कविता - कपड़े पसारती लड़कियां - - उषा वर्मा

कविता - कपड़े पसारती लड़कियां - - उषा वर्मा


 








कपड़े पसारती लड़कियां - -  

 

 

 

सूरज देख लड़कियां,

खिल जाती हैं, फूलों की तरह।

उड़ना चाहती हैं, हवाओं की तरह,

हंसना, झरनों की तरह।

सरकता है सूरज, उनकी ओर,

मुस्कुराता, गुनगुनाता सा,

मिटाता धुंध, अंधकार, आकाश का।

छा जाता है उजले पीले रंगों में,

उठता, धीरे-धीरे आता है ऊपर,

मिटाता धरती का अवसाद,

वर्षा और ठंड की आतिशयता,

कलेजे की कंपकंपाहट।

खोल देता है लड़कियों के भीतर,

अंकुरित ठहाकों को,

अपनी गुनगुनी मीठी थपकियों से।

मुस्कुराती हैं लड़कियां,

उगता सूरज पकड़ लेना चाहती हैं,

लड़कियांं,

अपनी मुट्ठियों में कसकर।

ठंड में जमे कपड़ें, गंदगी में सने कपड़े,

कई दिनों से इकट्ठे कपड़े, छोटे बड़े सभी कपड़े,

निकाल, धोती हैं लड़कियां।

माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों के कपड़े,

धो कर, निचोड़ कर,

एक-एक सिकुड़न मिटातीं, सबको संवारती,

कपड़े फैलाती हैं लड़कियां।

उनमें है उनका खुद, उनका परिवार,

उनका सुकून, उनका प्यार,

पाता है सूर्य से गर्माहट।

फूटता है आत्मीय उष्मा का स्रोत,

देखती हैं कई जोड़ी उत्सुक आंखें उन्हें,

उगती हैं कोपलें अपनी सजगता की,

एक जादुई एहसास खुद को जानने की,

देश-दुनिया समझने, परखने की।

सूरज ने दी है अनंत ऊर्जा,

दुनिया के बराबर बनने की,

सूरज बहा देता है अपार प्यार,

नसों में उतार देता है धड़कन।

लड़कियां लौटती हैं घर,

गुनगुनाती, हंसती, कूदती-फांदती,

देखतीं कपड़ों की कतार,

उनमें भरा है प्यार ही प्यार!

 

                                            - उषा वर्मा, जोरहाट, असम।