कविता - सन्नाटा - माधुरी चित्रांशी
सन्नाटा
ज़िन्दगी के-
अनगिनत लम्हों को,
अनगिनत शब्दों के,
काव्यों में पिरोया जाता है।
जिनमें-
कुछ गम के फसाने होते हैं।
कुछ खुशियों के तराने होते हैं।
लेकिन-
सन्नाटों के भी कुछ,
निःशब्द, अलिखित से,
लय और छन्द,
हुआ करते हैं।
पलक झपकते खो जाते है,
खुशियों के पल।
और समन्दर बन कर भी,
नहीं सूखते गम के आँसू।
लेकिन-
एक सन्नाटा ही ऐसा-
लम्हा है,
जो पसरा रहता है,
ज़िन्दगी भर,
दिल, दिमाग और साँसों पर,
गुमसुम सी-
एक पहेली बनकर।
सन्नाटों के-
लय और छन्दों में भी,
एक नशा सा होता है
खोया हुआ एक-एक पल,
चित्रित हो जाता है,
बन्द आँखों में,
अन्यन्त सुखद, सुहाना,
सपना बनकर,
और ढक लेता है,
गम के सारे साये को
अपने सतरंगी आँचल से,
सपनों का इन्द्रधनुष बनकर।
इसीलिये शायद,
सन्नाटों के भी कुछ
निःशब्द, अलिखित से
लय और छन्द,
हुआ करते हैं।
माधुरी चित्रांशी