कविताएं - पानी का पता - मनीषा झा
पानी का पता
पानी का पता समुद्र से नहीं
उन झरनों से पूछो
जो प्यास की तड़प सुनकर
दौड़ जाते हैं व्याकुल होकर
खाया करते हैं अक्सर
चट्टानों की चोट
फिर भी जो लौटते नहीं पीछे
ठहरते भी नहीं
न लेते हैं अम्बर की ओट
पागलपन क्या है
उस पानी से पूछो जो बहता है
हाहाकार बन उमड़ता है
कभी सागर की सीमा में
हरहराकर बढ़ जाता है
कभी झरने के असीम पथ
रस बन बरसता है
शब्द के शरीर से
आँसू बन झरता है
आँखों के रास्ते
पागलपन का पता पानी से पूछो
पूछो कि पागलपन नहीं होता अगर
तो कितना मुश्किल होता जीवन।
मनीषा झा
संपर्क : प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, उत्तर बंग विश्वविद्यालय, सिलीगुड़ी मो.नं. : 9434462850