साक्षात्कार - राजनीति के पिछलग्गू - कर्ण सिंह चौहान से उमाशंकर सिंह परमार की बातचीत
दादा आज साहित्य में दलगत राजनीति आश्रित संगठनों और समहों की संख्या अधिक हो गई है। जो भी दल सत्ता प्राप्त कर लेता है कुछ साहित्यिक समह उसके अनगामी हो जाते हैं। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दलों के भी जाति और उपजाति आधारित लेखक संगठन बन गए हैं। सारे संगठनों के भीतर अपने-अपने आग्रह हैं। प्रेमचन्द का वह कथन जिसमें उन्होंने "साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था" क्या लेखक उससे दूर हो गया है? या साहित्यकार की निरपेक्षता खत्म होने का समय आ गया अथवा सापेक्षता हीसाहित्यकार की पहचान है?
इस स्थिति का मूल कारण तो प्रेमचंद के कथन में ही छिपा हुआ है, बस इधर उसे उलट लिया गया है यानी कि लेखकों ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल न बनाकर राजनीति को वह मशाल सौंप दी है और खुद उसके पीछे हो लिए हैं। और विस्तार में जाकर देखें तो पाएंगे कि राजनीति का जीवन के हर क्षेत्र में दखल तेजी से बढ़ा है और उसने यह भ्रम पैदा किया है कि समाज और देश में वही सब कुछ है। हम भी काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं। जब हर लेखक के सामने एक ही सवाल रखने लगे-“तय करो किस ओर हो तुम!" या "पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है!" तो जब लेखक से लेखन के सवाल न पूछकर आप पॉलिटिक्स के सवाल पूछेगे तो वह क्यों न सीधे राजनीति की ही शरण ले? देख रहे हैं कि पिछले दिनों राजनीति में भी अस्मिताओं के सवाल प्रमुख रहे हैं जिसके कारण उन्हें इसका फायदा मिला है और उनकी शक्ति बढ़ी है। इसलिए इन अस्मिताओं से जुड़े लेखक राजनीति के पीछे चलने में कोई बुराई नहीं समझते। लेखक का अपने लेखन पर आत्म-विश्वास घटा है और लेखन को कैरियर, यश-प्राप्ति, ख्याति, मान-सम्मान का एक जरिया मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है। वह यह समझने लगा है कि केवल लेखन के बल पर उसे वह नहीं मिल सकता जो राजनीति के पीछे चलने से मिल सकता है। और यह हुआ भी है। वह लेखन को अपना मुख्य सरोकार न मानकर एक पार्ट-टाइम काम या अतिरिक्त गतिविधि मानने लगा है। राजनीति के पीछे चलना उसकी कामनाओं का शॉर्टकट बन गया है। जहां तक इस बात का प्रश्न है कि साहित्य या साहित्यकार की स्वायत्तता क्या समाप्ति की तरफ है तो उसके बारे में मुझे इतना ही कहना है कि साहित्य के इतिहास में ऐसा समय पहली बार नहीं आया है जब उसके रचना-कर्म का अवमूल्यन हआ हो। साहित्य में इसका सेफ्टी-वाल्व भी है। इतिहास में जब-जब ऐसा हुआ तब-तब साहित्यकार ने रचना के विधायक तत्वों या कहें संरचना पर अतिरिक्त जोर दिया है और कई बार उसकी परिणति “कला कला के लिए" जैसे आंदोलनों में हुई है और उसने यहां तक कहा कि 'साहित्य में बाहरी हस्तक्षेप मतलब शत्रु का हस्तक्षेप'। यह साहित्येतर की साहित्य में अति की प्रतिक्रिया जरूर है, लेकिन उसे प्रतिक्रियावादी मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में वही साहित्य की मुख्य सृजनात्मक धारा बना और उसने ही श्रेष्ठ रचनाकार और रचनाएं दीं। आज भी वैसा ही समय साहित्य के समक्ष है और मुझे आश्चर्य नहीं होगा कि राजनीति के अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण साहित्य के बीच से शुद्ध कला की मांग जोर पकड़ ले।
प्रेमचन्द की विरासत और निरपेक्षता की सैद्धांतिकी अब प्रगतिशीलता और जनवाद के लिए जरूरी नहीं रह गई? यदि जरूरी है तो लेखक संगठन और समूह इस बहस से बचते क्यों हैं?
लेखक संगठनों के तो मूल में ही राजनीतिक पिछलग्गूपन है। प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत ही राजनीतिक कारणों और उद्देश्यों से हुई थी और वह कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों से जुड़कर ही चला। बाकी दलों ने भी इससे सीख ली और अपने-अपने लेखक संगठन खड़े कर लिएकम्युनिस्ट पार्टियों में जब बंटवारा हआ तो उनके भी अपनेअपने लेखक संगठन बन गए।
__इसलिए यह मानकर चलना कि लेखकों ने ये संगठन बनाए हैं, सही नहीं है। इन संगठन में लेखक जरूर हैं लेकिन वे वहां लेखक या लेखन के सरोकारों की वजह से नहीं, राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हैं। राजनीतिक पार्टियां उनकी निर्देशक हैं, वे उन्हें दफ्तर मुहैय्या कराती हैं, श्रोता मुहैय्या कराती हैं, संपर्क मुहैय्या कराती हैं, पद-पुरस्कार मुहैय्या कराती हैं, धन देती हैं।
प्रेमचंद के समय में यह मामला उतना स्पष्ट नहीं थालेखकों का नया-नया संगठन बन रहा था जो प्रगतिशील मुद्दों को उठा रहा था। इसलिए प्रेमचंद उसमें बहुत संभावनाएं देख रहे थे। वे उसकी परिणतियों को देखने या उससे मोहभंग के लिए अधिक जीवित नहीं रहे, संगठन निर्माण के कुछ महीने बाद ही वे दुनिया को छोड़ कर चले गए।
संगठनों का केवल इन सवालों से बचने का मामला नहीं है, वे किसी भी सवाल पर बात करना नहीं चाहते।इसमें साहित्य के सवाल तो हैं ही, इतिहास और समाज के सवाल भी हैं। ले-देकर उनकी भूमिका सभा-गोष्ठी कराने, पार्टी लाइन पर प्रस्ताव पारित कराने, इकाइयां बनाने और पदाधिकारी चुनने की ही रह गई है। वे लेखक न होकर मात्र दफ्तरी हो गए हैं और इसीलिए रात-दिन तिकड़मों, उठा- पटक और नौकरशाही व्यवहार में लीन रहते हैं।
दादा एक सवाल मुझे परेशान करता रहता है कि आज हम अस्मितावाद पर बहस कर रहे हैं जो हाशिए की अस्मिताएं थी, केन्द्रिकता की माँग कर रही हैं और लेखक उस माँग का पक्षधर है। मगर 'पर्यावरण और प्रकृति' कभी भी केन्द्रिकता नहीं बन सका जबकि यह सबसे बड़ा संकट है। विदेशों में यह साहित्य संस्कृति का बड़ा मुद्दा है। हमारे यहाँ लेखक संगठनों, विश्वविद्यालयों, पत्रिकाओं और बहसों, सेमिनारों से यह विमर्श गायब क्यों हैं?
राजनीति और साहित्य में अस्मिताओं का उभार वक्त का तकाजा था जिससे उन समूहों को न्याय मिल सके जिनके प्रति इतिहास
प्रति इतिहास में लंबे काल तक अन्याय हुआ या जिनकी उपेक्षा हुई। दर-असल पूरी बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद के सर्वसमाहारी विचार ने एक ऐसा मेटा-नैरेटिव (इसे महाआख्यान भी कहें) खड़ा कर दिया था जिसमें दुनिया, देश और समाज की सब समस्याएं समाई हुई थीं और सबका निदान बस क्रांति में था। उस क्रांति के वाहक वर्ग भी पहले से ही निश्चित थे और उनका नेतृत्व भी कम्युनिस्ट पार्टियों के आधीन था। इसमें कोई फेर-बदल नहीं हो सकता थाअस्मिताओं का उभार ऐसे तमाम मेटा-नैरेटिव के विरुद्ध उभार था जिसमें काले-गोरों, दलितों, नारी अस्मिता, आदिवासियों, पिछड़ों के सवाल सामने आए। यह बाकी के लिए तो था ही स्वयं मार्क्सवाद के लिए भी खुली चुनौती था। यानी सवाल उनसे भी थे कि मजदूर में भी तो दलित की स्थिति अलग ही है, नारी की स्थिति अलग ही है, पिछड़ों की और आदिवासियों की स्थिति अलग ही है। उसमें भी तो ब्राह्मणवाद, पुरुष वर्चस्व, कुलीनतावाद, धनी-मानी वैसे ही बरकरार है। शुरू-शुरू में मार्क्सवादियों ने इन सवालों पर लीपा-पोती करने की कोशिश की और उन्हें झूठ-मूठ में बरगलाया। यह भी आश्वासन दिया कि वे उनके समर्थक हैं और सहायक हैं। लेकिन शीघ्र ही यह बात सामने आगई कि दर-असल यह एक राजनीतिक पैंतरा था जिसमें अपने सैद्धांतिक और वैचारिक वर्चस्व को बनाए रखने के इरादे साफ थे। यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। आज भी अधिकांश मार्क्सवादी सर्वहारा के नेतृत्व में क्रांति के रटत या मार्क्सवाद के अजर-अमर होने की बीमारी से मुक्त नहीं हो पाए हैं और समझते हैं कि इस एकमात्र आख्यान की पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार कर जाएंगे। इसलिए रोज-रोज राजनीति में, समाज में, साहित्य में उनको असहज स्थितियों का सामना करना पड़ता है और गलत-बयानियां करनी पड़ती हैं।
__ आज ये अस्मिताएं अपनी नई संभावनाओं से रिक्त होकर किसी भी तरह से सत्ता के शीर्ष पर आना चाहती हैं। इसके लिए वे उन सब हथकंडों को अपनाने पर मजबूर हैं जो अब तक उनके विरुद्ध इस्तेमाल किए जाते रहे हैं।
जहां तक 'पर्यावरण' और 'प्रकृति' के मूलभूत मुद्दों का और उनकी पुराने मेटा-नैरेटिवों और नई अस्मिताओं में भीणं उपेक्षा का सवाल है तो वह एक स्वाभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। जिस तरह उन्होंने मार्क्सवाद के सर्वसमाहारीपन और सर्वोच्च मानवीय आइकन होने को चुनौती दी थी, वही चुनौती इन नए मुद्दों से स्वयं उन्हें मिलने जा रही है। जब हम प्रकृति और पर्यावरण के सवाल उठाते हैं तो उसके साथ ही जुड़ा हुआ है यह कि इस ब्रह्मांड और इसके स्रोतों पर समस्त प्राणियों का समान अधिकार है। मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान को हस्तगत कर अपने को सब कुछ का नियंता बना लिया है और सबके हिस्से को अपने हित में अंधाधुंध दुरुपयोग किया है। इससे समस्त प्रकृति और प्राणीजगत के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। इसमें मनुष्य एक जाति के रूप में इन्वाल्व है और अत्याचारी है।
यानी यह अत्याचार और अनाचार दलित और गैर- दलित, नारी और पुरुष, अगड़े और पिछड़े में विभाजित नहीं है, मनुष्य जाति का हिस्सा होने के नाते सब उसमें बराबर के हिस्सेदार और भागीदार हैं। जैसे उपनिवेशवाद के जमाने में यह सवाल उठा था कि पश्चिमी उपनिवेवादी देशों का सर्वहारा स्वयं उपनिवेशवादियों की लूट में हिस्सेदार हो गया है इसलिए इस लूट के खिलाफ विद्रोह नहीं कर रहा। ठीक उसी तरह से तमाम वर्गों, जातियों, अस्मिताओं में बंटी यह जो संपूर्ण मनुष्य जाति है, वह इस पर्यावरण, प्रकृति, मनुष्येतर प्राणीजगत के ऊपर अतिचार और अन्याय के लिए जिम्मेदार है।
यानी इससे ये सब अपराधियों के कठघरे में खड़े नजर आते हैं। इसलिए इन सवालों पर अभी यहां कुछ हो पाएगा, यह संभव नहीं दिखता। विकसित देशों में जीवन की जरूरतों के पूरा होने के साथ-साथ बड़ी संख्या में लोग अपने इस आतताई और वीभत्स चेहरे से परिचित होते जा रहे हैं। इसलिए वहां पर्यावरण और प्रकृति और मानवेतर प्राणीजगत के सवालों को महत्व मिलने लगा है। हमारे यहां इनके उठते ही आपको ऐसी प्रतिक्रियाएं आम देखने को मिलती हैं - "अभी लोगों को रोजी-रोटी मिल नहीं रही है, आपको प्रकृति और पशु-पक्षियों की पड़ी है।"
क्या विमर्श जन और लोक की सीमाओं से बाहर होते हैं? यदि जन और लोक ही विमर्शों का आधार है तो पर्यावरण विमर्श राजनीति और साहित्य से अब तक अपदस्थ क्यों है। क्या इस कारण कि साहित्यकारों में नए खतरों को मुद्दा बनाने का जोखिम नहीं रह गया अथवा आलोचना के चालू टूल्स में पर्यावरण विमर्श नहीं अंट सकता?
हमारे विमर्शों में ये सवाल क्यों नहीं आ रहे हैं, इसका उत्तर ऊपर दे आया हूं। जब तक देश की आर्थिक स्थिति खराब है, जीवन की परिस्थितियां कठिन हैं, सत्ता की भूख के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून है, तब तक ये मुद्दे जनता के बीच व्यापक समर्थन नहीं पा सकते। आप देख ही रहे हैं कि बांधों के विनाशकारी प्रभाव के विरुद्ध, बस्तियों के नजदीक आणविक कारखानों के विरुद्ध, जंगल काटने के विरुद्ध बरसों से आंदोलन चल रहे हैं लेकिन उन्हें मुट्ठी भर लोगों का ही समर्थन मिल पाता है और विकास का रथ निर्बाध आगे बढ़ता जाता है।
इस संदर्भ में आलोचना के टूल्स की बात आपने अच्छी उठाई। हमारे यहां आलोचना कई स्तर पर चल रही है। अधिकांश विश्वविद्यालयी आलोचना तो आदिम शास्त्रीयता में या रीतिवाद में उलझी है। उसके बाद जो नई आलोचना आई वह आधुनिकता के जमाने में विकसित हुए ज्ञानविज्ञान के सिद्धांतों और सैद्धांतिकियों में उलझी है। उसका अधिकांश मार्क्सवाद के सिद्धांतों के जड़ उपयोग में उलझकर रह गया है। कुछ लोगों ने बाद में पनपी उत्तर-आधुनिक या अस्मिताधर्मी सैद्धांतिकियों का उपयोग करने की कोशिश की है लेकिन उसके लिए पर्याप्त वैचारिक-सैद्धांतिक तैयारी के अभाव में या तो वह अधकचरी अवस्था में है या अंघभक्ति और श्रद्धा का रूप ले चुकी है।
तो जैसे जीवन में हड़प्पा सभ्यता के साथ-साथ दासप्रथा, सामंतवाद, पूंजीवाद, आधुनिकता, समाजवाद सब चल रहा है वैसे ही आलोचना में भी सब चल रहा है।
दादा इधर दिल्ली की बडी पत्रिकाओं मे अश्लील और यौनिक साहित्य लिखने की होड़ सी लगी है हिन्दी कथा साहित्य में तो यह प्रवृत्ति बडी साफ है। ऐसे साहित्य के पाठक भी हैं बाजार भी है। अतः तर्क यह दिया जा रहा जो लोकप्रिय है वही लोकधर्मी है। आप क्या मानते हैं पाठकीयता और लोकप्रियता ही साहित्य की बुनियादी पहचान है?
देखिए भाई, आप जिस दुनिया, देश और समाज में रहते हैं वह लगभग बाजारवाद में बदल गए हैं। बाजार का वर्चस्व सब जगह है। सब कुछ मांग और पूर्ति के नियम के आधीन हो गया है।
अब देखिए, इस बीच सत्साहित्य ने क्या किया। एक तो उसने ऐसी भाषा और भाव का संसार अपनी रचनाओं में रचा जो आम जनता की समझ से कोसों दूर था। ऐसे लेखक ही अपने को मुख्यधारा का मानकर चलते थे। बात जनता की, क्रांति की करते थे लेकिन कहते ऐसी अबूझ पहेली थे कि बस गिने-चुने साहित्य विदग्धों और विशेषज्ञों की समझ में आए लेकिन आप आपस में एक-दूसरे को ही पढ़ातेसुनाते रहे, तंत्र से इनाम-इकराम पाते रहे।
अब जनता क्या करे! पहले तो वह अपने पारम्परिक लोक-विधाओं, लोकरूपों में रही और रामलीला, स्वांग, नौटंकी, आल्हा में मस्त रही। जब कुछ लोग पढ़-लिख गए तो नए साहित्य में से गुलशन नंदा टाइप लेखन पढ़ने लगे या कवि-सम्मेलनी कवियों को सराहने लगे। आपने बजाय अपने लेखन पर पुनर्विचार करने के बस इतना किया कि ऐसे लोकलुभावन लेखकों और लेखन को गरियाकर खुश होते रहे।
_अब सारे लोग तो आपकी तरह इस जनवादी या लोकधर्मी फरेब के झांसे में सदा के लिए आने से रहे। आप स्वयं को कह रहे हैं मार्क्सवादी, जनवादी, लोकधर्मी और रच रहे हैं अबूझ पहेलियां। तो नए लेखकों ने जब देखा कि हिंदी में ये जो नोबल का हकदार समझने वाले अबूझमाड़ कवि हैं चालीस करोड़ की हिंदी भाषी जनता में उनको पढ़ने वाले तो चार हजार भी नहीं हैं और दूसरी ओर बहुत से ऐसे मंचीय कवि हैं जिनको लाखों-करोड़ों जनता सुनती और सराहती है। वे भी अपनी तरह से यथार्थवादी हैं। तो उन्होंने इसका अपना रास्ता निकाला। वह था सैक्स और उससे जुड़े मुद्दों को उठाने का। आखिर सैक्स भी तो स्वयं में एक प्रमुख अस्मिता बन ही गया है जिसको लेकर परी दनिया में आंदोलन चल निकले हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो है ही इसलिए आप किसी को कुछ करने से या कहने से रोक तो नहीं सकते। अब समलैंगिक संबंध या विवाह आपको जैसे लगें, लेकिन दुनिया के तंत्र उसकी रजामंदी में कानून पास कर ही रहे हैं। वैसे भी सैक्स हमेशा से जनरुचि का मामला रहा है, जिसे सामाजिक प्रतिबंधों के चलते खुलकर खेलने का मौका अभी तक नहीं मिला। पहली बार मिला है तो उसमें कुछ ज्यादतियां हो रही हैं।
ऐसे में इन लेखकों ने स्वयं को लोकप्रिय बनाने का, नए विमर्शों को जन्म देने का और जल्दी से प्रसिद्धि पाने का यह रास्ता लिया है। आपको यह तो देखना होगा कि पचास साल से आप आमजन, जनवाद, जनधर्मिता के नाम पर आपसी गुटरगू मार्का सत्साहित्य परोस कर फरेब कर रहे हैं तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही लोकप्रियता में होनी थी। मजे की बात यह है कि ये लेखक हाशिए पर धकिया दिए जाने वाले नहीं हैं, यह मुख्यधारा में भी हैं और जनप्रिय भी। जहां तक श्लीलता-अश्लीलता का सवाल है तो यह जान लीजिए कि आम जनता में लोकगीतों के माध्यम से शादी-ब्याह के जो चुहुल गीत प्रचलित हैं उनको अश्लीलता में कोई मात नहीं कर सकता है। इसलिए जनता की रुचि और मांग जब तक है तब तक यह सब चलेगा। बाजार में जो बिकता है, वह लिखा जाएगा और बिकेगा।
उसके बारे में आपको सोचने और कहने से कौन रोक सकता है। सबके अपने जनतांत्रिक अधिकार हैं जब तक कोई संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न करे। अब यह निर्णय कौन करेगा कि कौन सही है, कौन गलत। इसलिए बहस को इतिहास के निर्णय के लिए खुला छोड़ दीजिए।
क्या लोकप्रियता को साहित्य के बुनियादी सरोकारों पर महत्व दिया जा सकता है? क्या हम कुमार विश्वास को सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के समकक्ष रख सकते है?
आप किसे महत्व देते हैं, सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि आम जनता किसे महत्व देती है। वह निराला की बजाय कुमार विश्वास को सुनना चाहती है तो वही होगाआपकी पैदाइश से पहले १९७३ में बांदा में केदार जी द्वारा बुलाए लेखक सम्मेलन में रात को बड़ा कवि-सम्मेलन हुआ था जिसमें हिंदी के तमाम नामी-गिरामी कवि थे-नागार्जुन,त्रिलोचन, धूमिल, विजेंद्र, रंजक और अधिकांश नए कवि जो अपने को साहित्य की तोप समझे थे। अपार भीड़ उमड़ी थी कवियों को सुनने। संयोजकों ने भी इतनी भीड़ की कल्पना नहीं की थी। सबने जोर-आजमाइश की लेकिन जनता ने किसी की नहीं सुनी। बात तो जनता की थी, पर कौन सी अंग्रेजी में हो रही, जनता इसी से नाराज थी। सब एक-एक कर वीरगति को प्राप्त हो रहे थे। धूमिल की दुर्गति हुई थी, निराला होते तो उनकी भी होती।
तो यह है माहौल। इसमें जब महान कवि, लेखक छोटे से दायरे में सीमित हैं और कुमार विश्वास लोगों का कंठहार बन रहे हैं तो तुरंता यश:प्रार्थी किसका अनुकरण करेगा!
आप सत्साहित्य के मानदंड और लिस्ट लेकर बैठे रहिए। उसके लिए तो 'कभी न कभी, कहीं न कहीं, कोई न कोई' का सदियों का इंतजार करना पड़ सकता है। जो वीतराग होकर ऐसा कर सकते हैं, उन्हें युगों बाद भी सम्मान मिलता है
हम जानते हैं कि यह जो वक्ती लोकप्रियता है यह क्षणभंगुर है। कल को इनमें से कोई नहीं बचेगा। लेकिन हमें भी तो सब कुछ अभी चाहिए - प्रसिद्धि, पुरस्कार, मानसम्मान और नोबल। तब जब अभी चाहिए तो बनिए कुमार विश्वास या अशोक चक्रधर। इतिहास जब फैसला करेगा तब करेगाया फिर छोडिए इस सबको और रचना की साधना में ध्यान लगाइए।
साहित्य में लोकप्रियता बनाम लोकधर्मिता की समझ बाजारवाद के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुके लेखक कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में लेखक संगठनों का दायित्व था वे इस पर सवाल उठाते लेकिन मैं देख रहा हूँ लेखक संगठनों के उच्च पदाधिकारी ऐसे साहित्य का महिमामंडन कर रहे हैं तो क्या हम समझ लें कि जिन संगठनों को आपने अपनी मेहनत से खड़ा किया अब वे बाजारू संगठन बन गए हैं?
लोकप्रियता और सत्साहित्य के बारे में ऊपर कह आया हंसंगठनों के बारे में भी कह ही दिया है, उसे फिर रेखांकित कर दूं। संगठन यहां पार्टी का काम करने बैठे हैं, कोई लेखन की पवित्रता की जांच करने नहीं। उन्हें ऐसे लेखक चाहिए जो भीड़ जुटा सकें। तभी न जनता के बीच उनकी राजनीति का, पार्टी का काम आगे बढ़ेगा! तो वे दोनों को खुश रखना चाहते हैं। सत्साहित्य वाले लेखकों को खुश रखने के लिए गुटरगूं वाली साहित्य गोष्ठियां भी करते रहते हैं लेकिन साथ ही लोकप्रिय को भी साधे रहते हैं ।
आज युवा पीढ़ी में दो तरह के कवि हैं एक जो लेखक संगठनों और कुछ पुरस्कार पद व लाभ दाता समूहों फाऊन्डेशनों के अधीन हैं जिनका विज्ञापन है। तो कुछ इन सबसे निरपेक्ष रह लिख रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या हम मान लें जो हमे दिखाया और बताया और पढाया जा रहा है वही अन्तिम सत्य है? इस संस्थाओं का दावा भी यही है।
आप कह रहे हैं तो मैं मान लेता हूं कि युवा पीढ़ी में दो तरह के कवि हैं - एक तंत्र वाले और दूसरे मंत्र वाले। यानी एक जो पद, पुरस्कार, प्रतिष्ठा, लोकप्रियता के लिए संगठनों में, प्रतिष्ठानों में, फाउंडेशनों में, लिट् फैस्टों में जाते हैं। दूसरे ऐसे हैं जो इनसे निरपेक्ष रह लिख रहे हैं। उनकी कहीं कोई पछ नहीं है, पर लेखक हैं उत्तम और खांटी।
अब थोड़ा इसकी गहराई में जाएं। आप जिन्हें वीतरागी, त्यागी, अडिग, जनसेवी मानकर चल रहे हैं यह भी तो हो सकता है कि उन्हें ऊपर जाने का अवसर ही न मिला हो इसलिए वे अवसर पाए सबको भांड कहकर गरिया रहे हैं। यह भी देखा गया है कि अपने को महान और अडिग मानना और बाकी ख्याति बांट रहे लोगों को घटिया कहना एक डिफेंस मैकेनिज्म हो। क्योंकि थोड़ा कुरेदने पर असलियत भी उजागर होने लगती है। मसलन विजेंद्र जी जैसे प्रतिष्ठित वरिष्ठ कवि को क्या कहेंगे! कहने को वे जीवन भर प्रसिद्धि, पुरस्कार पाने वालों को कोसते रहे लेकिन अंदर-अंदर अपनी उपेक्षा का राग अलापते रहे, नामवर सिंह का नाम जपते रहेयह क्या है? यह वही मनोकामना है जो प्रसिद्धि चाहती है, पुरस्कार चाहती है, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ रूप में प्रतिष्ठित करना या होना चाहती है।
इसलिए, साहित्य का पक्षपाती होने के कारण मैं वास्तव में चाहता हूं कि एक लेखक को तमाम विचलनों, आकर्षणों, प्रलोभनों से मुंह मोड़कर साहित्य साधना में लीन रहना चाहिए और श्रेष्ठ साहित्य की रचना करनी चाहिए। लेकिन आज के समय में जिस तरह का दबाव बढ़ गया है, जिस तरह के सुअवसर पैदा हो गए हैं, जिस तरह की संभावनाएं उपस्थित हैं उसमें साहित्य-कर्म के श्रेष्ठ मूल्यों पर अडिग रहना अधिकांश के बूते की बात नहीं है।
युवा लोगों का कसूर तो फिर भी कम हैं। यहां तो ऐसे-ऐसे उदाहरण हैं जब हजार साल की तपस्या के बाद कोई सिद्धि के द्वार पर पहुंचा और मेनका रूप में हाजिर तमाम आकर्षण को देखकर सब खंडित हो गया। हिंदी में एक हैं गणेश पांडेय जो इस सवाल पर रोज न जाते कितनी अपील जारी करते हैं, कितनी खराब कविताओं' में संशोधन करते हैं, राजनीति के भ्रष्टाचार के समक्ष कर साहित्यकारों को आईना दिखाते रहते हैं। और परिणाम? लोग उन्हें सनकी, कुंठित, असफल, अप्रासंगिक न जाने क्या-क्या कहते हैं। जो दिखाने के लिए उनके साथ खड़े दिखाई भी पड़ते हैं वे भी आचरण में उस पर अमल नहीं करते।
तो यह है असलियत। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि अंततः ऐसा साहित्य ही बचेगा जो स्वयं को उच्चतर मूल्यों पर प्रतिष्ठित करके चलेगा और लाभ-लोभ को छोड़ एक ऋषि की तरह रचना कार्य को ही अंतिम सत्य के रूप में लेगा।
आलोचना में रीतिशास्त्रीय प्रतिमानों का अवसान हो चुका है। उत्तर आधुनिकता मिश्रित वैचारिक शब्दावलियाँ अब तक काबिज हैं जिसकी विशाल गुफा में सम्बन्धवाद, प्रकाशक हित, लाभालाभ की कामना जैसे साहित्येतर लक्ष्य बडी सहजता से अन्तर्विष्ट हो जाते हैं। तो क्या मान लें कि अकादमिक आलोचना अब अवसान की तरफ बढ़ रही हैइधर कुछ वर्षों में अकादमिक आलोचना भाषा और स्थापत्य के लिहाज से कोई जोखिम नही उठा पाईं। वही बातें दोहराई जा रही हैं जो पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं।
सही है कि रीतिशास्त्र के प्रतिमानों का अंत हो चुका है और उनकी जगह अनेकानेक आधुनिक, उत्तर-आधुनिक सिद्धांत और सैद्धांतिकियां विकसित हुई हैं और उसमें भी लगातार विकास और बदलाव जारी है। दिक्कत यही है कि हमारे यहां ये सिद्धांत और सैद्धांतिकियां तब एकदम नव्य अवतार रूप में तब अवतरित होती हैं जब अपने मूल उत्सों में पुरानी पड़ चुकी होती हैं या खत्म हो चुकी होती हैं। पिछड़ेपन और अपढ़ता के कारण यहां लोग समझते हैं कि यह कोई नई जड़ी-बूटी आई है आलोचना में।
कहने को रीतिशास्त्र के प्रतिमान खत्म हो गए हों लेकिन विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते हुए साहित्य की कक्षा में जाकर देखिए तो अभी भी मास्टर लोग उसी पद्धति पर साहित्य की व्याख्या कर रहे हैं और जियों से नोट लिखवा रहे हैं। ये जो नए-नए प्रतिमान आप अकादमिक जगत में देखते हैं, वह उन कुछ लोगों में ही है जो स्वयं को अप-टु- डेट' दिखाना चाहते हैं। जब यहां बहत से जाने-माने कवि, कथाकार बाहर से नकल मार लेते हैं तो आलोचकों को क्या शर्म। इसकी शुरुआत तो बहुत पहले हो गई थी जब हिंदी में आलोचक रचनाकार आधुनिकतावाद के प्रतिमानों से लगाकर 'अर्थहीनता' और 'एब्सर्ड' तक की यात्रा कर चुके थे। बाद में नामवर जी ने अपनी पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान' में अमेरिकी नव्य समीक्षकों की पारिभाषिक शब्दावली के आधार पर प्रतिमान बनाकर इसे नया अधार दिया। मार्क्सवादी तो एक सदी से मार्क्स की बातों का उल्था कर ही रहे थे सो हमने भी किया क्योंकि क्रांति से जुड़ा होने के कारण अपनी नकल नकल नहीं मालूम होती थी। फिर बाद में कई लोग उत्तर-आधुनिक सैद्धांतिकियां ले आए और एक दशक तक लोगों को आतंकित किए रखा। इधर कई तरह के अस्मिता धर्मी शास्त्र चल रहे हैं।
इसलिए कहना होगा कि हिंदी में आलोचना का परिदृश्य काफी विविधमुखी और रंगारंग है। यहां जीवन में अभी भी हड़प्पा सभ्यता से लेकर एकदम टटकी कल्चर एक साथ उपस्थित है। सांप-सपेरों से लेकर समलैंगिक सब दिखाई पड़ जाते हैं। यही हाल हिंदी आलोचना का है। इसमें से क्या बचेगा और कौन शीर्ष पर जाएगी और किसका पतन होगा इसमें पड़ने की बजाय 'हजारों फूलों को एक साथ खिलने दो' का रवैय्या अपनाना बेहतर है। असल बात है आलोचना में अपने समय के सार और रचना से उसके संवाद तथा उस संवाद के स्थापत्य को समझने की क्षमतावह होगी तो आलोचना अपना विश्लेषण धर्म निभा लेगी, नहीं तो अपने सिद्धांतो, विश्वासों, पूर्वाग्रहों का राग ही अलापती रह जायगी।
समकालीन कविता मे आपके अनुसार कौन सी प्रवृत्ति व्यापक है। रूप की अथवा विचार की।
यह सवाल और इस रूप में रचना को देखने का नजरिया काफी पुराना हो चुका है। जहां तक मुझे याद पड़ता है यह उन कृतियों की व्याख्या-विश्लेषण में अधिक सामने आया जिनके रचनाकार को तो हम प्रतिक्रियावादी मानते थे, लेकिन रचना को नकार नहीं पाते थे। अज्ञेय के,नदी के द्वीप' पर जब प्रगतिशीलों में बहस गर्माई तो अंततः 'पके फल में कीड़े' के जुमले का इस्तेमाल कर पिंड छुड़ाना पड़ा। ये दोनों कोई ऐसी अलग चीजें नहीं हैं कि इनपर अलग-अलग करके विचार किया जा सके। सब कुछ गुफित और एकात्म रूप में होता है। जहां ये दोनों भिन्न रूप में नजर आने लगें समझो रचना-प्रक्रिया में कोई खामी और अधूरापन है जिससे कि रचना में यह अपच रह गया है।
न विचार से रचना बन सकती है, न रूप से। बल्कि मैं कहूंगा कि किसी भी बड़े रचनाकार के लिए ए दोनों ही बहुत महत्व के हैं और नहीं भी हैं। वह बाह्य-जगत को अपने इंद्रिय ज्ञान के द्वारा साक्षात्कार कर अपनी संवेदना के हिसाब से चुनाव कर अंतर्निहित करता है जहां पहले से ही मौजूद अनेकानेक विधायक इस चुनाव और इसके प्रस्तुतीकरण तक को प्रभावित करते हैं। यह सब रचना-प्रक्रिया के दौरान रचनात्मकता में ढलता है। इसलिए रचना में यदि कथ्य और रूप अलग से पहचाने जाएं तो यह मानना होगा कि रचनाकार ने इन्हें ठीक से पचाया नहीं है और रचना अपने अनगढ़ रूप में ही है। इतिहास में बार-बार ऐसे अवसर आते हैं जब रचना में प्रतिक्रिया-स्वरूप किसी एक पक्ष पर बलाघात होने लगता है। मसलन रचना में जब साहित्येतर ज्ञान-विज्ञानों के सत को महत्व मिलने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया में उसका झुकाव कलात्मकता या संरचनाधर्मी तत्वों की तरफ होता है जिसे हम 'कलावाद' के नाम से जानते हैं। इसी तरह जब भाषा, रूप, रचना, संरचना, स्थापत्य का जोर होने लगता है तो उसे वैचारिक आधार देने की प्रवृत्ति बलवती होने लगती है। इस तरह यह संतुलन का काम चलता रहता है। संतुलन कायम रखने में दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
विचार और रूप का द्वन्द्व पुराना है क्या हम इसे आज की लोकप्रिय और लोकधर्मिता की बहस से जोड़कर देख सकते हैं?
___ पिछले प्रश्न में यह आ गया है। वही रिश्ता लोकप्रियता और लोकधर्मिता का भी है। ऐसा समय रहा है जब रचनाकार ने लोकप्रियता और लोकधर्मिता को एक साथ साधा है। उदाहरण के लिए हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन के जमाने में बहुत सारे कवि रहे और लोक कवि रहे जिन्होंने इन दोनों चीजों को साधने की कोशिश की। लेकिन उनमें से कवि के रूप में प्रतिष्ठा किसी-किसी को ही मिली। आज हम उनमें से अधिकांश के नाम भी नहीं जानते हैं। जिनके जानते हैं उनमें से भी सभी को काव्य की मुख्य धारा का अंग बनाने में संकोच करते हैं। शील जी का मामला अधर में लटका हुआ है, सुमन और नीरज तो बाहर ही कर दिए गए हैं, बाकी लोकधर्मी लोककवियों का तो कोई नाम लेवा नहीं है। नागार्जुन जैसे एकाध ही मुख्य धारा में भी प्रतिष्ठित हुए हैं।
__इसके विपरीत अगर देखें तो शमशेर, मुक्तिबोध जैसे कवि हुए जिन्होंने लोकप्रियता और प्रचलित अर्थ में लोकधर्मिता को त्याग कर कविता की और उनकी प्रतिष्ठा हुई। आप माने या न माने पर यह सच है कि मुक्तिबोध लोकधर्मिता के तमाम अभिधानों का अतिक्रमण करते हुए भी हिंदी कवियों की युवा पीढ़ी में सबसे लोकप्रिय और जन-सरोकार के (आप चाहें तो लोकधर्मी कहें) कवि माने गए। यह समय-समय की बात है। ऐसा क्यों हुआ इसके लिए गहराई में उतरकर युगधर्मिता और रचनाधर्मिता पर बात करनी होगी।
दादा एक समय शिवदान सिंह चौहान ने "लेखकों के संयुक्त मोर्चे" की बात की थी मगर लेखक संगठन प्रलेस ने उस समय इस बात को खारिज कर दिया था। आपने भी गैर राजनैतिक साझा लेखक संगठन की बात की थी। अब यह साझा मोर्चा फासिस्ट ताकतों के खिलाफ बनाने की बात हो रही है। आखिर बार बार मांग होती है और साझा मोर्चा अटक जाता है क्यों?
संयुक्त मोर्चे का बनना न बनना लेखकों की इच्छा पर निर्भर नहीं है बल्कि इस बात पर निर्भर है कि उनके मालिक राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रणनीतियों या मजबूरियों से कब किसके साथ राजनीतिक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते हैं। हिटलर के विरुद्ध राजनीतिक स्तर पर संयुक्त मोर्चे का सवाल उस समय उठा जब हिटलर ने स्वयं सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। इससे पहले यह सवाल नहीं उठा था। बुल्गारिया के कम्युनिस्ट ज्यार्जी दिमित्रोव को संयुक्त मोर्चे की इस अवधारणा का जनक माना जाता है जिसका प्रतिफलन साहित्य में भी दिखाई देता है।
तो इस संयुक्त मोर्चे में समाजवादी, साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, पूंजीवादी तमाम शक्तियां अपने अस्तित्व को बचाने के लिए साथ आ गईं। लेखक संगठनों में भी सोवियत रूस के आह्वान पर यह सब हुआ। लेकिन जैसे ही हिटलर की पराजय हुई फिर से सबके अपनी-अपनी ढपली अपने-अपने राग छिड गए।
तो इसलिए यह साहित्य में संयुक्त मोर्चे का सारा खटराग कोई साहित्य की आंतरिक जरूरत से पैदा हुई चीज नहीं है। उसका संबंध संगठनों की नियंता पार्टियों की रणनीति और कार्यनीति से है। राजनीति में कब किसके साथ संयुक्त मोर्चा बनेगा, कब टूटेगा यह व्यावहारिक राजनीति की जरूरतों से तय होता है और इसमें कोई स्थाई मित्र या शत्र नहींहोते। कल तक कांग्रेस के खिलाफ संयुक्त मोर्चा चलता था, अब भाजपा के खिलाफ चल रहा है क्योंकि सबको अपने अस्तित्व का संकट नजर आ रहा है।
यही हाल साहित्य में संयुक्त मोर्चे का है। क्योंकि विश्व में संयुक्त मोर्चे की अवधारणा फासीवाद के उदय से जुड़ी है इसलिए उसी के आधार पर अब भाजपा के शासन को फासीवाद मानकर उसके खिलाफ संयुक्त मोर्चे का नारा दिया जा रहा है। इसमें और कोई गंभीर बात विचार करने की नहीं है।
मुझे लगता है सभी लेखक अपने साहित्यिक सरोकारों के साथ एक मंच पर नही आ सकते। इस पथ में सबसे बड़ा रोड़ा लेखक संगठन हैं। उन्हें लगता है, उनका वर्चस्व नही रहेगा। अतः क्या हम इस बहस को संगठनों की वर्चस्ववादी नीति से जोड़कर देख सकते हैं?
मेरा यह मानना है कि लेखकों के संगठन अनिवार्यतः राजनीतिक संगठनों के आधार पर बनेंगे। साहित्यिक सरोकारों पर भी बन सकते हैं, लेकिन ऐसे बहुत कम उदाहरण दुनिया में देखने को मिलते हैं। वैसे भी अपनी रचनाशीलता पर केंद्रित रहने वाले लेखक इन पचड़ों में क्यों पड़ना चाहेंगे। उनका काम है लेखन करना और जो भी आवाज उठानी है या हस्तक्षेप करना है, वे अपने लेखन के माध्यम से ही करना चाहेंगे ।
संगठन का काम तो राजनीतिक दल या उनसे जुड़े लोग ही करेंगेव्यक्ति लेखक अपने साहित्य की चर्चा के लिए, अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए, नाम-इकराम के लिए इन संगठनों का सहारा लेते रहते हैं। इस तरह यह परस्पर का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बना रहता है।
आम लेखकों का एक संगठन में संगठित होना न तो संभव है, न जरूरी। एक लेखक के नाते उनमें आंतरिक स्तर पर जुड़ाव तो होता ही है और वे अपनी रचना का पाठ करने, अपने विचारों को अभिव्यक्त करने आदि के क्रम में एक-दूसरे से जुड़े रहते ही हैं, आदान-प्रदान भी सतत होता रहता है। यही साहित्यिक सामूहिकता की सही प्रक्रिया है। जैसे ही आप संगठन बनाने या उसमें संगठित होने का प्रयास करेंगे, वैसे ही कुछ घोषणापत्र बनाना होगा, उद्देश्य होंगे, सदस्यता के नियम होंगे, संगठन का ढांचा होगा, शाखाएँ उपशाखाएं होंगी, पदाधिकारी होंगे, दफ्तर होंगे, पत्रिकाएं होंगी, अखबारों, प्रकाशकों, अकादमियों, सत्ता से रसूख होगा। मतलब वे तमाम प्रक्रियाएं चालू हो जाएगी जो आपको एक लेखक या संगठन के सदस्य के रूप में भ्रष्ट बनाने के लिए पर्याप्त हैं।
इसलिए संगठन निर्माण पर अपनी ऊर्जा व्यय न कर लेखन, लेखन के साधन, अच्छे लेखन को बढ़ावा देने के लिए पत्र-पत्रिका प्रकाशन आदि पर ध्यान देना चाहिए।
आज छोटी छोटी जगहों से पत्रिकाएं निकल रही है कस्बों और गांवों तक सोशल मीडिया पहुँच गया है। साहित्य का विकेन्द्रीकरण इस सचना तकनीकि ने सम्भव कर दिखाया है। साहित्य के इस लोकतान्त्रिक माहौल को आप किस रूप में देख रहे हैं?
मैं हमेशा यह मानकर चलता हूं कि ज्ञान-विज्ञानतकनालॉजी किसी भी राजनीतिक, सामाजिक, व्यक्तिगत परिवर्तन में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं। हजारों साल से अन्याय, अत्याचार, गैर-बराबरी आदि के खिलाफ आवाज उठती रही हैं और आंदोलन भी चले हैं। लेकिन उनसे जमीन पर बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं हुए। भक्ति आंदोलन उसकी जीवंत मिसाल है। लेकिन आधुनिक समय में इंटरनेट और मोबाइल ने बहुत सी ऐसी चीजों को संभव बना दिया जो असंभव दिखती थीं।
इसलिए तकनीक ने जो लोकतांत्रिक माहौल बनाया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का परिवेश कायम किया है, थोड़े दिनों में ये व्यवस्थाएं उसे तोड़ पाने में असमर्थ हो जाएंगी। यहां तक कि क्रिप्टो करेंसी जैसे जो नए आर्थिक साधन सामने आ रहे हैं उन्होंने सत्ताओं के अर्थतंत्र और मानव जीवन पर शिकंजे को बड़ी चुनौती दे दी है और वह दिन दूर नहीं जब यह वर्चस्व टूट जाएगा ।
इस जनतांत्रिक माहौल और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विस्तार ने जो एक नया सर्जनात्मक माहौल पैदा किया है फिलहाल तो उसके गुण-दोषों में अधिक न जाकर उसका आनंद लीजिए। साहित्य-कर्म की विशिष्टता और श्रेष्ठता का जो खाका हमने सदियों के इतिहास के आधार पर बना रखा है, उसको कुछ झटका लगता अवश्य है जब सब धान एक पसेरी होकर बिकने लगता है। यह जनतांत्रिक प्रक्रिया की समस्याएं हैं जो उसके परिपक्व होते जाने से अपने आप सुलझेंगी। इसलिए उसे कोसने से बात नहीं बनेगी। सम्पर्क : मो.नं. : 9838510776