आलोचना - वीरेन डंगवाल के काव्य में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा

जन्म : ७ जुलाई १९७२ बरेली शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, पी-एच.डी. कई पत्र-पत्रिकाओं में शोध निबन्ध एवं लेख प्रकाशित सम्प्रतिः प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, बरेली कॉलेज, बरेली


कवि वीरेन डंगवाल के तीनों काव्य संग्रहों- इसी दुनिया में, ‘दुश्चक्र में सृष्टा' और 'स्याही ताल' में 'जल, जंगल और जमीन' को संरक्षित करने की चिन्ता तीव्रता से अभिव्यक्त हुई है। वीरेनजी अपने परिवेश के प्राकृतिक और सामाजिक-दोनों पक्षों के प्रति समान रूप से संवेदनशील हैं।


मानव समाज ने गंगा जैसे जीवनदायी जलस्रोत को भी प्रदूषित कर डाला है। गंगा के जल से एक ओर पहाड़ी इलाकों में कच्ची शराब बनाई जाती है, तो मैदानी इलाकों में औद्योगिक संस्थानों के अपशिष्ट, अंत्येष्टियों और महाकुम्भ आदि आयोजन इसे दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। ‘गंगा-स्तवन' में कवि ने इस तथ्य को मर्माहत अभिव्यक्ति दी है


‘‘चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना,


गाद-कीच-तेल-तेजाबी रंग सभी पी लेना


ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुई


देखना वे ढोंग के महोत्सव


सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से।''


विलासिता पूर्ण जीवन शैली में प्रयोज्य भौतिक उत्पादों का अंधाधुंध प्रयोग हमारे वायुमंडल को जहरीला बनाता जा रहा है। 'वरुण' कविता में वीरेन जी की यही चिंता व्यक्त हुई है।


“बेचारा वरुण


पिछवाड़े फेंक दिया गया


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और जटा उसकी और भी बड़ी है।


कितनी बड़ी कितनी गंदी और उलझी जटा।''


बाजार वाद ने प्रकृति प्रेम की सात्विकता को विनष्ट कर पर्यटन और उपभोग तंत्र को मजबूत किया है, फलतः हिमालयी शुद्धता आज खतरे में है


इस तरह चीखती हुई बहती है।


हिमवान की गलती हुई देह।


लापरवाही से चिप्स का फटा हुआ पैकेट फेकता वह आधुनिक यात्री कहाँ पहचान पाएगा वह खुद को नेस्तनाबूद कर देने की उस महान यातना को'' कंक्रीटी मकड़जाल से अब तक बचे रहे प्राकृतिक परिवेश का वीरेन जी ने उत्कृष्ट चित्रण किया है, साथ ही नैसर्गिक सौंदर्य को सतत् संजोए रखने की चिन्ता भी उनकी कविता का मुख्य विषय है -


‘कालोनियाँ अभी नहीं बनी हैं।


बंदरों के पास भारी पेड़ों के भरपूर बसेरे हैं।


मेंढकों के पास अभी है उनका


पवित्र एकांत और ताजे पानी में


लचीली लम्बी छलाँगे'........


कुछ धनोत्पादक वृक्षों को पूँजी के लालच में रोपे जाने और प्रकृति के संरक्षक वृक्षों को नष्ट करके भू प्रदूषण और जल प्रदूषण की जननी फैक्ट्रियों को लगाना ही आज के विकसित समाज की घिनौनी वास्तविकता हैं।


“कस्बा करीब है।


बताया भाथ-भर ऊँचे लिप्ट्स के पेड़ों ने


खेतों में दूर तक खिंची कंटीली बाड़ ने


फैक्टरी बनती थी कोई


चढ़ गए कुछ बालक बेचते


हैंडपंप के पीले पानी के गिलास


झौंवे में धूल-सने दुखी अमरूद।''


‘प्रातः से ही हम ध्वनि प्रदूषण का शिकार होने लगते हैं। इस समय मंदिरों, मस्जिदों, गुरूद्वारों में कीर्तन मण्डलियों द्वारा लाउडस्पीकर चलाकर भजन अजान, शब्द गाए जाते हैं। यह भी ध्वनि प्रदूषण का एक बहुत बड़ा हानिप्रद कारण है। इन पर अंकुश लगाने में हमारा धर्म आड़े आज जाता है। यही कारण है कि इस पर कानूनी अंकुश लगाने में सफलता नहीं मिल पा रही है।' ‘डॉ. डंगवाल' ने ‘दुश्चक्र में सृष्टा' कविता में इस तथ्य को उकेरने के साथ ही मानव मनों को प्रदूषित करने के इन धर्म स्थलों के काले कारनामों को भी सीधे शब्दों में व्यक्त किया है


“मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए एक जैसी हुंकार, हाहाकार प्रार्थना गृह जरूर उठाए गए एक से एक आलीशान मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुंबद-मीनार उंगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून। आखिर यह किनके हाथों में सौंप दिया है ईश्वर तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार ?''


भौतिक विकास और अंध समृद्धि का दौर पशुपक्षियों से उनका नैसर्गिक परिवेश छीन रहा है


इस तरह बदहवास


मत टकराओ गौरैया


खिड़की के काँच से, शीशे से


तुम्हारी चोंच टूट जाएगी और


नाखून उचट जाएँगे।''


पशु-पक्षियों का अस्तित्व आज हम मनुष्यों के कारण संकट में है। अतिस्वार्थी मानवी प्रवृत्तिवश आज अनेकों जीव प्रजातियाँ लुप्त प्राय हैं और पारिस्थितकीय असंतुलन का भयावह संकट उपस्थित हो रहा है जिसे ‘डंगवाल जी ने अपनी कविताओं में बखूबी जाहिर किया है।


उसके लड़के ने गुलेल से उस दिन मुझको मारा। अब तो वो ले आया है छरें वाली बंदूक। बच्चे मानुष के होते क्यों जाने इतने क्रूर उन्हें देखकर ही मेरी तो हवा सण्ट होती है। इनसे तो अच्छे होते हैं। बेटा बंदर भालू जरा बहुत झपटा-झपटी ही तो करते हैं।


‘वीरेन जी' ने वन-विभाग के अधिकारियों की पोल भी खोली है जो वन संरक्षण तथा जैव-संरक्षण के दायित्व को विस्मृत कर पेड़ों को काटने का ठेका दे देते हैं, साथ ही निरीह, भोली पर्वतीय ग्रामबालाओं के शील हरण का दुष्कृत्य भी करते हैं


“ठेकेदार के आदमी गए। चली गईं जंगलात के अफसरों की गुर्राती हुई जीतें


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अकेली मैं कैसे जाऊँगी वहाँ


मुझे देखते ही विलापने लगते हैं चीड़ के पेड़ सुनाई देने लगती है किसी घायल लड़की की दबी-दबी कराह।''


आज तेज रफ्तार पूर्ण अत्याधुनिक जिंदगी की आपाधापी में जीवन प्रदायिनी ऋतुओं का भान व्यक्ति के एहसासों से गुम हो रहा है। कवि के शब्दों में


“गाड़ी खड़ी थी।


चल रहा था प्लेटफारम ।


गनगनाता बसंत कहीं पास ही में था शायद।''


कवि तल्लीनता के साथ समस्त परिवेश की सुकुमारता को अक्षुण्ण रखना चाहता है, साथ ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की वैदिकी भावना भी इस कविता में व्यक्ति हुई है


‘‘सुबह कोई गाड़ी होती तो


में शाम तक पहुँच जाता


रात कोई गाड़ी होती तो मैं सुबह तक पहुँच जाता


चाँद कोई गाड़ी होती तो मैं उसकी खिड़की पर


ठंडे-ठंडे बैठा


देखता अपनी प्यारी पृथ्वी को 


कहीं न कहीं तो पहुँच ही जाता।''


‘डॉ. वीरेन डंगवाल' ने अपनी अधिसंख्य कविताओं में अविरल गति से होते शहरीकरण का चित्र खींचने के साथ-साथ धरती के प्राकृतिक सौंदर्य को संरक्षित रखने की उत्कट ललक भी अभिव्यक्त की है। जल प्रदूषण के भयावह परिणामों की चिंता ‘पाइप के पानी की नींद' कविता में दर्शायी गयी है। जल के उत्स के प्राप्त रूप को ज्यों का त्यों निर्मल बनाये रखने का भाव यहाँ दृष्टव्य है


‘रात को पाइपों के भीतर


पानी सो जाता है एक बहुत लम्बी तरल नींद


उसी नींद में छूता है उंगली बढ़ा-बढ़ा कर


नदी को


हिम शिखरों को


चट्टानों के काई लगे चिकने पेट


और चाँदनी में चमकते देवदारू की छाया को


सोते में ही कोशिश करता है


कि जहाँ तक हो बचकर रहे


रात दिन उत्सर्जित होते तेजाब से।'


अति आधुनिकता व त्वरित विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक तत्वों का अंधाधुंध दोहन राक्षसी प्रवृत्ति का प्रतीक है। कवि के शब्दों में'–


आँखें पर निशि-दिन बेचैन


झर-फर्र झिप-झिप बस देखा कीं


दुनिया के मेले में दुनिया को ताका कीं


जहाँ कहीं जो कुछ भी मतलब का मिले


सब गप्प-हप्प


अंतरिक्ष सागर वन प्रांतर का मरुथल सब


हाँ-हाँ-हाँ मेरे हैं।


मेरे हैं-मेरे हैं।


गप्प-हप्प।''


इसके अतिरिक्त ‘धन का घन' ‘हाथी', आदि अनेक कविताओं के वीरेन डंगवाल की प्रकृति के प्रति उत्कट लगाव की भावना तथा पर्यावरण संरक्षण की अटूट कामना अभिव्यक्त हुई है।


सम्पर्क : १६४ पंचवटी, सिविल लाइन्स, बरेली