रियों को मारने-पीटने की घटना चाहे जितनी आम रही हो, लेकिन किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य में बहिनाबाई से पहले घरेलू हिंसा का उल्लेख नहीं मिलता।
ए.के. रामानजन कहते हैं कि यदि कोई भारतीय स्त्रियों का अध्ययन करना चाहता है, उनकी आवाजें सुनना चाहता है और भारतीय सभ्यता में ऐसी वैकल्पिक अवधारणाओं की तलाश करना चाहता है जो भारत के प्रसिद्ध ग्रन्थों में मिलने वाली अवधारणाओं से आश्चर्यजनक रूप से भिन्न हैं, तो उसे अपना ध्यान ऐसी सामग्री की ओर लगाना चाहिए जो स्त्री सन्तों के जीवन कविताओं, गीतों, पहेलियों, खेलों और वाचिक परम्परा की कहावतों तथा देवियों के बारे में प्रचलित मिथ और सम्प्रदायों से सम्बद्ध है। इसी अर्थ में मराठी स्त्री भक्त बहिनावाई अन्य भक्तिकालीन कवयित्रियों से अलग हैं क्योंकि वह कभी परिवार और पति से अलग नहीं हुई। वहिनावाई ने विषयवस्तु की दृष्टि से मुख्य रूप से चार तरह की कविताएँ लिखीं। पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण श्रेणी आत्मकथात्मक कविताओं की है। आत्मकथात्मक कविताएँ आत्मनिवेदन या आत्मचरित नाम से मिलती हैं। दूसरी श्रेणी ऐसी कविताओं की हैं जिनमें वे अपने पूर्वजन्म का जिक्र करती हैं। तीसरी श्रेणी में ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें वे विवाहित स्त्री के दायित्व की चर्चा करती हैं। अंतिम श्रेणी ऐसी भक्तिपरक कविताओं की है जिन्हें प्रवृत्ति और निवृत्ति के अन्तर्गत रखा गया है। बहिनाबाई का सम्बन्ध वारकरी सम्प्रदाय से था और उन्होंने तुकाराम को अपना गुरू बनाया था। वारकरी सम्प्रदाय में संन्यास की अवधारणा महत्त्वपूर्ण नहीं है। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए व्यक्ति भक्त बन सकता है। वहिनावाई मराठी की अन्तिम भक्तिकालीन उल्लेखनीय कवयित्री हैं। वे मराठी की अन्य भक्तिकालीन कवयित्रियों से इसलिए अलग और महत्वपूर्ण लगती हैं क्योंकि उन्होंने आत्मनिवेदन सम्बन्धी अभंगों में अपने पारिवारिक जीवन से जुडी घटनाओं का विस्तार से उल्लेख किया है। उस दौर के परिवार और विशेष रूप से सवर्ण परिवार में स्त्री की भूमिका का ब्यौरा देने वाला इससे बेहतर दूसरा स्रोत भारत की किसी भी भाषा में नहीं मिलता। तुकाराम को गुरु के रूप में स्वीकार करने और भक्ति में दीक्षित होने के बावजूद वहिनावाई पारिवारिक जीवन से जुड़ी घटनाओं को अपने अभंगों में जिस तरह लाती हैं, वह बेजोड़ है; क्योंकि दूसरी किसी भक्तिकालीन कवयित्री ने इस तरह के प्रसंगों का वर्णन नहीं किया है। इसे मराठी की पहली आत्मकथा माना जाता है। यदि बनारसीदास द्वारा रचित अर्द्धकथानक किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई पहली आत्मकथा है तो बहिनाबाई का आत्मचरित्र किसी महिला द्वारा लिखी गई पहली आत्मकथा। बहिनाबाई के अभंग उनके जीवित रहते लिख लिए गए थे और उन्होंने इन्हें देखकर अपनी सम्मति भी प्रदान कर दी थी। इसलिए उनकी रचनाओं की प्रामाणिकता प्राय: असंदिग्ध मानी जा सकती है।
बहिनाबाई का वजूद एक ऐतिहासिक सच्चाई है। उनका जन्म १६२८ ई. और मृत्यु १७०० ई. में हुई। इस तरह उन्हें ७२ वर्ष की आयु मिली। १७वीं सदी में यदि कोई ७२ वर्ष तक जीवित रहता है तो कहा जाएगा कि उसे लम्बी उम्र मिली। अठारहवीं सदी के संत नीलोबा और दिनकवि ने अपने लेखन में बहिनाबाई का उल्लेख किया है। उनके वंशज आज भी मौजूद हैं और उन्होंने ही वहिनावाई की इकलौती पाण्डुलिपि को सुरक्षित रखा।
वारकरी सम्प्रदाय में आध्यात्मिक किस्म की भक्तिपरक कविताएँ लिखने के र जीवन से जुड़े हुए प्रसंगों को अपनी रचना में शामिल करने की परम्परा रही है। वारकरी सम्प्रदाय के संस्थापक ज्ञानेश्वर ब्राह्मणों द्वारा उन्हें दी गई यातना का उल्लेख सीधेसीधे तो नहीं करते, लेकिन उनके आध्यात्मिक पदों में इस यातना की गूंज मौजूद है। नामदेव की रचनाओं में भी उनके लौकिक जीवन के अनेक संदर्भो का जिक्र हुआ है। नामदेव की शिष्या जनाबाई की रचनाओं में तो उनके गांव और माता पिता का भी उल्लेख मिलता है। यही नहीं, एक नौकरानी के रूप में उनके रोजमर्रा के अनुभवों की झलक भी वहाँ दिख जाती है। जनाबाई की रचनाओं में प्रकट होने वाले व्यक्तित्व का सम्बन्ध सिर्फ आध्यात्मिकता से नहीं है, लौकिकता से भी उसका सम्बन्ध बहुत गहरा है। सत्रहवीं सदी के कवि तुकाराम की रचनाओं में भी आत्मकथात्मक प्रसंगों की कोई कमी नहीं है। अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि दैनंदिन जीवन से जड़े आत्मकथात्मक प्रसंगों को कविता में दर्ज करने की परम्परा मराठी में पहले से चली आ रही थी और बहिनाबाई का आत्मचरित उसी परम्परा का स्वाभाविक विकास है। बहिनाबाई का जन्म महाराष्ट्र में देवगाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके मातापिता को लम्बे समय तक कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने शिव की पूजा-अर्चना की, जिसके परिणामस्वरूप दो बहनों और एक भाई का जन्म हुआ। बहिनाबाई सबसे बड़ी थीं। वे मात्र तीन वर्ष की थीं, तभी उनकी शादी एक वेदपाठी विधुर ब्राह्मण से कर दी गई, जिसकी आयु ३० वर्ष थी। यह ब्राह्मण बहिनाबाई के परिवार का दूर का रिश्तेदार भी था। बहिनाबाई के माता-पिता का पैसों के लेन देन को लेकर अपने सम्बन्धियों से विवाद हुआ और कर्ज चुकता करने के लिए बहिनाबाई के पिता ने अपने दामाद से मदद ली। इस घटना के बाद उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया और भिक्षाटन करते हुए कोल्हापुर जा पहँचे, जहाँ वे कुछ वर्ष रहे। यहीं पर बहिनाबाई के पति गंगाधर को एक काली गाय दान में मिली। यह गाय गर्भवती थी और जल्दी ही उसने एक बछडे को जन्म दिया। इस बछडे और वहिनाबाई के बीच बहुत ही घनिष्ठ और आत्मीय सम्बन्ध विकसित हो गए। बहिनाबाई जहाँ-जहाँ जातीं, यह बछडा भी उनके साथ लगा रहता। यहाँ तक कि वह मंदिर और कथा-कीर्तन सुनने जातीं तो वहाँ भी वह उनके पीछे-पीछे जाता। एक बार ऐसा हुआ कि प्रसिद्ध संत जयराम गोसाई कथा-वाचन करने वहाँ आए। बहिनावाई की कथा-कीर्तन में रुचि पहले से थी, वह भी गोसाईं की कथा सुनने जातीं। उनके साथ उनका बछडा भी रहता और वह उन्हीं के पास बैठता। एक दिन भीड़ ज्यादा थी, लोगों के बैठने की लिए जगह नहीं थी, इसलिए कुछ लोगों ने बछडे को दरवाजे से बाहर निकाल दिया। इस घटना से बहिनाबाई परेशान हो गई और रोने लगीं। बाहर बछड़ा भी चिल्लाने लगा।
जयराम गोसाईं ने यह सब देख लिया और बछड़े को लाने का निर्देश दिया। उन्होंने दोनों को अपने पास बुलाकर उनका सिर सहलाया और बताया कि यह बछड़ा बहना का पूर्वजन्म का योगभ्रष्ट गुरु है। इस घटनाक्रम के बारे में जब निराबाई ने बहिनाबाई के पति को बताया तो वह गुस्से से आगबबूला हो गए। उन्होंने बहिनाबाई को बांधकर उनकी बुरी तरह पिटाई की। बहिनाबाई के माता-पिता और भाई ने बहिनाबाई को बचाने की कोई कोशिश नहीं की। लेकिन बछड़े और गाय ने इसके विरोध में खाना-पीना त्याग दिया और अंततः बछड़े की मृत्यु भी हो गई। कहानी के अंत में यह प्रसंग आता है। कि बहिनाबाई की एक बेटी पैदा हुई। इस बेटी के रूप में बहिनावाई के प्रिय बछड़े का पुनर्जन्म हुआ है, ऐसा वह मानती प्रतीत होती हैं। हिन्दू परम्परा के टिकाऊपन का संभवतः एक बड़ा कारण यह था कि इसने गृहस्थ आश्रम के महत्त्व का कभी भी निषेध नहीं किया। वे गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भक्ति की एक नई परिकल्पना का विकास करते हैं, जिसमें ईश्वर के सम्मुख जातिभेद प्रायः नगण्य हो जाते हैं। हिन्दी की निर्गुण परम्परा के विपरीत वारकरी पंथ में स्त्रियों की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वारकरी पंथ के पुरुष संतों के साथ स्त्रियों की उपस्थिति का कारण यह है कि संतों ने स्त्रियों को पंथ में आने के लिए प्रोत्साहित किया। बहिनाबाई के आत्मनिवेदन सम्बन्धी अभंगों को देखने से इस बात की पुष्टि होती है कि भक्ति आंदोलन के दौरान अध्यात्म के क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर माना गया। स्त्री शरीर मोक्ष या मुक्ति के मार्ग में बाधक नहीं है। स्त्री को भी मोक्ष या मुक्ति मिल सकती है। बहिनाबाई की आत्मकथा में घरेलू हिंसा के अनेक प्रसंग मिल जाते हैं। स्त्रियों को मारने-पीटने की घटना चाहे जितनी आम रही हो. लेकिन किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य में बहिनावाई से पहले घरेलू हिंसा का उल्लेख नहीं मिलता। वैसे तो बहिनाबाई ने अपने पति गंगाधर के गुणों की प्रशंसा की है, लेकिन साथ ही यह भी बता दिया है कि वह स्वभाव से बहुत गुस्सैल थे। जब भी उनके मन में आता था वे मेरी निर्ममता पूर्वक पिटाई कर देते थे। यह भी सच है कि इस दुर्दशा से निजात पाने के लिए वे आत्महत्या के विकल्प पर भी विचार करती हैं। बहिनाबाई दृढ़ इच्छाशक्ति वाली स्त्री प्रतीत होती हैं। वे कहती हैं कि मैं तुकाराम की भक्ति नहीं छोडूंगी, चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए। स्पष्ट है कि वे पति गंगाधर द्वारा की जाने वाली पिटाई की ओर संकेत कर रही हैं। पति को परमेश्वर मानने के बावजूद वे अपनी गुरु-भक्ति को किसी भी कीमत पर छोड़ने को । तैयार नहीं होतीं।
बछड़े की मृत्यु के बाद जब वहिनावाई के पति घर छोड़कर वैराग्य/संन्यास लेने की घोषणा करते हैं तो वे परेशान हो जाती हैं। ध्यातव्य है उस समय बहिनावाई को गर्भधारण किए हुए तीन महीने हो गए थे। इतनी अल्पायु में बहिनाबाई को गर्भवती बनाने के पीछे उनके पति का मकसद यह था कि बच्चा हो जाने पर बछडे के प्रति उनका लगाव कम हो जाएगा और भक्ति का भूत भाग जाएगा। सत्रहवीं सदी में ग्यारह वर्ष की आयु में तीन । महीने का गर्भ लेकर जीवनयापन करना कितना कठिन रहा होगा, आज उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। इसलिए यह स्वाभाविक है और रणनीतिक रूप से सही भी है कि वे अपने पति को परमेश्वर मानें। यह कहानी वहिनाबाई की पहली बेटी के जन्म के साथ समाप्त होती है। बेटी के जन्म से उन्हें ऐसी खुशी होती है मानो बछड़ा उन्हें दोबारा मिल गया हो। उन्हें लगता है कि बेटी के रूप में बछडे का ही पुनर्जन्म हुआ है। एक बेटी के जन्म से होने वाली खुशी का जिक्र कर जैसे वे पितृसत्तात्मक परिवार के मूल्यों को चुनौती देती हैं। ज्यादातर विद्वानों का मानना है, कि अन्य भक्त रचनाकारों से वे इस मामले में भिन्न हैं कि उन्होंने स्त्री-धर्म का निर्वाह करते हुए भक्ति की साधना की। यह भी सच है कि ऐसा जीवन जीने वाली वहिनाबाई अकेली स्त्री नहीं होगी, उस दौर में और भी ऐसी स्त्रियाँ रही होंगी। लेकिन उन्हें बहिनाबाई की तरह अपने अनुभवों के बारे में लिखने का अवसर नहीं मिला। यह भी संभव है कि उनमें बहिनाबाई जैसा दृढ़ निश्चय न रहा हो या फिर कोई ऐसी प्रेरक घटना उनके जीवन में न घटी हो, जो उन्हें अपने बारे में लिखने के लिए बाध्य करती। जो भी हो, इतना तो तय है कि बहिनाबाई की आत्मकथा के सहारे हम उन अनगिनत स्त्रियों के जीवन की कल्पना कर सकते हैं, जिन्होंने भले ही कुछ लिखा न हो, लेकिन जिनका जीवन बहिनाबाई जैसा या उनसे भी बदतर रहा होगा।
गृहस्थ आश्रम में रहते हुए स्त्री के लिए भक्तिसाधना कितनी चुनौतीपूर्ण हो सकती है, इसका अंदाजा वहिनावाई की आत्मकथा पढ़कर ही लगाया जा सकता है। जैसा कि उमा चक्रवर्ती ने लिखा है कि भक्ति की आकांक्षा और गृहस्थ जीवन में कोई अन्तर्विरोध नहीं था लेकिन, व्यवहार में भक्ति और गृहस्थजीवन का मिलन केवल पुरुष के संदर्भ में संभव होता है, क्योंकि स्त्रियों के संदर्भ में यह विभाजन बना रहता है। गृहस्थ जीवन और ईश्वर भक्ति के बीच तनाव कभी भी पूरी तरह खत्म नहीं होता।
माना जाता है कि वैयक्तिकता के विकास के बिना आत्मकथा की रचना सम्भव नहीं है। वहिनावाई की वैयक्तिकता इसीलिए वारकरी सम्प्रदाय और उनके गुरु तुकाराम से जुड़कर अपना रूप ग्रहण करती है। वारकरी सम्प्रदाय के संस्थापक ज्ञानेश्वर ने भक्त और भगवान के एकरूप हो जाने को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि यदि एक दर्पण के सामने दूसरा दर्पण रख दिया जाए तो मूल और प्रतिबिम्ब का अन्तर खत्म हो जाएगा। यह तय कर पाना मुश्किल होगा कि कौन किसे प्रतिबिम्बित कर रहा है। यह स्वाभाविक है कि बहिनाबाई के यहाँ एक ऐसी वैयक्तिकता दिखाई पड़े जिसमें सिर्फ अलगाव ही नहीं है बल्कि लगाव भी है। ऐसी वैयक्तिकता प्राणिमात्र के प्रति करुणा से सम्बद्ध है। मम्वा जी बहिना की गाय को बांधकर उसकी पिटाई करते हैं। इस पिटाई के निशान तुकाराम के शरीर पर उभर आते हैं और इसका दर्द बहिनाबाई भी महसूस करती हैं। बहिनाबाई पुराने किस्म की धार्मिकता का सामना भक्ति द्वारा करती हैं।