डॉ.ज्योतिष जोशी- ललित कला अकादमी के पूर्व सम्पादक हिन्दी अकादमी, दिल्ली के पूर्व सचिव साहित्य, कला, संस्कृति और नाट्यकला के प्रसिद्ध समीक्षक। कई पुस्तकों के लेखक। हाल में प्रकाशित पुस्तक 'अनासक्त आस्तिक'। इस पुस्तक पर व्यापक रूप से चर्चा हुई है।
------------------------------
आज जब पूरे विश्व में अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ लगी है, हमारा सारा कर्म धनलिप्सा और वस्तुओं का जखीरा खड़ा करने पर केन्द्रित हो गया है और देह की सत्ता आत्मा को ढंकने में लगी है, गाँधी की याद आना स्वाभाविक है। गाँधी को याद करना जैसे देह के भीतर अपनी आत्मा को निहारना है। वह आत्मा जो अब कलुषित हो गई है, उसमें देह के समानांतर खड़ा होने की क्षमता ही नहीं रही। गाँधी का मार्ग परिचित मार्ग है, वह किसी के लिए अनजान नहीं है। लेकिन हमने उस मार्ग को सदा ही अवरुद्ध करने की चेष्टा की है और जब-तब उसकी याद भर कर लेने को ही श्रेयस्कर मान लिया है। हम अधिक से अधिक उनके बाह्य व्यवहारों को महत्व देकर या उन्हें प्रचारित कर उनकी साधना की अन्तर्वृत्तियों की अनदेखी करते रहे हैं जिससे दृश्य की ओट में छुपे आदर्श अनजान से हो चले हैं। यह गाँधी का मार्ग न था और न ही उनकी साधना का सुफल ही इसे कहा जा सकता है।
गाँधी का दर्शन और उनका विचार कोई व्यवस्थित राजनैतिक विचारधारा का पर्याय नहीं है। वह जो है और जैसा भी है-मनुष्य-जीवन के परे नहीं है और उसे जीवन के परे देखना गाँधी को न समझने जैसा है। उनका समूचा दर्शन जीवन को सत्य के प्रयोग के रूप में देखना है, सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न है। यहाँ सत्य पाया नहीं गया है बल्कि उसे पा सकने की साधना अनवरत चल रही है। इस परीक्षण में से व्यक्ति को सदा गुजरना है। वह उत्तीर्ण होता है या अनुत्तीर्ण; इसकी चिन्ता किए बिना जीते जाना है-साथ उसके, उसके अपने ही आत्म का उजाला होगा जो अँधेरी राह में उसकी यात्रा सुगम बनाएगा। उनका सत्य उनके अपने जीवन द्वारा चरितार्थ और सिद्ध हुआ। वह सत्य तर्कबुद्धि से परे है क्योंकि उसका पहला सम्बन्ध जीवन से है। उसके बाद वह जगत से जुड़ता है। इस अर्थ में यह सत्य आध्यात्मिक' और एक अर्थ में धार्मिक' भी है-पर इसमें जीवन और समूची प्रकृति का, जगत का कुछ भी विलग नहीं है। उसमें सब कुछ समाहित है; कदाचित् यही उसका स्वरूप है और इस रूप में ही वह समूचे जगत में व्याप्त है। यह सत्य स्वयं गाँधी में अखंड रूप से विद्यमान है; क्योंकि उसमें जीवन समाहित है-जीवन का एक-एक कर्म उससे निर्धारित होता है।
सत्य क्या है और उसका स्वरूप क्या है; यह हमेशा एक पहेली की तरह रहा है। सबने तरह-तरह की व्याख्याएँ की हैं। गाँधी की दृष्टि में यह स्पष्ट है कि जनता इस सत्य को जानती है। उनके लिए सत्य का स्वरूप है-विचार सत्य, वाणी सत्य तथा समस्त आचरण एवं कार्यों में सत्य। यह चाहे जितना कठोर हो, जितना दुष्कर और चाहे जितना दुर्गम- इसका पालन व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए; क्योंकि यही वह मार्ग है जो मानव को मानवोत्तम बना सकता है और जगत् का कल्याण भी इसी से सम्भव है। यह गाँधी की आस्तिकता है, ईश्वर में अगाध विश्वास; जो कभी ईश्वर को सत्य मानती है तो कभी सत्य को ईश्वर। यह सत्य ईश्वर की अनुभूति से प्रतिक्षण आश्वस्ति देता है-'सर्व-धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज', इससे भिन्न नहीं हैधर्म है तो उसी एक सत्य में है जिसमें अपना कुछ नहीं है और हमारा सारा कर्म जगत के लिए समर्पित है। सत्य की दूसरी कोई परिभाषा नहीं हो सकती और न ही ईश्वर की पहचान की दूसरी कोई युक्ति। इस सत्य को गाँधी ने जिया और अपने आचरण से इसे चरितार्थ किया। उनका जीवन सत्य-प्राप्ति की चेष्टा की सतत् साधना रहा और उससे निर्धारित कर्म मानवोत्तम सिद्धि का अनुष्ठान।
सत्य साथ है तो किसी भी तरह का भेद नहीं है। सत्य की अनुभूति में परम कृतार्थता का बोध ही श्रेयष्कर है। सत्य का प्रतिक्षण ज्ञान न होना बाधा है; क्योकि वह अज्ञान से उपजती है। यही सत्य मनुष्य-मात्र का कर्त्तव्य बन जाता है और समाज के लिए जो कुछ भी प्रस्तुत दायित्व है, वह उसका इष्ट होता है।
सत्य के मार्ग पर चलते ही 'अहिंसा' सामने होती है। सबमें परस्पर एक्य का भाव अहिंसा-भाव है। जो है, सब मेरा है और वही ईश्वर का है-इसके प्रति विलय-भाव ही सत्य की प्रतीति का क्षण है। सत्याग्रही के प्रत्येक भय, संशय और द्विविधा का एक ही उपाय है, और वह है-अहिंसा। यह श्रद्धा और करुणा से भरी है; क्योंकि जब श्रद्धा और करुणा से हृदय भर उठता है तो हिंसा मिट जाती है। इस तरह अहिंसा एक अर्थ में धर्मनीति है। समस्त जगत ही उसका हो, तो हिंसा कहाँ और किस पर! अगर कर्त्तव्य-पथ पर चलते हुए कोई आसुरी शक्ति चुनौती देती है तो उसके प्रतिरोध का मार्ग भी यह अहिंसा ही है-सत्याग्रह और श्रद्धा के साथ उसके अंहकार को तोड़ने का इससे बड़ा कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं हो सकता। 'यंग इंडिया' के ९ मार्च १९२० के अंक में गाँधीजी लिखते हैं-"जो व्यक्ति अहिंसक होने का दावा करता है, उससे यह अपेक्षित है कि वह अपने को क्षतिग्रस्त करने वाले पर कद्ध न हो। वह उसका बुरा नहीं चाहेगा, वह उसका भी भला चाहेगा, वह उसे किसी भी प्रकार का आघात नहीं पहुँचाएगा। वह अनिष्टकर्ता द्वारा उसे पहुँचाई गई समस्त क्षति को सह लेगा। इस प्रकार समस्त जीवों के प्रति परिपूर्ण तिरोभाव ही अहिंसा है।" इसी लेख में वे आगे कहते हैं-अन्तः सम्मत पीड़ा सहन।' वे अहिंसा को 'आध्यात्मिक और राजनैतिक आचरण का पथ' कहते हैं और उसे स्वराज से ऊँचा स्थान देते हैं। बर्टेण्ड रस्सेल ने भी 'ऑथोरिटी एण्ड द इंडिविजुअल' में अहिंसा का समर्थन करते हुए कहा था कि-'यदि मानव जाति को एकता की उपलब्धि करनी है तो हमारी अधिकांश अचेतन और आदिम हिंसा को दूर करने का मार्ग खोजना ही होगा।'
इस तरह सत्य और अहिंसा की धर्मनीति को मानवनीति का आदर्श बनाते हुए गाँधी जी ने जो जीवन जिया उसमें ध्येय और धर्म की प्रतिष्ठा है। ध्येय है-सत्य, तो धर्म है-अहिंसा। ध्येय में दुविधा न हो, प्रगाढ़ आस्था से जगत को, जीवन को, ईश्वर रूप में ग्रहण करना सत्य है। इसी तरह इस ध्येय को यानी ध्येय के रूप में सत्य को अंगीकार करने से जो धर्म हमारे हिस्से में आता है, वह है-अहिंसा, जो विराट् प्रेम का रूप है और इसमें समूचे जगत में स्वयं को समाहित देखने का परम भाव है जो सदा अपनी तेजस्विता और सक्रियता से हमें परिष्कृत करता रहता है। इस 'सत्य' और अहिंसा' का प्रभावी साधन 'ब्रह्मचर्य' है जिसे गाँधी जी स्पष्ट करते हुए कहते हैं-'ब्रह्म अर्थात् सत्य के अन्वेषण के अनुकूल आचरण।' उनकी मान्यता है कि इस पथ की यात्रा से समस्त इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त होता है। माउडो रायडन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक-'विमिन एंद द सॉवरेन स्टेट' में इसे स्पष्ट करते हुए लिखा था-'केवल किसी में विशेष आवेग (कामावेग) के नियंत्रण को ही ब्रह्मचर्य का पालन मानना इसे सीमित करके देखना है और भ्रांति का शिकार होना है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इंद्रियों का निग्रह।' गाँधी जी जीवन में सत्य और अहिंसा के माध्यम से जिस परम मानवीय आत्म को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, उसमें यह 'ब्रह्मचर्य' एक बड़े साधन के रूप में सामने आता है जो अपने व्यापकतम अर्थ में हर तरह की वासना का निषेध करता है। यह केवल कामावेग या यौनिकता पर नियंत्रण का ही मार्ग नहीं है वरन् जागतिक जीवन में सब तरह की इच्छाओं, वासनाओं और एषणाओं से मुक्ति का मार्ग है जिसे अपनाए बिना हम न तो स्वयं को शुद्ध करने का दावा कर सकते हैं और न जगत की शुद्धता का विचार कर सकते हैं।
इस तरह सत्य और अहिंसा के साथ उसके प्रभावी साधन ब्रह्मचर्य को समझने के बाद गाँधीनीति का तीसरा अहम तत्व आता है-सत्याग्रह; जो कर्म रूप में मान्य है। सत्याग्रह एक स्तर पर कर्म की व्याख्या है। लेकिन उसका व्यावहारिक भाव विनय है। बिना विनय के सत्याग्रह हो ही नहीं सकता। कोई भी कार्य, विधान और व्यवस्थागत उद्यम, जो जनहित के प्रतिकूल हो, इसके द्वारा भंग किया जा सकता है या अवज्ञा का भागी हो सकता है जो व्यापक सामाजिक कल्याण के विरुद्ध हो। लेकिन उसका विरोध सविनय भाव से हो और उसमें सत्य का आग्रह अपरिहार्य हो। जीवन में रसना निग्रह, अस्तेय और अपरिग्रह जैसे व्रत व्यक्ति को पूर्ण बनाने में सहायक होते हैं जो उसे अधिकाधिक संयमी और कल्याणकारक बनाकर ब्रह्मचर्य में सहायक बनते हैं तथा उससे मानसिक विकारों का शमन होता है। स्वाद के लिए भोजन, नीति विरुद्ध धनसंग्रह और चोरी जैसे कर्म व्यक्ति को हत्भाग्य बनाते हैं। 'फ्रॉम द यरवदा मंदिर' में गाँधी जी ने लिखा था-'केवल दूसरे की वस्तु को बिना उसकी आज्ञा के हर लेना ही चोरी नहीं है बल्कि अनावश्यक वस्तु का अपरिग्रह एवं भविष्य में आवश्यक हो सकने वाली वस्तु की चिन्ता करना भी चोरी ही है।' अस्तेय के बारे में वे कहते हैं-'आदर्श स्थिति में अपरिग्रह केवल शरीर तक के वस्त्रों का त्याग न होकर अपनी अस्थियों के मांस तक का त्याग है।' (महात्मा गाँधी एस्सेज एंड हिज रिफ्लेक्शन, सं. राधाकृष्णन्, पृष्ठ-५६) गाँधी नीति में जब उस 'स्वदेशी' की अवधारणा आती है जो एक नागरिक के नाते स्वराज के लिए हम सबको एक संकल्प में बाँधती है। वे कहते हैं-'स्वदेशी हमारी वह भावना है जो दूरवर्ती का निषेध कर हमारे निकटवर्ती परिवेश का उपयोग एवं सेवन करने के लिए हमें प्रतिबद्ध करती है।' यह एक प्रकार का 'स्वधर्म' है जिसका प्रतिकार कर हम धर्मरहित हो जाते हैं। यह व्यापक अवधारणा है जिसमें हर तरह की उपभोग्य वस्तु, विचार, मूल्य और परम्परा तक समाहित हैं। इसका मूल भाव यह है कि अपना देश, अपनी मिट्टी और उसकी हर चीज़ हमारे लिए वरेण्य हो, वह हमारे जीवन और कर्म का निर्धारक बने।
इस कड़ी में 'जिविकार्थ श्रम' को भी गाँधी जी एक मूल्य के रूप में देखते हैं जिसके बारे में उनका स्पष्ट मत है-'जीवित रहने के लिए मनुष्य को कार्य अवश्य करना चाहिए।' इस कार्य को वे शारीरिक श्रम से जोड़ते हैं और प्रत्येक नागरिक को इसमें शामिल करते हैं। कृषि कार्य से जुड़े किसानों से इतर सभी वर्गों के लोग, अगर वे व्यवसाय में श्रमिक हैं या बौद्धिक कर्म करते हैं-सबको शारीरिक श्रम करना आवश्यक है। इसी शारीरिक श्रम में गाँधी जी की स्वच्छता सम्बन्धी धारणा आती है जिसमें वे स्वच्छता को मनुष्य की बाहरी और भीतरी शुचिता का मूल स्वीकार करते हैंअपना निजी काम स्वयं करना और अपने मल-मूत्र की सफाई करना इसी स्वच्छता का हिस्सा है जिसको वे न केवल एक नागरिक के कर्त्तव्य के रूप में देखते हैं बल्कि उसे विकाररहित, अंहकार रहित सत्याग्रही के लिए अनिवार्य मानते हैं। स्वच्छता बाहरी रूप में भले दिखती है पर उसका गहरा सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से है। सार्वजनिक जीवन में तुच्छ समझा जानेवाला कर्म यदि है तो वह सफाई का है और यदि इसे प्रत्येक नागरिक अपना लेता है तो उसका भीतरी उच्चताबोध क्षरित होगा। वह निम्न से निम्न कर्म को भी हेय न मानेगा। वह इस तरह अपने अन्तर्विकारों से मुक्त हो सकेगा जिसमें यह भरा हुआ है कि वह असाधारण है, महान् है, सबसे बड़ा और प्रभु है।
गाँधी जी ने अपने जीवन को यदि सत्य की प्रयोगशाला कहा और यदि अपने जीवन को ही अपना संदेश कहा, तो इसमें कथनी-करनी में भेद न था। जो कहा, वह जीकर दिखाया। जीवन में उठनेवाला उनका हर कदम उस सत्याग्रही का कदम था जो सत्य की राह चलते हुए निरंतर अपने भीतर के विकारों से मुक्ति पाने का संघर्ष करता रहा। गाँधी जी के आदर्शों पर चलने का संकल्प लेना और उसे व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में देखने का प्रयास करना अच्छी पहल हो सकता है, अगर वह नैतिक कर्म में शामिल हो। स्वच्छता का बाहरी रूप जितना आवश्यक है उससे अधिक भीतरी रूप में उसको अंगीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोभ, कट्टरता, कामावेग, क्रोध, पशुता, प्रभुताबोध और सांसारिक शुद्रताओं ने हमें मनुष्य रहने ही नहीं दिया है। हम अपने आचरण से आए दिन पूरी मनुष्यता को शर्मसार करते रहते हैं और अपने महान् देश के नाम को कलंकित करते हैं।
गाँधी जी को याद करना एक बात है और उनके बताए रास्तों पर चलना, बिल्कुल दूसरी बात। उनकी स्वच्छता का आदर्श उनके सत्य के सन्धान का एक मार्ग है जिसमें अहिंसा भी है तो ब्रह्मचर्य भी, अपरिग्रह भी है तो अस्तेय भी, जीविकार्य श्रम भी है तो रसना निग्रह भी। शब्द और कर्म की एकता को अपनाकर अपने अन्तर के विकारों से मुक्त होकर और सब प्रकार से स्वयं को तुच्छ मानते हुए अपने को नैतिक बनाकर ही इस मार्ग पर चला जा सकता है, अन्यथा नहीं। स्वच्छता को उसके समग्र रूप में ग्रहण करना ही सही मायनों में गाँधी को मन से याद करना है और स्वयं अपने देश से प्रेम करना भी; पर प्रश्न यह है कि क्या हम इसके लिए तैयार है?
सम्पर्क : डी-4/37, एम.आई.जी., सेक्टर-15, रोहिणी, दिल्ली-110089