कविता -  ढलती-शाम -   माधुरी चित्रांशी

कविता -  ढलती-शाम -   माधुरी चित्रांशी


 


ढलती-शाम


 


ढलती शाम!


गुनगुनाने लगी है,


फिर से उन्हीं-


दर्द भरे अफसानों को,


जहाँ-


तट के किनारे बैठकर,


गुमसुम....


भला लगता है,


निहारनाउस नीले झील को।


एकाकार होती हुई परछाईयाँ-


जहाँ तुम्हारी रूह की,


सिमट जाती हैं-


गोद में मेरी रूह के।


और-


वो निर्निमेष निहारना तुम्हारा,


अधखुली आँखों से-


क्षितिज को।


फिर-


निष्चेष्ट हो जाना तुम्हारा,


मेरे आँचल को,


हौले से छूकर।


उद्विग्न कर जाता है मुझे।


और मैं-


खड़ी सोचती रह जाती हूँ-


यह क्या हुआ?


क्यों हुआ?


कैसे हो गया सब कुछ?


कहाँ चला गया-


मेरा सुखमय वो जीवन?


इसीलिये शायद-


ढलती शाम!


गुनगुनाने लगी है।


फिर से उन्हीं-


दर्द भरे अफसानों को।


जहाँ-


तट के किनारे बैठकर,


गुमसुम...


भला लगता है, निहारना,


उस नीले झील को।


                     - माधुरी चित्रांशी