कविता - बसंत- अनिता रश्मि 



कविता - बसंत- अनिता रश्मि 

 

बसंत

 

उसकी दुधिया हँसी 

और फेनिल बातों में 

छिपी है बसंत की 

मीठी गुनगुनाहट 

उसकी प्यारी गदबदी 

उपस्थिति ने रंग डाले 

 लाल सारे पलाश

पहना दिए विटपों को 

झबले फूलों के 

उसकी कोमल हथेलियों में 

बसंत ने रचा भविष्य 

पतझड़ की छाती पर 

रखकर पैर 

कभी चुपके से 

कभी खुलकर

उसके आँगन में 

उतर आता है 

अनगिन बसंत 

खोल डालता है 

अपने राज 

राग और विराग

बासंती हवा जब - जब 

कर डालती है 

उसके कपोलों को

लाल गुलनार 

तब-तब मौसम की 

इस मेहरबानी का 

कायल होना ही पड़ता है 

मुझे, हमें, तुम्हें, उन्हें। 

 

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कविता -चाहत- अनिता रश्मि 

 

चाहत

 

सुनहरी धूप 

रूपहली चाँदनी 

हवाओं का 

मदिर-मदिर स्पंदन 

फूलों की दहकती क्यारियाँ 

बादलों की नीली किलकारियाँ

खेतों में सरसों का फूलना 

साँसों में चंदन का घुलना 

मौसम का जग पड़ा राग 

थरती ने पा लिया सुहाग 

कलियों ने चटकना सीखा 

प्रकृति ने सुरमई

गीत लिखा 

हवाओं में 

घुल गई रंगीनियाँ

उत्सवों की हँसी ने

लो फिर संगीत लिखा

 

ये सब की सब

हमारे लिए ही तो हैं

ये खूबसूरत रातें

ये प्यारे-प्यारे दिन 

जी चाहता है 

रख लें सहेज इन्हें 

अपने नन्हें से आँचल में 

लें, कचनार से बीन।

 

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