समय-सन्दर्भ - गाँधी और इलाहाबाद -कुमार वीरेन्द्र

कुमार वीरेन्द्र - जन्म : 20 दिसम्बर 1974 स्नातक से डी.फिल. तक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ढाई वर्षों तक जी.एल.ए, कॉलेज, नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय, मेदिनीनगर, पलामू में हिन्दी-अध्यापन और चार वर्षों तक पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के प्रभारी। पांच पुस्तकें प्रकाशित। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में तीन वर्षों तक एसोसिएट। संप्रति : हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर।


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नैतिकतापूर्ण श्रेष्ठतर आचरण के प्रबल उदाहरण और असाधारण मनुष्य महात्मा गाँधी की मृत्यु से सारा संसार शोक में डूब गया था, जिसमें इलाहाबाद भी शामिल था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना झंडा झुका दिया था और इलाहाबाद ने अपना सिर। इलाहाबाद शहर और आस-पास के तकरीबन १५ लाख लोगों ने गाँधी के अस्थि-कलश पर फूल बरसाए, स्पर्श की कोशिशें कीं, अमरता के जयकारे लगाए, आँसुओं से मन-प्राण को भिगोया और सिसकियों से संपूर्ण परिवेश को व्यथितस्पंदित किया। अस्थि-विसर्जन का मुख्य संस्कार इलाहाबाद में १२ फरवरी १९४८ को गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर हुआ1


    ११ फरवरी १९४८ को प्रातः चार बजे तीसरे दर्जे के पाँच डिब्बों की एक विशेष रेलगाड़ी दिल्ली से इलाहाबाद के लिए रवाना हुई, जिसके बीच के डिब्बे में अस्थि-कलश रखा था, छत तक फूलों से भरा था। महात्मा गाँधी के चचेरे भाई के पोते कनु गांधी की पत्नी आभा और दूसरे चचेरे भाई के पोते प्यारेलाल नैयर, डॉ. सुशीला नैयर, प्रभावती, नारायण और गाँधी जी के कई अनन्य दैनिक साथी अस्थि-कलश की निगरानी कर रहे थे। रास्ते में ट्रेन ग्यारह स्थानों पर ठहरी, लोगों ने सिर झुकाकर अश्रुपूरित श्रद्धांजति दी, गाड़ी पर फूलों के हार व गुच्छ चढ़ाए।


    १२ फरवरी १९४८ को ट्रेन इलाहाबाद पहुंची, अस्थि-कलश को एक छोटी सी पालकी पर रखा गया तथा मोटर-ट्रक पर आसीन कराकर पंद्रह लाख लोगों के बीच से गुजारते हुए संगम की ओर ले जाया गया। गुलाबों से लदे ट्रक पर उत्तर प्रदेश की राज्यपाल सरोजिनी नायडू, अबुल कलाम आजाद, रामदास और सरदार पटेल जैसे महत्वपूर्ण लोग सवार थे। सिर झुकाए हुए पं. नेहरू ट्रक के साथ पैदल चल रहे थे। सफेद वस्त्र धारण किए हुए हजारों स्त्री-पुरुष ट्रक के आगे भजन गाते हुए चल रहे थे। धीरे-धीरे ट्रक संगम तट पहुँचा। अस्थि-कलश को सफेद रंग की अमेरिकी फौजी डक (नावनुमा मोटरगाड़ी) पर रख कर बहाव की ओर ले जाया गया। इस कलश के निकट पहुँचने के लिए लाखों लोग घुटनों पानी में दूर तक चले गए। कलश को उलटा गया, उसमें भरी हुई भस्मी और अस्थियाँ नदी में प्रवाहित की गईं, किले से तोपों ने सलामी दी, भस्मी पानी पर फैल गई, अस्थियाँ गंगा की गोद में समाकर तेजी के साथ समुद्र की ओर बह चलीं, उपस्थित जन समूह ने कपड़े की कोर अथवा ऊँगली के पोर से अपनी आँखें पोंछी, सिसककियों से आकाश शोक-मग्न हो गया, मानो गाँधी की इलाहाबाद की यह अंतिम यात्रा थी, रात को घर में चूल्हे तक नहीं जले।इलाहाबाद के आधुनिक इतिहास में किसी व्यक्ति के लिए इतना गहरा और व्यापक शोक अब तक नहीं मनाया गया।



__ यह वही गाँधी थे, जिनके उपवास (पूना समझौते १९३२ को लेकर) प्रारंभ होने के एक दिन पहले ही इलाहाबाद के बारह मंदिर पहली बार हरिजनों के लिए खोल दिए गए थे और पं. जवाहर लाल नेहरू की धर्मपरायण माता स्वरूप रानी नेहरू ने एक अछूत के हाथ से खाना खाया तथा लोगों को साफ-साफ संदेश दिया और बताया था कि स्वरूप रानी ने एक अछूत के हाथ से खाना खाया। हजारों हिन्दू महिलाओं ने इनका अनुकरण किया था। पं. जवाहर लाल नेहरू १९३६ और १९३७ के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष थे, परंतु उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि 'गांधीजी कांग्रेस के स्थायी महा-अध्यक्ष हैं।'


  गाँधी जी पहली बार इलाहाबाद ५ जुलाई १८९६ को आए, हालांकि यह उनकी अनसोची, अप्रत्याशित यात्रा थी पर महात्मा गाँधी मई १८९३ में दक्षिण अफ्रीका गए थे। तीन वर्षों में वह एक संपन्न वकील और प्रमुख भारतीय राजनेता बन गए। वहाँ इतने दिनों में उन्होंने अपने को एक प्रभावशाली नेता और विवेकवान संगठनकर्ता सिद्ध किया। उनकी जरूरत लोगों को महसूस होने लगी थी, पर वह वहाँ परिवार के साथ न थे। इसलिए उन्होंने दस माह की छुट्टी ली और अपनी पत्नी और बच्चों को लिवा लाने के लिए 'पोंगोला' नामक जहाज से ५ जून १८९६ को भारत के लिए रवाना हो गए। करीब २४ दिनों की यात्रा के बाद वह डरबन से हुगली पहुँचे और ४ जुलाई १८९६ को वह कलकत्ता-बम्बई मेल से राजकोट के लिए चल पड़े। यह ट्रेन इलाहाबाद से होकर गुजरती थी। ५ जुलाई को दिन के ११ बजे यह ट्रेन इलाहाबाद पहुंची और तकरीबन ४५ मिनटों तक रुकी। यहाँ इसका ठहराव ही ४५ मिनटों का निर्धारित था। बकौल गाँधी 'मैंने सोचा कि इतने समय में जरा शहर देख आऊँ। मुझे औषधि विक्रेता के यहाँ से दवा भी लेनी थी। औषधि विक्रेता ऊँघता हुआ बाहर आया। दवा देने में बड़ी देर लगा दीज्योंही मैं स्टेशन पहुँचा, गाड़ी चलती हुई दिखाई दी। स्टेशन मास्टर अच्छा आदमी था। उसने गाड़ी एक मिनट मेरे लिए रोकी भी, पर मुझे वापस न आता देखकर मेरा सामना उतरवा लिया।'


      ___ जब गाड़ी छूट गई, तब गाँधी ने इलाहाबाद में एक दिन रुकने का निर्णय लिया और यहाँ के लोगों से मिलकर दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के प्रति हो रहे अमानवीय और भेदभावपूर्ण व्यवहारों, कानूनों को लेकर लोगों से बातें करने का निश्चय किया। बकौल गाँधी 'मैं केलनर के होटल में उतरा और वहीं से अपना काम शुरू करने का निश्चय किया। प्रयाग के पायोनियर' पत्र की ख्याति मैंने सुन रखी थी। यह जनता की आकांक्षाओं का विरोधी है, यह मैं जानता था। मुझे याद पड़ता है कि उस समय मि. चेजनी उसके (छोटे) सम्पादक थे। मुझे तो सब पक्षवालों से मिलकर सबकी सहायता लेनी थी, अत: मि. चेजनी को मैंने मुलाकात के लिए पत्र लिखाट्रेन छूट जाने की बात बताकर यह लिख दिया कि अगले ही दिन मुझे प्रयाग से चले जाना है। उत्तर में उन्होंने मुझे तुरंत मिलने के लिए बुलाया। मुझे प्रसन्नता हुई। उन्होंने मेरी बात गौर से सुनी। कहा कि आप (मैं) कुछ लिखें तो मैं तुरंत उस पर टिप्पणी लिखूगा। साथ ही यह भी कहा, 'लेकिन मैं आपसे यह नहीं कह सकता कि मैं आपकी सभी बातों का समर्थन करूँगा। उपनिवेशियों (दक्षिण अफ्रीका के गोरों) का दृष्टि बिंदु भी तो हमें समझना और देखना होगा।'


    गाँधी जी ने मि. चेजनी को उत्तर देते हुए कहा कि 'आप इस प्रश्न का अध्ययन और चर्चा करेंगे, इतना ही मेरे लिए काफी है। मैं शुद्ध न्याय के सिवा न कुछ मांगता हूँ, न कुछ चाहता हूं1'


    मि. चेजनी से मिलने के बाद गाँधी जी त्रिवेणी संगम गए और वहाँ स्नान-दर्शनादि किए। लौटकर केलनर होटल में भोजन-विश्राम किया और अपने आगामी कार्यक्रम पर सोच-विचार करते रहे। दूसरे दिन यानी ६ जुलाई १८९६ को वह कलकत्ता-बम्बई मेल से बम्बई के रास्ते राजकोट के लिए रवाना हो गए।


    वैसे तो प्रयाग की उनकी यह पहली यात्रा आकस्मिक और अप्रत्याशित थी, लेकिन उनके जीवन की एक प्रमुख घटना इसलिए बन गई, क्योंकि यहीं उन्होंने 'ग्रीन पैम्फलेट' (हरी पुस्तिका) लिखने का निश्चय कियागाँधी जी बम्बई में बिना रुके सीधा राजकोट गए और इस पस्तिका को लिखने की तैयारी में लग गए। उसे लिखने और छपाने में लगभग एक महीना लग गया। इसका मुख पृष्ठ हरा था, इससे बाद वह 'हरी पोथी' के नाम से प्रसिद्ध हुई। हरी पुस्तिका की दस हजार प्रतियां छपवाकर सारे हिन्दुस्तान के अखबारों और सब दलों के प्रमुख पुरुषों के पास गाँधी जी ने भेज दी। इलाहाबाद के 'पायोनियर' में उस पर सबसे पहले लेख निकला। उसका सारांश विलायत गया और फिर इस सारांश का सारांश रायटर के द्वारा नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) गया। नेटाल में हिन्दुस्तानियों के साथ होने वाले व्यवहार का जो चित्र गाँधी ने इस पुस्तिका में खींचा था, उसका यह 'लघु संस्करण' था और गाँधी जी के शब्दों में न था, तोड़ा-मरोड़ा गया था। धीरे-धीरे सब प्रमुख पत्रों में इस प्रश्न की विस्तृत चर्चा हुई, २. जिसके कारण नेटाल के गोरे गाँधी के विरूद्ध इतने उत्तेजित हो उठे कि वहाँ लौटने पर, इन पर खुले आम मारक प्रहार किया गया और जिसके कारण इनकी ख्याति और दूर-दूर तक फैल गई।


    गाँधी जी ने स्वीकार किया कि 'प्रयाग में पायोनियर के (छोटे) संपादक मि. चेजनी से इस अनसोची मुलाकात ने मुझ पर नेटाल में हुए हमले का बीज बोया।'


    इसके बाद दूसरी बार सन् १९१६ में इलाहाबाद पहुँचे गाँधी जी ने इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज (१ जुलाई १८७२ को स्थापित, २३ सितंबर १८८७ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक इकाई, १९२१ से इसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विलीन, अब विज्ञान संकाय) में अपनी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए कहा था कि ब्रिटिश छात्रछाया में हमने बहुत कुछ सीखा है, किन्तु मेरा यह निश्चित मत है कि ब्रिटेन यथार्थ नैतिकता की दिशा में कुछ भी देने में असमर्थ है। हम उस संबंध से उसी दशा में लाभ उठा सकते हैं जब हम अपनी सभ्यता और अपनी नैतिकता से विचलित न हों। हमें सर्वप्रथम दैवी सम्पदा की, परम पिता के राज्य और उसकी पवित्रता की कामना करनी चाहिए। जो ऐसा करेगा उसे यह अमोघ वचन मिला हुआ है कि उसके पास सब वस्तुएँ आ जाएंगी। सच्चा अर्थशास्त्र यही है।'


    उपर्युक्त बातें गाँधी जी ने २२ दिसम्बर १९१६ को म्योर सेंट्रल कॉलेज की अर्थशास्त्र समिति के तत्वावधान में आयोजित सभा में कही थी। इस सभा की अध्यक्षता पं. मदनमोहन मालवीय ने की थी और इसमें डॉ. तेज बहादुर सपू, डॉ. सुन्दरलाल (विश्वविद्यालय के उप-कुलपति), एच.एस.एल. पोलक, सी.वाई. चिन्तामणि, शिव प्रसाद गुप्त, पुरुषोत्तम दास टंडन तथा डॉ. ई.जी. हिल (म्योर सेंट्रल कॉलेज के प्रधान अध्यापक) जैसे अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे। व्याख्यान का विषय था- 'क्या आर्थिक उन्नति वास्तविक उन्नति के विपरीत जाती है?'


    इस विषय पर विस्तारपूर्वक अपनी बातें रखते हए गाँधी जी ने कहा कि 'मेरा ख्याल है कि आर्थिक उन्नति का अर्थ हम सीमा-विहीन भौतिक प्रगति लगाते हैं और वास्तविक उन्नति को हम नैतिक प्रगति का पर्याय मानते हैं। यह नैतिक प्रगति हमारे अन्तर में रहने वाले शाश्वत विषय को दूसरे शब्दों में इस प्रकार रखा जा सकता है : क्या नैतिक उन्नति उसी अनुपात में नहीं हुआ करती जिस अनुपात में भौतिक उन्नति होती है?'


    गाँधी जी ने थोड़ी तल्खी के साथ आगे कहा कि यह तो आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि अतिशय दरिद्रता नैतिक पतन के अतिरिक्त कुछ और दे सकती है। प्रत्येक मनुष्य को जीवित रहने का अधिकार है और इसलिए उसे पेट भरने के लिए भोजन तथा आवश्यकतानुसार तन ढकने के लिए वस्त्र और रहने के लिए मकान जुटाने का अधिकार है। परन्तु इस बिल्कुल मामूली से काम के लिए हमें अर्थशास्त्रियों अथवा उनके द्वारा गढ़े गए विषयों की मदद की जरूरत नहीं है।


    किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। नि:सन्देह किसी देश की सुव्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते हैं बल्कि यह कि जन-साधारण का कोई भी व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है।'


    इसके बाद गाँधी जी ने कहा कि 'अब केवल यही बात देखनी रह जाती है कि क्या भौतिक उन्नति का अर्थ ही नैतिक उन्नति है?'


    इसके लिए गाँधी जी ने दनिया भर से दष्टांत दिए, भौतिक रूप से उन्नति के शिखर पर पहुँचे रोमन लोगों के नैतिक पतन, मिस्र ओर दक्षिण अफ्रीका के लोगों के नैतिक स्तर के दृष्टांत दिए और अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि 'दक्षिण अफ्रीका में मुझे अपने हजारों देशवासियों के निकट सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त था, मैंने वहाँ लगभग सदा यही देखा कि आर्थिक दृष्टि से जो जितना ही सम्पन्न होता था, उसका नैतिक स्तर उतना ही गया गुजरा होता था। सत्याग्रह के हमारे नैतिक संघर्ष को गरीबों से जितना बल मिला, उतना अमीरों से नहीं।'


    गाँधी ने इसके आगे यह कहा कि 'प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर के अनुमोदन के लिए सबसे अधिक विश्वसनीय और जोरदार प्रमाण संसार के सबसे बड़े उपदेशकों के जीवनचरित हैं। ईसा मसीह, मुहम्मद, बुद्ध, नानक, कबीर, चैतन्य, शंकराचार्य, दयानन्द, रामकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे जिनका लाखों नर-नारियों के हृदयों पर प्रभाव था और जिन्होंने असंख्य व्यक्तियों का चरित्र गढ़ा है। ध्यान रहे कि ये सब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने जान-बूझकर गरीबी को अपनाया था।'


    ___ गाँधी ने कहा कि 'यदि मेरा यह विश्वास न होता कि जिस हद तक हम आधुनिक भौतिकवाद के पीछे दीवाने बने रहेंगे, उस हद तक हम उन्नति के मार्ग से दूर रहकर अवनति की दिशा में अग्रसर होते जाएंगे, तो मैंने आज जो इस प्रकार विस्तारपूर्वक अपनी बात आपके सामने रखने का प्रयास किया है सो कदापि न करता। मेरी धारणा है कि आर्थिक उन्नति वास्तविक उन्नति के विरूद्ध पड़ती है। यही कारण है कि हमारा प्राचीन आदर्श धन-सम्पत्ति में वृद्धि करने वाली गतिविधियों पर नियंत्रण रखता रहा है। परमेश्वर और माया दोनों को एक साथ नहीं साधा जा सकता। यह अत्यंत महत्वपूर्ण आर्थिक सत्य है। हमें इन दोनों में एक को चुन लेना है।'


    ___गाँधी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि 'हमें बताया गया है कि हमारे इस देश में कभी देवता निवास करते थे। जिस देश को मिलों की चिमनियों से निकलनेवाला धुआँ और कारखानों का कर्कश स्वर भयानक बनाए हुए हैं, जिसकी सड़कों पर ऐसे मुसाफिरों से भरी गाड़ियाँ तेजी से इधर-उधर दौड़ रही हैं, जो नहीं जानते कि उनका लक्ष्य क्या है और जो प्रायः भ्रान्तचित्त रहते हैं, उस देश में देवताओं के निवास की कल्पना करना असम्भव है। मैं इन बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि ये भौतिक उन्नति की प्रतीक मानी जाती हैं किन्तु इनसे हमारे सुख में एक कण की भी वृद्धि नहीं होती।'


    इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों और गणमान्य लोगों के बीच दिया गया गाँधी का यह व्याख्यान खूब चर्चित रहा, जिसकी अनुगूंजें आज भी विद्यमान हैं।


    दूसरे दिन यानी २३ दिसम्बर, १९१६ को गाँधी ने इलाहाबाद के कटघर रोड स्थित मुंशी राम प्रसाद के बाग में एक बहुत बड़ी सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में हुई इस सभा में गाँधी ने प्राचीन और अर्वाचीन शिक्षा-नीति' पर भाषण करते हुए अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने की आधुनिक प्रणाली पर करारा प्रहार किया और प्राचीन शिक्षा प्रणाली की तारीफ करते हुए कहा कि 'उसका आधार संयम और ब्रह्मचर्य' थायह इसी शिक्षा प्रणाली का प्रताप था कि हजारों वर्षों से अनेक प्रकार के आघात सहने पर भी भारतीय सभ्यता आजतक जीवित है। भारतीय सभ्यता का प्रधान आधार आध्यात्मिक बल है। वह भौतिक बल से कहीं बढ़कर है।' उल्लेखनीय है कि गाँधी इसके पूर्व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिलान्यास कार्यक्रम में यह कह चुके थे कि 'अपने ही देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना बड़ी शर्म की बात है।' और इसके भी पहले 'हिन्द स्वराज' (१९०८-०९) में वह लिख चुके थे कि 'करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है।'


    राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर चंपारण पहुँचे गाँधी ने १९१७ में निलहे गोरों के अत्याचार से जनता को मुक्ति दिलाने के लिए पहला सत्याग्रह किया। बावजूद इसके, वह एक दिन के लिए इलाहाबाद आए और ६ अक्टूबर, १९१७ को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की परिषद् की संयुक्त बैठक में शामिल हुए और अपने दिल की बातें कहीं। हालांकि गाँधी ने अपने दिल की बातों से इलाहाबाद को 'स्त्री दर्पण', 'मर्यादा' और 'अभ्युदय' के माध्यम से मई १९१७ में ही अवगत करा दिया था। प्रयाग से प्रकाशित 'स्त्री दर्पण' के १ मई १९१७ के अंक के संपादकीय ('कर्मवीर श्री गाँधी का मुकदमा') में कहा गया कि श्रीमान महात्मा गाँधी जी पर तिरहुत के कमिश्रर की भूल से जो मुकदमा चलाया गया था, वह सरकार की आज्ञा से उठा लिया गया इसके वास्ते हम सरकार को धन्यवाद देते हैं। ... ... कोई भारतवासी ऐसा नहीं है कि जो यह न जान गया हो कि आप निर्बल के दुख दर्द में शरीक होते हैं और जब आपको विश्वास हो जाता है कि किसी पर अत्याचार हो रहा है, वह उसे दूर करके ही छुड़ाते हैं, यह सरकार को भी मालूम है। इस सन्दर्भ में गाँधी ने 'स्त्री दर्पण' में प्रकाशानार्थ लिखा था कि 'मैं सरकार और देशवासियों के सामने अपने अंतिम सिद्धांत रखने की चेष्टा करूंगा।' हालांकि इलाहाबाद का 'पायोनियर' गाँधी के मत का विरोध कर रहा था।


   


      इलाहाबाद विश्वविद्यालय स्थित मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग तथा प्रवासी अध्ययन केंद्र का वह भवन जहाँ से 'पायोनियर' निकलता                                           था और जहाँ ५ जुलाई १८९६ को गांधी जी आए थे। - फोटो सौजन्य डॉ अनिल कुमार यादव


 


___ गाँधी जी ११ मार्च १९१९ को लखनऊ से इलाहाबाद पहुँचे। इलाहाबाद की इस चौथी यात्रा में वह पं. मोतीलाल नेहरू के साथ 'स्वराज भवन' में अतिथि होकर पहली बार ठहरे और यहीं से उन्होंने वायसराय के निजी सचिव श्री मैफी को रौलेक्ट एक्ट के स्थगन और उन पर जनता की अत्यंत तीखी प्रतिक्रिया के प्रकाश में पुनर्विचार करने के लिए तार भेजा और पत्र भी लिखाइसी दिन इस विषय पर इलाहाबाद में एक सार्वजनिक सभा हुई, जिसकी अध्यक्षता अंग्रेजी दैनिक 'इण्डिपेण्डेण्ट' के संपादक सय्यद हसेन ने की। चूँकि गाँधी जी लखनऊ से ही अस्वस्थ थे, इसलिए उनका लिखित भाषण अंग्रेजी में सय्यद हुसेन ने और हिन्दी में महादेवी देसाई ने पढ़कर सुनाया। उसका लुब्बे लुबाब यह था कि 'जो व्यक्ति सत्याग्रह की शपथ लेना चाहता है, उसे शपथ लेने के पूर्व उस पर सांगोपांग विचार कर लेना चाहिए। उसे रौलट विधेयकों की मुख्य-मुख्य बातों को भी समझ लेना चाहिए और तसल्ली कर लेना चाहिए कि वे कितने आपत्तिजनक हैं। हर प्रकार का शारीरिक कष्ट सहन करने की क्षमता भी उसमें होनी चाहिए। सत्याग्रह में एक बार शामिल हो जाने पर पीछे मुड़ना हो ही नहीं सकता। सत्याग्रह में, पराजय की कल्पना ही नहीं है। सत्याग्रही मरते दम तक संघर्ष करता रहता है। उन्होंने भाषण में हिदायत देते हुए कहा कि 'सत्याग्रही को उचित है कि अपने साथ शरीक न होने वालों के प्रति सहनशीलता से काम ले क्योंकि सत्याग्रह में हम आत्म-बलिदान अर्थात् प्रेम के द्वारा अपने विरोधियों को जीतने की आशा रखते हैं। यदि हम प्रतिदिन अपनी शपथ का पालन करते रहेंगे तो हमारे आस-पास का वातावरण शुद्ध हो जाएगा।' इस भाषण में उन्होंने गरम दलितों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 'हिंसा मार्ग के समर्थकों की समझ में भी आने लगेगा कि गुप्त या प्रकट हिंसा की अपेक्षा सत्याग्रह ही अधिक समर्थ साधन है।'


    गाँधी जी सन् १९२० में पूरे देश में घूमकर भावी आंदोलन की भूमिका के लिए लोगों को तैयार करने में लगे थे, इसी क्रम में वह २० जनवरी १९२० को पं. मोतीलाल नेहरू से मिलने इलाहाबाद आए। 'मेरी कहानी' में जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है कि 'पिताजी ने गाँधीजी को बुलावा और वह इलाहाबाद आए। दोनों की बड़ी देर तक बातें होती रही। उस समय मैं मौजूद न था।' इलाहाबाद की उनकी यह पाँचवीं यात्रा थी। यहाँ से वह दिल्ली के लिए निकले पर नागरिकों के आग्रह पर कानपुर में कुछ घंटे ठहरकर 'स्वदेशी भंडार' का उद्घाटन करते गए।


    ___गाँधी जी जून १९२० के प्रथम सप्ताह में असहयोग आंदोलन पर विचार करने इलाहाबाद आए। वह ३० मई को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में शामिल होने काशी पहुँचे थे, वहीं से इलाहाबाद आ गए और एक तथा दो जून १९२० को इलाहाबाद में हिन्दू-मुसलमानों के एक संयुक्त सम्मेलन में शामिल हुए। अगले दिन यानी तीन जून को यहीं अखिल भारतीय केन्द्रीय खिलाफत कमेटी की बैठक हुई, उसमें गाँधी जी द्वारा दिए गए सारगर्भित भाषण को उपस्थित लोगों ने बड़े मनोयोग और शांति से सुना। उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि 'हम यह युद्ध नैतिक बल के जोर पर ही जीतना चाहते हैं। असहयोग आंदोलन चार चरणों में किया जाएगा। पहिला चरण वाइसराय को एक महीने का समय देने के बाद शुरू किया जाएगा।' अपने भाषण के दौरान उन्होंने बहिष्कार को अव्यावहारिक बताते हुए उसके प्रति अपनी असहमति प्रकट की और उसके बदले स्वदेशी अपनाने को कहा और अनुरोध किया कि लोग किसी रूप में हिंसा न करें।


    गाँधी जी के उपर्युक्त भाषण का ऐसा असर हुआ कि ९ जून को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी की बैठक हुई और उसमें एक राय से गाँधी जी के असहयोग के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। वाइसराय को एक महीने की नोटिस देकर असहयोग आंदोलन शुरू करने का भार भी गाँधी जी को ही सौंपा गया था। इस फैसले के पंद्रह दिन बाद गाँधी जी ने वाइसराय को लिखकर सूचित कर दिया कि ब्रिटेन ने युद्ध काल में मुसलमानों से जो वादा किया था, उसके अनुसार अगर तुर्की की संधि-शर्तों में परिवर्तन नहीं किया गया तो वह मुसलमानों को सरकार से असहयोग करने और हिन्दुओं को भी उस आंदोलन में शरीक हो जाने के लिए कहेंगे।' गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 'मुझे याद है कि इलाहाबाद में एक बार इसके लिए रात भर सभा चलती रही। हकीम साहब को शांतिमय असहयोग की शक्यता में शंका थी, पर शंका दूर हो जाने के बाद वह उसमें शामिल हुए और उनकी मदद अमूल्य सिद्ध हुई।'


    उल्लेखनीय है कि सितम्बर सन् १९२० में जब कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में महात्मा गाँधी ने असहयोग आंदोलन का सुझाव रखा, तो इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू अकेले प्रथम श्रेणी के नेता थे जिन्होंने खुलकर और मुक्तकंठ से महात्मा गाँधी का समर्थन किया और यू.पी. विधानपरिषद् से इस्तीफा दे दिया और अपनी उस वकालत को भी त्याग दिया जिससे उन्हें लाखों की आमदनी थी।


    इलाहाबाद में रात भर चलने वाली जिस सभा का जिक्र गाँधी जी ने की है, वह २८ नवम्बर १९२० को हुई थी। २८ नवम्बर, १९२० को गाँधी जी के इलाहाबाद पहुँचने पर एक सार्वजनिक सभा हुई, जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की थी और जिसमें इंग्लैंड के कर्नल वेजवुड मौलाना आजाद और शौकत अली भी शामिल थे। इस सभा में गाँधी जी हिन्दी में बोले थे और थोड़ी तल्खी के साथ बोले थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि 'यह समय काम करने का है', भाषणों और सभाओं का नहीं। यह सरकार आसुरी है और रावण-राज जैसी है। इसने मुसलमानों के साथ अन्याय किया है, पंजाब में अत्याचार किए हैं किन्तु आज भी उसे इसका पछतावा नहीं है। यदि आप इन सबको अनुभव नहीं करते तो मुझे आपसे कुछ कहना नहीं है।' हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देकर असहयोग आंदोलन के लिए सबको एकजुट रखने के मकसद से दिए गए इस भाषण में उन्होंने जोर देकर कहा कि 'आपको चाहिए कि वर्तमान सरकार को सुधार दें या समाप्त कर दें। इसके लिए एकता बहुत जरूरी है। यदि हिन्दू और मुसलमान आज एक हो जाएँ तो संसार की कोई भी शक्ति हमें दबा नहीं सकती। हमें शैतान को सजा देने के लिए शैतानी साधनों का उपयोग नहीं करना है। जैसे उजाला अँधेरे को दूर करता है, वैसी ही हम झूठ को सत्य से और बुरी शक्तियों को आत्म-बल से नष्ट कर सकते हैं।'


    इस अवसर पर गाँधी ने स्वदेशी की आवश्यकता पर तो जोर दिया ही, इलाहाबाद में एक राष्ट्रीय कॉलेज की स्थापना के लिए धन की भी अपील की।


    इसके दूसरे दिन यानी २९ नवम्बर १९२० को इलाहाबाद में महिलाओं की एक सभा हुई, जिसमें गाँधी जी ने महिलाओं को प्रेरित करते हुए कहा कि आप अपने पतियों और पुत्रों से अनुरोध करें और उन्हें प्रोत्साहन दें कि वे अपने कर्त्तव्य के पथ पर चलें तथा स्वयं स्वदेशी को अपनाकर स्वतंत्र भारत के निर्माण में प्रबल और प्रभावकारी सहायता दें। रावण के राज में सीता को भी चौदह साल तक वल्कलवसन पहिनकर रहना पड़ा था। इसी तरह भारतीय महिलाओं को भी हाथकते-हाथबुने खद्दर का कपड़ा पहिनना अपना पुनीत कर्त्तव्य बना लेना चाहिए।' गाँधी जी ने महिलाओं को उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराते हुए कहा कि 'स्वदेशी स्वराज्य प्राप्त करने का एक अमोघ उपाय है और इसके प्रचार का मुख्य भार भारतीय स्त्रियों पर ही है।' इस प्रेरणादायक भाषण का ऐसा असर हुआ कि कई महिलाओं ने अपने आभूषण उतारकर राष्ट्रीय कार्य के निमित दे दिए और स्वदेशी की शपथ लेने में भी बहुत उत्साह दिखाया।


    इसी दिन यानी २९ नवम्बर १९२० को ही इलाहाबाद की एक दूसरी सभा में कौमी एकता के प्रश्न पर भाषण दिया और खेदपूर्वक कहा कि 'उत्तर प्रदेश में सरकार की चाल सफल हो गई है और उसने फूट डालकर दोनों जातियों को पौरुषहीन बना दिया है। ... ... ... हममें अभी तक पारस्परिक विश्वास और सद्भाव की कमी है। यह तो अपने- अपने कर्तव्य का प्रश्न है और इसमें जो आगे आता है, वही सफल है। यदि कोई अपने कर्त्तव्य के पालन में यह सोचता है कि पहिले दूसरे लोग आगे बढ़ें तब हम बढ़ेगे तो इससे उसकी दुर्बलता ही प्रकट होती है। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप पराक्रमी बनें और कायरों के दिलों में पैदा होने वाली शंकाओं को निकाल बाहर करें।'


    ३० नवम्बर १९२० को इलाहाबाद के आनन्द भवन (स्वराज्य भवन) में इलाहाबाद विश्वविद्यालय और शहर के कुछ विद्यालय के विद्यार्थियों की एक सभा हई, जिसमें गाँधी जी ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि 'स्वतंत्रता का इतना ही अर्थ है कि हम किसी से भी न डरें और जो हमारे दिल में हो वही कह सकें, कर सकें। जो लड़का करोड़ों मनुष्यों के सामने सीधा खड़ा रहकर अपनी बात कह सके, वह सच्चा साहसी है। इसलिए आपके लिए पहिला पाठ तो 'ना' कहना सीखना है। यह ज्यादा अच्छा है कि आप प्रतिज्ञा न लें; प्रतिज्ञा लेकर तोडना भयंकर अपराध है। शास्त्रों में कहा है कि प्रतिज्ञा लो तो उसके लिए मरो। हाँ, व्यभिचार की, झूठ की प्रतिज्ञा ली हो तो अवश्य तोड़ी जा सकती है पर त्याग करने की प्रतिज्ञा कभी बदली नहीं जा सकती। इसलिए मैं विनयपूर्वक कहता हूँ कि कसम न लो और कसम लो तो पृथ्वी रसातल में चली जाए तो भी उसे न तोड़ो।' असल में नवम्बर १९२० में ही झाँसी के विद्यार्थियों ने असहयोग आंदोलन के दौरान कुछ हिंसक घटनाएं की थींगाँधी जी सशंकित थे कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भी ऐसी घटनाएं न कर बैठे। इसलिए इलाहाबाद के विद्यार्थियों को उन्होंने इस संदर्भ में नसीहतें दी।


    विद्यार्थियों की इस सभा में उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्यार्थियों की सुस्त भावनाओं को जगाते हुए कहा था कि 'इस राज्य और रावण-राज्य में फर्क नहीं है। कुछ फर्क हो भी तो वह इतना ही है कि रावण के हृदय में कुछ कम दया होगी। रावण को ईश्वर का भय तो था परन्तु हमारी हुकूमत तो खुदा को घोलकर पी गई है। उसका खुदा तो उसका अहंकार, उसकी दौलत और उसकी दगा है। यूरोपीय संस्कृति शैतानियत से भरी है परन्तु उसमें भी अंग्रेजी हुकूमत सबसे अधिक शैतानियत से भरी है। मैं इसके आश्रय में एक क्षण भी नहीं रहना चाहता। आपको सरकार में मेरी तरह बुराई न दिखाई देती हो तो आप बेशक अपनी पाठशालाओं, परिसरों में पढ़ते रहें किन्तु यदि आप मेरे विचार के हैं तो इस हुकूमत की पाठशाला में गीता पढ़ना भी व्यर्थ है। इस सारी शिक्षा में जरूर भरा है क्योंकि वह हमें और पक्का गुलाम बनाने के लिए है। हमारी लड़ाई धर्म की है, सरकार की अधर्म की है। उसके साथ सम्बन्ध रखना अधिक हैवान बनने और ज्यादा पक्का गुलाम बनाने के बराबर है।' गाँधी जी ने विद्यार्थियों में उत्साह भरते हुए कहा कि 'मैं आपको कोई नशा नहीं देना चाहता। आपकी तालीम का नशा आपके लिए काफी है। मैं आपमें शान्त साहस फूंकना चाहता हूँ। मैं यह चाहता हूँ कि आपका हृदय कुर्बानी और तपश्चर्या के योग्य पवित्र बने।'


    अगले दिन यानी १ दिसम्बर १९२० को गाँधी ने इलाहाबाद में तिलक विद्यालय का उद्घाटन किया और इस अवसर पर कहा कि 'स्वराज्य के लिए जितना आत्म-त्याग तिलक ने किया है उतना किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं कियाइसलिए उस महान देशभक्त के नाम पर इसका नाम रखा जाना उचित ही है। विद्यालय में वे सभी विषय पढ़ाएं जाएंगे, जो दूसरे स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं। हाँ, विद्यालय में छात्रों को कुर्सियां और डेस्कें नहीं मिलेंगी। आप लोग आसनों का प्रयोग करें और अपनी विद्या तथा चरित्रशीलता से यह दिखाएं कि आप दूसरे स्कूलों के छात्रों से अच्छे हैं। इस अवसर पर उन्होंने छात्रों से अनुरोध किया कि वे अपने आचरण से अहिंसात्मक असहयोग को सफल बनाएं। असल में इलाहाबाद के कार्यकर्ताओं ने एक राष्ट्रीय हाई स्कूल खोल रखा था, जो स्वराज्य-सभा के कार्यालय में चलाया जाता था। इसे ही तिलक विद्यालय का रूप देकर, गाँधी जी से इसका उद्घाटन कराया गया।


    फिर अगले वर्ष यानी ८, ९, १० मई १९२१ को गाँधी जी इलाहाबाद आए और रहे८ मई को वह विजयलक्ष्मी पंडित के विवाहोत्सव में सम्मिलित हुए।


    १० मई, १९२१ को इलाहाबाद जिला सम्मेलन हुआ और नागरिकों की ओर से गाँधी जी को मानपत्र दिया गया। सम्मेलन में प्रतिनिधियों और किसानों के साथ सम्मिलित कस्तूरबा, लाला लाजपत राय, मौलाना शौकत अली, पंडित रामभजदत्त चौधरी, मो. हसरत मोहानी, डॉ. किचलू, स्वामी श्रद्धानन्द, पुरुषोत्तम दास टंडन, सरोजिनी नायडू और जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में मानपत्र स्वीकार करते हुए गाँधी ने कहा कि 'प्रयाग तो अब मुझे अपने घर-सा ही प्रतीत होता है। मानपत्र का अर्थ यहीं है कि मानपत्र देने वाले असहयोग आंदोलन से सहमत हैं और स्वराज्य-संग्राम में हमारे साथ हैं।' गाँधी ने अत्यंत रोचक अंदाज में कहा कि 'अपने अभिनंदन-पत्र में आप लोगों ने कहा है, कि इलाहाबाद का एक नाम और है- फकीराबाद। मेरी हार्दिक इच्छा है कि यह नगर पूरी तरह उस नाम के योग्य हो। इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए हमें फकीरों की ही आवश्यकता है और मैं आशा करता हूँ कि इसमें आपका नगर अगुआई करेगा।' यहाँ गाँधी ने कांग्रेस के निश्चित किए गए तीन कामों की सार्वजनिक घोषणा की-एक करोड़ सदस्य बनाना, तिलकस्वराज्य कोष के लिए एक करोड़ रुपए इकट्ठा करना और भारत के घरों में बीस लाख चर्खे चलवाना। लेकिन गाँधी ने इस बात पर खेद प्रकट किया कि 'प्रयाग से तिलक-फण्ड में अभी काफी चन्दा जमा नहीं हुआ है। यदि हर आदमी दो-दो पैसे भी दे तो इलाहाबाद का हिस्सा काफी हद तक पूरा हो जाएगा।' उन्होंने इस अवसर पर आंदोलन को हर हालात में अहिंसक बनाए रखने और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया।


    फिर १० अगस्त १९२१ की सुबह गाँधी नौवीं बार इलाहाबाद पहुँचे। सबसे पहले उन्होंने महिलाओं की सभा में भाषण दिया और उनसे विदेशी वस्त्र त्याग कर खादी पहनने और चरखा चलाने की अपील की।


    इसी दिन शाम को स्वराज्य-सभा के मैदान में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें दस हजार से ज्यादा लोग सम्मिलित थे और अध्यक्षता पं. मोती लाल नेहरू ने की। गाँधी जी ने पहले भाषण दिया, फिर विदेशी वस्त्रों में आग लगाई। इसमें मो. मुहम्मद अली और श्री स्टोक्स ने भी भाषण दिए। गाँधी जी ने उपस्थित जन समूह को संबोधित करते हुए कहा कि 'मैं उन कार्यकर्ताओं को बधाई देता हूँ जो जेल गए हैं किन्तु उनके जेल जाने से हमारे स्वराज्य के कार्य में ढिलाई नहीं आनी चाहिए। यदि आप इसी वर्ष स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको जेल और मृत्यु का भय छोड़ देना चाहिए, बल्कि अनुभव करना चाहिए कि निर्दोष व्यक्ति की प्रत्येक जेल यात्रा और मृत्यु स्वराज्य को अधिकाधिक निकट ले आती है। जब तक आप ऐसा अनुभव नहीं करते तब तक मैं समझूगा कि आप अहिंसा और असहयोग के अर्थ को भलीभाँति नहीं समझ सके हैं। असहयोग का अर्थ निष्क्रिय बैठे रहना नहीं है।'


    उन्होंने व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि 'संयुक्त प्रांत की सरकार पंजाब सरकार से कहीं अधिक चालाक है। उसने बड़े-बड़े नेताओं को नहीं छुआ, क्योंकि उसे डर था कि उनकी गिरफ्तारी से प्रांत में अशान्ति फैल जाएगी, किन्तु वह छोटे बालकों को कालकोठरी में बंद करने की सजा दे रही है। यह दमन का भयानक तरीका है। किसानों पर भी दबाव डाला जा रहा है तथा असहयोग-आन्दोलन से अलग रहने को मजबूर किया जा रहा है। फिर भी मैं चाहता हूँ कि आपमें शांति की भावना का प्रसार हो। सरकार लोगों को जेल में डाले या गोली से मारे तब भी आपको सरकारी अधिकारियों को बुरा-भला न कहना चाहिए, न उनका सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए। जब आप अपने ऊपर इतना नियंत्रण प्राप्त कर लेंगे तब समझिए कि स्वराज्य आपका है। किन्तु ऐसा तब तक संभव नहीं जब तक कि हिन्दू और मुसलमान एक नहीं हो जाते।'


    इसके बाद उन्होंने एकत्रित किए गए विदेशी वस्त्रों की ढेर में आग लगाई और सबसे अपील की कि स्वदेशी अपनाएं, विदेशी वस्त्र का त्याग करें और चरखा चलाएं। अन्त में उन्होंने आशा प्रकट की कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं इस दिशा में अधिक कार्य करेंगी। उनकी पुकार पर हजारों महिलाएं घरों से निकल आईं और कांग्रेस में काम करने के लिए शामिल हो गईं। कमला नेहरू उनमें आगे-आगे थीं।


    गाँधी ने खादी के लिए पूरे संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) का व्यापक दौरा (११ सितम्बर १९२९ से २४ नवम्बर १९२९ तक) किया था, इसी क्रम में वह १५, १६, १७ और १८ नवम्बर १९२९ को इलाहाबाद में रहे, सभाओं में भाषण दिया, खादी का संदेश सुनाया और खादी कोष के लिए रुपए एकत्र किए तथा जनता में नया जोश भरा।


    सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गाँधी जी ४ मई, १९३० को गिरफ्तार कर लिए गए और ३० जून १९३० को कांग्रेस के स्थानापन्न अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू भी गिरफ्तार कर लिए गए। २६ जनवरी १९३१ को गाँधी जी लार्ड इरविन के आदेश पर यरवडा जेल से रिहा कर दिए गए। मोतीलाल नेहरू की तबीयत जेल में ज्यादा बिगड़ गई। उनके स्वास्थ्य की चिंताजनक स्थिति को देखते हुए उन्हें ८ सितम्बर १९३० को रिहा कर दिया गया, पर बाहर आने पर उनकी तबीयत और ज्यादा खराब होती गई। इस समाचार को सुनकर गाँधी जी दो फरवरी १९३१ को इलाहाबाद आ गए। ट्रेन देर रात को पहुँची, तब भी उनकी प्रतीक्षा में मोतीलाल नेहरू जग रहे थे। मोतीलाल जी को बीमार देखकर गाँधी जी ने कहा कि 'यदि आप इस खतरे को पार कर गए तो हम निश्चय ही स्वराज्य प्राप्त कर लेंगे।' मोतीलाल नेहरू ने हृदय स्पर्शी उत्तर देते हुए कहा कि 'महात्मा जी, मैं तो शीघ्र ही जा रहा हूँ और मैं स्वराज्य को देखने के लिए यहाँ नहीं रहूँगा। किन्तु मैं जानता हूँ, आपने उसे जीत लिया है, और शीघ्र ही उसे प्राप्त भी कर लेंगे।'


    गाँधी जी का विचार था कि कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक बम्बई में हो। यह जानकर मोतीलाल नेहरू ने अत्यंत करुणापूर्ण शब्दों में कहा कि 'भारत के भाग्य का निर्णय स्वराज्य-भवन में करो। मेरे सामने करो और मेरी मातृभूमि के अंतिम सम्मानपूर्ण समझौते में मुझे भी भाग लेने दो।' मोतीलाल नेहरू की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वराज्य भवन में ही कार्यकारिणी की बैठक हुई और अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद मोतीलाल नेहरू उसमें शामिल हुए। गाँधी जी लगातार उनके स्वास्थ्य पर नजर हुए थे। चिकित्सकों ने एक्सरे करवाने की सलाह दी, पर उस समय इलाहाबद में एक्सरे की कोई वयवस्था न थी, लिहाजा मोती लाल जी को मोटर से लेकर गाँधी जी और जवाहरलाल जी लखनऊ चले गए। लेकिन तबीयत बिगड़ती चली गई और एक्सरे करवाना संभव न हो सका। ६ फरवरी की सुबह ६ बजकर ४० मिनट पर मोतीलाल जी का शरीरांत हो गया। लखनऊ से उनका शव लेकर गाँधी और नेहरू इलाहाबाद आ गए, हजारों जनता की उपस्थिति में मोतीलाल नेहरू की अंत्येष्टि संगम तट पर की गई। संध्या का अंधकार गंगा-तट पर धीरे-धीरे फैल रहा था और चिता की ऊँची-ऊँची लपटें कर्मठ शरीर को भस्म करने पर आमादा थीं। गाँधी जी ने छोटा-सा हृदयस्पर्शी भाषण देते हुए चिता की ओर ऊँगली उठाकर कहा कि 'यह चिता नहीं, राष्ट्रयज्ञ का हवन-कुण्ड है।' इस समय जमना लाल बजाज, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और सरदार वल्लभ भाई पटेल सरीखी शख्सीयतें अश्रुबूंद गिराकर अपने नेता का तर्पण करती जान पड़ती थीं। इधर पं. जवाहर लाल नेहरू ने लिखा कि 'माँ को और मुझे हजारों सहानुभूति के संदेश मिले। लार्ड और लेडी इर्विन ने माँ को एक सौजन्यपूर्ण संदेश भेजा। इस बहुत भारी सद्भावना और सहानुभूति ने हमारे दु:ख और शोक की तीव्रता को कम कर दिया था। लेकिन सबसे ज्यादा और आश्चर्यजनक शांति और सांत्वना तो मिली गाँधीजी के वहाँ मौजूद रहने से, जिससे माँ को और हम सब लोगों को जीवन के इस संकट-काल का सामना करने का बल मिला।'


    गाँधी जी १६ फरवरी १९३१ तक लगातार इलाहाबाद में बने रहे, क्योंकि मोतीलाल नेहरू के बाद अब वही घर (स्वराज भवन) बुजुर्ग-अभिभावक हो गए थे। जवाहर लाल नेहरू ने स्वयं इस धड़कन को महसूस करते हुए कहा कि 'गाँधी जी ताजा हवा के एक जबरदस्त झोंके की तरह थे जो हमें अंगड़ाई लेकर गहरी साँसें लेने पर प्रोत्साहित करते थे।और पं. नेहरू ने यह भी कहा कि 'अंधेरों को चीर देने वाली रोशनी की महान किरण की तरह थे वह जिसने हम लोगों की आंखों पर पड़े परदों को उतार दिया और एक तूफान की तरह बहुत-सी चीजों को उथल-पुथल कर दिया, विशेषकर हमारे मस्तिष्क की कार्यशैली को।'


    १६ फरवरी को ही गाँधी जी लॉर्ड इरविन से मिलने दिल्ली चले गए और १७ फरवरी को इरविन से घंटों बातचीत की। कई दिनों की बातचीत के बाद ५ मार्च को गाँधी-इरविन समझौता हुआ।


    सन् १९३९ में ब्रिटिश सरकार से कोई संतोषजनक समझौता न हो पाने की स्थिति में कांग्रेस ने सत्याग्रह चलाने के सारे अधिकार गाँधी जी को सौंप दिए। इसी दौरान गाँधी जी १७ नवम्बर १९३९ को इलाहाबाद आए और २३ नवम्बर १९३९ तक यहीं बने रहे। इस दौरान यहीं भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई और कांग्रेस कार्यसमिति तथा अन्य नेताओं की कई महत्वपूर्ण बैठकें लगातार हुईं। गाँधी जी इन सबमें प्रायः शामिल रहे और अपने महत्वपूर्ण सुझावों से कांग्रेस का मार्गदर्शन करते रहे। इस क्रम में उन्होंने तमाम नेताओं के मन में उत्पन्न बहुत से प्रश्नों और शंकाओं के समाधान किए। सप्ताह भर इलाहाबाद रुकने का मन बनाकर वह आए ही थे। पं. जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर उन्होंने अपनी राय दी थी। सेवाग्राम, वर्धा से (१४ नवम्बर १९३९) पत्र लिखकर पं. जवाहर लाल नेहरू से उन्होंने कहा था कि 'अगर इलाहाबाद में तुम्हें मेरी ज्यादा दिन जरूरत हो तो मुझे रख लेना।'


    इलाहाबाद की अपनी इस बारहवीं यात्रा के दौरान गाँधी जी ने १९ नवम्बर १९३९ को कमला नेहरू अस्पताल का शिलान्यास किया और इस अवसर पर उपस्थित लोगों को संबोधित किया1


    अंतिम बार गाँधी जी २८ फरवरी १९४१ को इलाहाबाद आए और उन्होंने इस कमला नेहरू अस्पताल का उद्घाटन किया। उद्घाटन समारोह में पं. मदनमोहन मालवीय, पं. जवाहर लाल नेहरू आदि की उपस्थिति में उन्होंने इलाहाबाद की जनता को संबोधित किया और स्व. कमला नेहरू के समर्पण, देश-सेवा, त्याग एवं बलिदान का स्मरण किया, साथ ही उन्होंने आशा प्रकट की कि 'कमला नेहरू की स्मृति में बना यह अस्पताल उसी प्रेरणा से दुखी मानवता की सेवा करता रहेगा।'


    इसके बाद गाँधी जी फिर इलाहाबाद नहीं आए, अस्थियाँ आईं। हाँ, १९४१ से १९४८ (जनवरी) के बीच चिट्ठियां अवश्य आती रहीं। पं. जवाहर लाल नेहरू ने इंदिरा- फिरोज गांधी के विवाहोत्सव (२६ मार्च १९४२) में शामिल होकर आशीर्वचन देने के लिए गाँधी जी को निमंत्रण पत्र भेजा था। गाँधी इसमें सम्मिलित होने इलाहाबाद तो नहीं पहुँचे पर यह संदेश अवश्य पहुँचा- 'इंदू की शादी के बारे में मेरी तो पक्की राय है कि बाहर से किसी को न बुलाया जाए। इलाहाबाद में जो हैं उनमें से साक्षी के रूप में भले कुछ लोगों को बुलाया जाए। लग्न पत्रिका दिल चाहे इतनी भेजो। सबसे आशीर्वाद मंगाओ। लेकिन पत्रिका में साफ लिखना कि खासकर किसी को आने की तकलीफ नहीं दी गई है। इंदू इतनी सादगी तक जाना चाहती है या नहीं, यह सोचना होगा। तुम भी शायद इतनी सादगी तक जाना पसंद न करो तो मेरी राय फेंक देना।'


    सन् १९४२ आते-आते वह यात्रा करने में कठिनाई महसूस करने लगे थे। तमाम लोग चाहते थे कि वह विभिन्न मुद्दों पर मार्गदर्शन के लिए इलाहाबाद लगातार आएं पर उन्होंने अपनी लाचारी प्रकट की। २४ अप्रैल १९४२ को (वर्धा से) पत्र लिखकर पं. नेहरू को उन्होंने बताया कि 'मीरा बहन ने मान लिया कि मुझे कुछ-न-कुछ कदम उठाना होगा और उसे कुरबानी करनी होगीमैं इलाहाबाद न जाऊँ तो भी वह जाना चाहती थी। इसलिए मैंने उसे वर्धा बुला लिया। ...मौलाना साहब का आग्रह था कि मैं इलाहाबाद जाऊँमैंने लाचारी बताई। इन दिनों में मुसाफिरी करना मेरे लिए कठिन बात है।'


    गाँधी जी इलाहाबाद की पत्र-पत्रिकाओं पर भी लगातार नज़र रखते थे। इलाहाबाद के साहित्यकारों से उनका संवाद और विवाद भी खूब चर्चा में रहा। महादेवी वर्मा से उनके संवाद जितने चर्चा में रहे उससे ज्यादा निराला से उनके विवाद की चर्चा रही है। गाँधी ने इलाहाबाद के साहित्य को अपनी वैचारिकी से प्रभावित किया था, पर इलाहाबाद के साहित्य ने उनकी वैचारिकी को अत्यंत विवेक के साथ देखा, स्वीकारा या अस्वीकारा। गाँधी जी ने दो बार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन (इलाहाबाद से बाहर) का सभापतित्य भी किया था और हिन्दी संबंधी अपने मतों से पूरे देश को अवगत कराया था।


    इलाहाबाद के कवि रामनरेश त्रिपाठी ने सन् १९२० में 'गाँधी जी कौन हैं' नाम का एक पैम्फेलेट लिखकर पाँच हजार प्रतियां छपवाई थीं और उन्हें लागत दाम पर या मुफ्त वितरित करवाया था। गाँधी जी के असहयोग, सत्याग्रह और उनके तपस्वी जीवन के विभिन्न प्रसंगों को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस पुस्तिका की पाँच हजार प्रतियाँ हाथों-हाथ निकल गईं, पुनः पाँच हजार प्रतियां छपवाई गईं। राम नरेश त्रिपाठी के खंड काव्य 'पथिक' के वास्तविक 'पथिक' गाँधी ही थे। बकौल रामनरेश त्रिपाठी '१९२० ही में मैं रामेश्वरम् की यात्रा पर दक्षिण गया। उन दिनों गाँधी जी भारत के जागरण में सर्वत्र व्याप्त हो गए थे। यात्रा से लौटने पर मुझे ऐसा लगा कि सत्य और अहिंसा द्वारा भारत को स्वतंत्र करने के गांधी जी के प्रयोग का एक बोझ सा मैं सिर पर लाद लाया हूँ। उसे मैंने ३१ दिनों तक एकाग्र मन से बैठकर 'पथिक' नामक खंडकाव्य मेंं उतार डाला । पथिक  को बड़ी प्रतिष्ठा मिली। सबसे अद्भुत बात उसमें यह हुई कि पथिक के जीवन का भविष्य गाँधी जी के लिए भविष्यवाणी सा हुआगाँधी जी ही पथिक थे। गुजरात विद्यापीठ के एक हिंदी अध्यापक 'पथिक' का शब्दश: अर्थ समझाने के लिए नियुक्त किए गए थेइस तरह गाँधी जी ने सात महीने में 'पथिक' को पढ़कर पूरा किया था।


    इलाहाबाद प्रवास के दौरान गाँधी जी को एक बार इलाहाबाद की तहसील हंडिया के सदर मुकाम पर एक सभा में भाषण देने जाना था। उनकी मोटर दारागंज के नीचे झूसी के पुल तक पहुँचकर रुक गई, क्योंकि पुल की मरम्मत हो रही थी और मोटर के गुजरने के लिए रास्ता बनाया जा रहा था। उनके पीछे मदन मोहन मालवीय थे, उनकी मोटर भी वहीं रुक गई। कालाकांकर के राजा अवधेश सिंह भी वहीं जा रहे थे, उनकी मोटर भी रुक गई। इसी मोटर में रामनरेश त्रिपाठी भी थे, कार से उतरकर वह गाँधी जी के पास गएगाँधी ने उन्हें देखते ही कहा 'देखो, तुमको डायबिटीज की बीमारी है, उसकी दवा मेरे पास है।' रामनरेश त्रिपाठी ने कहा कि 'आपके पास तो उपवास ही दवा है।' गाँधी जी ने अत्यंत दृढ़ता से कहा कि - 'हाँ, हाँ, तुम सात दिन उपवास कर लो तो मैं लिख कर दे सकता हूँ कि तुम्हारी उम्र दस वर्ष बढ़ जाएगी। निकट ही खड़े मालवीय जी ने तब से हँसकर कहा- 'रामनरेश जी इनकी बात नहीं मानना, नहीं तो हड्डियों का ढाँचा ही रह जाओगे।' गाँधी जी ने मुस्कराकर तत्काल कहा कि 'तब तो तुम हीरे मोती का भस्म खाओ।' असल में गाँधी की इस व्यंग्योक्ति के पीछे का राज यह था कि सन् १९२८ में जब ग्रामगीतों पर रामनरेश त्रिपाठी की पुस्तक 'कविता कौमुदी ग्रामगीत' प्रकाशित हुई थी, तब इसे गाँधी ने मेरठ से प्राप्त कर पढ़ लिया था। इसकी भूमिका में त्रिपाठी जी की लिखी यह बात गाँधी को याद थी कि 'ग्रामगीतों के संग्रह में अधिक गुड़ खाने से मुझे डायबिटीज हो गई।'


    गांधी जी समय के सबसे बड़े सर्वेक्षक थे। उनका मिनट-मिनट पर कार्यक्रम निर्धारित होता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यापक डॉ. रामकुमार वर्मा सन् १९३७ में गाँधी जी से मिलने सेवाग्राम, वर्धा गए। डॉ. वर्मा को गाँधी से मिलने के लिए निजी सचिव द्वारा प्रातः ८:३० बजे का समय निश्चित किया गया। डॉ. वर्मा को निर्धारित समय से दस मिनट का विलंब हो गया और गाँधी जी अपना दूसरा कार्यक्रम करने लगे। फिर भी उन्होंने डॉ. वर्मा को सामने बैठाया और श्रीमन्नारायण ने परिचय दिया कि डॉ. राम कुमार वर्मा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और असहयोग आंदोलन में सन् १९२१ में स्कूल छोड़ दिए थे। गाँधी जी ने रामकुमार जी को प्रोफेसर होने पर बधाई दी, लेकिन अपनी धोती की पट्टी से घड़ी निकालकर कहा, 'प्रोफेसर को दस मिनट की देर हो गई।' उन्होंने जोर देकर कहा कि 'जब प्रोफेसर को दस मिनट की देर होती है तो उसके विद्यार्थी को दस घंटे की देर होती है। जब विद्यार्थी को दस घंटे की देर होती है तो समाज को दस महीने की देर होती है, जब समाज को दस महीने की देर होती है, तब देश दस वर्ष पीछे चला जाता है। प्रोफेसर की दस मिनट की देरी देश को दस वर्ष पीछे ले जाती है।' गाँधी ने डॉ. रामकुमार वर्मा से व्यंग्य में पूछा कि 'ये बात ठीक है न प्रोफेसर साहब?' रामकुमार जी ने देर के लिए क्षमा मांगी तो गाँधी ने कहा कि 'विदेशों में जिन देशों ने प्रगति की है, उन्होंने समय की गति को पहचाना है।'


    गाँधी ने समय की गति को सदैव पहचाना। यूँ तो वे तेरह बार में तकरीबन छियालीस दिन ही इलाहाबाद में रहे, पर उनकी स्मृतियाँ और उनके विचारों का फैलाव आज भी इलाहाबाद के परिवेश में विन्यस्त है। 'आनंद भवन' में उनके रुकने का कमरा, कमरे के अंदर पड़ी खाट और लाठी अपनी साधारणता में असाधारणता के प्रतीक हैं।


 


संदर्भ एवं टिप्पणियां


1.  सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, मोहनदास करमचन्द गांधी, अनुवादक : महावीर प्रसाद पोद्दार, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण २०१४


2.  महात्मा गांधी : एक जीवनी, बी.आर.नन्दा, अनुवादक - श्याम संन्यासी, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण २०१७


3.  गांधी की कहानी, लुई फिशर, अनुवादक - चंद्रगुप्त वार्ष्णेय, सत्ता साहित्य मंडल प्राशन, नई दिल्ली, संस्करण २०१९


4.  प्रयागराज और कुम्भ, कुमार निर्मलेन्दु, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, प्रथम संस्करण - २०१४


5.  दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, मोहनदास करमचंद गांधी, अनुवादक : कालिका प्रसाद, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण २०११


6.  मेरी कहानी, जवाहर लाल नेहरू, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण २०१८


7.  महात्मा गांधी : साहित्यकारों की दृष्टि में, सं. डॉ. आरसु, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण २०१५


8.  प्रार्थना-प्रवचन, महात्मा गांधी, राजकमल प्रकाशन, रज़ा पुस्तक माला, पहला संस्करण १९४८, पहला राजकमल संस्करण-२०१८


9.  चंपारन आंदोलन : १९१७, संपादन : आशुतोष पार्थेश्वर, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण २०१७


10, महात्मा गांधी के पत्र - जवाहर लाल नेहरू के नाम, संकलनसंपादन-कृष्णदत्त पालीवाल, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २०१४


11.  आनन्द भवन : स्वराज भवन, इलाहाबाद, जवाहर लाल नेहरू स्मारक निधि, तीन मूर्ति भवन, नई दिल्ली, २०१४


12.  इलाहाबाद का गजेटियर तथा संग्रहालय की गाँधी वीथिका


13.इलाहाबाद संग्रहालय और आनंद भवन में लगे रहे एक चित्र में 'गाँधी जी, राजेन्द्र प्रसाद और अन्य नेता' कार्यसमति की बैठक कर रहे हैं, जिसके नीचे कैप्शन में इस बैठक की तिथि जनवरी १९४० बताई गई है। लेकिन कार्यसमिति की बैठकों के दस्तावेज इसकी पुष्टि नहीं करते। संभव है यह फोटो किसी अन्य तिथि की बैठक की हो। इसलिए इस आलेख मं जनवरी १९४० में गाँधी जी के इलाहाबाद में रहने की चर्चा नहीं की गई है। कोई मजबूत साक्ष्य मिलने पर इस तिथि पर चर्चा की जाएगी। बहरहाल यह मत स्थिर किया जा सकता है कि गाँधी जी जिन तिथियों पर तेरह बार इलाहाबाद आए उनमें जनवरी १९४० की तिथि शामिल नहीं है।