समय-संवेद्य'- गाँधी का साहित्य-विवेक - मोती लाल

मोती लाल - जन्म : जौनपुर (उ.प्र.) के गोपालपुर गाँव में 21 मार्च 1979 शिक्षा : आरम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास के प्राइमरी स्कलों में। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में बीए, और एम.ए. (प्रथम श्रेणी, सन् 2002), जे.आर.एफ. (हिन्दी 2009)। वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, उ.प्र. से "भैरव प्रसाद गुप्त के उपन्यासों में गाँव का बदलता परिदृश्य" विषय पर पीएचडी की शोध-उपाधि (2015)। सम्प्रति : झुंसी, इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन।


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गाँधी के जन्म के समय भारतीय समाज तमाम रूढ़ियों से जकड़ा था। लगभग वैसे ही जैसे महात्मा बुद्ध और कबीर के समय में मानव समाज बँधा था। वास्तव में गुलामी, आजादी की ओर लेकर ही आती है। जब-जब मनुष्य की आत्मा को कठोर ठेस, समाज ने पहुँचाई है तब-तब मनुष्य की तीसरी (प्राण) शक्ति जागृत होकर उसे नयापथ सुझाती रही है। आज जब हम इक्कीसवीं सदी में गाँधी का मूल्यांकन करने बैठे हैं तब पाते हैं कि गांधी के पास, एक ऐसी विवेक शक्ति जरूर थी, जो असमंजस के समय उन्हें संकट से बाहर निकालती थी। समस्या चाहे राजनीति से हो, इतिहास से हो या फिर भाषा-साहित्य-कला-दर्शन से हो, समयसमय पर गांधी ने अपने विचार जरूर व्यक्त किए। हिंदी जगत के कुछ चर्चित विवादों पर भी उन्होंने अपना विचार व्यक्त किया। जिनको पढ़ना और समझना हिंदी के नए पाठकों के लिए बहुत दिलचस्प होगा।


      गांधी जी की विशेषता यह थी कि बिना पढ़े वे किसी पुस्तक, ग्रंथ या रचनाकार पर टिप्पणी नहीं देते थे। कम से कम दो ऐसे अवसर आए जब उन्होंने बिना पढे, टिप्पणी की, और दोनों टिप्पणियों ने हिंदी जगत में भूचाल ला दियापहले के केन्द्र बिन्दु पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' हैं जबकि दूसरे के महाप्राण कवि 'निराला'। इन दिनों साहित्यिक प्रकरणों पर प्रकाश डालने से पूर्व 'गांधी के साहित्य-विवेक' की पड़ताल जरूरी है।


      गांधी खाटी गुजराती हिंदू थे। उनका बचपन गुजराती परिवेश में बीता था। गुजराती उनकी मातृभाषा थी। हिंदी, अंग्रेजी उन्होंने सीखी थी। अन्य गुजराती परिवारों की भाँति इनका परिवार भी धार्मिक प्रवृत्ति का था। इनके पितामह और पिताजी रामभक्त थे। सुबह-शाम घर में रामायण और रामचरितमानस का पाठ किया जाता था। स्वाभाविक था कि गांधी उर्फ मोहनदास करमचंद गांधी रामभक्त होते और हुए भी। कबीरदास, तुलसीदास, नरसी मेहता के भजन वे तन्मय होकर सुनते व गाते थे। समकालीन रचनाकारों में उन्हें बंगाल के साहित्य से बड़ा लगाव था। लगता है इसका कारण आध्यात्मिकता को अधिकता रही होगी। रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीशचन्द्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय उन्हें प्रिय थे। इनकी चर्चा वे प्रायः सभासमितियों में मंच से किया करते। अंग्रेजी में उन्हें रस्किन और टालस्टाय प्रिय थे, जिन्हें वे विद्यार्थी जीवन में पढ़े भी रहे होंगे! हिंदी के दो रचनाकार, जो उनके आस-पास थे, उन्हें प्रिय जान पड़ते हैं- एक, काका कालेलकर और दूसरे 'विशाल भारत' पत्र के संपादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी। यही दो लेखक हिंदी जानने हेतु उनकी दो आँखें कहे जा सकते हैं। हिंदी की कोई रचना जब प्रकाशित होती और हलचल पैदा करती तो वे इन्हीं दोनों विद्वानों से उस पर सलाह मसविरा करते।


      गांधी जी, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् में गहरी आस्था रखते थेसंसार के प्रत्येक प्राणी में उन्हें ईश्वर के दर्शन होते थे। यही कारण था कि वे मानव सेवा पर अभूतपूर्व जोर देते थे। दरअसल सत्यं, शिवं, सुन्दरं में गांधी का सर्वाधिक जोर सत्यं पर रहता था। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि 'सत्य ही सौन्दर्य है।' डॉ. नगेन्द्र (ग्रंथावली, भाग-७, पृ. ३२५) लिखते हैं- "सौन्दर्यचेता कवि जहाँ आनन्दविभोर होकर गा उठा था कि सौन्दर्य ही सत्य है और सत्य ही सौन्दर्य है, वहाँ सत्य के इस साधक के लिए उसका उत्तरार्द्ध ही मान्य था- अर्थात् गांधी जी यह तो निर्विवाद रूप से मानते थे कि सत्य ही सौन्दर्य है, किन्तु यह मानना उनके लिए कठिन था कि सौन्दर्य ही सत्य है। ............ यह गांधी जैसे तपोनिष्ठ साधक की परिसीमा थी जिसने अपने जीवन दर्शन की मूल प्रेरणा-निरानंदवादी जैन-दर्शन या मध्य युग के निर्गुण संतों से प्राप्त की थी। सिद्धान्त रूप से वे साहित्य की आत्माभिव्यक्ति ही मानते थे किंतु 'आत्म' शब्द का प्रयोग उनके लिए 'चित्' का पर्याय था, ऐन्द्रिय मानसिक चेतना या जैविक व्यक्तित्व का नहीं, वरन् शुद्ध चित्त-तत्व की ही अभिव्यक्ति था।" स्पष्ट है कि गांधीजी सत्यवादी थे। सत्य की विवेचना और व्याख्या को वे साहित्य में देखना चाहते थे। उसे ही वे सौन्दर्य की कसौटी मानते थे। ऐसे में सत्य का उद्घाटन करने वाली रचना का उन्हें प्रिय होना स्वाभाविक था


    पहले 'चाकलेट' विवाद। 'चाकलेट' पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का कहानी-संग्रह है, जो सन् १९२४ मं पहली बार पुस्तकाकार छपा था। इसमें कुल आठ कहानियाँ हैं-१. कमरिया नागन सी बल खाय, २. चाकलेट, ३. चाकलेट चर्चा, ४. जेल में, ५. पालट, ६. व्यभिचारी समाज, ७. हम फिदा से लखनऊ, ८. हे सुकुमार। (स्रोत : गोपाल राय - हिंदी कहानी का इतिहास - खण्ड एक - पृ. १४६)। 'उग्र' हिन्दी जगत् में किसी परिचय के मोहताज नहीं है। 'उग्र' (२५.१२.१९००२१.०३.१९६७ ई.) का जन्म मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के चुनार कस्बे में हुआ था। वे प्रेमचन्द और निराला के समकालीन लेखक थे। शचीन्द्रनाथ सान्याल, मनमथनाथ गुप्त, राजेन्द्र लाहिड़ी और कमलापति त्रिपाठी जैसे क्रांतिकारी और नेता उनके मित्र थे। 'उग्र' ऐसे देशभक्त लेखक थे, जिन्होंने सरस्वती प्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश से प्रकाशित पत्रिका (साप्ताहिक) स्वदेश (१९२४) के विजयांक का सम्पादन किया, जिसको करने में उस समय के बड़े-बड़े दिग्गजों के हाथ काँप गए थे। इसमें प्रकाशित समग्री इतनी विस्फोटक थी कि प्रेस के मालिक दशरथ द्विवेदी तत्काल गिरफ्तार कर लिए गए। प्रेस रौंद डाला गया। 'उग्र' पर राजद्रोह (धारा १२४-ए, आज भी इसकी धारा यही है) का मुकदमा चला। मालाबार हिल्स से उग्र को अंग्रेज पुलिस ने गिरफ्तार किया। नाबालिग सिद्ध होने के कारण इन्हें रियायत देते हुए नौ माह की सख्त सजा हुई। 'उग्र' फरवरी १९२६ में जेल से रिहा हुए। इसी वर्ष इनका कहानी संग्रह 'चिंगारियाँ' छपा। इसमें कुल बारह कहानियाँ थी। छः रूसी क्रांतिवीरों पर और छ: भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) पर आधातिर थी। इससे पूर्व किसी ने १८५७ पर आधारित कोई कहानी लिखी क्या! वास्तव में 'चिंगारियाँ की कहानियाँ अंग्रेजों के खिलाफ मात्र साहित्यिक चिंगारियाँ न होकर, समूची तोप की गोला थीं। अत: २६ मई १९२८ को अंग्रेज द्वारा जब्त कर ली गईं। इन्हें कथा आलोचक विद्याधर शुक्ल ने 'कलम का गुरिल्ला' कहा है। तो ऐसे देशभक्त लेखक थे कहानीकार पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'।


    इसी देशभक्त, समाजभक्त कहानीकार 'उग्र' ने सन् १९२२ के आस-पास महात्मा गांधी के आह्वान पर विद्यालय छोड़ा था। अपने साथी कमलापति त्रिपाठी (जो बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, जिन पर उग्र ने 'नेता का स्थान' नामक हिंदी की बहुचर्चित राजनीतिक कहानी लिखी थी) के साथ वाराणसी पधारे महात्मा गांधी के पैरों पर जा गिरे। दाहिना पैर कमला पति त्रिपाठी ने पकड़ा और बायाँ 'उग्र' ने'उग्र' ताउम्र वाममार्ग से ही चले। जनता और समाज उनके लिए प्राणप्रिय थी। इसकी भलाई के लिए वे जीवनभर संघर्ष करते रहे। परिवार तक न बसाया। समाज को ही परिवार मानते रहे। वे कहते थे कि मैं मजदूरों के बीच ही मरूंगा और सुना जाता है कि जब १९६७ ई. में दिल्ली में मरे तो दिहाड़ी रिक्सेवालों के बीच ही मरे।


    खैर, 'उग्र' तो सामाजिक बुराइयों के प्रति उग्र थेकोई समझौता नहीं। कोई लाग लपेट नहीं। एकदम साफ। इसी सामाजिक सफाई के क्रम में उन्होंने भारतीय हिंदू समाज में फैली बुराई, पर सन् १९२४ के 'मतवाला' में 'चाकलेट' नामक कहानी लिखकर बड़ा जोरदार प्रहार किया। उद्देश्य था नाबालिग लड़कों-लड़कियों को अप्राकृतिक यौनाचार से बचाना। 'उग्र' के इस साहस पर तथाकथित आचार्यों, धर्माचार्यों, पंडा, पुरोहितों और तो और अभिजनवादी संपादकों-लेखकों की भृकुटी टेढ़ी हो गई। अभिजनवादी संपादकों-लेखकों ने 'उग्र' पर अश्लीलता का आरोप लगाकर उनके खिलाफ जेहाद छेड़ दिया। उग्र के प्रति सवर्ण-साहित्य-सत्ता की नाराजगी का मुख्य कारण यह था कि वह अपने उपन्यासों और कहानियों के जरिए अछूतों को जबरन मंदिर में प्रवेश करा रहे थे, ब्राह्मणों के खुल्लम खुल्ला गरिया रहे थे, हिन्दू धर्म की बखिया उधेड़ रहे थे और सबके बराबरी की बात कर रहे थे। (सोत : विद्याधर शुक्ल, प्रेमचंद की विरासत बनाम हिंदी कहानी, पृ. ५८) फलस्वरूप महात्मा गाँधी के मित्र पं. बनारसीदास चतुर्वेदी से, जो आदर्शवादी, सवर्णवादी साहित्यकारों के प्रतिनिधि लेखक थे, संपादक थे, धर्मरक्षा की माँग की गई। रातों-रात 'उग्र' को मटियामेट करने की योजना बनी। जिसके संचालक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी रहे। इस मटियामेटी योजना का नाम पड़ा- घासलेट आन्दोलन।


    खैर, चाकलेट विवाद इतना बढ़ा कि पूरा हिंदी जगत इसकी चपेट में आ गया। स्वाभाविक था, बात यहाँ तक आ पहुँची कि कौन किस दल में हैअधिकांश तो सत्ता के साथ हो लिए। जिधर जीत, मैं उधर। कुछ तो चुप्पी साध गए। मौन स्वीकार लक्षणं। प्रेमचंद जी फँस गए। 'उग्र' के साथ संख्या बल कम था। ले देकर एकमात्र निराला दहाड़ रहे थे। उधर कौरवों की भाँति सब पत्र-पत्रिकाओं, दरबारों पर अभिजनवादियों का कब्जा था। प्रेमचंद ने गांधी पथ अपनाया। शांति रखो। दिसंबर १९२९ में 'विशाल भारत' में उन्होंने लिखा- "मैं साहित्य में नग्न कुवासनों का निदर्शन बहुत ही हानिकारक मानता हूँ। चाकलेट आदि को रोकने के लिए सबसे अच्छा तरीका पंपलेट छापना है। साहित्य में उसको लाने की जरूरत नहीं।" सामाजिक बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकने की इच्छा से लैस दो नवयुवक-उग्र और निराला-अपनी बात पर अडिग रहे।


    मामला हद से ऊपर जाता देख पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने जो महात्मा गांधी के निकट भी थे, 'चाकलेट' की एक प्रति और एक पत्र गांधी के पास भेजा। गांधी चूँकि हिन्दी साहित्य को पं. चतुर्वेदी के माध्यम से देखने-समझने का प्रयास करते थे। अतः पं. चतुर्वेदी को पूरा भरोसा था कि गांधी अदालत का निर्णय मेरे ही पक्ष में आएगा। इसी कारण उन्होंने अपने द्वारा भेजे पत्र में यह भी लिखा था कि चूंकि रचना अश्लील साहित्य की है अत: आप 'चाकलेट' को बाद में फुर्सत से पढ़िएगा। परन्तु आप एक पत्र तुरंत भेज दें। गांधी ने पत्र पढ़कर, उसी पत्र को आधार बनाकर एक टिप्पणी पं. चतुर्वेदी को लिख भेजी। स्वाभाविक था कि चूँकि गांधी की टिप्पणी भी नकारात्मक ही होती और हुआ भी वही। गांधी की चिट्ठी मिलते ही पं. चतुर्वेदी ने उसे पढ़ सुनाया कि गांधी ने 'चाकलेट' के विरूद्ध निर्णय दिया है। परन्तु कुछ दिन बाद जब गांधी को लगा कि बिना पढ़े रचना पर टिप्पणी करना गलत है तब उनकी आत्मा ने धिक्कारा। फिर उन्होंने 'चाकलेट' पुस्तक को बाकायदा पढ़ा और अपनी टिप्पणी पं. चतुर्वेदी को लिख भेजी। पुस्तक के बारे में गांधीजी के शब्द थे- “चाकलेट नामक पुस्तक पर जो पत्र था, उसको मैंने 'यंग इंडिया के लिए नोट लिखकर भेज दिया। पुस्तक को पढ़ा नहीं था। मेरी टीका केवल आपके पत्र पर निर्भर थी। मैंने सोचा कि इस तरह की टीका करना उचित न होगा, पुस्तक पढ़नी चाहिए। मैंने पुस्तक आज खत्म की है। मेरे मन पर जो असर हुआ, आप पर नहीं हुआ हैमैं पुस्तक का हेतु शुद्ध मानता हूँइसका असर अच्छा पड़ता है या बुरा, मुझे मालूम नहीं है। लेखक ने अमानुषी व्यवहार पर घृणा ही पैदा की है।" परन्तु पं. चतुर्वेदी बहुत चतराई से इस पत्र को छिपा रखा ताकि 'उग्र' को साहित्य जगत् से बेदखल हो जाए! ऐसा हुआ भी। 'अश्वत्थामा मारा गया, अश्वत्थामा मारा गया' की शैली में घासलेटी आन्दोलन ने जीत हासिल की। 'उग्र' को फिल्म नगरी बंबई में शरण लेनी पड़ी। आदर्शवादी जीत गये। खैर, १९५१ को गांधी जयन्ती पर पं. चतुर्वेदी ने यह पत्र 'हिन्दुस्तान' में छापापरन्तु तब तक 'उग्र' का मन सामाजिक भलाई से, साहित्य से उखड़ गया था।


    'चाकलेट' प्रकरण में चिंतनीय बिन्दु यह है कि पं. चतुर्वेदी की सिफारिश पर भी गांधी ने 'चाकलेट' को निंदनीय रचना क्यों नहीं माना? साहित्य का मूल्यांकन करने का उनका मापदण्ड क्या था? कैसे उन्होंने 'चाकलेट' का 'हेतु शुद्ध' पाया? दरअसल, गांधी सत्य के पुजारी थे। वे हर चीज का मूल्यांकन सत्य से करते थे। वे सत्य ही सौन्दर्य है इस धारणा के आलोचक थे। उनहें साहित्य का उद्देश्य बहुत प्रभावित करता था। चूँकि सत्य प्रायः यथार्थ के निकट निवास करता है ऐसे में गांधी यथार्थ को ठुकरा न सके थे। चूँकि 'उग्र' की रचना 'चाकलेट' का मुख्य उद्देश्य भारतीय हिंदू समाज की बुराई को खत्म करना था।


    दूसरा प्रकरण, हिंदी कविता के प्रति गांधी की समझ और निराला से उनकी बहस से जुड़ी है। जब गांधी, भारतीय राजनीति के सिरमौर थे, दप-दप दमक रहे थे तब-तब गांधी ने आवाज दी- हिन्दी राष्ट्रभाषा है। गांधी ने हिंदी सीखी थी, वह उनकी मातृभाषा न थीवे भारत में हिंदी की महत्ता समझते थे। हालांकि वे अच्छे हिंदी ज्ञानी न बन सके फिर भी हिंदी सीखने, बोलने, समझने के कारण ही वे भारतीय जनमानस को समझ सके। भारतीय ग्रामों को समझ सके। किसानों की समस्याओं को जान सके। कुल मिलाकर हिंदी ने उन्हें भारत भर में लोकप्रिय बनाया। तिलक पिछड़ गए। मेरी समझ है कि निवर्तमान प्रधानमंत्री की अलोकप्रियता और वर्तमान प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में हिंदी एक बड़ा अंतर पैदा किया है। खैर, गांधी ने हिंदी की ताकत जानी और हिंदी सीखी। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन का सभापति होने का इंदौर में उन्हें अवसर मिला। उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु कई समितियाँ बनाईं और भैरव प्रसाद गुप्त जैसे नवयुवकों को वहाँ भेजा। हिंदी ज्ञान के कारण ही वे भारतमाता के माथे की बिंदी बन गए। सन् १९३५-३६ में उन्होंने इसका विस्तार करते हुए हिंदी को उर्दू से जोड़कर 'हिन्दुस्तानी' भाषा का नाम दिया। हिंदू-मुसलमानों के दिल भी जुड़ गए। लोग गांधी की एक आवाज पर मर मिटने को तैयार हो गए।


    गांधी जब भारतीय राजनीति के चरम पर थे तब इंदौर अधिवेशन में उन्होंने हिन्दी साहित्य के लेखकों के सामने एकाधिक बार चुनौती पेश करते हुए कहा- "कौन है हिंदी में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जगदीश चन्द्र बसु, प्रफुल्लचंद्र राय?" गांधी की बार-बार की इस चुनौती पर हिंदी लेखक सब चुप थे। कहीं कोई छू नहीं। फिर क्या था! निराला जैसे नवयुवक से हिंदी कविता का यह अपमान सहा न गया। महाप्राण कवि निराला ने बंगाली वेशभूषा धारण की, कांधे पर चकमती चादर रखी और निकल पड़े गांधी के प्रश्र का उत्तर देनेगांधी से मिलन इतना आसान न था और फिर जान-पहचान भी पुरानी न थी। कई दिन तक ढूढते रहे। एक दिन लखनऊ में मिल ही गए। अंदर संदेश भेजा तो बीस मिनट का मिलन- समय तय हुआ। अंदर पहुँचे तो देखा गणमान्य बैठे थे। बीच में गांधी। बहस शुरू हुई। निराला का कथन है- "आप जानते हैं, हिंदी वाले अधिकांश रूढ़िग्रस्त हैं। वे जड़ रूप ही समझते हैं, तत्व नहीं। जो कथाएं पुराणों में हैं, उनके स्थूल रूप में सूक्ष्मतम तत्व नहीं। जो कथाएं पुराणों में हैं, उनके स्थूल रूप में सूक्ष्मतम तत्व भी हैं। वास्तव में वेदों का सत्य पुराणों में कथाओं द्वारा विवृत्त हुआ है। यहाँ के लोग, कथा को ही ऐतिहासिक सत्य की तरह मानते हैं। हिन्दी में इन तत्वों के परिष्करण की भी चेष्टा की गई है। साथ-साथ नए-नए रूप, नए-नए छंद और नए-नए भाव भी दिए गए हैं। साधारण जन तो इनसे दूर हैं ही, संपादक और साहित्यिक भी अधिक संख्या में अज्ञ हैं। ... ... ... ... देश की स्वतंत्रता के लिए पहले समझ की स्वतंत्रता जरूरी है।" (डॉ. आरसु, महात्मा गांधी : साहित्यकारों की दृष्टि में, पृ. ९५) महात्मा गांधी ने हाथ जोड़कर कहा कि मुझे तो गुजराती साहित्य की भी उतनी समझ नहीं, फिर हिंदी क्या जानूं? फिर तो निराला फट पड़े- "तो आपको क्या अधिकार है कि आप कहें कि हिंदी में रवीन्द्रनाथ ठाकुर कौन है ? यानी आप रवीन्द्रनाथ के जैसा साहित्यिक हिन्दी में नहीं देखना चाहते, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का नाती या नोबेल पुरस्कार प्राप्त मनुष्य देखना चाहते हैं, यह?" सभा निराला का यह रूप देख सन्न रह गई! गांधी के बगल में बैठे बाबू शिव प्रसाद गुप्त, अन्नपूर्णानंद, निराला के दो साथी वाचस्पति पाठक और कुँवर चंद्र प्रकाश सिंह-सबके सब भौचक्क! यह क्या हो रहा है! जिस गांधी को सब प्रणाम करते हैं, सलाह लेते और मानते हैं, आदर करते हैं उससे इस तरह की बात! कौन है यह युवक! गांधी चुप हो गए। गांधी दो हिन्दी लेखकों-काका कालेलकर और पं. बनारसीदास चतुर्वेदी से ही परिचित थे। ये दोनों उन्हें रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जोड़ के न लगाते थे। सो टिप्पणी कर दी थी। उन्हें क्या पता था कि हिंदी में एक 'निराला' कवि भी है जो टैगोर साहित्य की एक-एक पंक्ति पढ़कर बड़ा हुआ है। वह उनसे पूछ बैठेगा कि- "क्या आपने मुझ निराला को पढ़ा है?" सो उन्होंने चुप्पी साध ली। निराला उन्हें बहुत कुछ सुनाना चाहते थे परन्तु गाँधी के पास समय पाबंद था।


    उपर्युक्त दोनों साहित्यिक विवादों से-चाकलेट प्रकरण और निराला-टैगोर प्रकरण-जो बात साफ होती है वह यह कि गांधी के पास एक ऐसा साहित्य-विवेक जरूर था जिससे वे रचना के उत्तम या हीन होने का आकलन सरल सहज ढंग से कर लेते थे। वे सत्य को ही रचना का मूल तत्व मानते थे। सत्य ही उनके लिए सौन्दर्य का मूलाधार था। सत्य का उद्घाटन रचना का मूल होता है।


                             सम्पर्क : कल्पतरू, मिलन चौराहा, छतनाग रोड, पो. झूसी, जनपद-प्रयागराज-211019, उत्तर प्रदेश, मो. नं. : 8318267725