कविता - समय बीता जा रहा है - मुकेश कुमार
शोधार्थी (एम. फिल), हिन्दी विभाग, अम्बेडकर भवन हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय
समय बीता जा रहा है
जहाँ पेड़ के सहारे एक नाव बंधी है उसके पास खडी है एक लड़की
लगता है उसे किसी खास आदमी का
इंतजार है जो अभी तक आया नहीं
वो बड़ा असहज महसूस कर रही है अकेले
बिलकुल अकेले,
बार - बार अपनी घड़ी देखती है
और आंखों को दूर तक ले जाती है
जैसे कहीं दिख ही जाए
उसके आने की कोई धुंधली सी परछाई
कितनी अफ़सोस की बात है
जिन्दगी की इस भागमभाग से
वह जितना भी समय चुरा कर लाई थी भीड़ से
केवल उस खास आदमी के लिए
वह न जाने
किस अजनबी रास्ते की धूल चाट रहा होगा
चेहरे पर अब बेचैनी साफ़ दिख रही है उसके
अंदर ही अंदर उसके
कुछ टूटा भी है कांच के गिलास की तरह
जीवन की पाबंदियों और उलझनों से जो समय मांग लायी थी वो
अब वह बीता जा रहा है।
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