कविता - थोड़ा सा सुकून  - माधुरी चित्रांशी

कविता - थोड़ा सा सुकून  - माधुरी चित्रांशी


 


थोड़ा सा सुकून


 


डूबोकर दर्द को अपने,


अपने ही आँसुओं में,


फिर उन्हें-


शब्दों में पिरोना ही-


मेरी नियति है।


पता है-


कोई भी,


कीमत नहीं इसकी


किसी की नज़रों में।


न जरूरत ही है


बस.....


हल्का कर लेती हूँ,


दिल के अपने-


बोझ को।


चन्द घड़ियों के लिये।


डूब जाती हूँ।


तुम्हारी यादों को,


गोद में लिये,


अतीत के समन्दर में।


और-


सुकून दे लेती हूँ-


टुकड़ों-टुकड़ों में,


बिखरे हुये अपने मन को


क्या करूँ?


अपने मन का तो-


यही ख़जाना है।


डूबती-उतराती रहती हूँ,


इन्हीं लय और छन्दों में।


अब तो यहीं पर बस-


सपनों का ठिकाना है।


डूबोकर दर्द को अपने,


अपने ही आँसुओं में,


फिर उन्हें.....


शब्दों में पिरोना ही-


मेरी नियति है।


                                                           माधुरी चित्रांशी