कहानी - कत्लगाह - दिलीप कुमार

दिलीप कुमार - जन्म : 19.06.1980 दो कथा संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित एक दशक से अधिक का लेखन, लेखन हेतु कई पुरस्कार प्राप्त, कहानी, व्यंग्य, लघुकथा में लेखन सम्प्रति : सरकारी सेवा एवं लेखन


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      "यह विवाद का तीसरा दिन था। मग्घे की लाश पड़ी थी। मृत्यु यकीनन आज ही हुई थी, मगर कल से ही उसे लोग मुर्दा घोषित कर चुके थे। घर में कलह और पंवारा चरम पर था। मीरावती को कुछ औरतें खींच-खींचकर घर से बाहर कर दिया करती थीं, मगर थोड़ी देर बाद वह रोते-सुबकते घर में दाखित हो जाती और फिर पति की लाश से चिपककर दहाड़ें मार कर रोती थी। वैसे भी वो घर कहाँ था, बस एक छप्पर जो दोनों तरफ से खुला था। महज एक टूटे-फूटे फूस की आड़ थी, जिसके छेद में टीन के कुछ बक्से दिखाई पड़ रहे थे। एक बक्सा खुला हुआ था जिसका सामान जमीन पर छितराया पड़ा था। तब तक मीरावती का देवर राम समुझ दनदनाता हुआ अंदर आया और उसने मीरावती को पीछे से खड़ी लात जड़ दीमीरावती दर्द से बिलबिला उठी। उसकी गोद की लड़की दूर जा गिरी और चीखें मारकर रोने लगी। राम समुझ ने मीरावती के बालों को खींचते हुए कहा “उठ रांड़, मेरे भाई को तो खा गई, अब क्या पूरे घर को खाएगी? निकल यहां से, अब तेरा यहां क्या रखा है?" मीरावती कुछ न बोली, बस बढ़कर बच्ची को उठाया और उसे चुप कराया। ऐसी मार-पीट, खींच-तान बड़ी देर तक होती रही। एक तरफ मीरावती के जेठ और देवर का तर्क था कि मग्घे की मृत्यु मीरावती की लापरवाही एवं अपलक्ष्य से हुई है इसीलिए उसे वहां से चले जाना चाहिए दूसरी तरफ रोतीफफकती मीरावती थी जो पति-वियोग से आक्रान्त थी, उसके चार अबोध बच्चे थे, वह तर्क विहीन थी। उसके साथ सिर्फ उसके आंसू, सिसकी और दुहाइयां थीअगल-बगल के लोग परेशान थे कि कहीं थाना-पुलिस न हो जाए। इस खुसर पुसर से आजिज होकर गांव के चौकीदार ने प्रधान को बताया कि अगर फौरन दाह-संस्कार नहीं कराया गया तो मजबूरन उसे थाने को खबर करनी पड़ेगी और एक बार अगर थाने को खबर दे दी गई तो कई लोग कानून के लपेटे में आ सकते हैं। यह बात प्रधान की समझ में तुरंत आ गई कि अगर कहीं बात बढ़ गई तो उसने पिछले दो साल से मनरेगा की जो फर्जी मजदूरी मृतक के नाम पर हड़पी है, उसकी भी पोल खुल सकती है। खामखां की सांसत से बचने के लिए प्रधान ने अपने पंच बुलाए, मृतक के घर पहुँचकर सभी को डपटा। प्रधान ने पहले तो घुड़कियां दीं फिर न्याय की बात की। क्योंकि पिछले दो तीन सालों की मग्घे की मजदूरी दस हजार से भी ज्यादा निकल रही थी। बैठे-बिठाए मजदूरी का कमीशन तय था, साठ फीसदी प्रधान का, बीस फीसदी बैंक वालों का, दस फीसदी सरकारी बाबुओं का और दस फीसदी उसका जिसके नाम का जॉब कार्ड हो, यानी मजदूरी उठाने वाले मग्घे का।


    मग्घे ने पिछले कुछ बरसों से सैकड़ों बार प्रधान के कहने पर बैंक से पैसा उठाया था। हर बार वह घर आकर घर के मिट्टी की दीवार पर एक खड़ी लाइन जोड़ देता था जो पैसा बतौर हिसाब उसे प्रधान से पाना था। हालांकि प्रधान ने अभी तक तो एक रुपया भी नहीं दिया था मगर मिट्टी की दीवारों पर लाल रंग के सैकड़ों खड़ी लाइनें मग्घे और मीरावती को खासी तसल्ली देतीं थीं कि प्रधान के पास यह रकम जमा है और वह इसे देगा जरूर। मग्घे तड़प-तड़प कर टी.बी. की बीमारी से मर गया। मगर प्रधान अब-तब करता रहा। मग्घे के बच्चे प्रधान के आगे पीछे मड़राते रहे, मीरावती भी बार-बार उस दर पर गई, मगर पैसे न मिलेआम तौर पर डांट-फटकार से बात करने वाला प्रधान, मीरावती से विनम्रता से पेश आता और उसे आश्वासन देता रहा। मग्घे ने मरते-मरते अपने बड़े भाई दांते और छोटे भाई राम समुझ से वचन ले लिया था कि वे मीरावती और उसके चार अबोध बच्चों को भूखा नहीं मरने देंगे।


    मग्घे का बाप त्रिलोकी भी मृत्यु की कगार पर था। उसकी माँ पहले ही काल कवलित होचकी थी। मग्घे ने अपने भाइयों को भी प्रधान के कर्जे के बाबत बताया था। मगर मग्घे के मरते ही नजारा बदल गया। जो भाई-बन्धु मीरावती और उसके बच्चों को भूखों न मरने देने को वचनबद्ध थे, वही अब मीरावती को घर से निकाल देने पर आमादा थे। क्योंकि मग्घे के पास तीन बीघे की खेती थी। गांव का प्रधान तटस्थ थाउसे दीवार पर लिखी लाइनों के कर्जे का तकादा आजिज किए हुए था। मीरावती ने फिर प्रधान की शरण ली, इस बार मामला कर्जे की उगाही का न था बल्कि शरण का था। वह अपनी जड़ों से उखाड़ी जा रही थी।


    असहाय स्त्री कहां जाती इस बेरहम संसार में। माँ-बाप पहले ही गुजर चुके थे। सगे चचेरे भाइयों ने किसी तरह चंदा जोड़कर उसका विवाह किया था। महराजगंज तराई का उसका पैतृक गांव बाढ़ में बह गया था और भाई पंजाब में कहीं मेहनत मजूरी करके गुजर-बसर कर रहा था। विगत चार छ: वर्षों में भाई बहन का किसी तरह का संपर्क नहीं हुआ था। अब वह हिन्दू विधवा थी जिसे अवध क्षेत्र में संसार का सबसे तुच्छ प्राणी माना गया था। अब वह चार अबोध बच्चों को लेकर जाए तो कहां जाए। लेकिन मीरावती ने जीते जी पति का घर छोड़ने से इनकार कर दिया।


    रामसमुझ और दांते के दबाव में त्रिलोकी मग्घे के हिस्से की जमीन उन्हें बैनामा करने को तैयार हो गए। त्रिलोकी डर गए कि बुढ़ापे में कौन मार खाए। तभी घर में पड़ी लाश का साथ देने एक और लाश आ गई। जवान बेटे की मृत्यु का दु:ख और उससे अधिक अपनी ही बहू और नाती-पोते को बेघर बेदखल कर भूखों मार देने के अपराध बोध से बेहाल पिता त्रिलोकी के प्राण पखेरू उड़ गए। उपरवाले की बेआवाज लाठी ने दखल दी तो सारे दांव उल्टे पड़ने लगे। मीरावती के श्वसुर के गुजर जाने से उसके जेठ और देवर के दांव उल्टे पड़ गए। अवध क्षेत्र में शहर की सीमा समाप्त होते-होते कानून की हनक भी कम हो जाती है। गांवों में आज भी लाठी का बल चलता है। दोनों की लाश का क्रियाकर्म करने के बाद दांते ओर रामसमुझ फिर मीरावती को घर से निकालने पर आमादा हो गए। मगर मीरावती अडिग थी कि "प्राण त्याग दूंगी, मगर इस चौखट को नहीं छोड़कर जाऊंगी"। रामसमुझ ने एक और प्रस्ताव दिया कि मीरावती उससे विवाह कर ले, जिससे उसे आसरा भी मिल जाएगा और मग्घे की जायदाद भी उसे मिल जाएगी।


    पहले से ब्याहता रामसमझ से मीरावती ने इस शोक की घड़ी में विवाह करने से इनकार कर दिया, आसरे के लिए ब्याह जरूरी तो न था। तो फिर लात दर लात। मीरावती की प्रधान के घर हाजिरी "खड़ी लकीरों का हिसाब कर दो।" प्रधान की जान फिर सांसत में। उसने पंच बुलाए। न्याय की बात हुई। दांते और रामसमुझ को डपटा गया। नैतिकता और ईश्वर की दुहाई दी गई, कानून की घुड़की दी गई और अंत में पते की एक बात प्रधान ने उन दोनों को अकेले में बताईमीरावती को ध्यान से देख, न रूप, न रंग। तीस की उमर में पचास की दिखती है। खेत तो मिल जाएंगे मगर उन खेतों से क्या मिट्टी फांककर अपने और अपने चार बच्चों को जिन्दा रखेगी। उसे न अन्न दो, न रुपया उधार दो। उसे भी टी.बी. होगी ही, मग्घे को भी थी। उसे मारने की बजाय उसे खुद मरने दो। फिर सब कुछ तुम्हारा। प्रधान की बात सुनकर उन दोनों की बांछे खिल गईं। प्रधान ने क्या जबरदस्त राजनीति की थी, सब खुश थे।


    मीरावती को ठिकाना मिल चुका था। उसके लिए प्रधान ही अब महापुरुष थे वह उनके पैरों पर लोट गई, बिलखते हुए बोली" मैं दो जन्म भी लूं तो भी आपके एहसान का बदला नहीं चुका सकती। अगर अपनी खाल उतारकर उसके जूता बनवाकर आपको पहनाऊं तो भी आपके ऋण से उऋण नहीं हो सकती।" दांते और रामसमुझ भी निहाल थे कि बिना झगड़े-फसाद के काम हो जाएगा। प्रधान ने जेल, थानाकचेहरी से बचा लिया। रामसमुझ तो इस एहसान से इतना दब गया कि उसी रात उसने कई पुड़िया लाल रंग घोलकर मीरावती की मिट्टी की दीवार पर लगे लाल रंग से लीप दिया। यानी बही खाते वाले दीवार पर अब लाइनें न थीं, महज लाल रंग के धब्बे जो कुछ नहीं बताते थे। अब वह दीवाल जितनी कोरी थी उतना ही भयावाह था मीरावती का भविष्य। हिसाबकिताब साफ हुआ तो अभी-अभी हासिल हुई परती जमीन भी उसे अपने पैरों के नीचे से खिसकती हुई मालूम हुई। उसे फिर प्रधान से हिसाब-किताब करने का साहस न हुआ। अड़ोसपड़ोस से एक आध दिन का चावल आटा मिला मगर उसके बाद सबने असमर्थता जता दी। सबके अपने-अपने दु:ख थे। "नानक दुखिया सब संसार"। गांवों में भूख बहुत बड़ी चीज होती है, मीरावती का दिमाग अभी दुरूस्त था। अंतरात्मा मरी नहीं थी। भले ही उसे लोग फटेहाल ओर तुच्छ समझते थे मगर वह खुद के निर्णय पर अडिग थी कि मुझे जीना है और अपने बच्चों का पालन-पोषण करना है। उसने तय कर लिया था कि वह भूख से भले ही मर जाए, दु:ख और जिल्लत से हारकर प्राण नहीं त्यागेगी। भले ही वह औरत थी और बेसहारा थीकोई बेसहारा हो और फिर औरत हो तो फिर किसी न किसी की नजर तो पड़नी ही थी।


    पांच उपवासों के बाद भी मीरावती का बड़ा बेटा रमेश अपनी बछिया चरा रहा था जब वह आदिनाथ के सामने चक्कर खाकर बेहोश हुआ था। आदिनाथ जानता तो सब कुछ पहले से था मगर बच्चे का यह हश्र देखकर वह द्रवित हो उठा। आदिनाथ के भी पांच बच्चे थे, वह बहुधंधी आदमी था। स्कूल का खाना, नल लगाना, फल बेचना और बैंक की दलाली। इसके अलावा भी वह कमाने के हर जुगाड़ में हमेशा आगे रहता था। बस औरत के मामले में लंगोट का थोड़ा कच्चा था। वह हमेशा महत्वपूर्ण बनने की फिराक में लगा रहता थाफिलवक्त गांव के तीन स्कूलों का खाना एक प्राइवेट संस्था बनवाती थी। शहर की संस्था ने गांव में आदिनाथ को ही उस संयुक्त रसोई की कमान सौंप रखी थी। वैसे तो आदिनाथ खुद भी रसोइया के पद पर कार्यरत था, मगर वास्तव में उसकी हैसियत रसोइयों के सुपरवाइजर जैसी थी। आदिनाथ ही सारा हिसाब-किताब रखता था, सारा बन्दोबस्त भी करता था। शहर के ठेकेदार से पैसा लाकर, कोटेदार से गल्ला लाकर हिसाब किताब से बनवाना उसी का ही दायित्व था। उसने अपनी बीवी रामरती को भी रसोइया के पद पर भर्ती कर रखा था। रसोइयों का बाकी काम दूसरी दो औरतें करती थीं। आदिनाथ और उसकी बीवी मुफ्त कीरोटियां तोड़ रहे थे। आदिनाथ ने मीरावती के लड़के रमेश को नल गाड़ने में सबसे पहले अपना शागिर्द बनाया और फिर उसकी माँ को स्कूल की रसोई में काम पर लगा दिया। इस भर्ती में उसका दोहरा फायदा था। वह जितने रसोइए भरती करता, शहर से उसकी आधी तनख्वाह लाकर खुद रख लेता था। पांच उपवासों के बाद जब स्कूल का खाना मीरावती और उसके बच्चों को नसीब हुआ तो आदिनाथ उनके लिए किसी फरिश्ते से कम न था। धीरे-धीरे जिन्दगी आसान होने लगी। आदिनाथ ने अपनी सिफारिश से मीरावती के दो बच्चों का दाखिला स्कूल में करा दिया, जहां उन्हें कापी-किताब, वजीफा सब मिलने लगा और खाना तो मुफ्त में था हीआदिनाथ नल गड़वाने के एवज में रमेश के हाथ पर दसबीस रख भी दिया करता था। मदद का चक्र पूरा हुआ तो हर्जाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आदिनाथ ने जब तब मीरावती पर हाथ डालना शुरू किया। मीरावती पहले तो उससे बचने की कोशिश करती और यदि कभी फंस भी जाती तो हाथ पांव जोड़कर निकल आती। जब हद हो गई तो उसने फिर प्रधान की शरण ली। प्रधान को धर्म संकट से उबारते हुए मीरावती ने कहा कि "दीवार की लाइनें अब पुरानी बात हो चुकी हैअब आप मुझे जब-तब अपने यहाँ मजदूरी पर लगा लिया करें, वह भी फर्जी नहीं असल मजदूरी पर"। प्रधान इस बात पर रजामंद हो गया और अपने मुंशी रजवन्त से कहा कि वे मीरावती का ध्यान रखा करें। प्रधान ने मीरावती को ताकीद की, वो रजवन्त से मिलती रहा करे। रजवन्त करीब साठ के वय के दुबली-पतली काया के मृदुभाषी, होशियार व्यक्ति थे। हालांकि उनका भरा-पूरा परिवार था मगर न जाने क्यों वे पंचायत भवन में ही रहा करते थे। मीरावती लगभग रोज रजवन्त के पास आती और उनसे फर्जी नहीं बल्कि वास्तविक मजदूरी की प्रार्थना करती। रजवन्त ने एक दिन उससे पूछा "तुम मेरे भतीजे आदिनाथ की रसोई में हो, फिर यहां क्यों मजदूरी करना चाहती हो"। मीरावती कुछ देर चुप रही, फिर धीरे से बोली “पूरा नहीं पड़ता"। रजवन्त ने सहानुभूति के नाते उसकी मदद करना कबूल कर लिया। आदिनाथ अपनी हरकतों में कामयाब नहीं हो पा रहा था, मगर उसे कामयाबी की उम्मीद जरूर थी। हजार रुपए की तनख्वाह में पहले वह मीरावती को पांच सौ देता था, अब उसने चार सौ ही देना शुरू कर दिया था। समय का चक्र बदला। मीरावती की गाय ने बछिया को जन्म दिया। रजवन्त की मेहरबानी से उसका अन्त्योदय कार्ड भी बन गया था। चार सौ की पगार में ही दो रुपए किलो वाला पर्याप्त गेहूं, चावल लाकर वह घर में रख लेती थी। स्कूल में खाना बहुत देर से खाती थी और इतना दबाकर खा लेती थी कि उसे शाम को भूख न लगे। रात-बिरात उसे भूख भी लगती तो वो पानी-पीकर रात काट देती थी। गाय का एक वक्त का दूध होटल पर जाने लगा तो  घर में साग-सब्जी भी अक्सर आने लगी। स्कूल में बच्चों को दो-दो ड्रेस मिली तो बच्चे भी रंग-बिरंगे दिखने लगे। दांते और रामसमुझ हैरान थे। वे यह सब देखकर पस्त होने लगे थे। मीरावती के इन प्रयासों को आदिनाथ ने अपनी हार समझी और खीझकर उसे निर्देश दे दिया कि अगले महीने वह काम से हटा दी जाएगी। मीरावती की जिजीविषा अब जाग चुकी थी, जून महीने से उसने खेती करने का भी यत्न शुरू कर दिया था। जून में स्कूल बन्द हुए तो मीरावती थोड़ा चिन्तित हुई मगर उसने खुद को आश्वस्त किया कि उसके बच्चे जीवित रहेंगे। उसे अपनी मेहनत पर भरोसा था दूसरे वह यह मानती थी कि ईश्वर उसे और उसके बच्चों को उन हालात से निकाल लाया तो वह उसके परिवार को जीवित ही रखना चाहता है। कैसे रखेगा, यह तो ईश्वर ही जाने। फिर आदिनाथ कोई ईश्वर नहीं है, उसके जैसा हाड़-मांस का मनुष्य है, इसलिए वह उसके सामने नहीं झुकेगी। एक को इज्जत देने से अच्छा है कि फिर वह अपने इज्जत की नीलामी सभी के लिए न खोल दे।


    इसी उधेड़ बुन में महीनों बीत गए। धान की बेरन भी उसने ले ली थी। जुलाई में स्कूल फिर खुल गए, मगर समय ने ऐसी पल्टी मारी कि राजा खुद प्रजा हो गए। सरकार ने 'मिड डे मील' का ठेका रद्द कर दिया और ग्राम प्रधान तथा स्कूल के हेड मास्टर को छूट दे दी कि वे खुद रसोइयों की भर्ती करें और मिड डे मील का संचालन करें। हेडमास्टर सतीश मिश्रा बाहरी व्यक्ति थे सो उन्होंने रसोइया को चुनने का दायित्व ग्राम प्रधान को सौंप दिया। बाकी के दो हेडमास्टर भी यह चाहते थे। सो तब तय हो गया। रजवन्त को इस काम का पूर्णकालिक मुंशी बना दिया गया और उनका भी वेतन तय किया गया।


    रजवन्त और आदिनाथ में घोड़े-भैंसे का बैर था। बैर के केन्द्र बिन्दु में मीरावती ही थी। मीरावती अब एक सरकारी प्रतिष्ठान में काम करने लगी थी। संविदा ही सही, नौकरी तो थी। समय से आना, समय से जाना। कोई बेगार नहीं और सबसे खास बात-कोई खास अनुशासन भी नहीं था उस पर। स्कूल से पर्ची बनवाकर रजवन्त से गल्ला-तरकारी लाकर खाना बनवाओ-खिलाओ और खुद खाओ और फिर बचाखुचा घर भी ले जाओ। महीने के महीने चेक से वेतन भुगतान होने लगाउसके साथ लाइन लगाकर उसे चेक से भुगतान प्राप्त करते देख आदिनाथ के सीने पर सांप लोट जाता। आदिनाथ बहुत छटपटाया मगर अब वह और उसकी पत्नी अलग-अलग स्कूलों में मुलाजिम थे। उसे खाना बनाना, बर्तन मांजना खासा तकलीफ देह लगता था। जिन रसोइया महिलाओं को नौकरी से निकाल देने की वह धमकियां दिया करता था, वही महिलाएं अब उससे डरती नहीं थी और आदिनाथ को खुद नौकरी बचाए रखने के लाले पड़े थेमीरावती की जिन्दगी की गाड़ी हिचकोले तो खूब खा रही थी मगर बढ़ती भी जा रही थी।


    आदिनाथ की चुगलियों से हेड मास्टर सतीश मिश्रा अवश्य उससे कुछ नाखुश रहा करते थे। मीरावती एक दिन रोती बिलखती आई और सतीश मिश्रा के पैरों पर गिर पड़ीवे चिहुंक उठे कि अब क्या हो गया उसके साथ उसका बच्चा रमेश भी था। रमेश की भवें तनी थी और मुट्ठियां भिची थीं। वह कक्षा चार में पढ़ता था। मीरावती ने रोते हुए बताया कि यह पिछले तीन दिन से न तो घर पर खाना खा रहा है और न ही मुझसे बात कर रहा है। गुरूजी ने विद्यार्थी से पुचकार कर पूछा "बेटा, रमेश क्या बात है?" रमेश कुछ न बोलाउसने फुफकारते हुए अपनी मां को देखा। मीरावती फफकते हुए बोली "साहब, आदिनाथ ने इसके कान भर दिए हैं कि मैं गलत हूँ और रजवन्त मुझे रखे हुए हैं।" दो दिन से न तो इसने अन्न का एक दाना खाया है और न ही मुझसे बात की है। दुनिया का दुख सह लिया। मगर अपनी औलाद का दुख सहकर मैं जी न सकूगी साहब। मैंने भी अन्न-जल त्याग दिया है साहब। यह नहीं मानेगा तो मैं भी अपने प्राण दे दूंगी साहब।" तब तक रजवन्त भी आ गए। वे बड़े तैश में थे आते ही रमेश को उन्होंने दो तमाचे जड़े और कहा “आप देखना साहब, आज मैं उस आदिनाथ का कत्ल कर दूंगा। जिन हाथों से खिलाया है, उन्हीं हाथों से गला दबा दूंगा।"


    सतीश मिश्रा ने सभी को शान्त किया। रमेश को अलग ले जाकर समझाया। विद्यार्थी ने गुरूजी की बात मान ली। वह वहां से सिर हिलाता हुआ चला गया। सतीश मिश्रा सरकारी आदमी थे, किसी तरह का विवाद नहीं चाहते थे। मगर अब विवाद अवश्यम्भावी लग रहा था क्योंकि केन्द्र में स्त्री जो थी। सतीश मिश्रा मीरावती को हटा देना चाहते थे। उन्हें एक पुरुष कर्मचारी की आवश्यकता थी जो उनके लिए चपरासी का भी काम कर सके। सतीश मिश्रा ने इस समस्या को सुलझाने के लिए मीटिंग बुलाई है। एक बंद कमरे में प्रधान, प्रधान प्रतिनिधि, रजवन्त, आदिनाथ के साथ सतीश मिश्रा मीटिंग कर रहे है। मीरावती एक पेड के नीचे निर्विकार बैठी है। उसे मीटिंग के निर्णय का इन्तजार है और भाग्य के नए खेल को लेकर उसका अन्तर्मन पुनः बहुत विचलित हो रहा है।


               सम्पर्क : मालती कुञ्ज कॉलोनी, आनंद बाग, बलरामपुर, उत्तर प्रदेश-271201, मो.नं. : 9956919354, 9454819660