कथेतर के कथा-प्राकट्य - धूप में नंगे पाँव -
मलय पानेरी, आचार्य एवं अध्यक्ष (हिंदी-विभाग)
धूप में नंगे पाँव
'धूप में नंगे पाँव' प्रसिद्ध एवं बहुपठित कथाकार स्वयंप्रकाश की ऐसी अनुपम कृति है जो साहित्य की प्रचलित विधा-सीमा से इतर होकर भी सभी विधाओं का सौन्दर्य सम्मुचय है। किसी प्रसिद्ध कथाकार को इस तरह पढ़ना वास्तव में उसे सम्पूर्णता में जानना है। स्वयंप्रकाश का जीवन एक साधारण व्यक्ति-संघर्ष का ही जीवन रहा है जिसने उन्हें एक शीर्ष कथाकार की पहचान दी है। उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट भी किया है कि उनके जीवन की कुछ स्थायी स्मृतियाँ बेहद महत्वपूर्ण होकर भी किसी रचना में नहीं आ पाई हैं - किसी पात्र या कथानक के रूप में भी वे कहीं भी शब्दबद्ध नहीं हो सकी हैं। “एक कहानीकार के रूप में मुझे ज़रूरी लगा कि इन छुटी हुई चीज़ों की लज्जत से पाठकों को लुल्फअन्दोज़ किया जाये।" लेखक का यही रचनात्मक ध्येय साधारण पाठक को इस कृति को पढ़ने के लिए चेतन करता है। इस पुस्तक का महत्त्व इसी से बना भी है कि वास्तव में वे कौनसी बातें हैं, जो हम अब तक नहीं जान पाए, जबकि स्वयंप्रकाश की अधिकांश रचनाएं पढ़ी जा चुकी हैं। ऐसी उत्सुकता पाठक की जिज्ञासा भी जगाती है और लेखक के कुछ निजी राज जानने का कौतुहल भी।... और इस कृति में सही मायने में जिज्ञासा और कौतुहल दोनों हैं भी। ये रचना का नहीं बल्कि रचनाकार का सत्य है, जिसे उन्होंने बहुत सलीके से अपने पाठक से साझा किया है।
यह पुस्तक लगभग उन प्रसंगों का समावेश करती है जिन्हें लेखक ने तो अपने जीवन में चाहे-अनचाहे छुआ है लेकिन उनके सुधि पाठकों के लिए वे नितांत अनछुए ही रहे हैं। पाठक की यही सीमा भी है कि वह लेखक के जीवन-प्रसंगों को लेखक के माध्यम से ही जान सकता हैअतः ख्यातनाम रचनाकार स्वयंप्रकाश के जीवन के अप्रकाशित अंशों को करीब से पहचानने के लिए यह एक उत्तम पुस्तक है। क्योंकि 'धूप में नंगे पाँव' चलना वास्तव में बहुत मुश्किल है। इस पुस्तक का शीर्षक कहीं भी यह ध्वनित नहीं करता है कि इसमें स्वयंप्रकाश की रचना-यात्रा की जानकारी होगी। इसमें उनकी जीवन-यात्रा का कंटकाकीर्ण पथ ही आलोकित हुआ है। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के लिए संघर्षों का इतिहास जानकर यह अंदाज लगाना भी मुश्किल होता है कि कोई व्यक्ति अपने भीतर रचनात्मक ऊर्जा का इस तरह सदुपयोग कर सकेगा। लेकिन स्वयंप्रकाश इसके ख्यात अपवाद कहे जाएँगे। जिस किसी ने उनके विपुल कथा साहित्य को पढ़ा है, उसे शायद ही यह यकीन होगा कि उन्होंने अपने जीवन में नौकरीयारंभ से नौकरीयांत तक कैसेकैसे शुष्क और नीरस विभागों में भी अपनी ऊर्जा खपायी है। जहाँ-जहाँ वे अपनी नौकरी के सिलसिले में रहे, वहाँ-वहाँ उन्होंने अपना एक समूह अवश्य बनाया और उसे सक्रियता देते रहे। ऐसे समूह में वे घटना-परिघटना और साहित्य-चर्चा को प्रमुख आधार बनाते और वहीं कुछ-कुछ मात्रा में चुहल को भी स्थान देते रहते। ऐसा लगता है जैसे किसी व्यक्ति के लेखक होने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण है ये सारी छोटी-मोटी घटनाएँ। अपने पर बीती को भीतर तक संवेदित करना और फिर उसे शाब्दिक अभिव्यक्ति देना एक पर सामंजस्य है। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वयंप्रकाश का जीवन व्यापक अनुभवों को जीवन है, जिसमें समय-समय पर नौकरी के स्थान-बदलाव के साथ ही स्थानीय संस्कृति का परिवर्तन उन्हें हमेशा कुछ और नया जानने के लिए तैयार करता है। क्योंकि साहित्य कभी भी समाज से अलग नहीं रह सकता है। स्वयंप्रकाश की रचनाओं में स्थानीयता अपना पूरा असर छोड़ती है। साहित्य का यही गुण उनकी रचनाओं के महत्त्व को बढ़ाता है, क्योंकि समाज और दैनंदिन का सच ही साहित्य का मूल होता है। रचनाओं में जो सार्थकता परिवेश के मूल से आती है वह केवल कला-विधान से नहीं आ पाती है, इसीलिए स्वयंप्रकाश अपने जीवन में मीठे झूठ को नहीं बल्कि कड़वे सच को प्रियता देते रहे हैं
अपनी नौकरी के प्रवास में अनेक जगह रमे लेखक ने हमेशा वहाँ से कुछ प्राप्त करने के सार्थक प्रयास किये हैं और इन्हीं कोशिशों का फल यह रहा कि उन्हें बहुत अच्छे साहित्यिक चित्र डॉ. सदाशिव श्रोत्रिय और डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल मिल सके। लेखक की एक खास बात यह भी कि जब वे किसी प्रसंग में किसी मित्र की सहयोग-चर्चा या संबंध-चर्चा कर रहे होते हैं तो ऐसा लगता है जैसे अब हमें उन्हीं के बारे में सारी जानकारी देते जाएँगे किंतु प्रसंगान्तर होते ही एकदम नयी वातों के साथ नये रूट पर आ जाते हैंअपने सफ़र में मिले मित्रों से जितनी आत्मीयता लेखक ने अनुभव की उससे कहीं ज्यादा अपने सहकर्मियों एवं अपने अधीन कार्यरत कर्मियों को सहभाव और सम्मान दिया भीपुस्तक के अनुक्रम 'अजमेर से जोधपुर वाया मद्रास' और 'महाकवि माघ की जन्मस्थली में' लेखक ने कुछ रोचक प्रसंगों का समावेश कर न केवल उन्हें रसपूर्ण बनाया बल्कि उनके सामाजिक संदेशों को पाठक तक पहुँचाया है। कुछेक ऐसे प्रसंग भी इस पुस्तक में यकबयक लिये हैं जिनसे हम भारतीय समाज की विसंगतियों को परोक्ष रूप से पहचान सकते हैं। जैसे किसी भोज-कार्यक्रम में फर को टोपी पहनने मात्र से मुसलमान होने के भ्रम में अन्य लोग पंगत में बैठने तक से कतरा रहे हों- वहाँ किस प्रगतिशीलता की वात संभव हो सकेगीस्वयंप्रकाश के लिए ये केवल एक किस्सा नहीं है बल्कि बहुत चिंता का विषय है। क्योंकि वे मनुष्य-समाज के पक्षघर हैं, इसमें अलग से किसी 'कंपार्टमेण्ट' का पुरजोर विरोध करते हैं। जाति-भेद आज भी हमारे समाज में पसरा हुआ है जिससे न जाने कितनी संभावनाओं के द्वार खुलने से रह गए। आजादी के बाद हमारे संविधान की निगाह में सभी मनुष्य बराबर हैं, बावजूद इसके तल्ख सचाई कुछ और ही है। इस यथार्थ से हम आए दिन रूबरू होते हैं किंतु उसे सुधारने में सक्रियता कहीं नहीं है। इस पुस्तक में ऐसे प्रसंग गाहे-बगाहे ही आए लगते हैं किन्तु इनके निहितार्थ बहुत गहरे हैं। थोड़ा विचार करने पर ये छोटे-छोटे किस्से अपना प्रयोजन सिद्ध कर देते हैंउनके जीवन की कुछ घटनाएँ हमारे तौर-तरीकों का बेहतर विवेचन है। वे हमें किसी दवाव से नहीं वरन स्वतः इस प्रकार की मानसिकता से मुक्ति के लिए तैयार करते हैं। स्वतंत्रता, समानता, विविधता आदि अवधारणाओं का प्रयोग केवल कहीं बहस के लिए नहीं बल्कि व्यावहारिक होना चाहिए तभी एक समतामूलक समाज की जो लेखक की भी परिकल्पना है, उसकी स्थापना संभव हो सके। आज जब ग्लोबलाईजेशन की हवा सब तरफ फैल चुकी है एवं स्थापित सामाजिक संबंधों, संस्थाओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों की दुनिया टूट-बिखर रही है तब भी ऐसे पीछे धकेलू विचार हमसे चिपके रहते हैं तो बहुत दुःख होता है। स्वयंप्रकाश का स्पष्ट मानना है कि विभिन्न आयामों में द्वन्द्वात्मक खिंचाव बनाये रखने से समस्या और घनीभूत-जडीभूत होती है, उसका समाधान नहीं होता है।
स्वयंप्रकाश जी की यह पुस्तक कथेतर विधा की भी विविधता प्रस्तुत करती है। किस्सों में विचार हैं और विचारों में किस्से हैं- ये अन्तर्संबंध उनके लेखन को और विशेष बना देते हैं। उनका अपना रचनात्मक समर्पण है। वे अपनी उत्सुकता को कर्मतत्परता में बदलते कभी देर नहीं करते। 'सपनों में आता है सोने का किला' में व्यक्त प्रसंग उनकी जिज्ञासु-प्रवृत्ति को रेखांकित करते हैं। सत्यजित रे से हुई आकस्मिक भेंट कैसे उनकी उनसे स्थायी पहचान का हिस्सा बन जाती है- यह हम उनके जैसलमेर की प्रवास-कथा से जान सकते हैं। बतौर नौकरी लेखक का संबंध हमेशा ही साधारण एवं कभी-कभी खास लोगों से रहा है, इसलिये उनके लेखन में मानवीय उपस्थिति कभी कमजोर नहीं होती है। साथ ही जिस किसी स्थान-विशेष की वे जानकारी प्रसंगानुकूल भी देते हैं तो पूरे ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हुएउस समय किसी भी पाठक को उन्हें इतिहास का सिद्ध जानकार ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे किन्हीं खाइयों में से उसकी प्रामाणिक पुष्टि भी कर देते हैं।
___मूल रूप से यह पुस्तक उनके नौकरी-प्रवास की कथाओं के साथ उन अनुभवों का संग्रह भी है जो सीधे-सीधे उन प्रसंगों से संबंध नहीं रखते जो सेवा के दायरे में हों। स्वयंप्रकाश जी ने अपने हर क्षण को विशेष बनाया है। इसीलिये उनकी रचनाओं की जमीन हमेशा उपजाऊ बनी रही है। खाद-पानी की समुचित पूर्ति वे निरंतर करते रहे। फिर जिस विभाग को उन्होंने अपनी आजीविका के लिए चुना वह केवल क्षेत्रीय नहीं बल्कि देश के कोने-कोने में अपनी इकाइयों का संचालन कर रहा था। इस तरह से उन्हें विविध प्रांतों, विविध भाषियों, विविध संस्कृतियों, रीति-रिवाजों, लोगों, परिवेश से साक्षात होने के पूरे अवसर मिले। एक प्रतिबद्ध रचनाकार इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने अनुकूल कुछ पाने की चेष्टा अवश्य करता हैं और स्वयंप्रकाश जी ने ठीक यही किया भी। अपनी नौकरी की लगभग पूर्णता उन्होंने राजस्थान के चित्तौड़ शहर में की। यही वो समय था जब राष्ट्रीय राजनीति में इस प्रकार के कमाऊ उपक्रम को भी हानि में दर्शाते हुए निजीकरण की भेंट चढ़ाया जा रहा था। ऐसी स्थितियों में कार्मिक भी अपनी आजीविका खोते जा रहे थे और कुछ स्थितियाँ ऐसी निर्मित भी की जा रही थीं कि स्वयं कर्मचारी इस आफत से छटकारा पा जाएँ 3 कि स्वयं कर्मचारी इस आफत से छुटकारा पा जाएँ और नये स्वामियों को विशेष कुछ नहीं भुगतना पड़ेइस वेरहम पूँजीवादी सोच ने अच्छे-अच्छे कर्मचारियों को धूल के बराबर कर दिया। इस पुस्तक का अंतिम 'सदमा-लेख' – 'वह जो मेरा चित तोड हआ' में लेखक का यह मर्मान्तक वर्णन है- "लेकिन अन्ततः कम्पनी का विनिवेश हो गया और इसी के साथ रातोंरात प्रबन्धन भी बदल गया। जो पहला व्यक्ति इस प्रक्रिया में बेरोजगार हुआ, वह था हमारा अध्यक्ष-महाप्रबन्धक। कम्पनी के निजीकरण के साथ ही मेरा तो महकमा ही खत्म हो गया। जैसे-तैसे मेरा पुनर्वास किया गया- लेकिन स्थितियाँ ऐसी बनायी गयीं कि मुझे भी स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के लिए विवश होना पड़ा।" जीवन की इतनी कहानियों के पात्र खुद स्वयंप्रकाश ही हों तो वरास्ता कथेतर ही कुछ बयां किया जा सकता है। नौकरी के 'अथश्री' से 'इतिश्री' तक हम इस रचना कृति में लेखक स्वयंप्रकाश के अद्भुत जीवट और कर्म प्रतिबद्ध चरित्र से परिचित होते हैं।
धूप में नंगे पाँव (आत्मकथात्मक संस्मरण) स्वयं प्रकाश, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, मूल्य - 395/
सम्पर्क : जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ मान्य विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.)-313001 मो.नं. : 094132-63428