समय-विमर्श गाँधी के आन्दोलन की जमीन को समझने की एक कोशिश - निशांत

निशांत - जन्म : 4 अक्टूबर 1978, लालगंज, बस्त, उत्तर प्रदेश एम.ए.एम.फिल, पी-एच.डी. (हिन्दी) की पढ़ाई जेएनयू से निशान्त का शैक्षणिक नाम 'बिजय कुमार साव' और घर का नाम मिठाईलाल' है। पहली कविता 1993 में मिठाईलाल के नाम से 'जनसत्ता' में प्रकाशित। वर्तमान में काज़ी नजरुल विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक।


 


१५ अप्रैल १९१७ को महात्मा गाँधी पहली बार बिहार के चपारण में आए थे, बल्कि है तो पकड़कर लाए गए थे। लाने वाले थे-राजकुमार शुक्ल। कभी-कभी इतिहास में कुछ घटनाएँ अचानक घट जाती है या उनका सूत्रपात चानक होता है और फिर वे इतिहास की दिशा बदल देती है। गाँधी जी भी दो-तीन दिन के लिए चम्पारण में निलहों का शोषण देखने और उसके लिए कुछ करने खासकर अंग्रेज अफसरों को चिट्ठियाँ या अर्जिया लिखने की नीयत से पहुँचे थे। पर वे वहाँ छ: महीने के आस-पास रहे और चम्पारण से नील की खेती को बंद कराकर ही वापस लौटे


      एक कील की वजह से राज्य खो जाता है और एक छोटी सी घटना इतिहास बदल देती है।


      गाँधी का 'प्रयोग चम्पारण' ही आगे चलकर भारत की स्वतंत्रता के लिए मॉडल के तौर पर सामने आया। चम्पारण से निलहे अफसरों को खदेड़कर भगाने के बाद गाँधी के अंदर यह आत्मविश्वास समुद्र की तरह हरहराने लगा कि अब अंग्रेजों को आसानी से भारत छोड़ने के लिए बाध्य किया जा सकता है। १९२४ में गाँधी ने 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' की भूमिका में चम्पारण सत्याग्रह के लोगों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है- “यह बात उल्लेखनीय है कि सत्याग्रह में चम्पारण क लोगों ने खूब शांति रखी। इसका साक्षी मैं हूँ कि सारे ही नेताओं ने मन से, ववचन से और काया से सम्पूर्ण शांति रखी। यही कारण है कि चम्पारण में सदियों पुरानी बुराई दस माह में दूर हो गई।" गाँधी जी शांति के साथ कार्य करने में अटल विश्वासी थे, भले ही वह कार्य सेना को भगाना ही क्यों न हो। और इसके मूल में उनका जीवन दर्शन और उनके खूद के कुछ प्रयोग थे। दक्षिण अफ्रीका के प्रयोग और भारत के प्रयोग की अलग-अलग पृष्ठभूमि थीयहाँ चम्पारण उनकी पहली प्रयोगशाला थी। इसलिए १९२४ में ही वे चम्पारण आंदोलन के सहयोगी जनकधारी प्रसाद को धाकर पत्र लिखते हैं और चम्पारण के मित्रों-सहयोगियों को शिद्दत से याद करते हैं- "चम्पारण के सहयोगियों की यादें मेरे मन के खजाने में भरी पड़ी हैं। अगर देशभर में ऐसे लोग मिल जाएँ तो  दिए। स्वराज आने में वक्त नहीं लगेगा।" (पृ. १६८) चम्पारण ने गाँधी को एक फुलप्रूफ रास्ता दिखलाया था। गाँधी इसी रास्ते का अवलम्बन करके भारतीय इतिहास की धारा मोड दिए।


    यह गाँधी की जीवटता के साथ-साथ चम्पारण के इतिहास और नील की खेती के इतिहास को इतनी काव्यमय भाषा में तथ्यों के साथ रखती है कि आप इतिहास और शोध की कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं, आपको जरा भी इलहाम नहीं होने देती। जब अरविंद मोहन गाँधी या नील की खेती के बारे में बतलाते हैं तो भाषा की छटा देखते बनती है- “यह भारत में उनकी (गाँधी की) सक्रियता का पहला केन्द्र बना और इसने गाँधी को महात्मा बनाने में मदद की। यहाँ के काम से उन्हें जो अनुभव और यश मिला उसने उनके आगे के काम की आधारशिला रखी और उन्हें कांग्रेस तथा राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व की रेस में सबसे आगे कर दिया। चम्पारण ने गाँधी र गाँव-देहात, खेती-किसानी का जीवन ढंग से देखने-समझने का अवसर दिया जो खुद उनके लिए नया र था और उनकी पीढ़ी के बाकी नेताओं के लिए भी अजूबा , जो भारतीय किसान जीवन को जानते-समझते, उसके सम्पर्क में नहीं आए थे का काव्यमय वर्णन है, जहाँ दोष भी गुण की तरह परिभाषित होता है। यहींनील के बारे में भी उसी भाषा में लिखते हैं- "नील भारत के लिए और चम्पारण के लिए अनजान नहीं था पर इस पौधे का उपयोग जिस तरह से ब्रिटेन और यूरोप ने सत्रहवीं अठारहवीं सदी में शुरू किया, वह नया था। नील को इंडिगो का पश्चिमी नाम भी सम्भवतः इंडिया से जुड़ा होने के चलते मिला था। पश्चिम में इसकी पहचान रोम/युनान के उत्कर्ष काल में थी पर यह भी अफीम, चाय, गन्ना, कॉफी, ओकोआ की तरह व्यावसायिक खेती की चीज औपनिवेशिक हुकुमत के दौर में बना। और धीरे-धीरे हालत यह हो गई कि तब के अंतरराष्ट्रीय व्यापार और औपनिवेशिक शासन में लगे लोग इसे ब्लू-गोल्ड कहने लगे थेभारत में इसका उपयोग तो खास नहीं था लेकिन पश्चिम का पूरा डाई अर्थात् रंग-रोगन उद्योग पहले इसी प्राकृतिक पौधे से बनने वाले नील पर निर्भर था।"


    चम्पारण में नील की खेती, बंगाल से नील की खेती उजड़ने के बाद; अंग्रेजों ने सोची-समझी रणनीति के तहत बड़े ही क्रूरतापूर्वक शुरू की। यह चम्पारण जिसे मुगल दस्तावेजों में मझौआ परगना कहा जाता था, जहाँ धान की खेती इतनी जबरदस्त होती थी कि लोग कहते थे- “अजब देस मझौआ, जहाँ भात न पूछे कौवा।" वहाँ धान के बदले नील की खेती होने लगी। किसान गरीब से दरिद्र हो गए। भूखों मरने की नौबत आ गई। वैसे समय में एक ऐसे शासन से लड़कर उनका हक दिलाना, जिसके शासन में सूर्य अस्त नहीं होता था, अद्भुत काम था, है, रहेगा।


    यह पुस्तक गाँधी के काम करने की उस क्षमता से हमारा परिचय करवाता है जो यह बतलाती है कि सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और निष्ठा से काम किया जाए तो कछ भी नामुमकिन नहीं। साथ ही साथ अंग्रेजों की क्रूरता, भारतीय कृषि व्यवस्था को नष्ट करने, यहाँ की सम्पत्ति को लूटने और यहाँ के उद्योग-धंधे को नष्ट करने का तथ्यात्मक ढंग से विवेचन-विश्लेषण करती है। आज के समय में गाँधी और . उनके कार्य करने की शैली की जरूरत की तरफ ध्यान आकर्षित करती है।


       गाँधी और उनके सपनों के भारत की बात बार-बार की जाती है। आज भारत में भारत की जो छवि बन रही है वह काफी खतरनाक है। खासकर भारतीय राष्ट्रवाद की। 'भारत माता की जय' बोलो, नहीं तो तुम देशद्रोही हो, तुम्हारी हत्या तक की जा सकती है। बीच बाजार में, चौराहों में, सिनेमा हॉल या ट्रेन में तुम्हें भीड़ पीट-पीटकर मार सकती है। अज्ञानता का अंधकार फिर से देश को कई सौ साल पीछे ढकेल कर एक बर्बर युग में ले जा रहा है। राष्ट्रवादी होने की यह एक नई व्याख्या है। ऐसे समय में गाँधी फिर से याद आते हैं- “भारतीय राष्ट्रवाद कोई वर्जनशील, आक्रामक या ध्वंसात्मक प्रवृत्ति नहीं है। यह स्वास्थकर, धार्मिक और इसलिए मानवतावादी है।" आज सबसे ज्यादा खतरा इसी मानवतावादी पक्ष पर है। सबसे



ज्यादा ध्वसांत्मक कार्रवाई इसी मनुष्य और इसकी मनुष्यता पर की जा रही है। इसी तरह की एक विध्वंसात्मक कारवाई कुछ छात्रों, कुछ दूसरे धर्मावलम्बियों पर राष्ट्रद्रोही का आरोप लगाकर की गई। राष्ट्रवाद और भारतीयता को एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह इस्तेमाल किया जाता है। अंतत: राष्ट्रवाद तानाशाही व्यवस्था में बदलती है, यह बात भुला दी जाती है। भारत, भारत रहे, राष्ट्रवादी देश न बने इसके लिए भी गाँधी सतत प्रयत्नशील थे। वे जानते थे कि सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का विगुल या सत्याग्रह करने से ही सबकुछ नहीं होने वाला। वे भारत को नैतिक रूप से भी सफल और शक्तिशाली बनाना चाहते थे। इसके लिए वे स्वयं के साथ-साथ सत्याग्रहियों की फौज बनाना चाहते थे। अरविंद मोहन ने साफ-साफ लिखा हैं कि- "उन्होंने अपने लिए, नौजवानों के लिए और उसमें भी समाज में काम करने निकले नौजवानों अर्थात् सत्याग्रहियों के लिए बहुत साफ कुछ कायदे कानून बनाए थे जिसको जीवन में उतारने के बाद ही आदमी समाज का काम सही ढंग से कर सकता है। उन्होंने इसके लिए अपना प्रसिद्ध 'एकादश व्रत' तभी लगभग तय कर लिया था- जो इस प्रकार है: १. अहिंसा, २.सत्य,३.अस्तेयअर्थात-चोरीन करना, ४.ब्रह्मचर्य, ५.असंग्रह अर्थात् सम्पति जमा न करना, ६.सर्वधर्म समानता, ७. स्वदेशी, ८. छूआछूत न मानना, ९. निर्भयता, १०. शारीरिक श्रम करना और ११. अस्वाद अर्थात् जीभ का चटोरापन छोड़ना।" (पृ. १७०) ये गाँधी के व्रत थे जो उन्हें और उनके सहयोगियों को नैतिक रूप से सुदृढ़ और मजबूत बना रहे थे। गाँधी जी नैतिकता और शुद्धता पर सबसे ज्यादा जोर देनेवाले राजनेता थे। वे पहले अपने पर प्रयोग करते, फिर दूसरों पर। इसलिए वे सवयं चम्पारण गए, अपनी आँखों से सब कुछ देखा, फिर वहाँ टिककर अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया। इस पहले सफल सत्याग्रह ने गाँधी की भूमिका पूरी तरह बदल कर रख दी स्वाधीनता आन्दोलन में।


      वे सिर्फ असहयोग और सत्याग्रह के प्रयोग ही चम्पारण में नहीं किए। “जैसे ही उन्हें चम्पारण की सदियों पुरानी नील की खेती की बिमारी जाती लगी उन्होंने बिमारी, महामारी, साफ-सफाई अर्थात् हाइजिन, शिक्षा, शिल्पकारी, खादी, गौ-सदन बनाने जैसे न जाने कितने ही प्रयोग शुरू किए और बिहार के अपने सारे सहयोगियों को तो लगाया ही बाहर से रचनात्मक काम वाले पन्द्रह कार्यकर्त्ता ले आए।" (पृ. १४) गाँधी राजनैतिक लड़ाई के बरक्स रचनात्मक कार्यों को भी कम महत्व नहीं देते थे। उन पर राजनैतिक आंदोलनों को छोड़कर खादी, चरखा कातने, शराबबंदी, हरिजनों के मंदिर प्रवेश, ग्रामोद्योग, बुनियादी तालीम, प्राकृतिक चिकित्सा, उपवास आदि शुरू करने और राजनैतिक आंदोलनों से बीचबीच में पलायन करने का आरोप लगता रहा है लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यह पलायन नहीं, उनका रचनात्मक कार्य था। रचनात्मकता की जमीन पर खड़े होकर ही स्वाधीनता का स्वप्न देखा जा सकता है। नहीं तो स्वाधीनता सेनानी और तानाशाह में फर्क करना कठिन हो जाएगा। आज आजादी के बाद के आंदोलनों ने अनशन तथा भूख हड़ताल को तो सत्याग्रह कहना शुरू किया लेकिन रचनात्मक काम बंद रखा। इसलिए समाज आज नैतिक रूप से खोखला और  जर्जर होता जा रहा है। हमने गाँधी के एक रूप को ही पूजना शुरू कर दिया। उनके रचनात्मक सहयोग की टोकरी में डाल दिया।


    एक और बात जिसकी तरफ यह पुस्तक इशारा करती है कि गाँधी कितने बड़े कम्यूनिकेटर थे। यह उस समय की बात है जब अंग्रेजों के पास “एक जबरदस्त खुफिया तंत्र था जो हर आदमी कौन कहे हर दुधारू पशु, फलदार पेड़, हर सवारी, खेती के हर उपकरण की सही सूचना रखता था। किसका कितना खेत-खलिहान है और किसकी किससे आँख लड़ी है इस पर भी नजर रखी जाती थी। सरकार और अदालत के हर फैसले की जानकारी के साथ देश-विदेश के बाजार और रैयतों के बीच की हर गतिविधि की खबर रहती थी। कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण नहीं लगा था, कोई मोनिटरिंग इकाई नहीं थी, कोई ब्रॉडकास्ट नहीं होता था पर कोई बचकर भी नहीं निकल पाता था। इस निगरानी और रिपोर्टिंग व्यवस्था में भरपुर पुरस्कार/दंड की व्यवस्था थी।" (पृ. ७१) इस खुफिया तंत्र को मात देना, बहुत ही मुश्किल थावो ऐसे ही राजा नहीं बने थे, जिनके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। लेकिन गाँधी ने इस तंत्र को झिझोंड डाला। कभी- कभी सिर्फ और सिर्फ आपकी ईमानदारी, निर्भयता और सहयोग की भावना बड़ा-बड़ा काम आसान कर डालती है। वे जिससे भी मिले या मिलते थे आँखे मिलाकर बात करते थे। अपने किसी सहयोगी के आचरण को लेकर नजरें नीची नहीं कीसादगी, सफाई, समय की पाबंदी और अपने सिद्धांतों पर वे हमेशा टिके रहे। बल्कि कभी-कभी वे इस मामले में अकेले पड़ जाते थे, फिर भी समझौता नहीं करते थे।


    गाँधी ने लोगों को शासन, गोरी चमड़ी अर्थात् अंग्रेज और जेल जाने के डर से किस तरह मुक्त किया, इसके काफी मजेदार-मजेदार किस्से हैं। यहाँ एक का जिक्र करना जरूरी है- “दादा कृपलानी को घोड़े की सवारी का शौक था और तब चम्पारण में लोग स्थानीय सवारी के लिए घोड़ों का खूब इस्तेमाल करते थे। किसी दिन उन्होंने किसी स्थानीय साथी का घोड़ा लेकर अपना शौक पूरा करना चाहा। उन्हें तेज सवारी अच्छी लगती थी। सो उन्होंने घोड़े को ऐड़ लगाए पर वह भड़क गया। उसने सवार को ही पटक दिया। दादा कृपलानी के घुटने छिल गए और चोट लगी। घोड़ा जब भड़ककर मुड़ा तो एक बुजुर्ग महिला भी डर कर भागी और गिर गई। लोगों ने दोनों को संभाला और कृपलानी जी ने अपना यह कार्यक्रम त्यागा। जिस समय यह घटना हुई उसी समय स्थानीय पुलिस प्रमुख भी आस-पास थे। उन्होंने कृपलानी पर शांति भंग करने का मुकदमा कर दिया जिसमें खुद चश्मदीद गवाह बन गए। नोटिस मिलने पर सब हैरान थे पर गाँधी ने किसी वकील को उनकी पैरवी नहीं करने दी। कृपलानी जी को चालीस रुपए जुर्माना या पन्द्रह दिन जेल की सजा हो गई। कृपलानी जुर्माना देने और आंदोलन में शामिल बाकी वकील अपील करने की बात करने लगे। गाँधी ने फिर उन्हें रोक दिया। उन्होंने कहा कि अभी चम्पारण के लोग जेल जाने से काफी डरते हैं। कृपलानी जी जेल जाएंगे तो लोगों के मन में बैठा जेल का खौफ कम होगा और इस प्रकार कृपलानी जी की पहली जेल यात्रा गाँधी ने ही कराई" (पृ. १५६)। इस एक किस्से के बहाने गाँधी जी ने चम्पारण के लोगों को बतलाया कि जेल कोई डरने की जगह नहीं है। ऐसे अनगिनत किस्से हैं जिसका इस पुस्तक में खूब जिक्र है। गाँधी ने सिर्फ चम्पारण के लोगों के अंदर से ही डर नहीं निकाला। कालांतर में पूरे भारतीय महाद्वीप के लोगों के अंदर से ही डर निकल भागा। जेल जाना, मंदिर जाने की तरह पवित्र कार्य लोगों को लगने लगा।


    'प्रयोग चम्पारण' को गाँधी के बहाने आज फिर से याद करने की जरूरत है। एक समय चम्पारण राजा जनक, सीता, बाल्मीकि, आल्हा-अदल, मौर्य, कौटिल्य और अशोक जैसे प्रतापी राजाओं के नाम से जाना जाता था, पर आज यह गाँधी की प्रयोग भूमि और गाँधी के चम्पारण के नाम से जाना जाता है। यह पुस्तक गाँधी के पहले भारतीय प्रयोग, सत्य, ईमानदारी, निर्भयता आदि का इतना जीवंत भाषा में उद्घाटन करती है कि इसे एक बार शुरू करने के बाद छोड़ना काफी मुश्किल हो जाता है।


     समीक्षित पुस्तक : प्रयोग चम्पारण : अरविन्द मोहन, भारतीय ज्ञानपीठ, १८ इंस्ट्यूनशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-११०००३, मूल्य : ३६० रुपए


                                    सम्पर्क : पो. कल्ला, सी.एच., जिला-पश्चिम वर्द्धमान-713340, पश्चिम बंगाल, मो.नं. : ९२३९६१२६६२, ८२५०४१२९१४